हिंदी के महत्त्वपूर्ण और वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण हमारे बीच नहीं रहे। विनम्र श्रद्धांजलि।
जन्म : 19 सितम्बर 1927
अवसान : 15 नवम्बर 2017
'कहीं कुछ भूल हो
कहीं कुछ चूक हो कुल लेनी देनी में
तो कभी भी इस तरफ़ आते जाते
अपना हिसाब कर लेना साफ़
ग़लती को कर देना मुआफ़
विश्वास बनाये रखना
कभी बंद नहीं होंगे दुनिया में
ईमान के ख़ाते।''
19 सितम्बर 1927 को जन्मे हिंदी के विलक्ष्ण कवि कुंवर नारायण
का छः माह कोमा में रहने के बाद शान्ति से गुजर जाना स्तब्धकारी है. हिंदी कविता
के एक मात्र ऐसे कवि है जो चेतना से लबरेज और मनुष्यता से परिपूर्ण है. मुक्तिबोध
के युग के महत्वपूर्ण हिंदी के कुंवर नारायण जितने सहज जीवन में है उतने ही सहज
कविता में भी है, उनकी कविता मनुष्य के जीवन की सरल कविता है जो अपने आसपास के
शब्दों, बिम्ब और उपमाओं से भरकर वे एक ऐसा वितान रचते है मानो कवि ने शब्दों के
भीतर ही थाह पा ली हो.
अपने संकलन वाजश्रवा के बहाने से चर्चा में आये इस
कवि ने समकालीन हिंदी कविता में नये प्रयोग किये और कविता को बहुत बारीकी से बुनते
हुए आम जन तक पहुंचाया, इसलिए कुंवर नारायण को मनुष्यता का कवि कहा गया. कुँवर
नारायण हिंदी में उन बहुत थोड़े से कवियों में से थे जिन्हें महाकवि कहा जा सकता
है। वे मुक्तिबोध युग की सबसे बड़ी आवाज़ों में से एक थे। अपने संस्कारों में रहते
हुए भी एक विश्व नागरिक थे। जब उनकी चिता सजाई जा रही थी, ठीक उसी समय निज़ामुद्दीन की ओर से मग़रिब की नमाज़
की आवाज़ आ रही थी। कुँवर जी के लिए इससे अच्छी विदाई नहीं हो सकती थी” असद
ज़ैदी का यह कहना बिलकुल सही है कि वे सच में महाकवि थे
क्योकि उन्होंने दर्शन में उपनिषदों की और बौद्ध परमपरा दोनों को अपनी कविता में
स्थान दिया और सूक्ष्म संवेदना के धरातल पर कविता रची. पिछले साथ वर्षों में
उन्होंने ना मात्र बहुत पढ़ा बल्कि इतना लिखा कि हिंदी का साहित्य कभी उऋण नही हो
पायेगा. हमारे सामने मुक्तिबोध जैसा काल से होड़ लेता हुआ कवि आता है जो मूल रूप से
विद्रोही है और अपने क्लिष्ट बिम्ब और संरचना लेकर साहित्य का विपुल कनवास रचता है
ठीक इसके विपरीत कुंवा र्नारायन जैसे कवि है जो बेहद सुकोमल हृदय के साथ कविता को
अपना ओढना बिछाना करके हिंदी के लिए एक वृहद संसार तैयार करते है. दोनों मनुष्य ही
है पर ज्ञानात्मक संवेदना के धनी, प्रेम और दार्शनिकता से भरपूर कवि हिंदी में
कुंवर नारायण ही हुए है अगर यह कहा जाएँ तो अतिश्योक्ति नही होगी. वे अपने समय से
परे जाकर बहुत साफ़ दृष्टि से विश्व फलक में घटित होने वाले अघ्तय को भी सामने लाते
है जिसके लिए एक दृष्टि सम्पन्न होना जरुरी है और यह दृष्टि हमें उनके समकालीनों
में कम देखने को मिलती है. इसलिए वे अपने काल को भी देखते है और कहते है अबकी लौटा
तो वृहत्तर लौटूंगा / अगर
बचा रहा तो / कृतज्ञतर लौटूंगा / अबकी बार लौटा तो / हताहत नहीं / सबके हिताहित को सोचता / पूर्णतर
लौटूंगा। 15 नवम्बर को उनके निधन से हिंदी ने ना मात्र एक कवि खोया बल्कि एक
दुस्साहस से सबको प्रेम कर जीने का सलीका सिखाने वाले व्यक्ति भी खोया है. जाना
सबको है, उनकी भी उम्र हो चली थी, दुःख सिर्फ यह है कि एक बार वे आँखें खोल लेते
और बहुत कह देते या कम से इतना कि कविता में क्या और होना बाकी है तो संभवतः हम
समृद्ध ही होते उनके आप्त्वचनों से.
'.....एक शुभेच्छा की
विघ्नहर विनायक छाया में
अगर झुकते माथे जुड़ते हाथ
तो उस जुड़ने को हम प्रेम कहते''
“ अमरत्व से थक चुकी
आकाश की अटूट उबासी
अकस्मात टूट कर
होना चाहती है
किसी मृत्यु के बाद की उदासी ! “
अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा
"समय हमें कुछ भी
अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता,
पर अपने बाद
अमूल्य कुछ छोड़ जाने का
पूरा अवसर देता है...."
अभी भी बचे हैं कुछ वर्ष।
आने जाने के उलटफेर में
कौन जाता है पहले, कौन बाद में -
कुछ पता नहीं ।
तुम्हारा इत्मीनान
और मेरी आशंका
दोनों ही निर्मूल हैं।
आओ, आयोजित करें तब तक
कौंधती बिजलियों की तीव्रता से
एक जीवनोत्सव और...।
फ़ोन की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
एक दिन
मौत की घंटी बजी...
हड़बड़ा कर उठ बैठा-
मैं हूँ... मैं हूँ... मैं हूँ..
मौत ने कहा-
करवट बदल कर सो जाओ।
अबकी बार लौटा तो
-------------------------
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा।
*****
*****
"तुम्हारे शब्दों में यदि न कह सकूँ अपनी बात,
विधि-विहीन प्रार्थना
यदि तुम तक न पहुँचे तो
क्षमा कर देना,
मेरे उपहार--मेरे नैवेद्य--
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं... इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
समय पर... सूर्य पर..."
('आत्मजयी' से एक अंश)
(आज शाम साहित्य अकादेमी में कुँवर नारायण पर आयोजित शोक-सभा में प्रस्तुत वक्तव्यों के मुख्य अंश : )
"कुँवर नारायण हिंदी में उन बहुत थोड़े से कवियों में से थे जिन्हें महाकवि कहा जा सकता है। वे मुक्तिबोध युग की सबसे बड़ी आवाज़ों में से एक थे। अपने संस्कारों में रहते हुए भी एक विश्व नागरिक थे। जब उनकी चिता सजाई जा रही थी, ठीक उसी समय निज़ामुद्दीन की ओर से मग़रिब की नमाज़ की आवाज़ आ रही थी। कुँवर जी के लिए इससे अच्छी विदाई नहीं हो सकती थी।" (असद ज़ैदी)
"उनकी कविताएँ सीधे-सीधे व्यक्ति को, समाज को, दुनिया को संबोधित होती हैं; उनका सम्प्रेषण बहुत सहज है। कविताओं के अलावा अन्य कलाओं में उनकी दिलचस्पी का दायरा व्यापक था।" (प्रयाग शुक्ल)
"कुँवर जी हमारे समय में प्रेम और दार्शनिकता के सबसे बड़े कवि थे। मनुष्यता और नैतिकता उनका सबसे बड़ा दर्शन है। वे विश्व कविता की बिरादरी में शामिल हैं। बाज़ार को लेकर एक दार्शनिक विराग मिलता है उनमें।" (मंगलेश डबराल)
"आज जब हमारे जीवन में जल तत्त्व विरल हो रहा है, इनके और इनके परिवार वालों के पास बैठना एक विशाल शांत जलाशय के निकट बैठने जैसा लगता है। हमारे भाषिक पर्यावरण में जो क्षरण हो रहा है इसमें संतुलन के लिए वे जातीय स्मृति, इंडो-इस्लामिक और इंडो-यूरोपियन परम्पराओं के साथ संवाद कायम करने का प्रस्ताव रखते हैं।" (अनामिका)
"कुँवर जी की उदारता उत्तर-उदारवाद के दौर की उदारता है। वे मनुष्य की स्वायत्त चेतना के हिमायती हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम लगातार सिविलाइज़्ड होते जा रहे हैं। मैं उन्हें एक राजनीतिक कवि के रूप में पढ़ना चाहूँगी।" (सविता सिंह)
"वे एक आम आदमी की तरह इतिहास में जाते हैं, कोई विशेष मुद्रा बनाकर नहीं। लखनऊ स्थित उनका घर 'विष्णु कुटी' मेरे लिए एक विश्वविद्यालय की तरह था।" (विनोद भारद्वाज)
"कुँवर नारायण सम्पूर्णतः एक 'जेंटल मैन' थे। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो जब उनकी भौहें तनी हों। उनकी सदाशयता एक दुर्लभ गुण थी जो बहुत कम लोगों में दिखलाई पड़ती है।" (इन्द्रनाथ चौधुरी)
"शुरू से ही उनकी कविताओं में एक अंतरराष्ट्रीय ध्वनि सुनाई पड़ती है। उन्हें जितनी बार और जितनी तरह पढ़ा जाय, उतनी बार कुछ नई चीजें सामने आती हैं। वे विचारशील कवि के साथ-साथ एक विवेकवान कवि थे। ऐतिहासिक उपन्यासकार तो बहुत हुए हैं लेकिन ऐतिहासिक कवि केवल कुँवर नारायण ही हुए हैं।" (हरीश त्रिवेदी)
"समकालीन परिप्रेक्ष्य में वे एक ऐसे रचनाकार थे जो सामाजिक सरोकार को नैतिक ढंग से बहुत पारदर्शी होकर प्रकट करते थे। इतिहास के क्षेत्र में वे अतीत की वर्तमानता को मानते थे, उसे विगत नहीं मानते थे। पिछले 60 वर्षों का उनका काम मुक्तिबोध से थोड़ा भिन्न है लेकिन एक युग का निर्माण करता है।" (मुरली मनोहर प्रसाद सिंह)
"बड़ा शामक व्यक्तितव था उनका। बहुत पढ़े लिखे व्यक्ति थे। 'ज्ञानात्मक संवेदन' जिसे कहते हैं वैसे। उनका जो ज्ञान था उसे बहुत सहज रूप से व्यक्त किया है। वे बहुत ईमानदार कवि थे--अपने प्रति और अपने कविता के प्रति।" (विश्वनाथ त्रिपाठी)
"कुँवर जी का व्यक्तित्व सभी सीमाओं से परे था। उनके लिए 'न सीमाएँ न दूरियाँ' संज्ञा बिल्कुल सटीक है। भारत में ज्ञान की जो दो परम्पराएं हैं--उपनिषदों की परंपरा और बौद्ध परंपरा--कुँवर जी ने दोनों को आत्मसात करते हुए कविताएँ लिखी हैं। जो लोग विचार को कविता में ले आते हैं वे प्रायः संवेदना के सूख जाने पर ऐसा करते हैं। कुँवर जी में इन दोनों का संतुलन है।" (मैनेजर पांडेय)
"कुँवर जी के पास आप पन्द्रह मिनट भी बैठ जाइए; सज्जनता, शालीनता और सहजता; इन तीनों गुणों का अनुभव आपको होता। वे बेहद ईमानदार आदमी थे--अपने प्रति, जिनसे मिलते थे उनके प्रति और पूरे कायनात के प्रति। उनसे बात करने पर लगता कि बेहद पढ़े-लिखे लेकिन बेहद ही शीलवान व्यक्ति से बात कर रहे हैं। उनका असली मूल्यांकन अब शुरू होगा।" (निर्मला जैन)
"हमलोगों ने जब साहित्य में लिखना-पढ़ना शुरू किया तो कुँवर जी की कविताएँ हमारी चर्चा का केंद्रबिंदु होती थीं। हम सबको लगता था कि वे एक ऐसे दृष्टिसम्पन्न कवि हैं जो अपनी राह तो बना ही रहे हैं, दूसरों के लिए भी राह बनाते चल रहे हैं।" (गंगाप्रसाद विमल)
"कुमारजीव के बारे में हिंदी का कोई कवि लिखेगा, यह तो कोई सोच ही नहीं सकता था। आपसी बातचीत में उन्होंने कभी भी किसी कवि की निंदा नहीं की। कुँवर जी के बारे में सदाशयता की बात कोई अतिशयोक्ति नहीं है। कौन ऐसा समकालीन कवि है जो 'आत्मजयी' लिखे, 'वाजश्रवा के बहाने' लिखे और 'कुमारजीव' भी लिखे! 'अपूरणीय' शब्द का सटीक प्रयोग कुँवर नारायण जी के लिए ही हो सकता है।" (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी)
"कुँवर नारायण अपनी सृजनधर्मिता के कारण केवल समकालीन रचनाकारों के प्रति ही नहीं, बल्कि परवर्ती पीढ़ी के लिए भी अनुकरणीय रहे। उनका पूरा कृतित्व भारतीय साहित्य की परंपरा में एक जीवन्त उपस्थिति की तरह है।" (साहित्य अकादेमी का शोक-प्रस्ताव)
Comments