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Cherry, Khari Khari, Man Ko Chithti and other Posts from 15 to 25 Feb 2025


सामाजिक नागरिक संस्थाओं में काम तो बहुत होता है परंतु काम करने के अपने द्वंद, समस्याएं, चुनौतियां और रास्ते बहुत मुश्किल है - खासकरके पिछले दो दशक से सामाजिक संस्थाओं के सामने काम करने की बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गई है ; समाज - सरकार और अनुदान देने वाली संस्थाएं - यानी तीनों के साथ तालमेल बिठाकर समाज के गरीब और वंचित वर्ग के साथ उनके हकों को दिलाने के लिए काम करना बहुत मुश्किल होते जा रहा है

दूसरा यह भी है कि जिस तरह से इधर संस्थानों में काम होता है - उससे लग रहा है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंच पा रही है और कुल मिलाकर अपने आंतरिक मसलों में उलझ कर रह जाती है. इसके कई कारण है - संस्थानों में टीम प्रबंधन का ना होना, संस्थाओं को अपने मायने और बुनियादी दृष्टिकोण की समझ ना होना, कार्यक्रम प्रबंधन ठीक से ना कर पाना, और अलग -अलग स्तर पर समाज और सरकार के साथ संचार को लेकर स्पष्टता नहीं होना बड़ी वजह है, जिसकी वजह से ना मात्र कार्यक्रमों पर असर पड़ता है बल्कि वांछित परिणाम भी नहीं मिल पा रहें है
इन सब मुद्दों पर बहुत शोध और काम हुआ है, परंतु वह या तो अंग्रेजी में है या फिर एकेडमिक रूप से इतना सुघड़ और क्लिष्ट है कि उसे समझना बहुत मुश्किल होता है खासकरके ज़मीनी काम करने वालों के लिए - विकास संवाद द्वारा प्रकाशित और सचिन कुमार जैन द्वारा लिखित ये चार पुस्तकें इस बाधा को बहुत हद तक पार करती हैं और बहुत सरल तरीके से इन चार प्रवेशिकाओं के माध्यम से चार महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी बात विचार और उद्देश्य स्पष्ट रूप से सामने रखती हैं
आज के समय के लिए सामाजिक नागरिक संस्थाओं में इस तरह के दस्तावेज होना नितांत जरूरी है - सिर्फ इसलिए नहीं कि इन्हें पढ़ा जाए - बल्कि इसलिए भी कि इन्हें पढ़कर जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और संस्था के प्रबंधन से जुड़े लोगों को एक स्पष्ट दृष्टि और दिशा मिल सकेगी - ताकि इस बदलते हुए समय में चुनौतियों का सामना करते हुए सकारात्मक सोच से बदलाव के लिए कुछ ठोस काम कर सके
यदि आपको लगता है कि ये पुस्तकें महत्वपूर्ण है तो आप विकास संवाद में संपर्क करके इन्हें मंगवा सकते हैं
सम्पर्क के लिए office@vssmp.org या श्री मनोज गुप्ता ( 9752071393) या श्री कमलेश नामदेव (9827786440 ) से सम्पर्क कर सकते है
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सबसे ज़्यादा दुख अपने लोग देते है और अफसोसजनक यह है कि एक "माफ़ी" लिखकर एवं बोलकर इन्हें लगता है कि वे सम्बन्धों को सुधार लेंगे, कोई अनजान यह करें तो बात है पर गाँव - देहात के अपने लोगों, रिश्तेदार और मित्रों से यदि ऐसे व्यवहार मिलें तो दुख होता है खासकरके जिनके लिए हमने समय ही नही दिया बल्कि अपने जीवन में इन्हें स्नेह, सम्मान, महत्व और स्थान दिया, और सामने वाला इस सबको मूर्खता समझता है और स्वयं को महाज्ञानी - ये लोग सिर्फ़ धंधेबाज है - जिन्हें रुपये की हवस ने कही का नही छोड़ा है , ये निर्लज्जता से कह भी देते है कि रुपये कमाने में लगे थे - इससे ज़्यादा बेशर्मी और क्या हो सकती है
बेहतर है कि इन सब रिश्तों को समाप्त कर देना चाहिए
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"We wear the mask that grins and lies, it hides our cheeks and shades our eyes." – Paul Laurence Dunbar, We Wear the Mask
◆ Cesare Mariani
[ हम वह मुखौटा पहनते हैं जो मुस्कुराता है और झूठ बोलता है, यह हमारे गालों को छुपाता है और हमारी आँखों को काला करता है ]
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हम सब जीवन में अक्सर कमियों का, नाकामियों का, ग्लानियों, असफलताओं और अभावों का रोना रोते है - पर कभी हमने पलटकर और दो पल ठहरकर यह नही देखा कि मेरे पास क्या है जो मुझे औरों से अलग करता है, वो क्या है - जो मेरे पास है और किसी के पास नही, जो आपके पास है वह बिरला है और इसे पाने के लिये किसी दूसरे को कितने जीवन लग जायेंगे या अनथक प्रयास करना होंगे आप कल्पना भी नही कर सकते, अब जब मैं धीरे - धीरे बहुत कुछ छोड़ता जा रहा हूँ, भीतर की ओर बढ़ रहा हूँ तो एहसास हो रहा है कि तमाम अवगुणों के बावजूद कुछ है जो मेरा है, अनूठा है और जिस पर मैं कम से कम भीतर ही भीतर ख़ुश हो सकता हूँ और गर्व कर सकता हूँ
बस इतना कहूँगा कि जो आपके पास है, जैसा भी है, जितना भी है - उसे खोइये मत - वरना सच में आपके पास अपना कुछ नही रहेगा एक दिन और रीत जाने से बड़ा दुख संसार में कोई और हो नही सकता
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कठपुलियों की कहानी पढ़ना हो तो हमारे स्व बिज्जी यानी विजयदान देथा को पढ़ना, कितनी सुंदरता से वे राजस्थान के लोकजीवन में कठपुतली और कथाओं के संसार के बहाने फैंटेसी और गल्प के साथ जीवन की वास्तविकता बुनते थे, स्व अनिल बोर्दिया जी, अरूणा रॉय, शंकर, बासु, आर डी शर्मा, ओमप्रकाश कुलहरी, मोती, चारू, बजरंग लाल, मैं और लोक जुम्बिश के तत्कालीन स्टॉफ उनसे बोरुंदा में कहानियाँ सुनते और रात कब बीत जाती - मालूम नही पड़ता - काश कि आज बिज्जी ज़िंदा होते तो यह सब देखकर क्या रचते
रमणसिंह, शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे बहुत परिपक्व और स्वतंत्र रूप से काम करने वाले लोग थे, अपने अपने राज्यों की नब्ज़ जानते थे, लोगों से जुड़े थे और लगभग 2 - 3 कार्यकाल पूरे कर चुके थे और यदि ये तीसरी - चौथी बार मुख्यमंत्री बनते तो दो गुज्जुओं की आंतरिक तानाशाही, सत्ता को नकार कर राज्यों में बहुत कुछ कर सकते थे और इन तीनों को मालूम पड़ गया था कि "परहित सरस धर्म नही दूजा", हालाँकि दूध के धुले तो बिल्कुल नही थे, अकूत सम्पत्ति बनाई और तमाम तरह के काम जनकल्याण के काम में जुटे रहें पर लोगों में इनकी उज्ज्वल छबि रही और मूल मनुष्यता थी थोड़ी बहुत
भाजपा का और संघ का फेस लिफ्टिंग करने में इनका बहुत बड़ा योगदान था, पर अंत में कठपुतली बनने से इंकार कर दिया और सबसे ज़्यादा मोदी के लिये खतरा बन गए थे - अमित शाह ने बड़ी तरतीब से इनका पत्ता काटकर, नई कठपुतलियाँ खड़ी की और गाय पट्टी के राज्यों की बागडोर अपने हाथों में रखी, इस तरह से आज 11 राज्यों की सत्ता केंद्रीकृत है और वहाँ सिर्फ दो लोगों से पूछकर हर तरह के निर्णय लिए जाते है - मसलन राज्य प्रमुख के घर करेले की सब्जी बनेगी या पालक की ; और इस तरह से संविधानिक विकेंद्रीकरण के नाम पर 78 वर्षों बाद भयानक किस्म का केंद्रीकरण हुआ है और तमाम तरह की विकेन्द्रित व्यवस्थाओं को कुचला गया है , राज्यों की स्वतंत्रता खत्म कर दी गई, अनुपूरक सूची हो या राज्य केंद्र के बीच की शक्तियाँ या अधिकार , यहाँ तक कि मंत्रालयों में भी सिवाय गडकरी के कोई नज़र नही आता जो जनोन्मुखी काम कर रहा हो स्वतंत्र रूप से
सँविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन अधिनियम को देख लें, राज्यपालों की भूमिका देख लें या राष्ट्रपति की शक्तियों को व्यवहार में देख लें या अन्य सँविधानिक संस्थाओं को लाचार और लचर सुप्रीम कोर्ट को देख लें, यहाँ तक कि गाहे - बगाहे मोहन भागवत को भी ये दोनों लोग बख्शते नही है, कुल मिलाकर एक योगी है - जो अभी भी ना संघ की सुन रहा, ना इन दोनों को घास डाल रहा और मोदी के बाद कौन पर पर्दा गिरा नही - बल्कि सारे पर्दों की तुरपाई उघाड़कर खुला खेल चल रहा है तानाशाही को सामने के दरवाज़े से लाने का सीना ठोंककर और दिलेरी से
आज इसी क्रम में देश की राजधानी में एकदम अनुभवहीन रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर इन दोनों ने यह स्पष्ट कर दिया कि सत्ता किसी दूरस्थ गांव के आंगनवाड़ी के मॉनिटर की हो या राज्य प्रमुख की या केबिनेट मंत्रियों की - उसका संचालन और नियंत्रण हम दो ही करेंगे - तभी ना नईदिल्ली रेलवे स्टेशन हादसे के बाद अश्विनी वैष्णव अमित शाह को रिपोर्टिंग करने जाते है - जबकि दोनों केबिनेट मंत्री है और लोकतंत्र में समान दर्जा है, कायदे से वैष्णव को प्रधानमंत्री, संसद और राष्ट्रपति को रिपोर्ट करना था
बहरहाल, देश की जनता कुम्भ में नहा रही है, संविधानिक गरिमा प्राप्त नागरिक बेड़ियों में जकड़े आ रहें हैं और महान ऐतिहासिक फ़िल्म छावा देखकर बाकी सब देशभक्ति में डूबाये जा रहें हैं
ढोल, ताशे, बैंड - बाजे बजाओ, लड्डू बाँटो और रेलवे फ्री कर दो, कुम्भ चलो, नहाने चलो, मोक्ष प्राप्ति के मात्र 6 दिन बचे हैं, मनोरंजन में कोई कमी शेष नही रहना चाहिये बै, ज़्यादा कोई बोलें तो गोली मार भेजे में - भेजा शोर करता है
मुक्तिबोध कहते थे - "अरे मर गया देश, ज़िंदा रह गए तुम ......
[दिल्ली की प्रधान महिला बनी, उनकी योग्यता पर कतई प्रश्न नही है, यह स्वागत योग्य है, रेखा गुप्ता को शुभकामनाएँ भी बशर्तें वे पंचायतों की तरह सरपंच बनकर ना रह जाये - जेंडरियाँ दहाड़ने ना आये ]
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#Cherry, our Labrador, passed away today. We brought her into our family in July 2016, and now we’ve had to say goodbye. It’s incredibly sad. She was such a big part of our lives, and every time I came back from tours, she’d always be so happy to see me.
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