कांकेर यानी उत्तर
बस्तर का दर्द
आप इस स्वतंत्र देश के आदिवासी को पचास से साथ
किलोमीटर दूर वोट डालने जाने के लिए मजबूर कर देते है जिसे आपने नागरिक होने के
नाम पर एक भी सुविधा नहीं दी बल्कि उससे शिक्षा छीन ली, स्वास्थ्य सुविधाएं छीन
ली, उसके ब्लाक के सारे दफ्तर अघोषित रूप से उठा ले गए और उन सभी दफ्तरों को सौ
किलोमीटर दूर स्थापित कर दिया जहां दफ्तरों के नाम भी बोर्ड पर नहीं लिखे है ऐसे
में बताईये कि क्यों कोई अपने आप को इस देश का नागरिक माने??? दूसरा आप देखेंगे कि
यहाँ जहां जहां युरेनियम या लौह अयस्क मिलाने की संभावना है वहाँ वहाँ फौज तैनात
की जा रही है, गाँवों से आदिवासियों को भयानक तरीके से विस्थापित किया जा रहा है
और धीरे धीरे अक्रके सारी सुविधाएं ख़त्म कर दी गयी ऐसे में आप किसके लिए क्या कर
रहे है और क्या नौटंकी दुनिया को दिखा रहे है यह चिंतनीय है. रोज आप ग्रामीण स्तर
पर काम करने वाले कर्मचारियों की निष्ठा पर सवाल उठाते है, और उन्हें काम नहीं
करने देते. किसी भी गरीब को पकड़कर एसपी जेल में डाल देते है और फिर चार पांच दिनों बाद पत्रकार वार्ता बुलाकर नक्सली बनाकर
पेश कर देते है और दो-दो लाख का इनाम बताकर अपना राष्ट्रपति पुरस्कार सुरक्षित कर
लेते है. इस खेल में जिला कलेक्टर की भूमिका भी होती है जो जोश में पता नहीं क्या
क्या करते रहते है. यह सब क्या है. आज भी मै कई ऐसे गाँवों के नाम आपको बता सकता
हूँ जहां से सारे युवाओं को सरकार ने अपनी दमनकारी नीती के तहत जेल में बंद कर रखा है क्योकि उनका सिर्फ एक ही कसूर है कि
वे विस्थापित नहीं होना चाहते.
हाँ यदि आप राशन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की
बात करेंगे तो आपकी बात सरकार सुने शायद पर जहां आप विस्थापन, जल जंगल जमीन की बात
करेंगे तो आप नक्सलवादी है यह सीधा सा गणित है. आज कांकेर में जहां आदिवासे
बस्तियां है वहाँ फिर से संगठन की बात सुनाई दे रही है हालांकि यह भी सच है कि
आदिवासियों को संगठित करना बहुत सरल है क्योकि उन्हें सिर्फ विश्वास में लेना है
और बात करना है इसलिए यहाँ एक जमाने में एनजीओ भी सफल थे परन्तु आज हालात बदले है
एनजीओ ने अपना मुंह बंद कर रखा है या वे सिर्फ सरकार के कार्यक्रमों की डूगडूगी
पीट रहे है या चुप बैठे है जानबूझकर पर संगठन बनाना आज सरल है. इसी के चलते सलवाजूडूम
भी खडा किया गया था जिसमे बहुत नुकसान हुआ और नतीजा सारे देश ने देखा. असली समस्या
यह है कि पिछले बारह सालों में नौ लाख हेक्टेयर वह भूमि ख़त्म कर दी गयी जहां
आदिवासी या किसान एक साल में तीन-तीन फसलें लेते थे अब वह भूमि या तो भू माफियाओं
के कब्जे में है या उद्योगपतियों के पास है यह सिर्फ पहाडी नहीं बल्कि मैदानी
इलाकों में भी हुआ है.
दुनियाभर से लोग आते है कम करते है पर हम जैसे
पत्रकार जो यहाँ जमीन पर विकट परिस्थितियों में काम करते है, को प्रशासन इतना
धमकाता है, पिटवाता है लोहे की छड़ों से और लेपटोप, कैमरे तोड़ देता है कि बस, घर से
तक विस्थापित कर दिया जाता है और तो और हमारे अखबार के मालिक अंत में हमपर दबाव
बनाते है कि समझौता कर लो हमारे ना करने पर वे कह देते है कि यह हमारा अधिकृत प्रतिनिधि
नहीं है. कितना दुःख होता है पर हम फिर भी लगे है और काम कर रहे है. हम लोग आर्थिक
तंगी में रहकर काम करते है, हमेशा डंडा बना रहता है, तलवार लटकी रहती है पता नहीं
कसी दिन हमें बम के साथ गिरफ्तार होने की खबर बन जाए.
सोशल मीडिया की भूमिका से हम आशान्वित है और अगर
वेब अखबार पत्रिकाएं या फेसबुक जैसे माध्यम नहीं होते तो हम आत्महत्या ही कर लेते,
पिछले दस बरसों में माहौल बहुत निराशाजनक हुआ है. ब्लॉग, फेसबुक और वेब अख़बारों ने
हमें फिर से अपनी बात रखने का मौका दिया है और दुनिया बहर से हमारे लिखे को सराहा जाता
है और दुनियाभर के लोग जब आते है मिलने तो अच्छा लगता है. छत्तीसगढ़ स्वर नेट जैसे
प्रयोग और बाकी संवेदनशील पत्रकारों से मदद मिल जाती है तो अच्छा लगता है. हमें
नहीं लगता कि आने वाले समय में कांग्रेस या भाजपा या वामपंथी भी इस नक्सली समस्या
का कोई सार्थक हल करना चाहते है क्योकि बाजार जिस तरह से हावी हो गया है, फौज को
तैनात करके सारे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक सुनियोजित नीती के तहत किया जा रहा
है, अबूझमाड़ के घने जंगलों में हवाई हमलों के बहाने उद्योगपतियों के लिए खदाने
खोदने का जोखिम लिया जा रहा है आदिवासियों को उजाड़कर यह निश्चित ही हम सबके लिए एक
खतरे का संकेत होना चाहिए. शहरी आबादी में एकाध ही शायद कोई सम्वेदनशील होता है पर
आज आदिवासियों की चिता किसे है, वन विभाग जंगल घेर रहा है, उन्हें संवैधानिक
अधिकार के तहत पट्टे भी नहीं दिए जा रहे है- ना व्यक्तिगत ना सामुदायिक. देश की
मीडिया को सिर्फ शहरी मुद्दे दिखाते है या चुनाव पर इसमे सब गायब है हमारे लोग
हमारे जंगल और हमारी संस्कृति. इसका कोई इलाज है किसी के पास???
यह दर्द है हमारे समय में जमीनी
हकीकतों से रोज़ रूबरू होते पत्रकार साथियों का. फेसबुक पर बने दो पत्रकार साथियों कमल शुक्ला और तामेश्वर सिन्हा से मै आज कांकेर में मिला तो लम्बी बात हुई. कमल शुक्ला और तामेश्वर सिन्हा यहाँ
के विशेषग्य पत्रकार है जिनके बड़े गहरे सरोकार है और आदिवासियों के लिए वे दिल से
लड़ भी रहे है और ठोस काम भी कर रहे है. मुझे लगा कि क्या सच में हम, हमारा
प्रशासन, हमारा तंत्र, हमारे राजनेता, और मीडिया अपने कर्तव्य निभा रहे है. सोशल
मीडिया भी खामोश है इन सब मुद्दों पर. बस इतना कहना है कि सिर्फ हंगामा खडा करना
मेरा मकसद नहीं...............
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