1/4 सदी
सिक्कों की खनक कम हो रही है, सूरज की किरणों की चमक कम हो रही है, चट्टानों के दाग़ भी फ़ीके पड़ते नज़र आ रहे है, नदियों में उद्दाम वेग से बहता पानी रूक गया है, जंगलों की पगडंडी खो गई है - किसी सूने रास्ते पर, पहाड़ों के पीछे से झांकता सूरज उदास है कि सांझ की शफक पर अंधेरों के साये है बेतरतीब से और मद्धम सी लौ के साथ टिमटिमाते तारों में सुकून दिखता नहीं
सदी के एक चौथाई समय का बोझ उठाए घड़ी की सुईयां बेचैन है, वे थक गई है पेंडुलम की निर्बाध गति से और अब बहुत शिद्दत से किसी कंजी लगी पुरानी दीवार से वाबस्ता होकर थम जाना चाहती है, पेंडुलम छुप जाना चाहता है उन कवेलुओं के बीच - जहां से बरसात में नेह की बूंदें टप-टप टपकती है और पूरे कच्चे घर को सौंधी खुशबू से भर देती है
कितना मुश्किल है दो सदियों के बीच रहना - एक जिसके छठे दशक के अंत तक आते-आते जन्में, मुक्ति के स्वप्न देखते और आज़ादी की हवा में सांस लेकर विचरते लोग-जिनके पास उनींदें से चमकीले स्वप्न थे, मेहनतकश हाथ, कुछ भले से उजियारे और होठों पर उमंगों के गीत- जिनसे वे प्रतिफल या अनुतोष नहीं, बल्कि अपनी संततियो के लिए एक सुखद भविष्य चाह रहे थे, पूरा जीवन समिधा के समान स्वाहा कर वे नई सदी की बेला आने तक जलकर खाक हो गए, जो बच गए - वे अपनी मेधा और समझ पर पत्थर डालकर चुप हो गए, जीवन जब विसंगति बन जाए और घटाटोप अंधेरे में सब विलीन होने लगे तो मौन ही एक रास्ता शेष रहता है
नई सदी की सुबह बहुत शुष्क थी, अपनी पिछली बहुत लंबी बीती रात में मौत के दंश, भेदभाव के कोलाहल में रचे-बसे तमस के साथ चिंघाड़ती हुई हुतात्माओं के साथ आँखें खोल रही थी, इस सदी की सुबह में रक्त किसी गर्मागर्म लावे की तरह छितरा पड़ा था चहुंओर, पिछली रात जो किसी नागिन से फुंफकार रही थी, में लाशों का क्रंदन था - गैस, परमाणु बम, धर्म ध्वजा के नीचे हुई हत्याओं का बोझ, मंदिर मस्जिद के दंगों के रक्तरंजित दाग़, गुरूद्वारों में फौजियों के जूतों की पदचाप से बनती बिगड़ती लाशें, खेतों में फसलों के बरक्स बारूद के ढेर, दवाईयों से पाट दी गई मेढ पर जहर उगलते खेत, और बीमारियों के घर बनते जा रहे मनुष्य, वहीं येरूशलम के मैदान में कौमों की लड़ाईयां, ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल और दुनिया के विनाश की भविष्यवाणी को लेकर इस सदी में आँखें खुली
लगता था सदी बदलेगी, जीवन बदलेगा और जीवन बदलेगा तो सुख समृद्धि आएगी और इस तरह से घर परिवार में सब सुखी होंगे, 1989 में पिता की मृत्यु का घाव भरा नहीं था, माँ भी ठीक रहने लगी थी, हम सब सक्षम हो गए थे तो माँ की नौकरी छुड़वा दी और कहा कि "अब घर में बैठो आराम करो", घर भतीजों की मस्ती से गुलज़ार रहता, सब ठीक था और फिर 2003 के आते - आते छोटा भाई बीमार रहने लगे, शुगर, बीपी के चंगुल में फंसकर अपनी दोनों किडनी खराब कर बैठा और उसका हफ्ते में दो बार इंदौर में डायलिसिस शुरू हो गया, अंत में माँ भी गई और भाई को प्राण त्यागना पड़े
बीमारी जब घर खोज लेती है तो अपना पांव जमाकर बैठ जाती है, उसके इलाज के दौरान समझा कि कैसे नई चमकदार सदी में आम आदमी पीस रहा है - शिक्षा, स्वास्थ्य महंगा और बाकी सब सस्ता हो रहा था, जो छोटी प्रॉपर्टी, दुकान - मकान या प्लॉट दो ढाई लाख की मिल जाती थी, वो अचानक से आसमान पहुँच गई, सरकारें निर्लज्जता से सरकारी चीजें ही बेचने लगी डिसइनवेस्टमेंट के नाम पर, और शिक्षा - स्वास्थ्य के मंदिर महंगे ही नहीं, आम आदमी की पहुंच से दूर होने लगे, राजनीति में नैतिकता तो कभी नहीं थी, पर शुचिता जरूर सार्वजनिक जीवन के लोगों में थी, वह भी अब वीभत्स स्वरूप में सामने आने लगी - दंगे,धरने, रैली और हत्या इतना सामान्य हो गया कि अचानक मूल्यों का जैसे ह्रास हो गया
सार्वजनिक जीवन में मनोरंजन, स्वांत सुखाय के लिए कुछ भी कर गुजरना एक शगल हो गया, रिश्तों की अहमियत खत्म हुई और दिखावे की संस्कृति ने हम सबको ऐसा लपेटा कि कोई नहीं छुटा, मन और तन की लाज तो दूर - अब नंगाई एक आधुनिक गहना और चरमोत्कर्ष का प्रमुख आकर्षण था, समाज का कभी भी उन्नयन नहीं होता, समय के साथ पतन और गिरने की प्रक्रिया संग - साथ चलती है, इसलिए इस सदी के पहले दशक में जितना पतन हर क्षेत्र और स्तर पर होना था हुआ और हम सबने देखा - भुगता, पर अफसोस यह था कि इसे हमने पूरी निष्ठा और बेशर्मी से स्वीकार करके संस्तुति की थी
क्या ग्रामीण और क्या शहरी, हर जगह पर पतन की पराकाष्ठा थी, जिन सामाजिक संस्थाओं या समाज के अपने संगठनों ने - जो जाति, मजहब या संप्रदाय के बने थे - उनमें भी घोर व्याभिचार हुआ, कुकुरमुत्तों की तरह से उग आई संस्थाओं ने जमकर भ्रष्टाचार किया, भीख, अनुदान या ग्रांट के नाम पर समाज हित का लेबल लगाकर अकूत धन कमाया, भवन बनाए, हजारो की संख्या में मोटर साइकिल से लेकर आदिवासियों के इलाकों में आदिवासियों की जमीन खरीदकर मठ और गढ़ बना लिए, दूसरों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने का झुनझुना पकड़ाकर खुद के बच्चों को अंग्रेजीदा बनाया और विदेश भेज दिया - शोध करने या शादी-ब्याह कर गोरे दूल्हे ढूंढ लिये, आम लोगों को सरकारी अस्पताल में भेजा और खुद फोर्टिस, मेदांता में झूलते रहे, बदलाव के नाम पर ब्यूरोक्रेट्स के तलवे चाटकर निज संपत्ति बनाते रहे
और यह सिर्फ सामाजिक संस्थाओं में नहीं संगीत, साहित्य, ललित कलाओं, खेल, फिल्म, लेखन, शोध, अकादमिक और उन तमाम उपक्रमों में होता रहा जो सीधे - सीधे पद, पैसा या प्रतिष्ठा से जुड़ा है, मीडिया वेश्या से भी गया बीता हो गया था, मीडिया के विश्व विद्यालयों और विभागों ने अपने - आपको गौशाला कहना शुरू कर दिया था, अयोग्यता एक निहायत जरूरी डिग्री थी - जिसे हासिल कर आप कुलपतित के पद पर पहुंच सकते थे, अखबार और चैनलों में भड़वे और निर्लज्ज उद्घोषक इतने हो गए थे कि उन्हें नंगा होने में गुरेज नहीं था
"मी टू" के नाम पर शुरू हुए महिला अस्मिता, जेंडर बराबरी और सीमोन द बाउवा के "सेकेंड सेक्स" का खुमार इतना बढ़ा कि परिवार ही टूटने लगे और अदालतें तलाक के मुकदमों से पट गई, यह विमेन लिब की नई संस्कृति थी - जिसके नशे में सड़कों से लेकर बेडरूम्स में रोज नई क्रांतियां लिखी जा रही थी, और इस सबके बीच नारी का नारी हो जाना या बाजार के हाथों बिक जाना - नारी को ही समझ नहीं आया, सदी के एक चौथाई समय के बीत जाने के बाद सशक्तिकरण और मुक्ति के ढोल और नगाड़ों की आवाजें अभी व्योम तक पहुंच गई है - पर उसका हश्र क्या हुआ - यह सबको ज्ञात है
बच्चे पैदा होते ही मोबाइल क्रांति के हितग्राही बन रहे है, ना उन्हें परिवार चाहिए - ना शिक्षा, वे अब आरूणी या एकलव्य नहीं - सीधे द्रोण बन रहे है, सेक्स, भोग, नशा, कुसंस्कृति, अपयश और दूसरों को मूर्ख जान "अहमब्रहास्मी दूजो ना भवों" के भाव से भरे है, इसलिए उनके बारे में कुछ कहना सुनना बेकार है
एक चौथाई सदी के नितांत व्यक्तिगत अनुभवों का पिटारा भयभीत कर देता है, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर निज व्यक्तियों या कार्पोरेट का कब्जा, सरकारों का एक या दो व्यक्तियों के हाथों बिक जाना - चाहे भारत हो या अमेरिका में ट्रंप का एलन मस्क के हाथों - बहुत डरावना है और अभी आगे क्या क्या होना बदा है - यह तो समय बताएगा, हिरोशिमा और नागासाकी तो दो शहर थे, आज तो हर घर परमाणु बम और बारूद के मुहाने पर है, हम सब बंकर में कैद है और बाहर ड्रोन से युद्ध हो रहे है, ना निजता सुरक्षित है और ना सार्वजनिन जीवन - फिर हम क्या है, कहां है और कैसे होंगे - इस पर विचार करने को समय है किसी के पास
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