"तुम्हारी सुलू" का टैक्स फ्री होना जरुरी
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मेरी जानकारी में भारतीय फिल्म इतिहास में संभवतः पहली फिल्म होगी जिसमे एक भारतीय पत्नी पति को कहती है "सुनो पाँव दुःख रहे है , ज़रा दबा दो ना" और पति बनें मानव कौल बहुत सहज भाव से पत्नी के पैरों की हलके से मालिश करने लगते है. यह फिल्म का वह टर्निंग बिंदु है जो पूरी फिल्म का आगाज़ है और धीरे धीरे जेंडर, स्त्री अस्मिता, मायाजाल, बाजार, घर, परिवार, समाज, रिश्तेदारी, अपार्टमेन्ट की दुनिया, स्त्रियों का गिल्ट और स्त्री स्वतन्त्रता के बदलते मायने, रेडियो जैसे उपेक्षित माध्यम का एक ताकतवर माध्यम में उभरना और समाज के घटिया या निम्न वर्गीय चरित्रों का चित्रण आदि के बीच बच्चों की वाजिब चिंताएं और सरोकार को एक सूत्र में "बहुत आहिस्ते से अपनी पेस" पर चलती फिल्म है "तुम्हारी सुलू"
ऐसा नही कि यह स्त्री अस्मिता पर बनी पहली फिल्म है मुझे याद आती है फिल्म अनुराधा जहां एक डाक्टर अपने शोध की दीवानगी में पत्नी को लगातार उपेक्षित कर अपने काम में लगा रहता है और जब उसका सुपरवाईजर आता है काम को जांचने तो उसे घर आकर कुछ चित्र देखता है और उसकी पत्नी को गाना गाने को कहता है और फिर फिल्म अपना राग और ढर्रा बदलती है. यहाँ मुआमला थोड़ा अलग है, एक मध्यमवर्गीय छोटे से परिवार में जीवन की कशमकश है रोज की. यह परिवार अमूमन महानगरीय प्रवृत्ति का है पति पत्नी और एक बेटा पर एक बेटी कि तमन्ना है पर महंगाई और सिमित जगह के कारण हिम्मत नही कर पा रहे है. तिन कमरों का मल्टी में मकान है और छोटी सी गृहस्थी पत्नी के पिता और दो बड़ी बहनें है जो हर पल हर बात और निर्णय में टांग अडाने के लिए हरदम तैयार है, तीन बहनों में दो बैंक में और एक गृहिणी है जिसे हर पल ताने सुनाये जाते है और वह बगैर बोले चाय बनाकर परोस देती है इन सबको जो उसे लगातार उसकी काम पढाई का उलाहना देते रहते है. ऐसे में यह छोटी बहन जीवन में बेहद छोटी छोटी उपलब्धियों से खुश है जिसमे एल ई डी बल्ब से लेकर प्रेशर कूकर भी शामिल है जो बाजार की चालाकियों कि ओर इशारा करता है कि किस तरह से कम्पनियां दोपहर में घरों में लगभग फ्री रहने वाली महिलाओं को अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करती है.
इस फिल्म में पति - पत्नी के बहुत सामान्य रिश्ते है जिसमे रोमांस भी मौसम की तरह ही उभरता है और जल्दी ठंडा होता है, अड़तीस चालीस की उम्र पर पहुंचे जोड़ों की असली हकीकत बताना निर्देशकीय सुझबुझ है , स्कूल में जाते और किशोर वय के बच्चों की मानसिकता को दर्शाया गया है जहां बच्चे सेक्स, फिल्म और अश्लीलता के प्रति जल्दी ही आकर्षित होते है और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार है जाहिर है ऐसे में माँ बाप के पर्याप्त ध्यान देने के बाद भी बच्चे बिगड़ ही जाते है क्योकि यह दुनिया है ही ऐसी, स्कूल में प्राचार्य का माँ बाप को बुलाकर डाँटना और पत्नी को अपराध बोध होना या पति द्वारा करवाया जाना भी स्वाभाविक ही है और इस समय में पत्नी द्वारा भी इसे एक स्वयं का अपराध मान लेने का जो अभिनय विद्या ने किया है वह एक औसत भारतीय स्त्री की छबि को दर्शाने के लिए पर्याप्त है, पर एक समय आने पर वह फटती भी है और पूछती है क्या बच्चे की जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है? ऐसे कुछ छोटे छोटे प्रसंगों से सुलू ना सिर्फ सवाल करती है बल्कि वह रेडियो जोकी जैसे व्यवसाय में रात्रिपाली की नौकरी करके पूरी व्यवस्था को भी चुनौती देती है.
रेडियो में नौकरी करना एक वैकल्पिक रोजगार और आजीविका का बड़ा क्षेत्र है इस बात को भी समझना जरूरी है जिसे प्रायः हमारी युवा पीढ़ी भूल रही है या उपेक्षा कर रही है इसी के साथ सुलू को लेने जो महिला ड्राईवर आती है वह भी एक नए प्रकार का प्रतीक है- देर रात में एक महिला ड्राईवर का लेने और छोड़ने आना वो भी एकल महिला ड्राईवर का वह बहुत बड़ा सन्देश है जसी शायद हम नगण्य मान लें पर यह अपने आप में एक बड़ा बदलाव है बगैर शोर के किया गया संगठित प्रयास, और इसके लिए निर्देशक प्रशंसा के पात्र है. मुझे याद है मेरी मित्र और साथी मीनू वढेरा और राजेन्द्र बंधू दिल्ली और इंदौर में महिलाओं को वाहन चालन में प्रशिक्षित कर आजाद फाउंडेशन के माध्यम से अभी तक सैंकड़ों लड़कियों को रोजगार दिला चुके है. यह भी एक सार्थक सन्देश है इस फिल्म में . इसी के साथ तेजी से ग्लोबल होते जा रहे बाजार के दौर में छंटनी और कारपोरेट में विश्वस्त कर्मचारियों को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर बाहर निकालने की प्रक्रिया को बारीकी से दर्शाया गया है. ऐसे में विकल्पों की भी बात की गई है बशर्ते आप किसी काम को छोटा या बड़ा ना समझे .
रेडियो में नौकरी करना एक वैकल्पिक रोजगार और आजीविका का बड़ा क्षेत्र है इस बात को भी समझना जरूरी है जिसे प्रायः हमारी युवा पीढ़ी भूल रही है या उपेक्षा कर रही है इसी के साथ सुलू को लेने जो महिला ड्राईवर आती है वह भी एक नए प्रकार का प्रतीक है- देर रात में एक महिला ड्राईवर का लेने और छोड़ने आना वो भी एकल महिला ड्राईवर का वह बहुत बड़ा सन्देश है जसी शायद हम नगण्य मान लें पर यह अपने आप में एक बड़ा बदलाव है बगैर शोर के किया गया संगठित प्रयास, और इसके लिए निर्देशक प्रशंसा के पात्र है. मुझे याद है मेरी मित्र और साथी मीनू वढेरा और राजेन्द्र बंधू दिल्ली और इंदौर में महिलाओं को वाहन चालन में प्रशिक्षित कर आजाद फाउंडेशन के माध्यम से अभी तक सैंकड़ों लड़कियों को रोजगार दिला चुके है. यह भी एक सार्थक सन्देश है इस फिल्म में . इसी के साथ तेजी से ग्लोबल होते जा रहे बाजार के दौर में छंटनी और कारपोरेट में विश्वस्त कर्मचारियों को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर बाहर निकालने की प्रक्रिया को बारीकी से दर्शाया गया है. ऐसे में विकल्पों की भी बात की गई है बशर्ते आप किसी काम को छोटा या बड़ा ना समझे .
आपकी सुलू फिल्म भारतीय फिल्मों में फार्मूलाबद्ध तो नहीं अपर रोचक संदेशों वाली एक अच्छी फिल्म है जसी परिवार के साथ देखा जा सकता है और स्त्री स्वतन्त्रता के नए बिम्ब और उभरते ट्रेंड्स को समझा जा सकता है. यह फिल्म युवा होती लड़कियों के लिए एक पाठ्यक्रम है और युवा लड़कों के लिए मानव कौल जैसे अभिनेता का पति के रोल का आदर्श देखना चाहिए जो बेहद कूल है . मेरी नजर में इस फिल्म को टैक्स फ्री किया जाना चाहिए ताकि आसानी से समाज के हर तबके का आदमी देख सकें. विद्या बालन से ज्यादा मुझे मानव ने प्रभावित किया क्योकि विद्या तो मंजी हुई कलाकार है ही परन्तु मानव कौल ने जो परिपक्वता मंच से उठाकर फ़िल्मी परदे पर रखी है वह अप्रतिम है, दो जोड़ी कपड़ों में - घर में काला चेक का पायजामा और बाहर फेक्ट्री का पिंक शर्ट पहनकर वे इतने स्वाभाविक है कि लगता ही नही कि उन्हें कुछ करना पडा होगा अभिनय जैसा. ऐसी फ़िल्में भारतीय समाज की धरोहर है जो परिवर्तन की कहानी बहुत धीमे से लिख रही है और लोगों के अन्दर एक चिंगारी पैदा कर रही है.
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