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जुगुप्सा के स्थायी भाव और चुनावी विज्ञापन



जैसा देखते है वैसा करते है यह मानव स्वभाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसका फ़ायदा ही अनेक विज्ञापन कम्पनियां उठाती है और अपना माल बेचती है. विज्ञापन जाने अनजाने में हमारे मन मस्तिष्क पर कही गहरे में धंस जाते है और हम विज्ञापन के झांसे में या यूँ कहूं कि दबाव में आकर अपना व्यवहार तक बदल देते है. अगर इसी बात को ताजा हो रहे चुनाव के सन्दर्भ में देखे तो हम पायेंगे कि आजादी के सात दशक बाद सबसे महँगा ‘विज्ञापनी चुनाव’ अब होने जा रहा है और इस समय हर तरफ चुनाव के विज्ञापनों की गूँज है. एक अनुमान के अनुसार पांच हजार करोड़ का खर्च मात्र भाजपा ने उठाया है और कांग्रेस भी इससे पीछे नहीं है. पेम्फलेट, ब्रोशर, पर्चे, बैनर, बिल्ले, से लेकर अखबारी विज्ञापन और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इस समय विज्ञापनों की बाढ़ है. अगर थोडा गौर से देखे तो हम पायेंगे कि इस बार इस दौड़ में भाजपा बहुत पहले से विज्ञापन कर रही थी मोदी को पोज करके चाहे वो गोवा का अधिवेशन हो जिसमे आडवानीजी को हटाकर मोदीजी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाना और फिर हर जगह से मोदी-मोदी की गूँज को देश के हर कोने में पहुंचाना. चुनाव की आहट होने से पहले मोदीजी ने चुनाव अभियान शुरू कर दिया था, आतंरिक कलह के बहाने भाजपा मोदी की छबि को बनाने का तो काम कर ही रही थी, साथ ही साथ कांग्रेस पर आक्रामक तरीके सुनियोजित वार भी किये जाने लगे थे. इस सबमे जातिवादी समीकरण, मुस्लिमों को कोसने के साथ मोदी की उदार छबि को भी निरुपित किया जाने लगा था, गुजरात मॉडल का नुस्खा देश बदलने के लिए कारगर होगा यह बात भी दूर दराज तक पहुंचाई जा रही थी. ठीक इसके विपरीत कांग्रेस ने जानते बूझते हुए भी कोई स्पष्ट नीती नहीं अपनाई, बस अपने आठ फ्लेगशिप कार्यक्रमों का जिक्र करके मीडिया में पृष्ठ भर के विज्ञापन दिए जिसमे रोजगार योजना से लेकर समग्र स्वच्छता अभियान, महिला बाल विकास, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, किसानों के लिए खेती के लिए किये प्रयासों का दस साला विवरण था पर यह बहुत “आय केचिंग” विज्ञापन नहीं थे. कांग्रेस जान रही थी कि कुछ कहने को है नहीं और दस साला कामों को इस समय भुनाना बहुत मुश्किल है, महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है. पर एक बात निश्चित ही तारीफ़ की थी कि किसी कांग्रेसी नेता ने आक्रामक और विध्वन्सक भाषा का प्रयोग नहीं किया. इस बीच ‘आप’ के अपने कामों और हडबडाहट की वजह से जो मीडिया कवरेज मिला वह ठीक ठाक ही था हालांकि अरविंद केजरीवाल ने भी अशालीन होकर कभी भाषण नहीं दिए. परन्तु चुनाव घोषित होने के बाद और जैसे-जैसे तारीख नजदीक आती गयी, भाषणों का स्वर तीखा होता गया - खासकरके जिस तरह से सीधे पार्टियों और व्यक्तिगत मसलों, परिवारों पर भाजपा का आक्रामक स्वरुप उभरा, वह आखिर कांग्रेस या क्षेत्रीय पार्टियों को कब तक बांधे रखता, सभी ने फिर एक स्वर में हमले तेज किये, इससे पूरा वातावरण खराब हुआ. कांग्रेस ने शायद तय रणनीती के अनुसार अपने बाण छुपाकर रखे थे पर अब राहुल गांधी या सोनिया गांधी भी तेज़ स्वरों में मोदी और भाजपा या क्षेत्रीय पार्टियों पर तीखे हमले कर रहे है. अब जिस तरह का माहौल उभरा है वह इतना खराब और कलुषित हो गया है कि लोकसभा में जब सांसद जीतकर जायेंगे और पास-पास बैठेंगे तो उनमे मेल-मिलाप में कितना समय लगेगा, यह कहना मुश्किल है क्योकि जिस तरह की भाषा का प्रयोग, इतिहास  का मखौल उड़ाया गया है और पारिवारिक उदाहरणों को देकर व्यक्तिगत छिछालेदारी की गयी है उससे एक स्वस्थ लोकतंत्र में मूल्य और सिद्धांतों की हार हुई है और जो दूरी बढी है उसे पाट पाने में शायद पांच साल लग जाए. जबकि आने वाले पांच सालों में देश को एक नई करवट लेनी है अपना भविष्य तय करना है, समस्याएं मुंह बाए खडी है, घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दें है जिनपर सबका सहयोग जरुरी होगा. सवाल यह है कि विज्ञापन का चुनाव के सन्दर्भ में क्या मतलब है और इस पुरे शो के पंडित बता पायेंगे कि किसको कितना संयम रखना चाहिए और जो प्रचार-प्रसार और विज्ञापन के लिए भाषा और माध्यम इस्तेमाल किये जाते है उनकी भाषा और प्रतीक क्या हो, इसके साथ ही भाषणों और मुख मुद्रा का भी संयमित प्रयोग किया जाना चाहिए. चुनाव के माहौल में विज्ञापन कंपनियों ने आने वाले दस सालों की संपदा तो इकठ्ठा कर ली परन्तु आज के संदर्भ में जो कुछ हुआ या हो रहा है वह बेहद निंदनीय है और इस तरह से मन के कोने में ये सब धंस तो गया है, परन्तु एक मधुर स्मृति की तरह नहीं बल्कि जुगुप्सा के स्थायी भाव के साथ. 

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