साल भर की सीख
१ अतीत को भूल जाओ, हम सबके अतीत में कीचड़ के सिवा कुछ नहीं, वो जो बड़े है - वो कीचड़ से सने है और जो छोटे है - कीचड़ से अटे है, बेहतर है अतीत का ना गुणगान सुनो, ना कहो और ना ही याद रखो
२ जीवन एक ही है, पण्डो पुजारियों, मौलवियों, फादर्स और गुरुओं ने पिछले और अगले जन्म की बात की है, स्वर्ग - नर्क की कपोल कल्पना को थोपा है ,सब भूलकर जिंदगी का आज जियो और अभी, बाकी जीवन अनिश्चित है
३ जिंदगी में असफल होने, बदनाम होने, अकर्मण्य होने या अकेले होने से मत डरो, यह सब वे ही भोग सकते है - जो अलग है और बेहतर है, सबके समान होने में कोई नयापन नहीं है, अलग होना ही और भीड़ से अलग रहना ही चुनौती है और अक्सर बहादुर लोग ही इस गली में आते है
४ असफल होने का अर्थ जीवन में सब कुछ खत्म हो जाना नहीं है, आपकी असफलता ही दूसरों की सफलता है, सबसे नीचे वाली सीढ़ी ना हो तो शिखर एक झटके ढह जाएगा, नींव मजबूत ना हो तो कोई भी कलश शिखर पर स्थापित नहीं हो सकेगा, असफल लोग ही सफलता को स्थापित करके नए सोपान बनाते है
५ अपने आप पर विश्वास रखें - भले ही आप सबके साथ अपनी नज़र में भी एक समय के बाद किसी मोड़ पर गलत साबित हो जाएं, पर यह ध्यान रखिए कि सही - गलत कुछ होता नहीं, कोई भी यह तय नहीं कर सकता और ये सिर्फ सापेक्षता की बातें है - इसलिए अपने आप पर विश्वास रखें और वहीं करें - जो आपको भाता है और आप कर सकते है
६ आपको जीवन में माता-पिता से लेकर बंधु-बांधव, कुनबा और दोस्तों के समूह - समाज मिलता है, पर आपको यह ध्यान रखना होगा कि आपका साथ सिर्फ आप ही निभा सकते है, सबसे मिलकर रहिए - क्योंकि साठ-सत्तर साल तक के जीवन में हर पल आपको दूसरों की जरूरत पड़ती है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आप पूर्णतया किसी पर निर्भर हो जाएं, सिर्फ अपने आपसे बातें करके अपनी जरूरतों को न्यूनतम करते जाइए - ताकि निर्भरता खत्म हो जाएं और आप स्वयं में सक्षम होकर सुकून से जी सकें, यह याद रखिए कि दिनभर नाराज रहो, झगड़ा करो - पर सूर्यास्त के समय सब भूल जाओ और रात का खाना सब एकसाथ टेबल पर खाओ
७ अपने आपको कभी भी कम नहीं आंके, क्योंकि संसार के सारे सूत्र आपके होने से ही इर्द-गिर्द गुम्फित है और बुने हुए है, आपकी खामोशी या आपकी वाचालता ही आपके होने का सबूत है, इसलिए जरूरी हस्तक्षेप किसी भी माध्यम से करते रहिए, जब आपको लगें कि आपके हस्तक्षेप का कोई अर्थ नहीं, जवाब नहीं है तो चुप रहिए और इंतजार तब तक करिए - जब तक दूसरे छोर से कोई स्पंदन ना हो और फिर भी कोई हरकत ना हो तो बेहतर है आगे से रिस्पॉन्स करना बंद कर दीजिए, संसार कम से कम एकांकी मार्ग पर नहीं चल सकता , ट्रैफिक में ठोस विकल्पों के बाद ही एकांकी मार्ग की घोषणा की जाती है
८ धीरे - धीरे उन सभी जगहों से खारिज करने की कला सीखिए - जहां आपको लगता है कि संत्रास, पीड़ा, तनाव, अवसाद या अपराध बोध महसूस होता है, आपके होने से परिवाद कायम हो सकते है, अनुतोष या प्रतिफल की हिस्सेदारी में संकट होने लगते हो और यह किसी भी स्तर का हो सकता है, खारिज होना या अंग्रेजी में कहते है Withdra कर लेना एक दीर्घकालिक समझ और परिणामों का आईना बन सकता है
९ बहुत ज़्यादा झगड़े और विवाद आपको बेचैन कर सकते है, बेहतर है जब सांस लेने में तकलीफ़ होने लगे तो वातावरण और जगह बदल देना चाहिए, खासकरके रिश्तों में यह कटुता सबसे पहले होती दिखती है, फिर घर एवं समाज के स्तर पर और अंत में प्रोफेशनल स्तर पर जिसके लिए कई विकल्प होते है, पर रिश्तों, घर, परिवार और समाज में कोई विकल्प नहीं होते, इसलिए स्वयं को सारी जगहों से विच्छेद करके अपनी हवाई और एकांत की दुनिया में जीने के लायक बना लेना चाहिए और सिर्फ मृत्यु या कोई आवश्यक अवसर पर ही आने - जाने का संबंध निर्वाह करने का कड़ा इरादा करना और क्रियान्वित करना चाहिए़ , बाकी प्रोफेशनल स्तर पर तो कुछ सोचने - विचारने की जरूरत नहीं है संसार बहुत बड़ा है
१० जीवन में बहुत थोड़े और छोटे सिद्धांत और मूल्य बनाए रखने चाहिए, ज़्यादा आदर्शवाद और अनुशासन दिखावा है, असल में जब तक हम अपनी ही सीमाओं और वर्जनाओं को नहीं तोड़ेंगे - तब तक हम जी ही नहीं पाएंगे, गंभीरता घातक है और संसार में मरे हुए लोगों की संख्या आज के जीवित लोगों से ज्यादा है, निश्चित ही वे सब भी गंभीर और बड़े मूल्यपरक या सिद्धांतवादी लोग रहें होंगे - पर आज हमको अपने से पहले की तीन पीढ़ी के लोगों के कर्म तो दूर - नाम भी याद नहीं, तो क्या ही कहा जाए, बस मजे से रहिए तनाव और अवसाद के बगैर
नये साल का आना मतलब सिर्फ कैलेंडर बदलना ना हो जाएं, अभी तक की मस्ती को बरकरार रखते हुए जीते चले जाइए जब तक जीवन है आपका, और इसे मृत्यु के अलावा कोई नहीं छीन सकता यह विश्वास रखिए
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अचानक से ढेर लेखक, बुकर और नोबल से लेकर ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी से बहिष्कृत और पुरस्कृत कवि और कवयित्रियां फेसबुक और इंस्टाग्राम पर नजर आने लगी है, आप कुछ भी लिखो ये लोग प्यार से लाल निशान
छोड़ जाते है, कभी झप्पी कभी पुच्ची के रूप में कमेंट्स भी कर जाते है
बहुत देर तक समझ नहीं आया, पर अब राज खुल रहा है इनका, बूझो क्या है
बोलो, बोलो, बोलो क्या है यह राज
जो बरसों बरस जन्मदिन की बधाई देने पर धन्यवाद न दें या लिखें और बारहों माह - बत्तीस घड़ी टशन एवं एटीट्यूड में रहें - उनके झांसे में ना आईयेगा और मैसेंजर तो डीलीट ही कर दीजिए, इनके शहर में जाओ तो फोन नहीं उठाते, मिलना तो दूर, इनसे क्या दोस्ती निभानी और इनका लिखा लुगदी साहित्य खरीदना, फोन नम्बर भी मत दीजिए आपके वाट्सअप पर ये जीना हराम कर देंगे आपका लिंक पेल - पेलकर कि खरीद लो
पुस्तक मैले में जाए भी तो आँखें सेकियेँ, चाट पकौड़ी खाइए, शाम को दिल्ली घूमिए, दोस्तों से मिलिए, कनॉट प्लेस में मस्त ओल्ड मॉन्क पीजिए, पर इनकी किताबों पर एक ढेला ना खर्च कीजिए , देखना आखिरी दिनों में फ्री में बांटेंगे - फिर भी कोई उठाकर न ले जायेगा कूड़ा करकट
जानकारी ही बचाव है
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जो भी तथाकथित सरकारी अधिकारी है या कर्मचारी है - वे इन दिनों देशभर के साहित्य उत्सवों में शिरकत कर रहे है और जगह - जगह के फोटो चैंप रहें है, इनमें वरिष्ठ अधिकारी और ब्यूरोक्रेट्स भी है - समझ नहीं आता कि इन्हें इतनी छुट्टी कैसे मिलती है, इनकी हवाई यात्राओं का खर्च, रहने - खाने का और "बाकी दारू मुर्गा" कौन वहन करता है, हमारे प्राध्यापक, माड़साब और मीडिया के दलाल भी शामिल है इस अय्याशी में
आश्चर्य यह होता है कि इन मेलों - ठेलों में जाकर ये लोग मूल्य, नैतिकता, पारदर्शिता और ईमानदारी की बात करते है
सीधी सी बात है जो व्यक्ति मूल मनुष्यता के दायरे में नहीं वह फिर कोई भी हो उस पर ना श्रद्धा है ना विश्वास
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There is nothing like feminism and gender equality, it is an artificially crafted tool for the harrassment of Male
[ Key Learning of 2025 as a Lawyer ]
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अभी इंस्टाग्राम पर एक दादाजी की रिक्वेस्ट आई है जो 97 के है, सबको हक है - हर जगह जाने और जमे रहने का, अपना कूड़ा - कचरा फेंकने और फोटो चैंपने का अधिकार है, जाहिर है अनुच्छेद 14 का सम्मान है कि हर सोशल मीडिया पर सब समान है और दिमाग़ का मवाद और भड़ास थोपने का सबका अधिकार समान है, मै भी यही करता हूं, पर दादाजी जो 17 रील आपने पिछले दस मिनिट में भेजी है - उससे तो बेहतर है कि आप अब नुक्ते की तैयारी करो, काहे यहां - वहां समय बर्बाद कर प्रभु मिलन में देरी कर रहे हो, आपकी नश्वर देह तो मिट्टी में मिल जाएगी पर आपके कर्म सदैव ज़िंदा रहेंगे यह सोच लो, सुधार लो अपने को और ज़्यादा ही शौक है तो Linkedln पर आओ और बांटो अपने प्रोफेशनल अनुभव
मतलब हद है, गलती उनकी नहीं, औलादों की है - जिन्होंने स्मार्ट फोन पकड़ा दिया और अपना टेंशन कम करके नियमित रिचार्ज डलवा रहे है - ताकि बाप बिजी रहें और ये मजे करते रहें, ये ही बूढ़े फिर हिंदी - हिंदू - हिंदुस्तान करके गोबर परोसते है, एक नीच के साथ गोबर गणेशो के भाषण शेयर करते रहते है, और ओशो से लेकर तमाम तरह की गंदगी इकठ्ठा कर पेलते रहते है सबको
ये अंधेरे के वो हिस्से है जहां सूरज को पहुंचने में बहुत समय लग जाता है
बख्श दो दादा - दादियो और मेहरबानी करके अपने शेष बचे समय में गीता - कुरान बाँचो, वरना भगवान के यहां क्या मुंह दिखाओगे
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विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास "दीवार में एक खिड़की रहती थी" में हाथी के संदर्भ में एक पंक्ति आती है कि “हाथी चलता जाता था तो उसके पीछे हाथी के होने की जगह छूटती जाती थी
मेरे ख़्याल में हाथी के चले जाने से ज्यादा बड़ा दुख है - हाथी के बराबर छुटी अदृश्य जगह का, उस फ्रेम का जहां लोग किसी वृहद विराट के जाने पर अपने को फिट करने की कोशिश में सब कुछ या हर कुछ करने को बेताब हो जाते है - उस खाली जगह में अब वहां चूहे या चींटी भी अपने को हाथी मानकर रेगेंगे, हांफते हुए चलेंगे, और शायद किसी दौड़ में स्वयं को हाथी मानकर भी दौड़ें और वस्तुत: यह हो भी रहा ही है, चूहे "एआई के जमाने" में मौलिक रूप से चूहे भी नहीं बचे और चींटियां खुद को डायनासोरस मानकर रोज नए साम्राज्य गढ़ रही है और जगहों का तो क्या ही कहें - व्योम में खाली जगह कभी होती नहीं, कुछ नहीं तो ऑक्सीजन ही भर जाती है और उस जगह को कोई अनमोल अबूझ तीली खुद जलकर आग लगा देती है और एक भरेपूरे वातायन को खाक कर देती है
बहरहाल, हाथी को निकल ही जाना था, यही शायद बड़े और विशाल होने की पुख्ता निशानी भी है, हम हाथी को याद रखते है - जगहों को कभी नहीं
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अगर तुम समय की पदचाप पहचान सकते हो, अगर तुम अपने समय से आगे का सोच सकते हो, अपने अतीत को कोमल पंजों में सावधानी से धरकर चौकन्नी निगाहों से गिलहरी की तरह फुदकते हुए, बिल्ली की तरह दबे पाँव वर्तमान को कंधों पर धरते हुए चीते की फुर्ती से तेज गति से भविष्य में एक अथाह और विशाल संसार में कूदने का साहस रखते हो - तभी अगले मुहाने मुड़ने का जोखिम उठाना, वरना यही रहो - अपने कागज काले करते हुए, पुराने दस्तूर निभाते और बोझ ढोते हुए, तुम जैसे पूर्वाग्रहियों और रक्तरंजित कुंठित विचारवान लोगों की जरूरत नहीं है, हम सदी के एक चौथाई हिस्से को पार कर अब अगले हिस्से में प्रवेश कर रहे है - जहां दुनिया रोज नहीं, सेकेंड के हजारवें हिस्से में नित - नई बन रही है, और यदि तुम द्रुत गति से सोच - विचारकर, तेजी से निर्णय लेकर दुगुने वेग से संग - साथ नहीं दौड़ सकते - तो यही रूक जाओ
बदलना और बदलाव लाना - दो सर्वथा भिन्न शब्द है, जिनके मायने समझने के लिए थोथा ज्ञान, घिसे - पिटे मुहावरे और काम के तरीके नहीं, बल्कि मन - मस्तिष्क से तैयार होने की जरूरत है - जो अभी हममें से अधिकांश के पास नहीं है, तो जाओ - अभी भी पूरे सात दिन है - बदलो या ठहर जाओ - निर्णय तुम्हारा है
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जीवन और मृत्यु दोनों हमारे हाथ और नियंत्रण में नहीं है, जो है वह है - बीच का जीवन - जन्म के घटित होने से सदैव शंका में रहने वाला अघटित सा अचानक होने वाली मृत्यु के क्षण तक का जीवन, इस छोटे से सफर में मौके है, आपदाएं, रास्ते, शिखर और अनगिनत उतार - चढ़ावों के बीच सुख एवं दुख हैं
हम सारी उम्र इस छोटे से जीवन में उत्सव मनाते हुए प्रार्थनाएं करते है, प्रसन्नता से भर जाते है, शोकाकुल होते है और पड़ाव - दर - पड़ाव अपनी यात्रा पूरी करते है और एक चक्र पूरा करके अनुपस्थित हो जाते है, किसी ने नहीं देखा कि किधर से आए और किधर को गये, या कब लौटेंगे या स्थाई रूप से हमारी सघन अनुपस्थिति ही अब शेष रह जाएगी अवनी पर
इस सबके बीच जो मूल काम करना चाहिए - वह है हिम्मत रखना, धैर्य रखना, और हर मौके - बेमौके पर सुझबूझ से, समझ से परिस्थिति को सम्हालना, जीवन की इस यात्रा में हमारे अपने बिछड़ते है, हमारे अपने मिलते है, पर हमें ना विचलित होना है और ना उत्साही बनना है, यह धैर्य और आत्म विश्वास, यह समझ या सूझबूझ एक अभ्यास से आती है, जिसे हम बहुधा प्रार्थना, इबादत, पूजा - पाठ या कर्म - कांड समझ लेते है या ईश्वर - अल्लाह - जीसस या गुरू को सर्वोपरि मानकर सजदे में शीश झुका देते है, निश्चित ही इससे ताक़त मिलती है पर ये सब बहुत उथले रास्ते और तरीके है
मै इसे भी बुरा नहीं मानता क्योंकि कमजोर और कम समझ वाले इन सबको या इन छोटे रास्तों को ही धर्म मान लेते है - जबकि हिम्मत, समझ, धैर्य और पूरी तरह पारंगत होकर निपुणता से हर परिस्थिति से निपटना और निकलना ही वास्तविक पुरुषार्थ है और यह हासिल करने के लिए चतुराई, कपट, बैर-भाव, ईर्ष्या, द्वेष और चालाकी नहीं, बल्कि सहजता, सरलता, मनुष्यता, पारदर्शिता, दूसरों को सम्मान देने, अपनी और दूसरों की गरिमा रखने, सहयोग, प्रचंड आत्मविश्वास और प्रखर मेघा को समझने की व्यवहारगत समझ होना जरूरी है
मैं बीतते हुए साल में दुआ करता हूँ कि हम सबके भीतर यह अग्नि प्रज्ज्वलित रहें और हम सच में इस योग्य बनें कि हर सम और विषम परिस्थिति में स्थित - प्रज्ञ होकर अपने जीवन को संपूर्ण करें और निर्विकार भाव से संतुष्ट रहें
[पूरा साल बहुत खराब, उपेक्षित और संत्रासों से भरपूर रहा है और इस वर्ष नई उम्मीदें और आशाएं है, देखो क्या लिखा है]
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हताशा में एक आदमी चला गया
मैं हताशा को नहीं
उनकी कठिन, गूढ़, अर्थवान
और छोटे वाक्यों की भाषा को जानता था
दीवार की खिड़की से झांकती
नौकर की कमीज को जानता था
रायपुर के उस घर को जानता था
जहां जाने पर वो बाहर तक छोड़ने आते थे
धीरे धीरे अपने हाथ में मेरा हाथ
थामकर बातें करने को जानता था
मैं विनोद कुमार शुक्ल को जानता था
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लग ही रहा था कि जनवरी शायद ही देख पाएं, भरपूर जीवन जिया उन्होंने
यश, कीर्ति और धन भी मिला, पर सब यही रह गया
कहे कबीर सुनो भाई साधौ
जिन जोड़ी - तीन तोड़ी
सादर नमन
श्रद्धांजलि
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जब बहुत तनाव हो या लगने लगे कि किसी कारण से, व्यक्ति की वजह से, किसी काम या कार्यक्रम की वजह से, किसी अनुष्ठान की वजह से या किसी उम्मीद की वजह से तनाव हो रहा और उसका प्रभाव अपने दैनंदिन जीवन पर पड़ने लगा है तो एक नई बात सीखी, हालांकि सीखी तो बहुत पहले थी - पर आजकल आईटी गैजेट्स और तमाम तरह के एप्स के संदर्भ में ज्यादा पुख्ता ढंग से कह रहा हूँ कि
* व्यक्ति को जीवन से ही नहीं बल्कि हर जगह से हटा दो, ब्लॉक कर दो
* कार्यक्रम से दूरी बना लो, भाड़ में जाए कहकर
* अनुष्ठान से उठ जाओ, कोई पाप नहीं लगेगा
* उम्मीद को गोली मारो और जो है उसको स्वीकार करो
* हर तरह के सोशल मीडिया से सबको खारिज कर दो
* रिश्ते भी बोझ लगे तो झटक दो, जन्म से पहले जो तय हो जाए - हमसे बगैर पूछे उसका क्या लिहाज करना
सारी वर्जनाओं को तोड़कर, लोग क्या कहेंगे जैसे जुमलों को छोड़कर भरपूर जियो, और Die Happy का सिद्धांत दिमाग़ में रखो क्योंकि एक ही जिंदगी है और आगे पीछे कुछ नहीं होता, मजे करो, देखो देखते - देखते सन 2025 भी गुजर गया, क्या खोया और क्या पाया, सोचने के बजाय आज का दिन मस्ती से जी लो और गीत गुनगुनाओ
"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया"
अपनी - अपनी जिंदगी के हम सब हीरो होते है, कुछ दर्ज हो जाते है और बाकी यवनिका में छुपकर अपना रोल अदा कर विदा हो जाते है, बस अपनी बारी का इंतजार है और फिर वही "कल खेल में हम हो ना हो"
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दो मुसलमानों को आपस में लड़वाकर, करोड़ों लोगों का टाईम बर्बाद करके और तथाकथित हिन्दू राष्ट्र में एक कौम विशेष के धर्म को फोकस में लाना और एक नए किस्म का नरेटिव गढ़ने में गोदी मीडिया के शिरोमणि क्या चाहते है, बेहतर होता कि हर धर्म का एक - एक प्रतिनिधि होता और मान्य धर्मगुरू - ताकि कोई सार्थक बहस होती और आम लोगों को धर्म, धंधा और धार्मिकता के बहाने सत्ता हथियाने के गुर सीखने समझने को मिलते, वोट चोरी, लोकसभा में बेमतलब की बहस, वंदे मातरम की उबाऊ और गैर प्रासंगिक बहस और रोजी रोटी के साथ जी राम जी जैसी निहायत घटिया योजना (एक्ट नही) पर से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए सौरभ को कठपुतली की तरह से इस्तेमाल किया और उसने कमा लिया
मुझे तो लगता है कि ओवैसी के बरक्स उस तथाकथित कट्टरपंथी सभ्य मौलवी मुफ्ती को प्लॉट किए जाने की साजिश है और बाकी जावेद साहब के बहाने प्रगतिशीलों और तरक्की पसंद लोगों को गरियाने और सार्वजनिक रूप से हिंसा फैलाने का कुचक्र है
सौरभ और लल्लनटॉप शुरू से ही संदेहास्पद रहे है, साहित्य - संस्कृति पर तो कुछ उजबक किस्म के बेहद नालायक एवं व्याभिचारी युवा लोगों ने चम्पादक बनकर कब्जा कर ही लिया था, अब इनकी महत्वकांक्षाएं बढ़ गई है और बेहद कुटिल तरीके से ये लोग राजनीति में कूदकर अपना वजूद, औकात और धन - बल बढ़ाना चाहते है
और मेरा पुनः वही सवाल है कि यह सब देखकर, सुनकर या समझकर क्या आप नहाकर पूजा - पाठ नहीं करेंगे, दफ्तर जाने से पहले अगरबत्ती नहीं लगाएंगे, एक जनवरी आ रही है - महाकाल उज्जैन, ओंकारेश्वर, विश्वनाथ, बद्रीनाथ या अयोध्या में साल का अपना पहला दिन नहीं बीताना चाहते, दफ्तर से नमाज पढ़ने नहीं जायेंगे, गुरुद्वारे में घर से हलवा नहीं भेजेंगे या रविवार की चंगाई सभा में नहीं जायेंगे, समझने की बात यह है कि धर्म हमारे यहां खून में है और इस पर वैचारिक या अवैज्ञानिक बहस करवा लो, कुछ नहीं होना है, हम सब लोग भले संविधान में पंथ निरपेक्षता की बात कर लें, पर दिल - दिमाग से वही रहेंगे आदिमानव और असभ्य, जब सेटेलाइट छोड़ने के पहले नारियल हम फोड़ रहे है - तो क्या खाक वैज्ञानिक मानसिकता की बात होगी देश में, लिख लीजिए कि हम सब धर्मांध है और रहेंगे - क्योंकि ईश्वर, अल्लाह, जीसस या धर्म हमारी आजीविका है और धंधा है
फायदा सिर्फ सौरभ के लल्लनटॉप या उस मुफ्ती के चैनल को हो रहा, हमारा क्या
हम तो गरीब मजदूर लोग है पांच किलो राशन के झुनझुने से आपने हमें खरीद ही रखा है जनाब
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