अधूरे ख्वाबों की गली में डेढ़ इंच का चाँद
____________
लगभग एक माह से रातों का आना खत्म हो गया है जीवन में, लिखना लगभग बन्द और पढ़ना तो शायद अब कभी हो ही ना अब जीवन में - और जीवन, जीवन तो था ही नहीं इतनी लंबी यात्रा के किसी भी हिस्से में, सब व्यर्थ चला गया, जो भी जिसके लिए कभी कुछ किया तो अपयश के सिवा कुछ मिला ही नहीं और यही रीत है, सही तो कहते थे लोग
घूमना, कही आना - जाना, मिलना - जुलना और गपियाना भी जानबूझकर बन्द कर दिया है, फोन का उपयोग भी बहुत कम कर दिया है, अति आवश्यक ही हुआ तो उठाता हूँ या किसी को लगाता हूँ, वरना अब कुछ कहने - सुनने लायक बचा नहीं है, शाम को यदि पैर साथ देते है तो दो - तीन किलोमीटर चला जाता हूँ, वरना तो कमरे से बाहर निकलने का मन नहीं करता, अपने हुनर, कौशल और दक्षताओं की जघन्य हत्या कर एक tebula rasa यानी कोरी स्लेट बनने की चेष्टा कर रहा हूँ, मुझे लगता है नया शुरू करने के पहले रिक्त हों जाना चाहिए, उस पार का नहीं पता, ये सब बोझ माथे पर धरकर गया तो सह नहीं पाऊंगा और फिर Unlearn करने का अपना मजा है, अपने तीर कमान से जाते हुए देखना भी एक स्वर्गिक सुख है , हो गया अपना काम, सारे निशाने लग गए
जब अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई कर रहा था तो दो - तीन शब्दों का अर्थ समझ नहीं आता था, शाब्दिक तो मालूम था, परन्तु जीवन से इनका जुड़ाव क्या है - यह नहीं समझ आता था "Renunciation, Catharsis, Introspection", पर अब जब लगभग अपने आप को उजियारों से इतर हटकर बांध लिया है - किसी कोने में, तो रात - दिन का ना मात्र फ़र्क मिटा है - बल्कि खाने पीने और सोचने का नजरिया भी बदला है, कड़वाहट इकठ्ठा की थी जीवन में बहुत, अजातशत्रु बनने के जोखिम उठाने में सब कुछ छूट गया, यह सोशल मीडिया भी वैसे ही छूटते जा रहा है, यहां आता हूँ तो ग्लानि होती है कि लोग कितना लिख - पढ़ रहे है, घूम रहे है, ज्ञान बाँट रहें हैं , पुरस्कार से लेकर मायावी कार्यक्रमों , कविताओं, कहानियों और छपास का भयावह दौर है, पर यह बहुत बड़ा भ्रम है, छल है जीवन से और अपने करीबियों से, सारे जाले साफ हो रहें है, बस यह है कि साक्षी भाव से खुद को देखने - समझने और व्यक्त करने की हिम्मत कर पाना थोड़ा मुश्किल है सबके लिए
पुलिस की गाड़ी फिर गुजरी है सायरन बजाते हुए जैसे कोई चेतावनी देता है, जैसे जीवन तीन घंटे की परीक्षा हो कोई - हर घंटे सायरन बजता हैं कि बस अब इतना समय और शेष है, बांध लो सामान, समेट लो, जो शेष है लिख लो, कुछ गलत हुआ हो तो जांचकर लो खुद ही और ठीक कर लो, यदि यहाँ कुछ रह गया तो जिम्मेदारी किसी की नहीं, रात खत्म होकर जा रही है, बाहर चाँद है, हवा है - रात है शायद और मच्छरों का तांडव, कब तक किस - किससे जूझेंगे हम, अभी अंधेरे को बेधकर रश्मि किरणें आ जाएंगी धड़धड़ाती हुई
इस पूरे फसाने में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जीवन में सर्वाधिक निराश बेहद करीबी मित्रों और अपने लोगों ने किया और मुहावरे में कहूं तो - वो जिनके लिए जीवन दिन - रात एक कर दिया, कभी अपना पराया नहीं सोचा, बेरुखी सहना जैसे अब आदत बन गई है, बहरहाल, जीवन है और यह ऐसे ही चलता है सदैव कुछ नया, थ्रिल, एडवेंचर और अनूठा करने, पाने और उसके लिए जी जान से जुट जाने की होड है और अपन अब इस सबसे दूर है, अपने भीतर ही थोड़ा झांक लूं तो शायद कुछ समझ कर कह सकूंगा ठीक ठाक सा और एक ठोस पत्थर पर लिख सकूंगा - Epitaph.
भोर - 03:36
Comments