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"स्मृतियों और निस्संगता का कोमल पाठ – “वीतराग” by Vasu Gandharva

"स्मृतियों और निस्संगता का कोमल पाठ – “वीतराग”

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समकालीन हिंदी कविता के कोलाहल भरे समय में, जहाँ बहुत सी कविताएँ नारे और तात्कालिकता के शोर में खो जाती हैं, वहाँ युवा कवि Vasu Gandharv का पहला कविता संग्रह 'वीतराग' एक बहुत ही आश्वस्त और मन्द्र स्वर की तरह उपस्थित होता है. रजा फाउंडेशन की पहल पर सेतु प्रकाशन से आया यह संग्रह एक युवा मन की परिपक्वता का साक्ष्य है. वसु गंधर्व (जन्म 2001) अपनी उम्र से कहीं अधिक सधे हुए और गहरे अनुभव-संसार को लेकर हमारे सामने आते हैं.
'वीतराग' की कविताएँ पढ़ते हुए सबसे पहले जो बात आकर्षित करती है, वह है कवि का 'ठहराव'. यहाँ हड़बड़ी नहीं है, बल्कि चीज़ों को, रिश्तों को और समय को ठहर कर देखने की एक संयत दृष्टि है. वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने ठीक ही लक्षित किया है कि वसु की कविताओं में "स्मृतियों का अपना गल्प" सहेजने का जतन है. यह संग्रह प्रेम, परिवार, प्रकृति और एकांत के इर्द-गिर्द घूमता है, लेकिन इसमें एक दार्शनिक 'निस्संगता' (detachment) भी है, जो शायद संग्रह के शीर्षक 'वीतराग' को सार्थक करती है.
घर और लौटने की छटपटाहट इन कविताओं का एक प्रमुख स्वर है. कवि भौतिक रूप से घर से दूर हो सकता है, लेकिन उसकी आत्मा घर की देहरी, चूल्हे और परिजनों के पास ही भटकती है. निम्न पंक्तियों में घर लौटने की यह विवशता और प्रेम कितनी खूबसूरती से दर्ज हुआ है, देखिए -
"अंतिम अलविदा की अनुगूँज हो सके ख़त्म
इसके पहले मैं लौट आऊँ घर
बुझी न हो दरवाज़े के पास जलती बत्ती
ख़त्म न हुआ हो मेरे हिस्से का भात."
यह कविता सिर्फ़ घर वापसी की नहीं है, बल्कि उस डर की भी है कि कहीं देर न हो जाए—कहीं प्रेम और प्रतीक्षा का वह अंतिम सिरा हाथ से छूट न जाए. 'मेरे हिस्से का भात' एक ऐसा बिम्ब है जो ठेठ भारतीय मध्यमवर्गीय प्रेम की मिठास और कसक को एक साथ कह देता है.
वसु गंधर्व का नवीनतम कविता–संग्रह “वीतराग” समकालीन हिंदी काव्य–परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण जोड़ है. यह संकलन मनुष्य के भीतर चल रहे वैराग्य, संघर्ष, करुणा और बोध के सूक्ष्म आयामों को अत्यंत संयत भाषा में पकड़ता है. वसु की कविताएँ पाठक को भीतर की ओर एक धीमे, अनकहे संवाद में ले जाती हैं—जहाँ संसार से दूर जाने की नहीं, बल्कि उसमें रहते हुए आत्मिक संतुलन पाने की आकांक्षा है.
संग्रह की शुरुआती कविता में कवि लिखते हैं -
“मैंने सपनों की धूल झाड़ी,
तो भीतर एक नदी मिली—
जो बहना चाहती थी,
बिना किसी किनारे की सूचना के.”
यह पंक्तियाँ ‘वीतराग’ के मूल स्वर को स्थापित करती हैं—एक ऐसी यात्रा जहाँ मन मुक्त होना चाहता है, पर जीवन के दायित्व उसे धरती से जोड़े रखते हैं.
वसु गंधर्व की भाषा सरल है, पर उसका अर्थ बहुवर्णी. अपनी एक और कविता में वे लिखते हैं. भाषा के स्तर पर वसु गंधर्व की कविताएँ परिष्कृत हैं. वे तत्सम शब्दावली और देशज बिम्बों का एक सहज मिश्रण तैयार करते हैं. उनकी कविताओं में 'पीली शामों', 'नींद के बक्से' और 'जंगल की पगडंडियों' जैसे बिम्ब बार-बार आते हैं जो एक उदास लेकिन सुंदर वातावरण निर्मित करते हैं. प्रकृति यहाँ सिर्फ़ सजावट नहीं है, बल्कि वह मन की अवस्थाओं का प्रतिरूप है.
“छोड़ना कोई क्रिया नहीं,
एक धीमी आदत है—
जिसे समय,
हमारे भीतर चुपचाप बोता रहता है.”
यहाँ कवि त्याग को निष्क्रिय नहीं, बल्कि आत्म–बोध का सक्रिय रूप बताते हैं, जहाँ मनुष्य सीखता है कि जाने देना कमजोरी नहीं, बल्कि आंतरिक शक्ति है.
संकलन की विशेषता यह भी है कि वसु गंधर्व दार्शनिकता को न तो जटिल बनाते हैं, न उपदेशात्मक. वे मनुष्य के अनुभव को उसी की भाषा में उकेरते हैं. जैसे इस पंक्ति मे -
“जो लौटकर नहीं आया,
शायद वही सबसे ज़्यादा ज़रूरी था.
पर जीवन ने सिखाया -
कमी के साथ भी पूरा हुआ जा सकता है.”
कवि की यह आत्मस्वीकृति पाठक के निजी अनुभवों को छूती है.
वसु गंधर्व ने अपने परिजनों—विशेषकर माता और पिता—पर जो कविताएँ लिखी हैं, वे इस संग्रह की सबसे मर्मस्पर्शी रचनाएँ हैं. उन्होंने पिता को किसी 'महानायक' की तरह नहीं, बल्कि उनके संघर्ष और थकान के साथ चित्रित किया है. पिता की नींद पर लिखी गई यह पंक्तियाँ बेहद यथार्थवादी और मार्मिक हैं -
"पिता की कठोर नींद में व्याप्त है
उस पसीने की गंध
जिसमें जीर्ण होकर गलती हैं आयु की रेखाएं."
वहीं माँ के लिए उनकी दृष्टि अलग है. माँ की नींद और पिता की नींद का यह कंट्रास्ट (अंतर) कवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति को दर्शाता है -
"माँ की नींद कच्ची है
हलके पदचाप से टूटती अचानक
अपने भीतर समेटे परत दर परत
रहस्य और पुराने सुख दुःख."
संग्रह में प्रकृति, एकांत, स्मृति और मन की आंतरिक शांति से जुड़े कई बिम्ब मिलते हैं. वसु गंधर्व अपने शिल्प में चित्रकार–सा संयम दिखाते हैं; वे शब्दों को फैलाते नहीं, बल्कि उन्हें केंद्रित रखते हैं. उनकी कविता ‘विरक्ति’ में दी गई पंक्तियाँ इस सौंदर्य को विस्तार देती हैं -
“जब मन का कोलाहल थक गया,
तो मौन ने मुझे पकड़ा—
और कहा,
‘मेरे बिना कोई मार्ग नहीं.’”
'वीतराग' एक नई पीढ़ी के कवि का ऐसा हस्तक्षेप है जो बताता है कि अच्छी कविता के लिए चिल्लाने की ज़रूरत नहीं होती. धीमी आवाज़ में कही गई बातें अकसर देर तक गूँजती हैं. वसु गंधर्व की कविताएँ पाठक को अपने भीतर झाँकने के लिए विवश करती हैं. यह संग्रह हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है. कुल मिलाकर, वीतराग एक ऐसा संग्रह है जो आज के तनावपूर्ण समय में पाठक को भीतर की शांत भूमि तक पहुँचने का आमंत्रण देता है. वसु गंधर्व जीवन के अनुभवों को गहरी संवेदना और संतुलित भाषा में पिरोते हैं. यह पुस्तक उन सभी के लिए अनिवार्य है जो कविता में अर्थ, सौंदर्य और आत्मिक सुरों की खोज करते हैं.
• संदीप नाईक
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वीतराग - वसु गंधर्व
प्रकाशक - सेतु प्रकाशन, (रजा फाउंडेशन की प्रकाश वृत्ति के अंतर्गत प्रकाशित)
मूल्य - 200/- INR

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वीतराग अपने हाथ में
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Vasu Gandharv का दूसरा कविता संग्रह हाथ में है, जो अभी - अभी मिला है, परसो मोबाइल पर कोई मैसेज आया कि हैदराबाद के जामिया से कोई आर्टिकल बुक हुआ मेरे नाम, तो समझ नहीं आया कि वहां से ओवैसी ने क्या भेजा - कराची बिस्किट या तुर्की मिठाई बकलोवा पर आर्टिकल मिलने तक अधीरता रही, आज जब यह किताब हाथ में है तो विश्वास हुआ कि वसु बड़ा ही नहीं हुआ, पर जिम्मेदार भी हो गया है हमारा, दो - तीन साल हो गए मुलाकात को, अभी उस दिन 14/11/25 को कोलकाता से रायपुर उतरा था तो सोचा घर चला जाऊं पर आनंद भाई मिलेंगे, वसु तो हैदराबाद में है, इसलिए नहीं गया और चार - पांच घंटे जय स्तम्भ के नजदीक एक होटल में बीताकर पुनः एयरपोर्ट लौट आया और वहां से भोपाल का फ्लाईट लेकर घर आ गया
वसु का संग्रह हाथ में है, मैं वसु की कविताओं, वाद्य बजाने का हुनर, अकादमिक समझ और दक्षताएं, गायन में शास्त्रीय संगीत का वरदान और सबसे ज्यादा मनुष्यगत विनम्रता का कायल हूँ, आज की "झेन जी" पीढी में वसु का होना अचरज है और एक आश्वस्ति जो अपने आप में कई गुणों की खान है और सबके बावजूद बेहद विनम्र और शर्मीला पर कविता और कथ्य में बेहद दृढ़ और बोल्ड
अशोक वाजपेई जी ने इन पुस्तक के ब्लर्ब पर सही ही लिखा है कि "हमारे स्मृतिहीन समय में कविता में भी विस्मृति व्याप गयी है. युवा कवि वसु गंधर्व की कविता इस प्रवृत्ति का अपवाद है. उसमें 'स्मृतियों का अपना गल्प' सहेजने का जतन है. उनके यहाँ अनन्त, शाश्वत, प्राचीन, उद्गम, प्रागैतिहासिक नींद, निराकार पतझर, निर्लिप्त तन्मयता, उँगलियों की प्राचीन उष्णता जैसे शब्द और अभिव्यक्तियाँ उनकी कविताओं को स्मृति की मोहक आभा देते हैं. वे सब घटित होते हैं ऐसे कविता-संसार में जिसमें चश्मा, चेहरा, ख़ाली जगहें, थकना, धीमापन, धूप-बारिश, विदा, पीड़ा, भाई, माँ, पितामह, सोना, ढूँढ़ना, पानी, शोक, गोश्त, बक्सा, नींद, दीमक, नीलाम्बरी, बीज, क़मीज़, धूल आदि सब है जो उसे विपुल बनाते हैं. यह ऐसी कविता है जिसमें संग-साथ और निस्संगता दोनों हैं. भाषा की चमक इन कविताओं की असली चमक है. रज़ा फ़ाउण्डेशन युवा कवियों की पहली कविता-पुस्तकें प्रस्तुत करने पर एकाग्र 'प्रकाश वृत्ति' के अन्तर्गत वसु गंधर्व के पहले संग्रह 'वीतराग' को प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता अनुभव कर रहा है."
- अशोक वाजपेयी
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इस पुस्तक पर अपनी विस्तृत टिप्पणी चार दिसंबर को लिखूंगा अभी आप पढ़िए मेरे लाड़ले युवा कवि की एक बेहतरीन और मौजूँ कविता
|| सन्दर्भहीन प्रश्न ||
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वह उदास आदमी क्या सोच रहा है
वह थका व्यक्ति क्यूँ इतना थका है
पत्थरों का कितना वजन उठाया है उसके कन्धों ने
वह औरत सचमुच रास्ता भूल गयी है या
उसके भटकने में छिपा है कोई अर्थ
वृन्त से गिरता पत्र विदा के कौन से सुर में गा रहा है अपना गीत
किस पतझर का ओज उसकी शिराओं में हो रहा है पैबस्त धीरे से
वह पृथ्वी क्यूँ घूमे जा रही है अपनी तमाम निरुद्देश्यताएँ, निरर्थकताएँ लिये बदस्तूर
अगर एक भी चिड़िया के उड़ने में अर्थ छिपा है
अगर एक भी साँस निरुद्देश्य नहीं यहाँ
तो खुले क्यूँ घूम रहे हैं हत्यारे।



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