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सच - झूठ, सही - गलत, उम्मीद - नाउम्मीद, पाप - पुण्य, गुनाहों और गुनगुने पछतावों के बीच सारी ज़िंदगी हर शाम अपने आपसे और सबसे मुआफ़ी मांगते हुए गुजार दी, हर उस शख्स को माफ़ भी कर दिया जो निजी जीवन में किसी तीर की भाँति घुस आया और भावनाओं को बेधकर चला गया पर इस सबके बाद भी हाथ नही आया कुछ
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से पहला शब्द "माफ़ी' है
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जन्म के पहले से शुरू होती है और मरने के बाद भी सदियों तक बनी रहती है, हर कोई इसी में जीता जाता है और सिर्फ अपने लिये नही पर जन्म के समय माँ के साथ जुड़े गर्भ नाल के अलग होने के बाद पिता, बन्धु - बांधव, सहोदर और परिवार, कुनबा, अड़ोस - पड़ोस और फिर मृत्यु तक आते - आते एक वृहद समाज से हम सब जुड़ ही जाते है
इस सबमें सबसे ज़्यादा समय हम जिसे देते है वह सिर्फ अपने लिये नहीं, बल्कि दूसरों के लिए होती है, हम हमेशा सोचते हैं कि इसका, उसका, सबका क्या होगा ; इसके पहले क्या होगा, इसके बाद क्या होगा, यदि यह हुआ तो क्या होगा और यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा और यह सब करते-करते हम इतने मशगुल हो जाते हैं कि हमें समझ नहीं आता कि जीवन कब इस शब्द का पर्याय बन गया - हालांकि हमने इसे मिटाने के कई तरीके खोजे - दवाईयां, शराब, मनोरंजन, शिकार, खेल, शौक से लेकर और भी बहुत कुछ, पर यह जो जीवन का स्थाई भाव बन गया था वह मिटा नही, पेट की तरह जुड़ा आदिम निशान हममें बना हुआ है और बना रहेगा
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा - उनमें से दूसरा शब्द "फ़िक्र" है
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जन्म के साथ ही जीवन का दूसरा नाम उम्मीद हो जाता है, और इसी के सहारे हम लटकते - लटकते जीवन नैया पार करने लगते है, हर बार गहन निराशाओं के बीच, संसार की सबसे उदास सुबह को, जीवन की सबसे काली सांझ में और निस्तब्ध रात में जो एक चीज नजर आती है वह है - उम्मीद , पर दिल पर हाथ रखकर अपने आप से पूछता हूँ तो लगता है कि उम्मीद के लिए भी उम्मीद नहीं मिली कभी, बल्कि उम्मीद के बरक्स हमेशा मुझे उद्दंड निराशाएं मिली, जिन्होंने मेरा मार्ग प्रशस्त किया और रास्ता दिखाया, मेरे सबसे कठिन दिनों में मुझे एक सूखी नदी के पास ले गई और डुबो दिया जिससे मै लगातार मजबूत होता रहा, ऊँचे पहाड़ पर एक सूखे पेड़ ने मुझे हौंसला दिया और पगडंडियों ने सीखाया कि जीवन चौड़ी सडकों पर नहीं अंधेरों और संकरे तलहटी में ही सम्पूर्ण होता है
अब लगता है कि उम्मीद के भरोसे जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा व्यर्थ चला गया और अंत में जब कुछ हासिल नहीं तो शायद हम सब व्यर्थ ही जीने का स्वांग किये रहते है और लगे रहते है कि वो सुबह कभी तो आयेगी, पर जीवन की अपनी चाल है, अपना एक ढर्रा है - जिस पर घिसते हुए हम देह धरे के दण्ड के पाप को हम भुगतते रहते है और हर पल व्योम में तकते है कि अगला पल, अगला दिन, अगली शाम या अगली रात सुहानी होगी, चाँदनी से भरा आँगन होगा और हम झूम के नाचेंगे, पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है
शब्दों के किसी बाजीगर ने ऐसा मायाजाल बुना है कि हम शब्दों के भंवर जाल फंसते चले गए और अंत में अपने ही बनायें जाल में उलझ कर रह गए है, इस ढलती सांझ पर शब्दों के खोखले अर्थ प्रकट हो रहें है और मै रेशा - रेशा इनमे उलझकर भीतर पड़ी गांठों को सुलझा रहा हूँ तो मायने समझ आ रहें है
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से तीसरा शब्द "उम्मीद" है
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