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सम्भावनाओं के समीकरण कभी संतुलित नहीं हो सकते




इस बीच बहुत कुछ है जो दरका है हम सब के बीच

सन्दर्भ, प्रसंग और व्याख्याएं एक अन्तराल के बाद तब निर्जीव होने लगती है जब सिद्धतम हालात, प्रत्युत्पन्नमति, अवचेतन पर उद्दाम वेग से भावनाओं का नियंत्रण अपने चरम पर नहीं होता।

इसलिए हे मन क्षमा कर दो और भूल जाओ इन सबको और चल दो उस अनंत की ओर जहां सिर्फ और सिर्फ एकात्म्निष्ठ होकर हम अपने आप को अपने आपमें विलीन करके सर्वस्म में खो जाए।

ॐ शांति ,ॐ शांति , ॐ शांति !!!

संयोग, संयम, साथ, स्वप्न, सत्यनिष्ठा,समेकन और सत्यता के सात प्रयोग जीवन में लाने के लिए लगातार प्रयासरत रहना ही एक शाश्वत और अनवरत साधना है।

इस सबके बीच से रास्ता निकालते हुए जीवन में अपने बनाये मार्ग और मूल्यों के लिए यदि सब त्यागना भी पड़े तो हे मन संकोच ना करो और उस पथ पर चलो जहां सब कुछ निर्विकार भाव से स्वीकारना पड़े और तटस्थ होकर हम सबमे रहकर सबसे निर्लिप्त रह सके।

ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति !!!
कभी जिन्दगी के बाज़ार में अपने को बेचने निकलो तो पता चलेगा कि एक कोने में जगह मिलेगी मंडी के कोने में और जब तक कोई ग्राहक आयेगा, आप का माल बासी हो जाएगा और शाम के झुटपुट में सस्ते दर पर बेचते हुए लौट कर वापिस आना होगा थके कदमों के साथ। अगर यकीन नही तो अपने सपनों में बेच कर देखिये अपने आपको

निर्मम होकर सोचने के लिए क्रूर होना पडेगा और अहितकारी निर्णय लेने होंगे। ऐसे अलभ्य और सदवाक्य रचना होंगे जो क्षणिक तो अमंगलकारी होंगे पर कालान्तर में यही अक्षर क्षरित ना होकर मार्ग प्रशस्त करेंगे - चाहे वो कविता हो, कहानी हो या अभिव्यक्ति की कोई और विधा, बल्कि जहां जीवन हो या मृत्यु का सर्ग।

सम्भावनाओं के समीकरण कभी संतुलित नहीं हो सकते

नर्मदा नदी किसी तीर सी होकर मेरे अन्दर से गुजरती है 

होशंगाबाद में नदी के पुल पर से


ये बिजलियां क्यों चमक रही है और ये बारिश 
ये शायद किसी गहरे दर्द से वाबस्ता होकर गुजरी है अभी अभी


एक अधीर जीवन के सपने को जीने की बेताबी

अब तू नही था तो मै अपने आप में ही खो गया था और अब जब तू मिल गया है तो लगता है कि मै था ही नहीं और अब सब कुछ ख़त्म हो गया है।

जीभ जैसी जिन्दगी और यायावरी सा कृत्य !!!
हे इश्वर कही तो पूरा होने दें !!!


अकेलापन, अवसाद, हताशा और तनाव- जीवन के स्थायी भाव हो गए है बस हक़ के लिए लड़ते लड़ते खुद खत्म हो जाना होगा और फिर शायद .....

ट्रेन की डायरी और जीवन यात्रा के दुखद संस्मरण


धुप में निकलो तो लगता है कि जीवन के पानी को सूरज की तप्त किरणें सब कुछ लेकर निचोड़ देंगी और आख़िरी कतरा भी नहीं बचेगा जब यह देह अपने अंतिम पड़ाव पर होंगी। एक बूँद तो रख दो हे दैदीप्त्मान !!!

आपको मुबारक तार्किकता के अभेद किले , मै अपनी कुतर्क की छोटी सी पारदर्शी पन्नी से बनी झोपडी में खुश हूँ जो खुली है और इसमे हवा आने जानी पर्याप्त जगह है जो मुझे ज़िंदा रखती है।

जीवन के कई मोड़ ऐसे होते है जहां से सिर्फ दूर तक अँधेरे कोने, बंद दरवाजे, ऊँची दीवारें, धुंधलका और "डेडएंड" ही नजर आते है। 
और दुर्भाग्य से हमें अक्सर रास्ते यही से ढूंढने पड़ते है, इसी सबमे जीवन हर बार ख़त्म भी होता है और पलटी भी मारता है।



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