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Khari Khari and Mercy Job and MP Govt - Post of 31 May 2025

शासकीय कर्मचारियों की मृत्यु के बाद उनके आश्रित परिजनों को अनुकम्पा नियुक्ति देने का प्रावधान हर जगह है और हर राज्य में है
अव्वल तो अनुकम्पा नियुक्ति देने में मप्र शासन बहुत आनाकानी करता है और इस तरह से एहसान जताता है जैसे परिजन को तनख्वाह इनकी जेब से जायेगी, नॉन पेंशन स्कीम के तहत दी जाने वाली इन नौकरियों को प्राप्त करने में परिजन को दूसरी मौत का सामना करना पड़ता है , एक और प्रदेश में स्टाफ नहीं है दूसरी ओर अनुभवी लोगों को सरकार बर्खास्त कर अपनी ओछी मानसिकता का परिचय दे रही है
मप्र शासन ने 2015 से परिजनों को दी जाने वाली अनुकम्पा नियुक्ति हेतु CPCT नामक परीक्षा उत्तीर्ण करने की बाध्यता रखी है - जिसमें गणित, अंग्रेजी, विज्ञान, कम्प्यूटर आदि के व्यवहारिक और सैद्धांतिक ज्ञान से संबंधित परीक्षा ली जाती है, यह अच्छी बात है पर इसके दूसरे भी पक्ष है
आमतौर पर अनुकम्पा नियुक्ति पत्नी को मिलती है - जो कम पढ़ी-लिखी है, यदि स्नातकोत्तर भी है तो उसके लिए एक उम्र बीत जाने के बाद इस तरह की परीक्षा पास करना थोड़ा जटिल है
इन दिनों मप्र शासन अनुकम्पा नियुक्ति में लगे लोगों को नौकरी से बर्खास्त कर रहा है, जो लोग दस साल से नौकरी कर रहे है या दसवीं बारहवीं पास थे, उन्हें उम्र के चालीस - पचास में आने के बाद नौकरी से बर्खास्त कर रहा है जो कि बेहद शर्मनाक है, मप्र के माननीय हाई कोर्ट की इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर बेंच में दर्जनों ऐसे कैसे स्थगन आदेश की प्रतीक्षा में है और अदालतें भी आश्चर्य कर रही है कि राज्य ऐसे कैसे दस - पंद्रह साल से काम कर रहे लोगों को नौकरी से निकाल सकता है , जहां एक ओर राज्य का काम रोजगार उपलब्ध करवाना है यह संविधानिक जिम्मेदारी है - वहीं दूसरी ओर मदमस्त मप्र शासन तानाशाही का रवैया अपनाते हुए नौकरी से मनमाने ढंग से बर्खास्त कर रहा है
इनमें अधिकांश महिलाएं है - लगभग सौ से ज्यादा कर्मचारियों को अभी तक बर्खास्त किया जा चुका है , दुनिया भर में महिला हितैषी और लाड़ली लक्ष्मी या लाड़ली बहना का प्रचार कर रहें भाजपा के नुमाइंदे असल में क्या है - यह जानना हो तो इन बर्खास्त कर्मचारियों की दशा देखना चाहिए, पचास बावन की उम्र में ये लोग अब कहां जाएंगे और परिवार का पालन पोषण कैसे करेंगे - यह सोचा किसी ने
अनुकम्पा किसी शर्त के तहत नहीं होती और जिन लोगों को अनुकम्पा का अर्थ नहीं मालूम, उन्हें फिर से पढ़ाई करना चाहिए
सबसे गंदा खेल मप्र शासन के सामान्य प्रशासन विभाग ने किया - जहां तत्कालीन भ्रष्ट और तानाशाह ब्यूरोक्रेट्स ने बार-बार चेताने और बताने पर भी कोई कारगर योजना या नीति नहीं बनाई और लापरवाह रहें, और इस तरह के आदेश निकालें, मप्र की ब्यूरोक्रेसी इतनी एडहॉक और निकम्मी है कि भ्रष्टाचार के अरबों के लेनदेन में इन्हें गरीब और मजबूर कर्मचारियों की बात सुनाई नहीं देती, कर्मचारी संगठन मात्र सरकार के पिट्ठू है और चंदा जमा करने में माहिर
आज भोपाल में मोदी जी आ रहे है, मोहन यादव जी भी है और महिला सशक्तिकरण के नाम पर ये अहिल्या माता उत्सव और तीन सौवीं जयंती मना रहे है और ढिंढोरा पीट रहें है, महिलाओं का मजमा इकठ्ठा कर अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बन रहे है, सौ महिलाओं और कर्मचारियों की नौकरी तो इनसे सही नहीं जा रही तो ये क्या सशक्तिकरण की बात करेंगे
शर्मनाक है यह सब और धिक्कार है इस पूरी व्यवस्था पर
मोहन यादव जी दूसरा यह भी है कि आपको एक नीतिगत निर्णय लेना होगा वरना आपके अधिकारीगण आपकी सरकार के गढ्ढे खोदने में कोई कसर नहीं रख रहें, कुछ कार्यवाही करेंगे इस तरह की नीति बनाने वाले ब्यूरोक्रेट्स और विभाग प्रमुखों पर जो रोज एक अभियान की तरह कर्मचारियों को बर्खास्त कर रहें है, याद रखिए एक कर्मचारी के पीछे कम से कम दो सौ वोट होते है और वैसे ही भाजपा की नैया डूब रही है लोग बदलाव चाहते है प्रदेश का जो कबाड़ा आपके पूर्ववर्ती मामा ने किया प्रदेश को कंगाल करके और अब आपके समय हो रहा है वह चिंता का विषय होना चाहिए ऐसे में कर्मचारियों की हाय दुगुना असर करेगी
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विज्ञान, शिक्षा, पर्यावरण या स्वास्थ्य की पत्रिका में लिखना मतलब पीएचडी करने से ज्यादा मुश्किल है लेखक को बंधुआ समझकर प्रश्न पे प्रश्न पूछे जाते है, पुस्तकों की समीक्षा दो - तीन पन्नों के छपने पर चवन्नी भी नहीं देते और इतना हैरास किया जाता है कि बस, पर हां यदि आप मुख्य संपादक या किसी के मित्र हो तो या किसी भी संपादकीय व्यक्ति के तो, कुछ भी छप सकता है - फिर वो प्रासंगिक हो या नहीं
इसलिए अब लेना, खरीदना भी बंद कर दिया है और पढ़ना भी, गत दस वर्षों से कई पत्रिकाओं का सदस्य था, हर बार तीन साल की सदस्यता लेता था, पर फिर लगा कि सुशोभित शक्तावत की तत्कालीन "अहा जिंदगी" और इन पत्रिकाओं में कोई मूल फर्क नहीं है, वही लेखक और वही मुद्दे- जिनकी कोई सम सामयिकता नहीं, यदि इन्हीं दस - बीस लोगों से लिखवाना है, तो बाकी के बीच जाते क्यों हो - सिर्फ बेचने या विज्ञापन से उगाही करने - या अपनी छवि बनाने
और यह सभी पत्रिकाओं का हाल है - फिर वो विज्ञान, पर्यावरण, समाज विज्ञान, या बदलाव के नाम शिक्षा, स्वास्थ्य या बाल - किशोर शैक्षिक पत्रिका हो, नवाचार या पर्यावरण के नाम पर छपने वाला बेमतलब का मसाला, फेलोशिपजीवी पत्रकार चापलुसी करके कुछ भी भेजते है, वह सब छप जाता है, संपादकीय टीम बदले बिना कोई उद्धार नहीं होगा, एक व्यक्ति यदि सारे निर्णय लेने लगे तो तानाशाही से ज्यादा और क्या होगा, जी हुजूरी करवाने वाले पत्रकार जब संपादक बन जाए तो पत्रिका का नुकसान होता है, दिल्ली लखनऊ, प्रयागराज, गाजियाबाद, भोपाल, पटना, बैंगलोर या मुंबई से निकलने वाली पत्रिकाओं की बात हो या वेब पोर्टल हो - जहां गली मुहल्ले में खुले पत्रकारिता के विवि के छर्रे बीजे, एमजे करके मठाधीश बने हुए है
माफी पर यह सब सच है और बेहद घिघौना सच है, मुख्य संपादक या प्रमुख वैज्ञानिक जिसके नाम पर पत्रिका बिक रही है, तक लेख जाते ही नहीं है और नीचे के या बीच के लोग बाबूराज की तरह से गोल गोल कर देते है
अभी डाउन टू अर्थ के एक बाबू की पोस्ट देखी कि मुझे सौ शब्दों में स्टोरी आइडिया शेयर करें, फिर मैं बताऊंगा कि आपको कितनी मेहनत करना होगी तो यह अनुभव लिखा, इस पत्रिका में दो - तीन बार छपा हूँ पर जितनी मेहनत करवाई और चवन्नी भी नहीं दी वह अफसोसजनक है, बैंगलोर के एक बड़े कार्पोरेट के शिक्षा पोर्टल के वही हाल है, जिद्दी अड़ियल और ऐसे लोग संपादक है जो जीवन भर अकाउंट्स करते रहे या कूड़ा छापते रहे पर वे बड़े शिक्षाविद बनकर नोबल लेंगे, वही भोपाल की एक पत्रिका ने तीन बार आलेख मंजूर किए, फोटो मंगवाए और बैंक डिटेल्स तक मांगे, पर अंत में गोबर कर दिया, एक पर्यावरण के पोर्टल पर तीन बार आलेख स्वीकृत हुए फिर बोले "ये गांव वाले मूर्ख है - इन्हें क्रांति करना चाहिए , जब तक एक्शन नहीं होगा इस समस्या पर, हम नहीं छापेंगे", एक बाल विज्ञान पत्रिका में बरसों - बरस जवाब ही नहीं आते, आप मर जाओगे उसके बाद जवाब आयेगा RIP, एक शिक्षकों की पत्रिका है जो संदर्भ सामग्री छापती है उन्हें गांधी का पूरा नाम तक नहीं मालूम, बोले - "महात्मा गांधी का नाम लिखकर भेजिए आलेख में, महात्मा उपाधि लगती है" - आखिर इतना एटीट्यूड क्यों है इन लोगों में
लिखना एक सेटिंग है और छपना भड़ेती, दुखद है पर सच है

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