अक्सर हमें जिंदगी में रोज कोई ना कोई मांगने वाले मिलते रहते हैं, कभी कोई दरवेश आ जाता है, कभी किसी वार के नाम पर, भगवान के नाम पर मांगने वाले, कभी शनि भगवान के नाम पर और कभी किसी और के नाम पर ; दिन भर कोई अल्लाह के नाम पर, कभी श्री साईं के नाम पर, कभी राम या कृष्ण के नाम पर
कभी हम खुद उत्साहित होकर देने चले जाते है - अपने अपराध बोध में कि शायद नगदी या शिदा [गेहूं, दाल , चावल और गुड शक्कर आदि जैसा सूखा अन्न ] देने से पाप मुक्त हो जाएंगे, कभी हम अपने या अपने पुरखों के नाम पर भोजन करवा देते है - गरीबों, भिखारियों, विकलांगों को या अंधे लोगों को, कभी मंदिर में दान कर आते है या जुम्मे के दिन हीबा कर देते है - यह सोचकर कि हम यह सब करके मुक्त हो जाएंगे
कभी आपने सोचा कि आप जो दान-धर्म में दे रहे है, वह आपका है ही नहीं - जिसे आप धन कहते है वह नोट या करेंसी सरकार की है, आपके पास आपकी संपत्ति के रूप में वह तब तक है - जब तक आपने उसे धरकर रखा है - तभी उस पर लिखा है कि "धारक को पांच सौ रुपए देने की गारंटी" कोई तीसरा आदमी दे रहा है, जो धान्य आप दान कर रहें है शिदा के रूप में वह प्रकृति का है - जो किसान ने उगाया है , जो कपड़े आप दे रहे है - वे किसी ने लूम पर बुनकर मेहनत से बनाएं है, कुल मिलाकर मतलब यह है आप जो दे रहे है, दान कर रहें हैं - वह आपका है ही नहीं, तो आप कैसे दान करके सारा क्रेडिट ले रहे है और पुण्यात्मा बनने की जुगत में है, आखिर एक इंसान दूसरे इंसान को क्या और कितना दे सकता है
इसलिए पौराणिक ग्रंथों की ओर मुड़े तो कर्ण को महादानी कहा गया है - क्योंकि उसने अपने कुंडल दान किए थे, ना कि सोना-चांदी या जमीन, क्योंकि उसे पता था कि यह सब मायावी है और उसका किंचित मात्र नहीं है - जो उसका था - वही उससे मांगा गया और वही उसने दान भी किया है, उस साधु ने कुछ नगदी मांगी तो मैने उससे कहा कि मेरे पास ऐसा कुछ नहीं - जो मेरा है और जो है - वह अमूर्त है और वह देने की क्षमता मेरी है नहीं और बाकी जो भौतिक रूप से दिख रहा - वह मेरा है ही नहीं तो मैं कैसे दान कर दूं
बात गहरी थी उसे समझ ना आई हो, पर सच यही है हमारा कुछ है ही नहीं - जो है वह हस्तांतरणीय है, इसीलिए हमारा उस पर अधिकार ही नहीं है, बस हमें लेने या देने का अधिकार है तो नितांत कुछ अपना, अन्यथा कोई अर्थ नहीं है इस संसार में लेनदेन का
बस , निर्लिप्त रहें, निर्विकार भाव से जीवन जीते रहे, और लगातार मुक्ति की कामना करते रहे - क्योंकि मिथकों के अनुसार हमारी आत्मा भी हमारी नहीं, हमें फिर कही किसी और जगह जन्म लेना है - यदि आप यह सब मानते है, मै तो इसी काया या जन्म को संपूर्ण मानता हूं - ना आगे कुछ है - ना पीछे था
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कभी लगता है कि मनुष्य मात्र होने से ही हम दुख, अवसाद, तनाव, संताप का पर्याय बन जाते है, लाख सकारात्मकता की बात करें, कर्म करें, सदप्रयास करें, किसी को दुखी करने की चेष्टा ना करें, सादा सरल सा जीवन बीताएं - पर जीवन कष्टों से भरा रहता है
अब से जो भी प्रयास हम करें वे इस दिशा में हो कि "Die Happy" - सुखी मरिये - क्योंकि जीवन भर आपने छोटी-छोटी खुशियों की तिलांजलि दी, अपने बहुत छोटे सपनों से समझौता किया, मन को लगातार मारते रहे और समर्पित भाव से जीवन के झंझावतों को झेला और अपार कष्टों के साथ दुर्गम रास्तों के बीहड़ से निकलकर बार-बार पटरी पर लौटते रहें, इस आस के साथ कि कभी तो सब कुछ ठीक होगा, पर नहीं हुआ और जो कहते है हुआ - वे खुद भ्रम में है या दूसरों को मूर्ख समझ रहे है
इसलिए अब उन रास्तों पर चलो - जो आपको खुश रखते है, जो आपको जिम्मेदारियों के बोझ से दूर कर मुक्त करते है और एहसास दिलाते है कि ये जो चंद सांसें बची है - उत्तरार्ध की, इनमें भरपूर जी लो, घूम लो, अपनी पसंद की जगह चले जाओ, अपनी पसंद के शख्स से मिलकर दो घड़ी किसी नीम के तले कच्ची छांह में बतिया लो और दुआ करो कि इन्हीं सुखों के बीच कही से मौत आ जाए और सुखी अवस्था में पूर्ण संतुष्ट होकर मर सको, आँखें बंद होते समय कोई मलाल ना रहें
"Die Happy" - महज दो शब्द नहीं, जीवन का प्रारब्ध बने
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जगह-जगह घूमता हूं तो देखता हूं कि कई जगह पर पेड़ पौधे लगे हुए हैं - कुछ पेड़ों में पत्ते हैं, कुछ पेड़ सूख गए हैं - कुछ पौधों में फूल हैं और कुछ पौधे बिल्कुल ही निर्जीव होकर पड़े हुए हैं, जमीन में सारे के सारे पौधे लगे हुए हैं - यह सबसे अच्छी बात है, कई बार मैं देखता हूं कि एक ही मौसम में कई पौधों में फूल आ रहे हैं और कहीं पौधे सूख चुके हैं - कुछ पेड़ों पर हरियाली है और कुछ पेड़ संसार के निचाट सन्नाटे में अकेले से खड़े हैं और उन पर एक पत्ता भी नहीं है
हमारी जिंदगी भी लगभग ऐसी ही होती है, कभी हम बहुत उत्साह में सीखते - सीखाते रहते हैं और कभी चुपचाप होकर निर्वासन की स्थिति में आ जाते हैं, कभी लगता है कि हम बहुत जोश में हैं और दुनिया बदल देंगे - पर कभी लगता है कि चुपचाप और शांत रहो, जैसे - तैसे जो हो रहा है - उसे देखते रहो, जीवन जैसे बीत रहा है - उसे बीतने दो और एक प्रेक्षक की भांति अपने आसपास होने वाली हलचल को देखकर निरपेक्ष रूप से बने रहो और जीने का स्वांग करते रहो
कभी लगता है एक ही मौसम में इतने प्रकार की विविधता क्यों है - जबकि हवा, पानी, जमीन, मौसम और बाकी सारी परिस्थितियाँ सबके लिए समान है फिर एक पौधे पर फूल और एक में पीली जर्द पत्तियां क्यों - एक ही तरह का जीवन सबके लिए है, जन्म से मृत्यु तक की एक ही प्रक्रिया है लगभग, एक ही तरह के संघर्ष हैं और फिर ये विरोधाभास क्यों है - जहां कभी कोई खुश और कोई दुखी क्यों - यह भी विचारणीय प्रश्न है
पिछले अट्ठावन वर्षों की लंबी यात्रा में यह समझ बनी है कि जो हरा है - जिसमें फल और फूल ज्यादा और जल्दी लगते है - वो बेहद कच्चे है और जो धीरे-धीरे बढ़ रहें हैं - वे मजबूत है, मजबूत होने का आशय खुद की मजबूती से नहीं - बल्कि अपने आसपास और परिवेश के छोटे - बड़े पौधों और बेल - बूटियों को स्थान देकर बढ़ने देना है, अमर बेल को हम सबने देखा है - वह अक्सर मजबूत और बड़े पेड़ों पर फैलती है - गुलाब, जूही, चम्पा चमेली या गुलमोहर पर बहुत कम देखा होगा, यह सारे बड़े पेड़ जानते है कि अमर बेल उनको निचोड़ देगी - फिर भी वे कुछ नहीं कहते और उसे फैलने देते है, क्योंकि उन्हें अपनी स्थिरता और भीतर की मजबूती पर भरोसा है - अमर बेल की क्षण भंगुरता पर नहीं
कच्चे पेड़ या पौधों के फल या फूलों की आयु भी क्षणिक होती है और वे दिखते तो आकर्षक और स्वाद में मीठे होते है, पर उनमें कीड़े भी जल्दी पड़ते है ; यदि आपको हवाई जड़ों वाला मोटे तने का बरगद बनकर लंबे समय तक भीतर या बाहर जड़ें फैलाकर बने रहना है सदियों तक तो बहुत धैर्य, संयम, तटस्थ, निरपेक्ष और संतुलित रहना होगा, नई ताज़ा कोंपलों के साथ सड़ते जा रहे तने और खोखली होती जड़ों को स्थान देना होगा, स्वतंत्रता देनी होगी - तभी आप भरपूर स्थान घेर पाओगे इस भरी पूरी ज़मीन पर
कबीर कहते है ना
"धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय "
सबका समय है - सबका समय होता है, एक ही बबूल पतझड़ में सिर्फ कांटों से भरा रेगिस्तान में अकेला साहस से खड़ा रहता है - वहीं दूसरे मौसम में उसी बबूल पर पत्ते भी आते है, फलियां भी और सुंदरता भी, सप्तपर्णी का पेड़ इन दिनों सुप्तावस्था में है पर जब इसका समय आएगा तो अपनी सुवास से समूचे वातायन को महका देगा
हमें चुनना है कि हम भरपूर शाखाओं और पत्तियों से लदे बरगद बनें या मोगरे के फूल के पौधे - जो थोड़ी सी आंच से झुलस जाता है, कच्चे जामुन बनें जो फलदार है या सागौन - जो कटने के बाद भी सदियों तक आपके घर में देवघर बनकर देवताओं को जगह देता है या दरवाजे खिड़की की फ्रेम बनकर सुरक्षा कवच बने रहते है
मुझे नहीं पता, पर कच्चेपन के बरक्स मजबूती की लड़ाई में कौन - कैसे जीतेगा, पर यह भी सच है कि अब उम्र के उस पड़ाव पर हूँ कि धैर्य, संयम और शिष्टता के बदले उद्वेग, गुस्सा और क्षोभ ज्यादा होता है ; निश्चित ही इससे अपने साथ दूसरों को कष्ट होता है पर यह अवचेतन का संघर्ष कहां ले जायेगा - नहीं पता, बहरहाल अभी अपने-आप से लड़ रहा हूँ या बदला ले रहा - यह भी नहीं पता
मै संघर्ष के सफर में हूँ - जीत गया तो जीवन और हार गया तो सुखी हो जाऊंगा क्योंकि सब कुछ जब खत्म हो जायेगा तो मोह भी खत्म हो ही जायेगा
दुआ करें कि मैं यह लड़ाई फिर एक बार शिद्दत से हार जाऊं
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1- प्रकाशक अपने ही लेखक को पुरस्कार देने लगे इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी
2 - निर्णायक जब अपने ब्लर्ब लिखी किताब को पुरस्कार देने लगे तो कितना शर्मनाक है
3 - संपादक अपनी ही पत्रिका में छपी कहानी के नाम से छपे संग्रह को देश के श्रेष्ठ कथा संकलन को पुरस्कार देने लगे तो सबको डूब नहीं मरना चाहिए
जितनी बेशर्मी से आत्ममुग्धता, अपने जीते जी ट्रस्ट बनाकर किताबें छपवाने की धृष्टता लेखक से लेकर प्राध्यापक या आलोचक कर रहे है, अपने शोधार्थियों को डरा धमकाकर अपने ऊपर किताबें और आलोचनाएं छपवाने के बाद ही पीएचडी का डिफेंस या स्कालरशिप दिलवा रहे वह सोचकर ही इनको गाली देने का मन करता है, शर्म कैसे नहीं आती इन्हें यह सब करते हुए - और फेसबुक पर सब देख-पढ़कर ही घिन आती है
पढ़ना और इन फर्जियों को पुचकारना बंद कर दिया है - जितना दूध पिलाओ - ये उतने ही गले पड़कर जहर उगलते है, गलीज है और पक्के बेशर्म
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दरअसल में हमने जिंदगी को बहुत जटिल बना दिया है, हमारी उम्मीदें सबसे ज्यादा अपने - आप से बहुत बढ़ गई है, बहुत पुरानी बात तो नहीं - पर सिर्फ रोटी कपड़ा और एक अदद मकान का जुगत करने में जीवन बीत जाता था, जन्म से मरण तक यदि इसमें से सिर्फ एक या दो बातों का भी जुगाड हो जाता तो जीवन सफल हो जाता था, मसलन दादा-दादी या नाना-नानी, मामा या चाचा , बुआ या फूफा ने रोटी और परिवार ही पालें और किराए के मकानों में रहते हुए जीवन बीता दिया, ना दादा को अपने मकान का सुख मिला - ना नानी को, बाद हमारे माँ और पिता की पीढ़ी ने सारी उम्र मेहनत की और जीवन के उत्तरार्ध में मकान बनाए और उसमें कुछ दशक रह पाते - उसके पहले ही गुजर गए, अब उनके बनाएं मकानों में हम लोग रह रहें है - जो इस समय में इतने दरिद्र है कि रोटी - कपड़ा में खप गए और इन मकानों को दुरस्त रखना भी एक समस्या है, पर हमारी अगली पीढ़ी एक करोड़ के फ्लैट्स या बंगलों में रह रही है और बेहद संतुलित ढंग से सुख-सुविधाओं के साथ जीवन बसर कर रही है, इसके लिए वे हाड़तोड़ मेहनत भी करते है इस बात में शक भी नहीं
मूल बात यह है कि जीवन में हमने सबने बहुत चाहा, बहुत किया, पर मिला कुछ नहीं - कभी लगता है ईश्वर के पास भी देने के लिए अब कुछ बचा नहीं है, और बात यह भी धीरे - धीरे समझ आ रही है कि कोई किसी को कुछ दे भी नहीं सकता और ना किसी के पास इतना बल, या सामर्थ्य है कि वह दे सकें, हम जीवन में जन्म से ही उम्मीद, अपेक्षा और दूसरों पर निर्भर रहते है - जब हम सांसों तक के लिए प्रकृति पर निर्भर है तो पानी, भोजन, कपड़े से लेकर क्या है - जो हमारा अपना है और जो है वह है कुछ मूल्य, कुछ सिद्धांत और कुछ व्यवहारिकताएं - जो किसी काम के नहीं और इसलिए परस्पर लेनदेन पर चल रहे इस जीवन उपक्रम पर हम इतने निर्भर हो गए है कि जो हमारा था - हमने उसे छोड़कर मांग और पूर्ति पर ही जीवन के लक्ष्यों और धर्म-कर्म या आध्यात्म को भी केंद्रित कर दिया है, इसलिए भुगतने का संताप, अवसाद, तनाव और अंत में भयानक किस्म का डिप्रेशन दिनों-दिन जीवन का हिस्सा हो गया है और संसार के निन्यानवें प्रतिशत लोग इस रोग से ग्रसित है
हमारी अपेक्षाएं खुद से ज्यादा है, दूसरों से और ज्यादा - जबकि हम भूल जाते है कि दूसरा किस धरातल या पृष्ठभूमि से आ रहा है, उसकी समझ, उसका लालन - पालन, पढ़ाई, परिवेश, उसके मूल्य-सिद्धांत और उसके संस्कार क्या रहें है, उसके धर्म-कर्म और आध्यात्मिक पक्ष क्या है, पर हम जब अपनी क्षमताएं खोकर या एक्जास्ट करके बाहर ताकते है तो समझ आता है कि हमारे आसपास जो लोग है - वे हमारी अपेक्षाएं पूर्ण करेंगे और बदले में हम कुछ मायावी बंधन इकट्ठे कर जाल फेंकते है और पुनः एक बार अपने डिप्रेशन में चले जाते है - हम यह बारम्बार भूलते है कि सामने वाले या अपने ही लोग - आपकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए नहीं है
हम सब जीवन को सरल बनाने के बजाय क्लिष्ट और दुरूह बनाने के जतन कर रहे है, और मुझे लगता है यही आज हमारी मूल समस्या है - पर यह गुत्थी इतनी आसान भी नहीं सुलझाना, इसके लिए सतत मोह और अपेक्षा छोड़नी होगी - पहले अपने आप से, फिर दूसरों से और अंत में सरल, सहज एवं न्यूनतम तथा सीमित संसाधनों में जीने के प्रयास करना होंगे
और अंत में यक्ष प्रश्न है या सवाल सिर्फ शुरुआत का है बाकी सब तो आसान है - करके देखिए - शायद ठीक लगें
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मेरे पास जीवन भर में मिलें मित्रों के ढेरों तोहफें है, दुर्भाग्य से करीब सौ डेढ़ सौ किलो चिठ्ठियां थी पर एक दिन तैश में आकर सब जला दी, 1978 से लिखी अपनी निजी डायरियां भी, वरना आज मैं और अमीर होता, इन दिनों अक्सर घर में कुछ सामान या कागज ढूंढने के दौरान नजर के सामने से कुछ गुजरता है तो बहुत कुछ याद आ जाता है, अभी तेज हवा चल रही है, आंधी और बवंडर है तो कोने में लटकी जारूवा आदिवासी जोड़ी का म्यूरल झोंके खा रहा है, आज शिद्दत से देखा तो उस पर बहुत धूल जम गई है, याद पड़ता है 2003 में शायद पोर्ट ब्लेयर गया था - जब वहां के बिशप एनाथिल और सिस्टर एग्निस ने बड़ी मनुहार से बुलाया था - अपने स्टाफ को एक प्रशिक्षण देने और आठ दस दिन खूब घुमाया था और आते समय यह गिफ्ट दिया था कि हम इस आदिवासी समुदाय के साथ काम कर रहे है - जो निहायत ही भोला और समुद्र के पानी का प्रेमी है तो भीग गया था मैं, जारूवा आदिवासी को नरभक्षी कहा जाता है - जबकि उनके कई युवाओं और महिलाओं से मिला तो नजदीक से देखा और समझा भी, चॉपर में बैठकर डिगलीपुर, रामपुर भी गया था - उन घने जंगलों में जहां ये बिखरी हुई आबादी में रहते थे
सन 1990 में पांडिचेरी के जीवनंदा हायर सेकेंडरी स्कूल में किशोरों के साथ एक कार्यशाला करने गया था तो एक फ्रेंच परिवार के किशोर से मिला था - जो फ्रेंच बस्ती में रहता था, पांडिचेरी फ्रांस का एक उपनिवेश था हम सब जानते है, और आज भी वहां कई फ्रांसीसी परिवार रहते है ; ईसाई थे उसके पिता और माँ तमिल थी - उसका नाम था इदयवेंदेन मैने पूछा कि इसका मतलब तो बोला "तमिल में इसका अर्थ है फूलों का राजा" बिल्कुल वैसा ही था, उन दिनों उसने अपने दोस्त की साइकिल लेकर मुझे दी और हम दोनों उसकी और उसके दोस्त की साइकिल पर आठ दिन तक पांडिचेरी का समुद्र, यूथ हॉस्टल, अरविंद आश्रम और सारा बाजार देखते रहे थे, आते समय उसने मुझे एक फ्रेंच मेड घड़ी दी थी जो उसकी माँ की एकमात्र निशानी थी, बहुत सालों तक चिठ्ठी पत्री होती रही पर बाद में पता चला कि वह फ्रांस चला गया और वही शादी कर ली, घर बेच गया था वो
वेंदेन या सिस्टर एग्निस या बिशप एनाथिल - आज याद आ रहे है, शायद यही दिन रहें होंगे - गर्मी और बरसात के सम्मिश्रण वाले दिन और ऐसे ही किसी दिन बिशप के कार्यक्रम का एकदम युवा मैनेजर किशोर अधिकारी अपनी नवविवाहित पत्नी शिउली के साथ चर्च के ठीक सामने मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ने आया था और आते समय ढेर सारे समुदी उपहार भी दे गया था और ढेर सारे केले के चिप्स भी, किशोर चौबीस परगना का रहने वाला था और उसकी पत्नी हावड़ा की थी, पोर्ट ब्लेयर में आज अधिकांश बंगाली परिवार सेटल हो गए है और नौकरी एवं व्यापार में संलग्न है सब
आज सोचता हूँ तो लगता है कितने सुहाने दिन थे, अब पता नहीं कितना समय बाकी है - पर नासिर साहब का यह शेर याद आया तो बहुत कुछ याद आया ; बवंडर और आंधी बदस्तूर बाहर बने हुए है और भीतर जितना उतरता हूँ - ये आवाज़ें तेज और तल्ख़ होते जाती है पता नहीं किसको सुनूं और किसको भूलूं - हल्की बरसात शुरू हो गई है, पता ही आसमान में बैठकर कौन रो रहा है
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हमारे जीवन का फलक विशाल कहूं या छोटा, पर एक लम्बा समय काल है - जो हम सबसे ज़्यादा अपने साथ बीताते है और बाकी सब से मिलते - जुलते हुए, स्मृतियों को इंद्राज़ करते हुए अपनी संपदा बढ़ाते है, यह मिलना - जुलना और इंद्राज़ करना याद रहता है ताउम्र और बाद में हम लगभग तीन - चार दशक तक तो कही ना कही, किसी ना किसी के जहन में बसे ही रहते है
जन्म के समय से जब हम माँ की छबि याद रखते है तो कोई संदर्भ होता है, हम अक्षरों से पहचान करते है तो संदर्भ होता है, अपने घर या परिवेश से चीजों को पहचानना शुरू करते है तो संदर्भ होता है, क्योंकि हमारे दिमाग़ की बनावट ही कुछ ऐसी है कि एकल स्मृति का अपने-आप में कोई महत्व भी नहीं और स्वीकार्यता भी नहीं ; मसलन यदि हम किसी शहर को याद रखते है तो इसलिए कि वहां कोई रिश्तेदार, दोस्त या कोई ना कोई ऐसी चीज है - जिसको याद करने पर हम बरबस ही उस शहर में घुस जाते है और वहां की हर बात या चीज को समझ लेते है किसी सामान, कपड़े, उपहार, सुख - दुख, इज्जत या ज़हालत के साथ भी सैंकड़ों संदर्भ जुड़े रहते हैं
हम किसी से मिलते है तो हमें उससे जुड़े हुए पहले के या ताज़ा कोई लिंक याद रहता है, यदि पहली बार मिल रहे है तो हम संदर्भ ढूंढ़ने की कोशिश करते है, और फिर अपनी स्मृति में उस संदर्भ के साथ या उसके आजू-बाजू फिट करके सब स्थाईरूप से स्मृति में बसाने की कोशिश करते हैं, ऐसे में व्यक्ति, घटना, स्थान या कोई प्रसंग कही अच्छी स्मृति में या कही किसी दुखद अनुभव के साथ जुड़ते जाता है
हम सब स्मृति या याददाश्त के धनी है और जब अपने बारे में सोचता हूँ तो यह पक्के से कह सकता हूँ कि मैं कुछ नहीं भूलता, दशकों बाद अक्षरशः सब ज्यों - का - त्यों बता सकता हूँ, सिर्फ इसलिए कि मैं व्यक्ति नहीं बल्कि घटना, संदर्भ, प्रसंग या कोई विशेष बात के साथ अपने मन-मस्तिष्क पर सब टंकित करता हूँ अच्छा-बुरा समय, संवाद, आवाज, मौन, आँखें, हाव-भाव, बॉडी लैंग्वेज, कपड़े, रंग, परिवेश, स्थान और मूड्स और शायद यही वजह है कि मेरी स्मृति शक्तिशाली है और मै बहुत पुख्ता तरीके से हर बार बहुत सोच-विचारकर बर्ताव करता हूँ, लिखता-पढ़ता हूँ या परस्पर व्यवहार करता हूँ - फिर वो अपने आपसे हो, परिवेश से, घर परिवार में या समाज में
स्मृति का विलोप होना सुखद है, ऐसा मेरा मानना है, जो सब कुछ भूल जाता है या भूल सकता है - वह संसार का सबसे सुखी प्राणी है, जानवर इस मामले में सुखी है, मोहल्लों में कुत्ते या कोई और जानवर यदि स्मृति दंश के शिकार होते तो अब तक शायद पृथ्वी पर से कुत्तों की या किसी भी चौपाए या नभचर की प्रजाति ही समाप्त हो जाती, पर हम सब मनुष्य मात्र है और हम सब याद रखते है, हम सब भूलने की अदाकारी बड़ी शानदार करते है, ऐसा करके हम किसी को नहीं - वरन अपने आपको बचाते है
अंत में सिर्फ इतना कहूंगा अपने आप से भी कि यदि कभी सृष्टा होता किसी या इसी जन्म में तो हर आने - जाने वाले को कहता कि "जा, तुझे स्मृति लोप का रोग लग जाए, तू अपने आपको भी भूल जाए - ताकि एक सुखद जीवन जी सकें, स्मृतियों के संग-साथ जीना सिर्फ श्राप है और मनुष्य मात्र का जीवन यदि सिर्फ एक बार ही मिलता है तो यह श्राप कभी किसी के नसीब में ना हो"
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सामाजिक कार्य में क्या ना करें - 5
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To the organizations celebrating their journeys with grand parties this year, I humbly wish to express a concern: it is disheartening to see that, at such significant moments, recognition is often limited to funders and large organizations. Let us not forget the people who truly built your banners—teachers, health workers, outreach workers, your own dedicated staff, marginalized communities, and countless individuals on the ground.
I say this with sincerity and some frustration—not to be vulgar, but because I feel deeply disappointed.
This is not a critique of any one organization, but a reflection on a broader trend among many NGOs today. Much of the work and presentation seems tailored for donors and funders. The demands, the unrealistic expectations, the adoption of corporate culture, and the imposition of so-called universal ideas—often driven by privileged, literate staff—are deeply concerning. This shift has turned NGOs into donor- or UN-driven entities, distancing them from the communities they claim to serve. People are reduced to beneficiaries, or mere targets of intervention.
I urge everyone to reflect on this. I hope organizations will reset their priorities and lead with genuine, grounded work. It’s time to pause, take a deep breath, and rethink the obsession with turnover-based projects and accumulating large corpus funds.
Linkedln पर अभी एक संस्था के उन्नीस वर्ष पूरे होने पर निदेशक का आभार वक्तव्य पढ़कर हैरान रह गया जिसमें सिर्फ बड़े डोनर्स, संयुक्त राज्य के पिट्ठू, कार्पोरेट्स के लोगों और बड़े बड़े व्यक्तियों के लिए आभार था पर एक भी उस व्यक्ति का नाम नहीं था जिसने उंगली पकड़कर चलना सीखाया , बेहद शर्मनाक और एहसान फरामोश किस्म का वक्तव्य था यह
उन संस्थाओं के लिए जो इस वर्ष भव्य पार्टियों के साथ अपनी यात्रा का जश्न मना रही हैं, मैं विनम्रता से एक चिंता व्यक्त करना चाहता हूँ: यह देखकर दुख होता है कि इतने महत्वपूर्ण अवसर पर पहचान केवल फंडर्स और बड़ी संस्थाओं तक ही सीमित रह जाती है। कृपया उन लोगों को न भूलें जिन्होंने वास्तव में आपकी पहचान बनाई — शिक्षक, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आउटरीच कार्यकर्ता, आपकी अपनी समर्पित टीम, हाशिए पर रहने वाले समुदाय और जमीनी स्तर पर काम करने वाले अनगिनत लोग।
मैं यह बात पूरी ईमानदारी और कुछ हद तक निराशा के साथ कह रहा हूँ — अभद्रता से नहीं, बल्कि इसलिए कि मैं वास्तव में आहत हूँ।
यह किसी एक संस्था की आलोचना नहीं है, बल्कि आजकल अधिकांश एनजीओ में उभरती एक व्यापक प्रवृत्ति का प्रतिबिंब है। आजकल अधिकांश कार्य और प्रस्तुतियाँ दानदाताओं और फंडर्स को ध्यान में रखकर की जा रही हैं। मांगें, अवास्तविक अपेक्षाएँ, कॉर्पोरेट संस्कृति को अपनाना और तथाकथित वैश्विक विचारों को थोपना — जो अक्सर कम पढ़े-लिखे या अपढ़ कुपढ़ या अर्ध शिक्षित स्टाफ द्वारा किया जाता है — यह सब बेहद चिंताजनक है। इस बदलाव ने एनजीओ को दाता- या संयुक्त राष्ट्र-चालित संस्थाओं में बदल दिया है, जिससे वे उन समुदायों से दूर हो गए हैं जिनकी सेवा करने का वे दावा करते हैं। आम लोग अब केवल "लाभार्थी" या एक लक्ष्य या टारगेट मात्र बनकर रह गए हैं।
मैं सभी से आग्रह करता हूँ कि इस पर गंभीरता से विचार करें। मुझे उम्मीद है कि सामाजिक संगठन अपनी प्राथमिकताओं को फिर से निर्धारित करेंगे और वास्तविक, जमीनी कार्य के साथ आगे बढ़ेंगे। यह रुकने, गहरी साँस लेने और टर्नओवर-आधारित प्रोजेक्ट्स और बड़े कॉर्पस फंड की दौड़ में होने के बजाय काम और समुदाय की आवश्यकताओं पर फिर से विचार करने का समय है।
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जीवन के अनुभवों से सिर्फ यही सीखा है कि अपने - आप पर ही विश्वास रखो और वही करो - जो स्वयं को सही लगता है, वहीं बोलो - जो आपने देखकर या सीखकर महसूस किया है और आत्मसात करके अपने शब्दों में ढाला है, वही सुनो और अंगीकार करो - जो आप सुन सकते हो और व्यवहार में ला सकते हो, क्योंकि आपकी क्षमता और हुनर से आप ही वाक़िफ हो
किसी दूसरे के लिए, फिर वो भले ही कोई कितना अपना दोस्त हो या करीबी, सिर्फ उसके लिए, उसके सपनों या उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए मत करो कुछ भी, बल्कि ऐसे तमाम लोगों को अपने जीवन और विचारों से निकाल बाहर करो - जो आपकी मन मस्तिष्क की शांति को हराम करने के लिए बैठे है या आपकी पीठ के पीछे नित्य - प्रतिदिन कुचक्र रचते रहते है और अपने पाप या कुकर्म छुपाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते है
इधर पिछले दो - तीन माह में पचास - साठ लोगों को जीवन से हटा दिया है और अब थोड़ी राहत है, हालांकि कष्ट तो बहुत हुआ था - पर जब घाव बहुत ज़्यादा बढ़ जाए तो उस अंग को काटकर फेंक देना ही समझदारी है और अब लग रहा है - क्यों वर्षों तक ये सब ढोता रहा और जबरन निभाता रहा
जिस बात, जगह, काम या विचार में सुकून मिलता है वहीं करना श्रेयस्कर होता है - सिर्फ लिहाज़ या दोस्ती, रिश्ते - नाते निभाने के लिए निभाते जाने से बेहतर है - अपने मन रूपी जहाज से वो सब सामान फेंक दो - जो एक दिन जहाज डूबो देंगे, कहते है ना लंबी दूरी तय करना हो तो सिर पर कम बोझ रखकर चलो
जब अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे हो तो मानसिक शांति सबसे जरूरी है, और ऐसे में यदि आपको लगातार षड्यंत्र, रिश्तों के लॉलीपॉप में लिपटा ज़हर, और बोझ बढ़ाने के आकर्षक लालच दिए जा रहे हो तो उन्हें पहचानकर त्यागने की समझ होना बहुत जरूरी है, लोग आपको चंद लालच देकर अपने घर और मन मस्तिष्क का कूड़ा तक साफ करवा लेंगे, बचो इनसे जितनी जल्दी हो सकें निकल लो
आज जहां तीन महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करनी थी वहीं सिर्फ एक में गया क्योंकि बाकी जगहों पर जाने या ना जाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था और जीवन की गति पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, देवास, इंदौर, भोपाल या देश - प्रदेश में हर हफ्ते उल्टी - दस्त की तरह से होने वाले घटिया साहित्यिक कार्यक्रमों को तज ही दिया है - क्योंकि इनमें चुके हुए चौहान, रिटायर्ड खब्ती लोग, या हर जगह से निकाले - हकाले हुए लोग आकर पकाते रहते है, इसलिए अब यही सीखा है कि हर क्षण प्राथमिकता तय करनी है और हर क्षण निर्णय लेना है कि इन सब झंझावतों में "मै कहां हूँ, क्या हूँ और क्या होगा मेरे होने से" - एकदम सरल सा फार्मूला है जीवन को जानने का
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व्यक्ति, परिवार, तंत्र, व्यवस्था या कोई भी संस्थान बहुत सारे सपनों, उम्मीदों, आशाओं और अरबों लीटर खून के सम्मिश्रण से बनते है, पर अफसोस चंद घटिया कीड़े, अवसरवादी लोग, निट्ठल्ले और मक्कार, राजनैतिक और विशुद्ध स्वार्थी लोग इनमें दीमक की तरह से कुछ ऐसे घुस जाते है कि सब कुछ खोखला कर देते है
दुर्भाग्य यह है कि ये लोग ही मोटी तनख्वाहें , सुख सुविधाएं और तमाम तरह की सहूलियतें लेकर व्यक्ति, तंत्र और संस्थाओं को खोखला करते रहते है और बाद में संगठित तरीके से लगातार श्रृंखलाबद्ध होकर एक के बाद एक को नष्ट करते हुए अपना अश्वमेघ यज्ञ चालू रखकर विजयी पताका फहराते रहते है, निर्लज्जों को लाज भी नहीं आती - सत्य, प्रेम, अहिंसा, करुणा, दया, मनुष्यता, मूल्यों, पारदर्शिता, समता, समानता, भ्रातृत्व, अपरिग्रह, एषणा, आदि जैसे शब्दों का हथियार बनाकर सब कुछ तहस - नहस कर रहें हैं - छग से हकाला गया एक छद्म, पाखंडी या तमाम तरह के फर्जी गांधीवादी, लोहियावादी, जेपीवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी, अंबेडकरवादी या बड़े - बड़े पत्रकार इसके उदाहरण है जो महंगे झब्बे पहनकर महंगी गाड़ियों में घूमते है और बड़े-बड़े मठ और गढ़ बनाकर कम्फर्ट जोन्स में जीवन जी रहे है
शर्मनाक यह है कि यह प्रवृत्ति राजनीति, समाज, प्रशासन, शासन, एनजीओ, मीडिया, कार्पोरेट्स और व्यक्तिगत घरों में भी घुस आई है, पर हम लापरवाह होकर बैठे है और सब कुछ जानते - बुझते हुए आंखों देखी मक्खी निगल रहें है, आखिर हमारी ऐसी कौनसी नब्ज़ इन लोगों ने दबा रखी है -जो संख्या बल में एक सौ पचास करोड़ के करीब होकर और हर बात का मालिकाना हक होकर भी इन चंद दो - चार हरामियों को हकाल नहीं रहें है
अपने आसपास देख रहा हूँ इस बात के आलोक में तो गत चालीस वर्षों में लोमड़ी, सांप, बिच्छू, नेवलों, गिद्धों, उल्लुओं, और गिरगिटों को ही सुपोषित और हष्ट-पुष्ट पाता हूँ , धिक्कार है ऐसे लोगों पर छी है
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"युद्ध पर लिखा कि नहीं कुछ", लाइवा पार्क में दिख गया आज
"जी, मेरी युद्ध पर लिखी दो हजार इक्कावन कविताओं का संकलन भी आ रहा है, इसको मिलाकर कुल सत्ताईस काव्य संकलन इस वर्ष के हो गए, अभी तो जून से दिसंबर तक समय पड़ा है" - उचकने लगा यह कहते हुए
"अच्छा, फिर मिलते है कभी, अभी सब्जी लेकर घर जाना है" - यह कहकर निकल लिया लाइवा
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निंदा, तुलना, बुराई, होड़, प्रतिस्पर्धा, जलन, घृणा जैसे मूल्य या ये सब शब्द साधारणत: नकारात्मक रूप में देखें जाते हैं और हमेशा से इनसे दूर रहने को कहा गया है - फिर वो लाओत्से, जेन, ओशो, बुद्ध, महावीर, गांधी, श्रीकृष्ण या महाग्रंथों का सार हो - पर हम सब निकृष्ट मनुष्य है - हमें जितना इनसे दूर रहने को कहा जाता है, हम उतने ही इनके आकाश तले जाकर दुबकते है, सांस लेते है, क्षणिक सुख पाते है, संतुष्ट होते है, आत्म मुग्धता से आत्म ग्लानि तक गुजरते है पर शांति नहीं पाते है और जूझते रहते हैं
पर एक बात जरूर समझ आई कि मुझे आज तक कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं मिला - जो इनसे पार हो चुका हो, जो इनमें पारंगत नहीं हो, जो भ्रष्ट या कदाचारी ना हो, जिसने बेईमानी और निम्न तरीकों से यश, धन, ख्याति, कीर्ति या पुरस्कार ना कमाएं हो - कुल मिलाकर, यहां हम सभी आत्ममुग्ध है और अपने - आपमें निहायत ही दोगले और लालची - जो समय आने पर किसी भी शक्ति पुंज की चापलूसी कर अपने स्वार्थ की सिद्धि में लग जाते है, भले ही सम वयस्क हो या अर्धआयु का हो
जैविक व्यापार ही जीवन है - जिनमें ना मूल्य है, ना संस्कार, ना बोध है - ना परम्परा, ना मनुष्यता है - ना वैश्विक या सामुदायिक भावुकता, ना सहानुभूति है - ना समानुभूति, बस हम तमाम प्रपंच करते हुए इतने परिपक्व अभिनेता बन गए है कि चाहते है संसार के सभी लेंसेस का फोकस हम पर बना रहें, एकछत्र रूप से हम मंच पर उजास में बने रहें और बाकी दुनिया और प्रकृति यवनिका में चली जाए
बस इसी सबसे मुक्ति की कामना ही संन्यास है और डिटैचमेंट आध्यात्म का परिपक्व रास्ता, जितनी जल्दी यह विचार कर हम डिटैच होते जाए आगे का सफर आसान होते जायेगा
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सभी बच्चों और पालकों को बढ़िया परीक्षा परिणाम की बधाई
बच्चों के प्रतिशत ना लिखें यहां, यह मानसिक तनाव, ग्लानि और अपराध बोध पैदा करेगा, लंबे समय तक शिक्षक के रूप में रहा हूँ इसलिए अंकों के खेल से वाक़िफ हूँ और ये प्रतिशत जीवन में कुछ नहीं दे सकते या दिला सकते सिवाय अगली कक्षा में प्रवेश के
अपने बच्चों के संग उपलब्धि मनाइए, पार्टी कीजिए, आइस्क्रीम खाइए, उन्हें घूमने ले जाइए, गिफ्ट दीजिए पर इस प्रतिशत के गंदे नाले में मत उतरिए प्लीज, सिवाय कीचड़ और घटिया पन के कुछ नहीं है, आप अपने ही बच्चों से दूर हो जायेंगे बाजार के खेल में, उन्हें आपकी जरूरत है इस सोशल मीडिया के लाइक्स और कमेंट्स की नहीं
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