कभी कभी थोड़ी सी लापरवाही या आलस जीवन भर का अफसोस बन जाता है, यह सिर्फ़ भुगत कर ही महसूस किया जा सकता है
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असुरों को हराने के लिये अप्सराओं की ज़रूरत होती है और यह बात समझने में बहुत लोग चूक जाते है, बेहतर है कि जितनी जल्दी हो समझ लें ताकि आप राज, समाज, सत्ता और अर्थ को भलीभाँति समझ सकें
[ कृपया जेंडर से इसे जोड़कर ना देखें - इस समय अप्सराएँ खुद इस संवेदनशील और गहन उपयोग के लिये स्वयं तत्पर है ]
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दिल्ली पुस्तक मेले में हर दिन होने वाले विमोचन का होना शुभ है पर जो आलू बोल रहे है ज्ञान दान कर रहें है किसी भी विधा पर बग़ैर किताब पढ़े और मैला सा अंट-शंट बोल रहे है उसे आप एक बार ठहरकर सुन लें तो कसम से मेले से भाग जायेंगे
दूसरा, विमोचन के फोटो देखिये ज़रा - बस 4,5 लोग जिनका केशलोचन हो रहा है वो पोस्ट हो रहा पर विपरीत दिशा में जो निर्वात है या पाठक या श्रोता है - वो नदारद है इसलिये उनके फोटोज़ नही है
5 रुपये में किताब की लेखक की बेइज्जती करने वालों का स्टंट खत्म हो गया है और 5 रुपये का सेट भी गीता प्रेस के गुटखे की तरह खत्म हो गया है और ये हाथ पर हाथ धरे बैठे है
कुछेक को टीवी, फ़िल्म के कलाकारों को स्टॉल पर लाकर माल खपाने की जुगाड़ करना पड़ रही है,बेहतर होता कि मुजरे भी करवा लेते
गला फाड़कर स्टॉल पर ज्ञान देने वाले और मोटिवेशनल वक्ता और जूते पॉलिश करने की कला से लेकर बाकी विधाओं पर ज्ञान पेलने वालों की तालियों से बेइज्जती हो रही - अफसोस ये समझ नही पा रहें है
कुछ भौकाल टाइप चोर उच्चके और कॉपी पेस्ट पकड़ पकड़कर अपनी महत्ता लोगों को बताकर छल रहें है
बाकी सब मजे में है - दो दिन और - कल सब खत्म
[ दिल्ली से लौटकर ]
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गंगा नदी की लंबाई लगभग 2525 किमी है फिर नहाकर मोक्ष तो कही भी पाया जा सकता है, एक शहर पर दबाव - वो भी अपनी जान में जोख़िम में डालकर जाने की ज़रूरत क्या है, मूर्ख राजनेता, घटिया मीडिया और ढोंगी मुख्य मंत्री के कारण प्रयागराज की यह हालत हो गई है
इस वैज्ञानिक युग में अंधविश्वास और गफ़लत की यह हालत है तो वर्षों पूर्व क्या होता होगा - अजीब समाज है, एक ओर उपग्रह छोड़ना है, दूसरी ओर अंधविश्वास पालना है
यहाँ पर ढोंगी, पाखंडी, और निहायत ही अव्वल दर्जे के उजबक लोगों के कमेंट्स की ज़रूरत नही, वे मेरे हाथ धोये पानी से कुल्ला करके बता दें तो समझूंगा कि गधे घोड़े गंगे नहा लिये, ज़्यादा ज्ञानी ना बनें और बकवास ना करें
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कभी अपने - आप से भी अबोला कर लेना चाहिये, बाकी संसार से बात करके जी उकता गया है, अब ना किसी से सम्बन्ध रखने की इच्छा है और न बात करने का मन है, हर ओर एक परख - निगरानी, बग़ैर मूल्यांकन किये जजमेंटल होने की जल्दी, आप्त सुरों का ज़खीरा, हर किसी को बेसुरा घोषित करने की हड़बड़ी, दूसरों से अनगिनत अपेक्षाओं का बोझ, जिंदगी की नाउम्मीदी में अपनी ओर आस से ताकते लोग, बेबस और गला घोटती बेचैनियों का अँधेरा सफ़र, और अंत में पीड़ाओं से लबरेज़ रिश्तों के बोझ तले घुटती जा रही ज़िंदगी के आसपास चंद हँसी और ठहाकों के पल - आश्वस्ति सिर्फ़ इतनी है कि कभी तसल्ली से इस दौड़ में कोई एक दिन मिल जाता है जब बेहद खास और अपने बनायें दोस्त मिल जाते है तो जी हल्का हो जाता है
काश कि किसी जीव की भाँति खोल में सिमट पाते, रेत में गर्दन झुकाकर छुप ही जाते, संसार में रहकर भी मौन में धँस जाते, एक लम्बी बन्द सुरँग में निकल पड़ते ऐकले चलते हुए अपनी धुन में अपना रास्ता बनाते हुए या किसी उद्दाम वेग से बहती हुई नदी के किनारे पाँव डालकर निहारते रहते पानी को या किसी सूने पहाड़ की चोटी से आसमान के वैभव को अपने वीराने में घूँट दर घूँट पीते रहते, समुद्र की गर्जना सुन आकांक्षाओं की नाव पर भवसागर पार कर लेने के अनसुलझे स्वप्न ही देखतें, पर यह सब अब नामुमकिन लगता है
जीवन एकाकीपन में परिपूर्ण है बजाय किसी भीड़ के पागलपन में अनुसरण करते या नेतृत्व देते हुजूम का हिस्सा बनते हुए....
देवदार के ऊँचे पेड़ों के नीचे हम अक्सर बौने हो जाते है और चींटियों की बांबी के सामने विशाल पर जीवन इन दोनों के बीच कही जद्दोजहद करके खत्म होते रहता है
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