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तोताबाला ठाकुर की कविताएँ


हिंदी में कविता पर कम कवि, उसके खेमे, माई बाप पर ज्यादा विवाद होते है। कई लोगों की जान पर बन आई है। द्रोपदी और तोता बाला ने जबसे कविताएं लिखकर सारी पुरुष सत्ता को लगभग चुनौती देते हुए निजी क्षणों को उघाड़ा और प्रेम, हत्या और तमाम मिथक या बिम्बों का प्रयोग करते हुए हकीकत सामने रखी तो ऊह आह, और आउच होने लगा। इधर कवियत्रियों ने भी संगठित होकर घोषणा कर दी कि यह महिला के भेष में पुरुष वर्चस्व है और उनकी दुकानदारी पर अतिक्रमण। बहरहाल, पढ़िए सिर्फ कविता और बहस कीजिये - तर्क के आधार पर । याद रहें किसी की निजता में झांकना बेहद गंदे दिमाग का पर्याय है।

तोताबाला ठाकुर की कविताएँ -
आओ


अगली ट्रेन पकड़के

जितनी जल्दी हो सके चले आओ 

कीचड़ में लथपथ

चढ़ी गंगा तैर 

मेघों पर पाँव रख रख कर आ जाओ

आ जाओ देवदास की तरह 

मैंने खोल रखे है द्वार 

मैंने दे रखा है अपने स्वामी को विष

तुम आओ निडर 

भूलना मत लाना बेल का फल 

और संखिए की पुड़िया।

सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

व्योमकेश बक्शी की भाँति तुम तो 

भटकते रहे पूरे ग्लोब पर सत्य की खोज में 

प्रिय ऋषभ ब्रह्मो

मैं अज्ञेय से करती थी प्रेम 

किंतु मेरे सोलह वर्ष की वय को प्राप्त करने से पूर्व 

वह सिधार गए 

उस कैशोर में मैं किसी विधवा सी 

रोती-कलापती रही हुबली के निर्जन घाट पर

तुम ऊपर हावड़ा ब्रिज पर सोनागाछी की 

किसी श्याम स्त्री के संग

बोईपाड़े में सिगरेट फूँकते शांख घोष के 

शब्दों से तुम करते रहे कॉलेज की उस गौरबरन बाला के 

कैथबरन निपल्ज़ का स्पर्श

तुम्हारे रेखाओं में आया मुक्तिबोध की 

बीड़ियों का धूम्र और रतन थियम के नृत्य 

मेरे निकट क्या आया - 

आशापूर्णा देवी के उपन्यास 

दोपहरियों के मेघ और अज्ञेय के प्रति

मेरा अंधप्रेम।
ब्रह्मपुत्र में निर्वसन


स्नानगृह में काई पाँव में 

मस्तक पर जाले, ऐसे नहाती थी मैं 

घड़े ही घड़े चारों और रखे- ताम्बे, पीतल 

भूमि के 

ऋषभ ब्रह्मो उम्र १९ वर्ष में थी 

उससे ठीक नौ वर्ष बड़ी

झाँकता पुतली बराबर छिद्र से द्वार के
मैं कल्पना करती ब्रह्मपुत्र में निर्वसन

स्नान की, कछार काटता नद

बह चुके वस्त्र और शेष केवल शरीर

देखा करो ऋषभ ब्रह्मो- जैसे यह नद निर्वस्त्र है 

इसमें मिलने वाली नदियाँ निर्वस्त्र है, वृक्ष, लताएँ

वनदेवियाँ, पीपल से औंधे लटके ब्रह्मराक्षस 

निर्वस्त्र- वैसी तोताबाला भी हो गई है 

तुम्हारी प्रीति में

प्रेम हर लेता है समस्त चीर, आवरण उघाड़ देता 

है सब

वर्षा के मटमैले जल में 

देखते हो जब तुम यह डूबता - उतराता 

औंधी नाव के नीचे तब तुम 

क्या मार नहीं देना चाहते थे 

मेरे पति और अपने खेमू दा को।

चरम रूप से वेध्य

बृहद्धमनी भेदने का अभ्यास मैंने वर्षों किया

कंठ से निकल पाए मेरा नाम 

उसे पीछे धकेलते हुए तुम्हारे प्राण निकल जाए

विष देना स्त्री होने की सुंदरता के 

सर्वथा अनुकूल था 

निद्रा में स्वप्न में गोत्र स्खलन के समय 

प्राण भी निकल जाते चुपचाप 

किंतु इसमें इतनी शांति और बहुत कम 

हिंसा थी 

यदि किसी कारण से अपनी ही संतति की 

हत्या करनी होती 

तो सम्भव है कि लाती कोई अभेद विष

तुम्हें यंत्रणा दिए बिन मारना 
अपूर्ण कर देता मेरे हृदय के एक भाग को
बहुत बेला निद्रा से उठ बैठती कामना के 
ज्वर से तप्त - किसी ऊँचाई पर ले जाकर 
तुम्हें धक्का देना कितना उत्तेजक होता 
जैसे ऋषभ ब्रह्मो के कंधे पर 
मेरा दंतक्षत
और जो कोलाहल होता पश्चात उसमें 
कितना संगीत होता क्षेमेन्द्र ठाकोर
दक्षिणेश्वर ले जाती तुम्हें- भवतारिणी के चरणों में 
फिर एक दोने में दीपक, अक्षत, मछली को आटा रख
जाते हुगली के बीचोंबीच 
वहाँ से देती तुम्हें धक्का जल में
जैसे मंच के बीचोंबीच भूमिका का
सबसे कोमल सबसे अद्भुत भाग 
भक्तगण, नाविक, बाबा और माँ शारदा 
देखते 
कि प्रेम मेरा कितना तीव्र है 
कि इस प्रेम में
मैं कर सकती हूँ भीषणतम पाप ।

कालीघाट पर सेंदूर की दोकान

कालीघाट पर तारकेश्वरी के स्थान के दक्षिण 

थी श्री बंकिमबिहारी बनर्जी की सुगंधित

सेंदूर और आलते की दोकान

माँमणि का हाथ पकड़ के 

प्रत्येक मास की एकादशी- मछली भात खाने के बाद 

हम दोनों यहाँ आती थी नियम से

प्रसाद की मिठाई का दोना पकड़े 

और दाँतों में पान दबा

चौथाई सेर सेंदूर और एक शीशी आलता

बँधवाती माँमणि--

बंकिमबिहारी बनर्जी मेरे जीवन के प्रथम पुरुष थे 

वय पचपन, दाढ़ी सुदीर्घ और श्वेत-श्याम 

बताते है उनके हाथों का छुआ सेंदूर-आलता लगाके

पुरुष को किसी बिन माँ के बछड़े की भाँति 

वश में किया जा सकता था-

आठ वर्ष से वय में उनपर मुग्ध थी मैं 

निनिर्मेष उन्हें देखती रहती, तब मुझे कहाँ था ज्ञात

सेंदूर, आलता, 

कंकन, कलेवर, कर्णिकार से

अधिक भी है संसार 

हुगली से आगे भी है बंगाल 

केवल शंख का ही नहीं होता रंग श्वेत 

केवल रक्त ही नहीं होता लाल

किंतु प्रेम का भी अरूण वर्ण है 

और सुगंध केवल प्रेम में ही नहीं होती 

सुगंध होती है घृणा में भी

केवल पेड़ा ही मीठा नहीं होता 

कभी कभी अपने पति की मृत्यु भी मधुर लगती है ।

क्षेमेन्द्र ठाकुर की हत्या


'रक्त में उतना अनुराग नहीं होता जितना 

मन में होता है' किंतु मन कौन सी विधि से 

पकड़ती तुम्हारा क्षेमेन्द्र ठाकुर?

भीम जब दुर्योधन के रक्त से स्नात 

अंजलि में भरे उसकी जंघा का रक्त 

याज्ञसेनी का शीश प्रक्षालन करने आया था 

तब उसे भीम दीख पड़ता था दुर्योधन

तुम्हारे रक्त से भीगी, ताँत मेरी जैसे जैसे 

छुड़ाकर तुम्हारी मुट्ठी से, जब मैं पहुँची थी 

ऋषभ ब्रह्मो के निकट, तब दूर हटा किंचित वह 

ढाके की मलमल का श्वेत कुर्ता

कहीं मित्र के रक्त से मैला हो जाता तो-
इसलिए ऋषभ ब्रह्मो मैंने की तुमसे प्रीति 
परकीया हुई, रचे षड्यंत्र, अपने स्वामी का 
शीश छेद दिया जैसे धागा तोड़ती थी 
काँथे का टाँका लगाके
उसी निशा निश्चय कर लिया था मेरे रागमणि
कि जो रक्त के रंग थे मेरी पीली ताँत पर 
जो रक्त की गंध थी मेरे केशों में 
उसे तुम्हारे कपाल के रक्त से करूँगी स्वच्छ
किसी किसी पुरुष का स्वेद
निष्फल रहता है सदैव 
किंतु स्त्री की प्रीति फलती है उसके गर्भ की भाँति।

क्षेमेन्द्र ठाकुर १


उस रात्रि तुम्हारे लिए बनाऊँगी 

सरसों के तेल में हिलसा और आलू-पोस्ता

पहनूँगी बालारून सारी कुसुम्भ किनारी की 

जवाकुसुम के अलंकार, पारिजात के कंकन

तुम्हें मनुहार के खिलाऊँगी लूचियाँ और मालपुआ 

चुम्बन लेने की लीला करूँगी किंतु लूँगी नहीं 

दे दूँगी अपनी शंख कंकनों से भरी बाँह तुम्हारे हाथ में 

मसक देना तुम 

तोड़ देना कंकन लोहे के वलय छोड़कर 

शंख सिंदूर के सब कंकन

ऐसे प्रणय कलह में कर दूँगी अर्धरात्रि

फिर फिर, जब तुम सो जाओगे तुष्ट 

बाहर केवल रोते होंगे चकवे 
बाहर केवल प्यासा होगा चातक
तब क्षेमेन्द्र ठाकुर 
निकालूँगी वह चाक़ू जो दिया था मुझे 
ऋषभ ब्रह्मो ने 
जहाँ से चलती है तुम्हारी नाड़ी 
जहाँ बसे है तुम्हारे प्राण
वहाँ कंठ पर प्रहार करूँगी
तुम्हारे रक्त के लथपथ मैं
मुझे पहचान नहीं पाएगा ऋषभ ब्रह्मो
समझेगा उसकी इष्टदेवी छिन्नमस्ता है
ऐसे क्षेमेन्द्र ठाकुर मैं तुम्हारी हत्या करूँगी 
क्योंकि मैं करती हूँ तुमसे प्रेम 
क्योंकि मेरे हृदय को खा चुका है ऋषभ ब्रह्मो।

क्षेमेन्द्र ठाकुर २

मेरे हृदय की कंदरा में तीन 
नदियाँ बहती रही सदैव 
तुम्हारी हत्या करने से पहले 
तुम्हारी हत्या करते हुए 
तुम्हारी हत्या करने के पश्चात्
तुमसे प्रेम करने से पहले 
तुमसे प्रेम करते हुए 
तुमसे प्रेम करने के पश्चात्
यह नदी सरस्वती की तरह लुप्त है
कई रात्रियाँ मैंने तुम्हें विष देने की योजना 
बनाने में व्यर्थ कीं
तुम्हें मार डालने की इच्छा में 
भटकती रही बाजार बाजार 
ऐसे हथियार की फिराक में 
जिसका तुम में प्रवेश 
पहले भर दे तुम्हें सुख से, कुछ देर बाद 
उठे तुम्हारी अंतिम चीत्कार
प्रेम ही हो सकता था इतना तीक्ष्ण
प्रेम ही मार सकता है बिना रक्तपात किए 
तुम्हारा रक्त जो मैंने रखा इतना शुद्ध 
व्याधियों से की रक्षा
ऐसे शुद्ध रक्त से ही बन सकते थे मेरे कुंडल
इतने शुद्ध रक्त से ही बन सकता था मेरा चूड़ामणि।

अपूरब गोस्वामी 

अपूरब गोस्वामी तुम आए घने वन में 

यात्री को आता है जैसे अपनी छोड़ी हुई प्रेमिका का स्मरण

तुमने ही कहा था, स्मरण में मरण है

बताओ तो कौमार्य भंग करने में बाद 

कोई करता है ऐसी बात अपनी स्त्री से 

लेकिन तुमने की

तुम्हारे पसीने से सराबोर मैंने अनुभव किया 

मैं वह तारा हूँ जो बादलों के नीचे आ चुका है 

फीकी पड़ गई थी मेरे वैभव की चमक 

प्रेम की उपमा उसदिन मैंने जाना 

कविलोग बरसात से क्यों देते है

ट्राम के नीचे आए तुम या ट्रेन के 

अब तो याद तक नहीं

लेकिन अब तक याद है तुम्हारा गुड़हल का तेल 

चुपड़कर आना धूपगढ़ के पर्वत पर

और याद है तुम्हारा वह गाढ़ चुम्बन 

मृत्यु प्रेम को ऐसे प्रगाढ़ करती है 

जैसे अमृत को अग्नि।

10
मेरे पहले पति बंकिमबिहारी बनर्जी

माँ चली जाती थी छोड़के उनकी दोकान पर 

कहती तारकेश्वरी को 

अपने स्तनों के बीचोंबीच करील का कंटक खोब

रक्त अर्पित करके आती है

मंदिर के आने में पश्चात पुनः जाती थी मंदिर 

मेरे जीवन के प्रथम पुरुष ने 

आठ वर्ष की वय में मुझे बताया 

स्त्री होने का अर्थ 

दोपहर दोकान जब निर्जन हो जाती

सेंदूर के ढेरियों के बीच 

आलते की शीशियों के बीच 

मुझे ज्ञात हुआ रक्त और आलते में 

अधिक अंतर नहीं होता प्रिय अपूरब गोस्वामी 

भय अधिक होता 

दुख कम

माँ सचमुच आती थी ह्रदय का रक्त देकर 

स्तनों को काट खाती थी देवी 

नखों के निशान से भर उठता उनका कलेवर

देवी साक्षात रोष थी 

माँ पिता के पीछे पागल थी

और मैं मान बैठी थी 

पचपन वर्षीय बंकिमबिहारी बनर्जी को 

अपना पति।

11
चुम्बन

अक्सर तुम्हें क्षेमेन्द्र ठाकुर- पुकार बैठती थी 

'खेमूदा खेमूदा' प्रेम की गूढ़तम रात्रियों में 

नितम्ब दोनों तुमसे प्रताड़ित, रक्ताभ 

कंधे दूसरे दिन दोपहर तक उतरे रहते थे 

कितना प्रेम करती थी तुमसे खेमूदा

तुम अनन्य थे तुम्हें अन्य का कैसे हो जाने देती भला 

बंकिमबिहारी बनर्जी, अज्ञेय, अपूरब गोस्वामी,

अज्ञात पहलवान, ऋषभ ब्रह्मो, 

कवि जिसका नाम नहीं ले सकती 

वह बदनाम हो जाएगा - 

बादलों के गरजने पर होने वाला 

प्रकाश थे केवल यह सब

यहीं तुम्हारे इसी वक्षस्थल पर जहाँ से 

चाक़ू घुमाके निकाल लेना चाहती थी तुम्हारा हृदय 

जैसे फल से कोई गुठली निकाल लेता है

तुमसे चुम्बन से पूर्व 

अपनी इष्ट बगलामुखी के मंत्र जपती रहती थी 

कि चुम्बन के समय 

कस लूँगी दाँतों से तुम्हारी जिह्वा और फिर

अपनी प्रत्येक एकादशी 

मछली खाने के अभ्यास के अनुसार 

काट लूँगी तुम्हारी जिह्वा कि पुनः तुम किसी और का 

नाम तक न ले सको

तब बताओ भला तुम्हारी जननी कैसे गई थी 

उस ज्योतिष के निकट जिसने कहा था कि

स्त्री और शत्रु का कुंडली में स्थान एक है 

षष्ठ स्थान शत्रु और उसके प्रतिदिन आगमन का 

सप्तम स्थान

उसे क्या ज्ञात था कि तुम्हारे सब स्थानों पर मैं विराजमान हूँ

क्या उसे ज्ञात था कि

तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों होनी थी।

12
अज्ञात पहलवान के प्रति

स्मरण है तुम्हें क्षेमेन्द्र ठाकुर, तुम्हारी जननीमणि के 

देहांत के पश्चात हम गए थे काशी 

रेलगाड़ी में एक ही शैया में काटी थी रात 

तुम्हारे ऊष्ण श्लेष में तुम्हारे आर्द्र शरीर में

और फिर गंगा की जंघाओं को हटा जब तुम 

चतुर्भुज ऋषिकेश की भाँति निवस्त्र स्नान करते थे 

मैं तुम्हारी धोती की रक्षा करती घाट पर बैठी

तब मुझे घेर लिया था उस अज्ञात पहलवान ने 

दंड पेलता घाट के एक और लंगोट में 

दृष्टि बंधी की बंधी रह गई जैसे नीवि की गाँठ नहीं 

खुलती कामना के परम चरण पर

त्याग के तुम्हारा धन, धरा और ध्यान 

मैं किसी पुरुष की भाँति उसके पीछे पीछे हो ली

गुड़हल के प्रशून के रंग का था उसका अधोवस्त्र 

और मेरा जल चुका ह्रदय

उसने हाथ खींचा और भस्म कर दिया मेरा अभिमान 

अपने भीषण वदन से कुचल डाला मुझे 

कुसुममाल को जो कुचल देता है यक्ष

जब गंगा में नहाने उतरी तो 

रक्तमयि हो गया था मेरे निकट का जल।

13


रहस्यमना
चिरईगोड़ा में जो कांस का बन उग आया था
वह मेघों के छाया जैसा प्रेम, क्रोध, अहंकार
सब नष्ट हुआ

यह जो अपूर्व दिनांक आया है जब खेमूदा का शव
बाहर रखा जा चुका है
कंकन उतारके रख दिए है ऋषभ ब्रह्मो की जेब में
अरुन पाटे की धोती ठूँस के बक्स में
अग्नि भी शीतल लगती है क्षेमेन्द्र ठाकुर जो लगी लगी
सोती रहूँ तुम्हारी चिता पर
ऐसा प्रतीत होता है कि मैं सती हूँ
इन उँगलियों के पोर पोर फूट पड़ेगी अग्नि
जिसकी तुम्हारे संग प्रदक्षिणा की थी
जब दौड़ती हूँ तुम्हारे पीछे किसी का
कोई स्पर्श नहीं छूता मुझे
ऋषभ ब्रह्मो कटि से पकड़ रोकता है
नित्य नए प्रवाद चलते है प्रतिदिन कोई
नया पुरुष आता है अधिकार बताने
प्रतिदिन किसी नए पुरुष से नाम जुड़ता है
कविताओं की कॉपी रख दी ऊँचे आले पर
जो मैं ऐसा जानती कि लिखकर ऐसा दुःख मिलता है
तो कहती
स्त्री होकर लिखना मत कभी, मृगलोचना।

14
अपूरब गोस्वामी का जाना
कार्तिक का नवान्न जैसे आता भण्डार में
मेरी सौत आई - तृतीया के नवेंदु जैसा
खिल गया था क्षेमेन्द्र ठाकुर का मुख
फिर एक दिन किसी अज्ञात का पत्र आया
कोई जीवन दास की कविता के विषय में
पूछता था कुछ
'नाटक है, तुमसे घनिष्ठता बढ़ाने को'
खेमूदा राग हुए और पत्र परे कर दिया
घर पर स्त्री और बालकों को छोड़ ट्राम के
नीचे आकर मर गया कोई
दो सप्ताह तक पूरे दो सप्ताह
उसका शव पड़ा रहा लाशघर में
अपूरब गोस्वामी भी इसी भाँति ट्रैन या ट्राम के
नीचे आके मरें थे कलकत्ते में
वर्षों मैं मानती रही कि दुर्घटना थी
उनकी जननी, दीदी और पिता सब मानते रहे
बताओ भला क्यों आते जानकर ट्राम ने नीचे
जो पुरुष गया था रात्रि को काटके
अपनी प्रेयसी तोता के कंधे पर
किसी व्याघ्र सा, अर्धचन्द्राकार
वह भला दूसरे दिन ट्राम के नीचे जाकर
क्यों सो जाएगा जीबानंद बाबू जैसे
इतना थके नहीं थे अपूर्ण गोस्वामी
कि उन्हें चाहिए था चिरन्तन विश्राम
आत्महत्या करने वाला स्वयं नहीं मरता कभी
उसकी हत्या करता है समस्त संसार
उसकी हत्या करते है
तुम, मैं, वह सेमल पर बैठा एकाकी उलूक
पृथ्वी की व्यर्थ परिक्रमा करता चंद्रमा
मैं सत्य कहती हूँ अपूरब गोस्वामी से मैं
केवल करती थी प्रेम
मैंने उन्हें मारने की कोई योजना नहीं रची थी

15


मृगलोचना का शव
शव सुंदर भी लगता है यदि अपनी
संतति का हो, अपने प्रिय का, अपने किसी बंधु का हो
जैसे बोल पड़ेगा ऐसा लगता है

कहो, तिमिरबरन महोपात्र- मृगलोचना का
यह मुख, यह स्पंदहीन स्तन, शीतल जंघायें देख
कामना के ज्वर से तुम्हारा माथा तपता है

उलूक नहीं जीता इतना मृगी नहीं जीती
धान, गेंदा, कांस, कवि सब एक ऋतु के पश्चात
काल हो जाते है किंतु स्त्री
अरे बाबा रे स्त्री जीती जाती है जैसे शंख हो
जैसे पाषाण हो जैसे सर्पिनी

पाँच दिन पश्चात जल के ऊपर कमल की भाँति
आ गया मृगलोचना का शव
खुले के खुले नयन काली विशाल पुतलियाँ
हाथ किसी की और बढ़ा हुआ - जैसे कुछ देने को उठा हुआ
स्वर्ण कंकन चोर ले गया कोई
केवल शेष है कुंकुम का कंकन शंख का कंकन
और एक दबा हुआ लोहे का तार

तिमिरबरन के संग उस रात्रि जब तुम भागकर गई थी
मृगलोचना, मैंने तुम्हारे शुभ के लिए कितने व्रत किए थे
आज लोग हटा रहे है, कहते है शव से बात नहीं करता कोई
जिसकी संतान हो शव, उससे पूछो मुझसे पूछो
शव भी बालक की भाँति बोलता है माँ से

बता मृगलोचना तेरी हत्या किसने की है?
कौन रात गए घोंप गया तेरे ह्रदय पर धार।

16
क्या मैं चरित्रहीन हूँ ?
नदी नारी की भाँति और पुरुष
नौका की भाँति होता है- नौका सब प्रकार की
नदियों में चलती है किंतु मन कहीं नहीं 
समाहित होता कभी
नदियाँ गंगा-सागर में लीन हो जाती है
जैसे स्त्रियाँ कुएँ में डूब प्राण दे देती है कई बार
कितने पुरुषों में कितनी बार मैं समाहित हुई
कितने पुरुषों ने मुझे ग्रहण किया जैसे दुर्गा का
प्रसाद हो कालीघाट पर प्राप्त
बलि पर चढ़े पशु के कोमल ह्रदय से
सुंदर अंग तपाकर खा लिए पंडित ने
यजमान ने यशहीन ने कीर्तिमान ने
भक्तों ने और उनके कामुक भगवान ने
किंतु मन श्वेत कुमुद की भाँति कीचड़ में
रहा शुद्ध का शुद्ध जैसे लिंगराज पर चढ़ने वाला
दही और भात होता है बंधुमणि
यदि मैं चरित्रहीन हूँ तो है तुम्हारी नदी तीस्ता भी
गंगा त्याग ब्रह्मपुत्र में जाके जो मिलने लगी
यदि मैं चरित्रहीन हूँ तो है तुम्हारी गंगा भी
जो नीचे की और सदैव बहती है
यदि मैं चरित्रहीन हूँ बंधु तो है चंद्रमा की पत्नियाँ भी
चरित्रहीन, नौ के नौ ग्रहों को धारण करती है
बारी बारी से यह नक्षत्र की देवियाँ
अब विचारों, कहो - क्या मैं चरित्रहीन हूँ ?
यदि हूँ तो है तुम्हारी माँमणि भी
जिसके गर्भ में तुम्हारे पिता और तुम्हारा
दोनों का प्रवेश था अबाध.
17
चिता पर सम्भोग
ऋषभ ब्रह्मो नष्ट ही कर दिया था तुमने
शैया पर
उस दिन जब मेरे स्वामी खेमूदा की चिता धू धू करके जलती थी
शोक का नाश करने के लिए
तुमने यह आयोजन किया था
अभी अभी विधवा हुई मैं
किसी नववधू की भाँति भास रही थी उस संध्या
आभूषण नहीं थे तिलक नहीं था मस्तक पर
किंतु स्तन पर तुम्हारे काटे का चिन्ह
सेंदूर की असंख्य डिब्बियों को पराजित करता था
नितम्ब लाल थे.
18
क्षेमेन्द्र ठाकुर आत्महत्या कांड
..........................................
जब मंच पूरा सज चुका था नायिका ने
धारण कर लिया था अपना वेश पहन लिए थे 
अपने समस्त आभरण
छुपा ली थी कटि के नीचे कटार
संगीतज्ञों ने स्वर मिला लिए थे अपने वाद्यों के
ताल निश्चित हो चुकी थी
लाइटमैन का चुका था पर्फ़ेक्ट आलोक
तब तुमने किया विश्वासघात क्षेमेन्द्र ठाकुर
इससे पहले तुमसे खींचके ले लेती तुम्हारे प्राण
तुमने आत्महत्या कर ली
इससे पहले तुम्हें विष देती घोंप देती छुरी
तुमने स्वयं खा लिया विष
स्वयं के पैसों से स्वयं के हाथों से ख़रीदा
स्वयं पानी भर खा लिया तुमने विष
पामर, नीच तुमने मेरी प्रीति की लाज रखी नहीं
और अंत में मेरी घृणा भी कर दी व्यर्थ
चंद्रमा आज भी करता है इस व्यर्थ आकाश को उज्जवल
नीले कमलों से अभी भी भरा है हमारा ताल
अब भी ऋषभ ब्रह्मो
मुझे मेरे केश कसके खींचता है अपने निकट
किंतु तुम्हें मरा देख
मैं ऐसी निष्प्रभ ऐसी व्यर्थ जैसे
नदी सूख जाने के पश्चात
झाऊ का बन रह जाता है।
19
ब्रह्मकपाली कुण्ड में जल समाधि और
गणपति बाई का प्रसव
पितृहंता, चोर और कामी और जिसने धन के लिए
अपनी स्त्री की दोकान की हो 
वीणा बजा बजाके हो गया मुक्त
क्षमा का विधान सबके लिए जगन्मयी के
संसार में
कभी कभी तब भी सहचरी स्वप्न में आती
रूपिया १२१ में बेच दिया दुर्गापूजा के दौरान
बजार-हाट में सजे देवी-विग्रह के मूल्य पर
पिता नहीं आए शस्त्र से कराया था तीर्थ
न माँ कभी आई जो असमय विधवा होकर
काशी लौट गई
जो बचता है जो जीता रहता है
वह क्षमा नहीं करता ब्रह्मघोर स्वामी वह क्षमा नहीं करता
समाधि लेने से पूर्व मेरे प्रियतम ब्रह्मघोर नयन मींच
त्रिकाल, तीन लोक में केवल सहचरी को ही खोजते थे
फिर अदृष्टपूर्व था जो वह हुआ, बदरीनाथ पर
ब्रह्मकपाल कुण्ड में जहाँ भैरव भी मुक्त हुए थे
वहाँ जल में शिख तक डूब कर वह ऐसे छबिमान हुए
जैसे पृथ्वी को धारण करने वाला
शेषनाग दर्शन देता हो
किंतु मुझे क्षमा करना प्राणप्रिय ब्रह्मघोर कि
उस भीषण कोलाहल में कान पड़ा मेरे
किसी गर्भवती का क्रंदन
वर्षों में घटने वाली यह अदृष्टपूर्व किसी पुरुष की
समाधि छोड़ मैं दौड़ गई
नित्य दैनन्दिन घटने वाले स्त्री के प्रसव की ओर
बचपन में जिन रूसी गुड़ियों से
मृगलोचना को बहलाया करती थी
ऐसी ही एक मानुषी गुड़िया के पद्मरूप भग के
दो भाग कर वह प्रकट हुई बालिका
उधर तुम्हारी अहो अहो होती थी इधर
यह बालिका ज़ोर ज़ोर से रोती थी बेर के वृक्ष के नीचे
ब्रह्मघोर तुम चले गए किंतु मुझे कोई शोक नहीं था
यहाँ आवागमन किसी रेलस्टेशन की भाँति नित्य होता है
तुम्हारी वीणा उठाई तब एक अश्रुमाला तो बंधी थी
किंतु उनके पड़ने पर मीठा स्वर ही उठता था
20
मिठाई की दोकान
प्रतिदिन संध्या तारे दिखने से पूर्व
ब्रह्मपुत्र पार कर आती थी तुम्हारे लिए ब्रह्मघोर प्रिय
मिठाई की दोकान पर
वीणा लिए गोद में दोकान से थोड़ा पीछे तुम
देख धीमे धीमे केवल मुसकाते थे
बात कभी कोई की हो स्मृति नहीं
दृष्टि भर का संभाषण
गाँजे से चढ़े नेत्रों का रक्त मैं पीती थी
अपने नयनों से गटगट जल पीती थी समझो
कई दिनों की पिपासा के पश्चात
तुमने एक दिवस पीछे हलवाइयों के बाड़े में बुलवाया
आधा अँधार था आधा उजेरा
प्रेम पाने की जब सब आशा मैं छोड़ चुकी थी
ब्रह्मपुत्र में जब जल कम था और
रेत अधिक थी पाषाण बहुत थे
ह्रदय की नौका धंसी फँसी थी
तब तुमने चूम लिया जिह्वा को जैसे
सरसों के तेल में पकी मछली खाते हो रस से
जब तुमने श्रीरासबिहारी कृष्ण की भाँति
मेरे सब भगवा बसन उतार अपने गाढ़े गाढ़े
अनुराग से मेरा मन भगवा रंग डाला था
ऋषभ ब्रह्मो पर जो ब्राह्मी घृत निष्फल था
तुमने जैसे मुझे चटा दिया था
लौटती बेला ब्रह्मपुत्र में नदी बीच नौका में
जब मल्लाह ने कुछ देर गाने के पश्चात मेरा नाम पूछा था
तब निधड़क निलज्ज की भाँति मैंने कहा
'मैं ब्रह्मघोर स्वामी की नबवधू हूँ
21
ब्रह्मघोर स्वामी का वीणा वादन
ब्रह्मघोर स्वामी ने मुझमें प्रवेश किया है
खड्ग जैसे आनंद से मुझे भरा है ब्रह्मघोर स्वामी ने
उनके चुम्बन भुवन भर में 
सबसे कम पार्थिव थे सबसे कम दैहिक थे
उनके चुम्बन में सबसे कम थी कामना की गंध
उनके आलिंगन में सबसे अधिक मुक्त थी मैं
जैसे वायु देवता का आलिंगन हो
बंधुमणि सुनो, उन्होंने प्रवेश किया मुझमें
संगीत बनकर, स्वर-रूप इंद्री धारण कर
सदैव सदैव के लिए
अनन्त काल के लिए, जब तक नहीं बुझ जाता
आत्मा का दीप जब तक लुप्त नहीं हो जाते संस्कार
ब्रह्मघोर को धारण करूँगी मैं
एक भ्रूण की भाँति स्वामी की भाँति
जिसे स्त्री प्रतिदिन रात्रि को धारण करती है
खटराग के परे जो राग संसार पर होता है हमें
उससे परे, प्रवेश किया मुझमें ब्रह्मघोर ने
सब प्रकार की कामकेलियों में वह पारंगत थे
जो दन्तक्षत किया उन्होंने कटि पर वैसा मैं जान गई थी
अब कोई दुबारा नहीं कर पाएगा
जो नखाघात था उनका रक्त की लीक बनाने वाला
उसे झेल मानुषी योनि मेरी
श्रीलंका के नीलकमल की भाँति खिल आई थी
ब्रह्मघोर के संग सर्वप्रथम मैंने
मनुष्य का माँस चखा था
पहली बार खाया और जानी कैसा होता है
प्रेम में पड़े ह्रदय का स्वाद 
22
ब्रह्मघोर स्वामी के संग भोगवती अनंता में नौका विहार
वैराग्य ग्रहण करने के पश्चात् मुझे तीव्र
अनुराग हुआ ब्रह्मघोर स्वामी से
स्त्री का मोह अंधकार होता है 
घेर ही लेता है दिवस भर के प्रकाश के पश्चात्
ब्रह्मघोर की युवावस्था किसी नाग की भाँति
बैठ गई थी कुंडली मार मेरे स्तनों पर
कभी उसे पुत्र जान स्तनपान कराने की इच्छा से व्याकुल
मैं कल्पना किया करती थी
कि उसे सती अनुसुइया सी मैं शिशु बना लूँगी
कभी उसे भर लेना चाहती थी अपने गाढ़ आलिंगन में
जैसे भरा था अपूरब गोस्वामी को
उनकी मृत्यु से ठीक एक रात्रि पूर्व
चिलम पीते उन्हें भोलेनाथ जानती
स्वयं गौरा हो जाती, मैं कल्पना करती थी
कि प्रत्येक शिवरात्रि उनकी जटाएँ खोल
जब मैं केश प्रक्षालन करूँगी उनका
तब ब्रह्मपुत्र में आ जाएगी बाढ़ इतने बरसेंगे मेघ
भोगवती अनंता को जब एक डोंगी में पार करते थे हम
वह मेरी कटि को किसी बैरागी की भाँति
उचटे नयन देखते थे मैं उनकी
शिवलिंग की भाँति स्थितप्रज्ञ इन्द्रिय का ध्यान धरती
23
तिमिरबरन का क्या हुआ
सब कोई देबदास मुखोपाध्याय की भाँति
नष्ट नहीं हो जाते पार्वती के पीछे
प्रेम में, ऐसी ही रीति है 
किंतु तिमिरबरन तो नष्ट हो गया
बताओ भला नष्ट न होता
जिसकी स्त्री उसके क्रोध से बढ़े हाथों का
चुम्बन लेकर कह दे उससे, 'मोशाय महापात्र,
ईर्ष्या के वश अपनी स्त्री की हत्या
प्रेम का सबसे गाढ़ा चुम्बन है'
ऐसा कहकर निर्वस्त्र निरस्त्र खड़ी हो जाए सम्मुख
हत्या से पूर्व गर्भवती कर दे स्वामी
इतना प्रेम करे एक ही रात्रि में और प्रात होते होते
घोंट दे कंठ
ऐसे तिमिरबरन को नष्ट तो होना ही था
जैसे गहरी जड़ों वाला कांस भी शीतकाल में
नष्ट हो जाता है
जैसे एक दिन यह आकाश भी नष्ट हो जाएगा
किंतु प्रेम नष्ट नहीं होता न नष्ट होती है मृत्यु
मृगलोचना के गर्भाशय से ऊपर पंसलियों के मध्य
स्तनों के बीचोंबीच हृदय में
जन्म से ही इन दोनों का वास है
बताओ, कितना संयम कितनी तपस्या साधी होगी
तिमिरबरन ने कि घोंटते गला न काँपे होंगे हाथ
न स्वेद से गीले
उसने मारा होगा मृगलोचना को
संसार के सबसे कुशल प्रेमी की भाँति
24
ब्रह्मो के लिए ब्राह्मी घृत
प्रयाग के जल में सोलह रात्रि गलाकर
पूर्णिमा की अर्धरात्रि गाय के घी में
ब्राह्मी सिद्ध की
उसमें मासिक धर्म का पुष्प डाल
मैंने दिया था ऋषभ ब्रह्मो को
ऐसा करने पर पुरुष के ह्रदय पर
अग्नि की भाँति जल की भाँति प्राण वायु की भाँति
स्त्री अंकित हो जाती है
तुम्हारी स्मृति में रहूँगी सदैव जैसे चकोर के मन में
स्वाति नक्षत्र का मेघ रहता है
ऋषभ ब्रह्मो क्या तुम्हें स्मरन है
एक रात्रि संग संग जब हमने देखी थी
ऋत्विक घटक की सिनेमा तिताश एकटी नदीर नाम
और तुमने इस क्षेमेन्द्र ठाकुर की विधवा को
सती होने से रक्षा कर
घनघोर बरसते मेघों के नीचे खड़ा किया
किंतु तंत्र मंत्र सब निष्फल हुए
नारायणपुर की बांग्लादेशी जबा काज़िम के
श्याम स्तनों और क्षीण कटि के पीछे
तुम तोता बाला को ऐसे भूले जैसे
धन पाने में पश्चात पुरुष अपनी निर्धनता को
विस्मृत कर देता है
किंतु यह मेरा अनुराग लता है ऐसी
जिसे मैंने अश्रुओं ने नहीं विष से सींचा है
घृणा से भरकर
प्रेम और अधिक तीव्र अधिक तेजस्वी हो जाता है
वचन देती हूँ तुम्हें
जबा काज़िम के शव के ऊपर
तुम मुझे मथ डालोगे प्रेम में
वचन देती हूँ एक दिन ऐसा शीघ्र आएगा
25
स्मृति शेष सती शाम्भवी राय
जैसे जैसे मेरा काल निकट आ रहा है
माँ का स्मरण पुनः पुनः आता है
कामाख्या पीठ के श्रीमान मुग्धगोपाल गोस्वामी की पुत्री 
जलपाईगुड़ीवाले नबागतबाड़ी के महाशय
श्री रासशिरोमणि राय की बहूँमाँ
नष्ट हो गया नाम नष्ट कर लिया नीड़
तारकेश्वरी के पुजारी पंडित आगंतुक रस उपाध्याय के पीछे
जब बहुत भ्रष्ट हो गई वह
तो कभी कभी कहती टेगौर की सूक्तियां
किंतु पढ़े थे उन्होंने केवल माँ शारदा के संस्मरण
और शरच्चंद्र की चरित्रहीन
सदैव सीख देती, 'बनना हो तोता तो माँ शारदा की भाँति
बनना। बाबा के संग अपने पति के संग साठ वर्ष ब्रह्मचारिणी
बन कर रही जो। उनकी इच्छाएँ गल गई थी
जैसी मिश्री जल में घुल जाती है।'
हम दोनों माँ बेटी माँ शारदा की भक्त थी
जो माँगती, पाती
और एक रात्रि पिता के संग सोते सोते माँ ने
माँग लिया पंडित आगंतुक रस उपाध्याय को
माँ शारदा भक्त वत्सल-
एक दिन ऐसा भी आया कि पंडित आगंतुक को
लाई मेरी माँ हमारे गृह
बात बनी, 'परपुरुष को ले आई अपनी गृहस्थी के मध्य
चरित्रहीन, ऐसे को ले आई जो
तारकेश्वरी के मंदिर में नग्न जाने के कारण
विक्षिप्त हो गया है।'
उसके पश्चात तो माँ साक्षात् माँ से कथा बनने लगी
रसीली, चटपटी, बदनाम, उत्तेजना से भर जाते थे
वृद्धों तक के पोपले मुख
जब वह माँ की कथा कहते थे
अब तो कुछ शेष नहीं है किंतु
जैसे जैसे मेरा काल आ रहा है मुझे अपनी माँ के
संस्मरण पुनः पुनः आते है
परम सती थी मेरी माँ का नाम था शाम्भवी राय
26
बंकिमबिहारी बनर्जी के प्रति
झालाकटी से आए थे मेरे प्रथम पति
बंकिमबिहारी बनर्जी
नहीं मुझे समुद्र फेन के अलंकार नहीं मिले 
तमालबन का अंधकार मुझे नहीं मिला
जब मैं निर्वस्त्र थी
गीत गोविंद की अष्टपदी तक नहीं मिली
कि अंग छुपा लेती अपना
आठ वर्ष की कन्या को बंकिम बाबू ने
दस मिनट में कर दिया त्रिपुरसुंदरी-- जब लौटी गृह माँ के संग
तो बदल गया था रूप बदल गया था मन
जैसे रसायन के ऊपर नीचे होने पर
प्रेमी का चित्त परिवर्तित होता रहता है छाया सा
जब बोलने लगी तब बंकिम बाबू मेरे प्रथम पति ने
कहा, 'तोता तेरी जिह्वा को रक्त लग गया है'
भयभीत हो गए, कविता लिखने वाली स्त्री से
ब्रह्मा भी डरते है
बालक जनने को जिसे बनाया था वह लिखे कविता
छी छी
फिर एक वर्षाकाल की दोपहरी माँ मणि
बंकिम बाबू के मध्य कुछ संवाद हुआ
लौट कर माँ ने मेरी पीठ पर पीट पीट कर
रच दी कोई अद्भुत अल्पना जिसे दिनों तक मैं
दर्पण में देखने के व्यर्थ यत्न करती रही
वह प्रेम की अल्पना थी वह वियोग की अल्पना थी
बंकिम बाबू मुझे क्षमा करना कि मैं तुम्हें
फिर कभी मिल न सकी
किंतु मन तो दस बीस नहीं होते
समझना मन भी दे गई तुम्हें जब अपनी फ़्रॉक
तुम्हें पकड़ाई थी
बंकिम बाबू मुझे क्षमा करना कि तुम्हारी यह स्त्री
नहीं जानती कि उसका प्रथम पति
इस मनुष्यों से भरे भुवन में जीवित है
या मर गया
27
मृगलोचना का शव
शव सुंदर भी लगता है यदि अपनी
संतति का हो, अपने प्रिय का, अपने किसी बंधु का हो
जैसे बोल पड़ेगा ऐसा लगता है
कहो, तिमिरबरन महोपात्र- मृगलोचना का
यह मुख, यह स्पंदहीन स्तन, शीतल जंघायें देख
कामना के ज्वर से तुम्हारा माथा तपता है
उलूक नहीं जीता इतना मृगी नहीं जीती
धान, गेंदा, कांस, कवि सब एक ऋतु के पश्चात
काल हो जाते है किंतु स्त्री
अरे बाबा रे स्त्री जीती जाती है जैसे शंख हो
जैसे पाषाण हो जैसे सर्पिनी
पाँच दिन पश्चात जल के ऊपर कमल की भाँति
आ गया मृगलोचना का शव
खुले के खुले नयन काली विशाल पुतलियाँ
हाथ किसी की और बढ़ा हुआ - जैसे कुछ देने को उठा हुआ
स्वर्ण कंकन चोर ले गया कोई
केवल शेष है कुंकुम का कंकन शंख का कंकन
और एक दबा हुआ लोहे का तार
तिमिरबरन के संग उस रात्रि जब तुम भागकर गई थी
मृगलोचना, मैंने तुम्हारे शुभ के लिए कितने व्रत किए थे
आज लोग हटा रहे है, कहते है शव से बात नहीं करता कोई
जिसकी संतान हो शव, उससे पूछो मुझसे पूछो
शव भी बालक की भाँति बोलता है माँ से
बता मृगलोचना तेरी हत्या किसने की है?
कौन रात गए घोंप गया तेरे ह्रदय पर धार।
28
माँ आनंदमयी का दाम्पत्य-जीवन
(माँ आनन्दमयी का बालकावस्था का नाम निर्मला था और अपने स्वामी को अनुरागवश वह भोलेनाथ पुकारती थी।)
लताओं जैसा शरीर नाग-झुण्ड की भाँति 
लम्बे लम्बे केश
और इसपर सदामन कामुक स्वामी-ज्वरग्रस्त
सदैव कानों में कहता कोई कामुक गप
आते जाते शरीर नाप डालता दृष्टि से
पी गया था निर्मला की छाया पूरी
किंतु फिर भी अतृप्त और भर लेने को भटका करता
रात्रिकाल- जब भी निकट आता भोलेनाथ निर्मला के
बताओ भला, क्या दोष था अपनी स्त्री के निकट आने में
वस्त्र खींचता मुख चुम्बन को अपनी ओर करता
कटि कस वश में करने का जतन करता
निर्मला प्राण दे देती, शव की भाँति पड़ जाती
भोलेनाथ सब भाँति परखता किंतु जीवन का कोई
चिह्न न मिलता
ह्रदय गति शून्य, श्वास निष्क्रिय, तापहीन
'माँ माँ, निर्मला का देहांत हो गया'
केवल अधोवस्त्र में रोता पूरे अष्टग्राम में हल्ला कर देता
यह प्रतिदिन होता था रात्रि होते ही
निर्मला को माँ पुकारने वाला
प्रथम पुरुष उसका ही स्वामी था
प्रातः काल निर्मला में पुनः जीवन का संचार
जल भरती, नैवेद्य सिद्ध करती, कांथा काढ़ती
और स्वामी को पंखा झलके ऐसे भोजन करवाती
जैसे अन्नपूर्णा भोलेनाथ को करवाती है।

29
रामकृष्ण परमहंस का स्त्री हो जाना

पुरुष-स्त्री-पशु-पीपल सब बोली की क्रीड़ा है
जानबाजार में माँ शारदा के स्वामी
स्त्री हो गए
ढाके के मलमल की धोती से
ढँक नवोन्मेषी स्तन जैसे वय बारह की कन्या के होते है
लजा रहे, झलमल उज्जवल अंग झाँक रहे थे
'घनघोर रति के कारण सखी मेरी ओ तोताबाला,
चल नहीं पाता पुकुर तक या हुगली तक प्रातःकाल
रोम रोम से रक्त बिंदु प्रकट होती है रह रहकर
दुष्ट है बल से वश में करके
नष्ट कर दिया देख तेरी माँमणि के स्वामी
दक्षिणेश्वर के बलवान पुरुष को
ऐसा घनश्याम, देख मेरी कटि पर देख
उसके हाथ की पकड़ का नील'
ऐसे तो ऋषभ ब्रह्मो ने अपूरब गोस्वामी ने
कभी नहीं गहा मुझे जैसे परमहंस को गहा
राधाबल्लभ ने
जान शरीर की इच्छा से व्याकुल सो न सकी
पुनः पुनः दर्शन देते श्री रामकृष्णदेव
कंकन-डोरे बाँध भेष धर गौड़ीय निर्लज्ज
कामुक गोपी का
पुरुष की है, ऐसी भाषा स्त्री के वश की नहीं
कहकर अपमान करते थे जो
तब मेरी हेलीमणि श्री रामकृष्ण ने उनको समझाया
बोली की क्रीड़ा है सब भाषा का केवल खेला है
यह स्त्री यह पुरुष यह पिशाच यह तक्षक
जीव एक है जो जहाँ पहुँच गया है ।

30
ठाकुर बिजोय गोसाईं का विषपान

नुआपारे पर मूमुर्षू भवन में छबिमान बिजोय गोसाईं से
पंडित ने कहा, अविलंब प्रसाद ग्रहण करना सदैव शास्त्र का
वचन है। पालन न करना सर्वथा वेदवाक्य से विपरीत।'
खाजा- मठरी लाया था संखिया मिलाकर
विष उसमें ऐसे दिखता था जैसे दर्पन में छबि
बिजोय रहे देखते कुछ बेला
फिर उठाकर पुरुषोत्तम जगन्नाथ का लक्ष्मी की रसोईघर में
सिद्ध आहार मान मस्तक से छुवा खाने लगे
पण्डित उन्हें अनुराग से देखता था
जननी पुत्री को विष देने के पश्चात देखती है
इस भाँति प्रेम से और वेदना से
विष वेद और वेदांत में बँधकर कितना मोहक
जिह्वा को प्रतीत होता था
'भालोबासा' खाने के पश्चात् पण्डित ने कहा
अप्रत्याशित, कोमल राग से भर आई आँखें
रोने लगा पादपद्मों में
भूमि पर ठोंकने लगा माथा रक्त आ गया
बिजोय गोसाईं ने असंख्य आशीष दिए
कहा जाने को गृह
और सो गए एक ओर जहाँ सूर्य आता था
पुनः न जागने को
धूप प्रचण्ड थी जल खारा था दिन कठिन
इस भाँति निर्धन को जो धर्म की अफीम
वेद-वेदान्त की पुड़िया में बेचा करता था
क्षमा कर दिया निर्धन था अपमानित था
मेरे गुरु कुलानंद ब्रह्मचारी के गुरु बिजोय गोसाईं ने
जैसे प्रेम के कारण विषपान कर लिया
ऐसा गृहस्थ जीवन में मैं चाहती थी
क्षेमेन्द्र ठाकुर मेरे हाथों से पी लेंगे विष
ऋषभ ब्रह्मो मेरे हाथों से पी लेंगे विष
अपूरब गोस्वामी मेरे हाथों से पी लेंगे विष
मैं उनके हाथों से पी लूँगी विष
भिन्न भिन्न भाँति के विष सब प्रकार के
प्रेम की प्रयोगशाला थे।

31
अपूरब गोस्वामी के प्रेत से भेंट

उखरामठ में भगवान के विग्रह से उतार मारी कंठ पर
तुलसी दल की माला महंत ने
जैसे स्वामी स्त्री की ताड़ना करता है लीला लीला में
रात्रिभर तुलसीपत्र की माला पहने जागती रही
अपूरब गोस्वामी ने कमल के फूलों से एक दोपहरी
मेरे अबसन नितम्बों का प्रहर भर ताड़न किया था
पद्म जानो खिल गए थे नितम्बों पर ऐसे रक्ताभ
वह हो गए थे, हाथ फेरने पर भी पीड़ित होते थे
उखरामठ में आकर निम्बार्क प्रभु
यह कैसी ताड़ना की इच्छावती मैं कीच में गिरती हूँ
रात्रि रास की बेला अपूरब गोस्वामी आ बैठ गए मेरे निकट
माँगने लगे कौर का प्रसाद
'कहाँ रही इतने दिन मेरी दुलारी तोता बाला ठाकुर?'
'तुम कहाँ चले गए थे अपूरब गोस्वामी, कोलाहल से भरे भुवन में अपनी तोता को त्याग?'
दोनों ने दिया नहीं कोई उत्तर खिला दिया भोग का
पेड़ा और संदेश
जाने लगे जब- मैं रोई तब बोले अपूरब गोस्वामी
'यह सालिग्राम, यह रासमंडल, यह नक्षत्र, यह सुवर्णरेखा
यह तुम्हारे अब तक पुष्ट नितम्ब और जोगिया से झाँकती
कदली के खम्भ की भाँति जँघायें
यह युगलछबि से उतरे कमलकुसुम और कर्पूरगंध
सब उसकी छाया है
भिन्न भिन्न प्रकट हो रही है क्योंकि
ब्रह्मतत्त्व इनमें अल्प-अधिक है'
अंतर्धान हो गए रह गया छबि का संस्मरन
कर्पूर की गंध की भाँति कथा सुनने के पश्चात
दुख की भाँति जो ह्रदय भरता है किंतु दूर होता है
ढोल सुनकर रोने लगी तब आचार्य बोले
'संस्कार है ये ऐसी ही धुलता है।

32
बुढ़ापे का आगमन

अष्टमी का अपराह्न जोमुना में स्नान को
उतरी जो निर्वस्त्र
बलि के महिषों के रक्त से भर गया मुख
पके बेरफल के रंग की भाँति
दीप्त था उस भिक्खु का रंग, बलिष्ठ वदन
ब्रह्मपुत्र के पाट जितना वक्षस्थल
सांड की भाँति कंधे और अंडकोश
'आनंदभैरव है जा उसके निकट जा जल ही जल में'
एक तांत्रिक ब्राह्मणी रक्त का तर्पण करते बोली
जल के भीतर ही भीतर श्वास साध पहुँची
उसके निकट
शीतल जल में भी उसके शरीर का ताप अनुभव हुआ
बहते जल में भी उसके शरीर की गंध
जो गर्भ की गंध से भरी थी
जो जननी के स्तनों की गंध से भरी थी
जो उसकी स्त्री के रज की गंध से भरी थी
जो चंदन चर्चित थी
कंठ पकड़ पुतुल की भाँति उठा लिया उसने
प्राण का प्रवाह अवरुद्ध हो गया
नाभि भर गई प्राणों के कोलाहल से
पश्चात् पुनः पटक जल में, किसी उतारी
कुसुम माला की भाँति, चलता बना
निर्वस्त्र मैं पीछे गई
'आह्लादस्वरूपिनी है स्त्री जान ले तू'
थूककर मुख पर पलटा, तैरा, लंगोट कसी
अपना अंतिम वस्त्र किसी शव पर डाल
हो गया अंतर्धान
जान गई अब जरा आ गई
दिन जो प्रतिदिन और जर्जर कर के जाता है
फिर भी दूसरा दिन देखने का हम मानुषगण
सदैव लालच करते है
गलितदेह के किसी कामिनी के लिए लालच की भाँति
नाग के किसी दादुर के लिए लालच की भाँति

33

दूसरी स्त्री बिष्णुप्रिया का प्रसंग

स्वामी कोई हरि बोलता कहीं तो मूर्च्छित हो जाते
हरिबोल हरिबोल कान में कहने पर ही चेतन होते
पहली स्त्री बासुकिदँस के कारन गई पाताल 
तब सनातन मिश्र की पुत्री बिष्णुप्रिया के प्रेम में
पड़ गए महाप्रभु चैतन्य

शांखकांकन, सेंदूर और रजतनोपूर, एक ताँत
केवल यहीं दिया लग्नरात्रि और उसी में काट दी आयु
कंठ से कंठ लगना, दाँत से दाँत बजाकर चुम्बन
रतिकाल मोटी चोटी हाथ से खींच
कपाल करतल से रगड़ना और कुंकुम का
मस्तक पर फैल जाना, नीबि का बंध झटकके तोड़ना
सब कर भगवान ने सप्ताह भर पश्चात
संन्यास ग्रहण किया
बदले में बिष्णुप्रिया को दे दिया सदैव
स्मृति में रखने का वचन
इसबार बिष्णुप्रिया मूर्च्छित, जागी तब पाया
गोद में अपना सिला विग्रह डाल चले गए है प्रभु
श्रीविष्णुप्रिया प्राणधन मान जीवन भर इसीकी की सेवा
कंठ से कंठ केवल लग पाती थी
पुनः कभी केलि कर नष्ट नहीं किया शरीर
पुनः कभी तोड़ न दी कटि काट न दिए कंधे
गुड़हल के रक्त कुसुमों से भरी डाल
लगी की लगी रह गई अस्पर्शित, किसीने
इसे झँझोड़के तोड़ नहीं लिए इसके सब फूल
किसीने प्रेम में आकर कर नहीं दिया इसका नाश

34
ऋषभ ब्रह्मो का विक्षिप्तावस्था में मिलना
उत्तर कलकत्ते में चोखरागिनी सिनेमाघर था
सात वर्ष पूर्व, उसी के सम्मुख दिखाई पड़े ऋषभ ब्रह्मो
पाँयचला पथ पर पड़े थे अर्धनग्न 
दीर्घ दाढ़ी, दाढ़ें मैली, दृष्टि धूमिल
बंकिम कनीनिका से देखने लगे अनिमेष
फिर, कूदें और मेरे भगवे में हाथ डाल झँझोड़ डाला
मेरा कंठ और मेरा ह्रदय
उस वानर की भाँति जो झँझोड़ देता है आम्रतरु
फल की कामना में
ऋषभ ब्रह्मो अब किसी के वश के न थे
कोजागर सेठ की धर्मशाला से अर्धरात्रि के पश्चात
ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व मैं पहुँची उनके निकट
एक कागोज में बासी लूचियाँ और चोरचोरी लेकर
'कितने निर्बल हो गए हो ऋषभ ब्रह्मो,
मार्ग पर विवस्त्र पड़े रहते हो, यह क्या हो गया है तुम्हें घरबार छोड़ दिया नौकरी चली गई
जबा काज़िम भी लौट गई ढाका'
नहलाना चाहती थी उन्हें निर्वस्त्र करके
उनके अंगों पर अस्थियों पर मन पर
जो संसार की धूल जम गई थी धो देना चाहती थी
अपनी कविताओं से अपने स्वेद और रक्त से
किंतु उठे वह और छीन लिया मेरे हाथ से
लूचियों और चोरचोरी का पूड़ा, पाषाण दे मारा मेरे
माथे पर और भाग गए पूर्व की ओर
भागते काल उनकी दृष्टि किसी पशु की भाँति
भयभीत और करुण टिकी रही मुझपर देर तक
पलट पलट के देखते, भागते जाते थे ऋषभ ब्रह्मो
पूर्व की ओर जहाँ बालारून प्रकट होने को था
रक्तचम्पा के फूल की भाँति
हम सब मानुष आलोक के पीछे ही भागते है
चाहे ह्रदय के स्थान पर हो हमारी पंसलियों में
ह्रदय बराबर तिमिर का टुकड़ा।

35
सनातन मोशाय के संग ट्रामयात्रा
सनातन सान्याल बहुत मधुर बजाते भटियार
फिर बमबम अड्डाघर में फुचका गटक
दो दो कप चाय पीकर ट्राम यात्रा करते थे
कलकत्ते की वर्षा में दोपहर में भी ऐसी
हो जाती थी तिमिरकांति जैसे ग्रहणकाल हो
सनातन मोशाय ने कभी अंगुली का पोर तक
छुवाया नहीं मेरी अंगुली के नख से
कहते थे, 'उनकी घनिष्ठता अफ़लातूनी है'

खिचड़ी केश धूप में भस्म मुख था उनका
दूर किसी ग्राम में मास्टरी करते थे
कभी कभी आते थे कलकत्ता
पत्र पूर्व नहीं भेजा कभी- वर्षा की भाँति
केवल अचानक आते और हिन्दू महाविद्यालय के
बाहर प्रतीक्षा करते रहते
बुशर्ट में खोसे रहते बेनू
चरबाहे वाली बेनू थी उनके निकट
बहुत राग नहीं बजते थे उसपर

एक दिन अख़बार में लगा था उनकी लाश की चित्र
जीप से कुचला गया उनका शव
कभी देखा नहीं था उन्हें निर्वस्त्र
किंतु उनकी ध्वस्त जँघायें देख तुम यह मत मान लेना
मित्रों, कि नपुंसक होने के पश्चात वह मरें थे।

36

मनिकर्णिका घाट पर दाहोत्सव

सौ वर्ष की बालविधवा का बांसभर रह गया था
जो कलेवर चटचट जलता है मनिकर्णिका घाट पर
डोम किनारे बैठ चाय पी रहा है
कौन है और, केवल शुष्कचक्षु विधवाएँ
बाल्यावस्था में आई थी काशी, बारह वर्ष की वय
सन१९०० में जन्मी, नाम रखा दादी ने चंद्रघण्टा
सात वयस में ब्याही, नौ में विधवा
पुरातन काल की कथा है किंतु क्या नहीं सुनोगे
सिद्धांत कौमुदी को जो कंठ पर धारण करता था
चंदन की भाँति स्फटिकमणि की भाँति
जो अपने श्लोकों से करता रुद्राभिषेक विश्वनाथ का
उसने एक दोपहर आकर छिन्नभिन्न कर दिया सबकुछ
केवल एक धोती में आए निर्बल बटुक में
क्या इतना सामर्थ्य था कि उसके जाने के पश्चात्
चन्द्रघण्टा रह जाती किसी अरथी के पीछे छूट गए
भग्न कलश की भाँति
बहुत काल तक आश्रम की अट्टालिका पर खड़ी
गंगा में प्राण देने का सोचती थी, उसके गंजे मस्तक में
अपार था क्लेश
जब बटुक चढ़ गया था उसके ऊपर भरी वाराणसी के
बीच, मध्याह्न काल, आश्रम के एकांत में
अपमान नहीं लगा उसे ग्लानि नहीं हुई
केवल रक्त और सुख हुआ था उस काल
निर्बल दिखते बटुक ने जब हाथ उसका पूरा मरोर दिया
तब उसे बटुक की बलिष्ठता से भय और प्रेम दोनों हुए
उसका ह्रदय हुआ बटुक को खिला दें
किशमिश से भरी मावे की कचौरी
उसके पश्चात् जीवन बीत गया एकादशी का व्रत
और प्रदोष की पूजा करते
उसके पश्चात उस बालविधवा की आयु में
कोई कलंक नहीं है रक्त के एक कलंक को छोड़
बटुक को मावे की कचौरी खिलाने का स्वप्न
चटचट जलता है डालडा भरे उसके कपाल के संग।

37
साधोक ताराखेपा की स्त्री
शिशु के शव का आसन करके विराजमान होते थे
ताराखेपा आगे तुमुल मचाते उनके गुरु बामाखेपा ने 
दिया मंत्र उत्किलीत
तारा प्रकट हुई ताराखेपा की स्त्री के रूप में
कसे, कामाकुल स्तन और पद्म की भाँति भग
भुजाएँ श्याम और अजानुविलंबित, मुक्तकेशी
तारा के माथे पर नील पड़ा था, स्वामी ताराखेपा ने
चिमटें से मार दिया था बीती रात्रि
नैवेद्य जो लाए थे यदि खाए न तारामाँ तो पीटते थे
ताराखेपा
'देखो रक्त निकल आया स्वामी, बहुत जोर का
मारा तुमने, मछली की रसिक हूँ मैं, मुझे मत
लाया करो दहीभात'
ताराखेपा की कई रात्रियाँ तारकेश्वरी के संग
व्यतीत हुई स्वामी-स्त्री की भाँति
दंतरेखाओं से भर गए उनके कंधे और भुजाएँ
रस से भरे घट की भाँति तुष्ट और मोटे, अनंदातिरेक के
कारण सदैव अकारण हास से भरा रहता था उनका मुख
प्रात:काल जब मंदिर आते तब उनके कंठ पर
देवी का नखाघात चंद्रमा की भाँति दिन को
शीतल किया करता था
प्रेम से वह श्यामबरन देवी को खिझाने को कौमुदी
डाकते थे, देवी राग होती तब
फिर एक रात्रि उन्हें हो गया बैराग्य
देवी तारा को त्याग डाल ली श्मशान में खाटूलि
और पुनः लौट के न आए।
38
नबागतपाड़े में पुनरागमन
श्राद्धपक्ष की एक तिथि लौटी थी नबागतपाड़ा
ढह गया था गृह रासबाबू की बोईबाड़ी
बाड़ी से लगा तमालबन घनघोर तिमिर और
नागों- वृश्चिकों से भर गया था
जहाँ सती माँ नवबधू बनकर आई थी आलते भरे
चरन रखते, जहाँ उनके भाल के तिलक से पूरी
बोईबाड़ी में ऊजेर होता था
जहाँ इस नवबधू ने अनन्य रीतियों से रासबाबू को
ग्रहण किया था, जहाँ आकाशगंगा में तारकों की धूल से
अधिक नखक्षत थे माँ की पीठ पर
जहाँ केवल मरन के नेत्रों से गिरता जल ही था
स्त्री और स्वामी का प्रेम, जहाँ जीवन रहते अनुराग
सिद्ध करने की कोई युक्ति नहीं थी
केवल शव से ही प्रेमनिवेदन सम्भव था
उसी गृह में एक दिन आ गए आगंतुक पंडित
नष्ट कर लिया नीड़ छिन्नभिन्न हो गया रासबाबू के प्रति
सतीमाँ का प्रेम, कोई स्त्री जिसके गृह सेंदूर, अक्षत,
घृत, चंदन के भंडार भरे हो,
जिसका स्वामी रोज रात्रि सुनाता हो उसे
विद्यापति के पद और जिसका चुम्बन
दूध में पड़ी मिश्री जितना कोमल पड़ गया हो घनिष्ठया के
कारण, वह परपुरुष पर क्यों नष्ट कर देगी अपना गृह
कोई नहीं जानता कोई नहीं जानता
प्रेम जो हमें नष्ट करने आता है
उसकी प्रतीक्षा में हम स्वयं को कितना नष्ट कर लेते है
कि प्रेम में नष्ट हो जाने के लिए हम आत्महत्या नहीं करते।
39
आगंतुक पंडित पागल क्यों था
(मेरी माँ का नाम शाम्भवी जिन्हें मैं प्रेम से सती या सती शाम्भवी भी कहती थी। मेरे पिता का नाम श्रीमान रासशिरोमणि राय था। मेरी माँ आगंतुक पंडित को उनकी विक्षिप्तावस्था में हमारे घर ले आई थी।)
देवदास की भाँति प्रेम में सबकी नियति 
मरना तो नहीं होती न सबकी नियति पार्वती की
भाँति अपने स्वामी का विचार त्याग अपने प्रियतम के
पीछे दौड़ते मर जाने की होती है
बहुत अभागे विक्षिप्त हो जाते है प्रेम में
आगंतुक पंडित की भाँति, उन्नीस वर्ष की वय
उस पर रासबाबू की स्त्री से तीक्ष्ण आसक्ति
तारकेश्वरी के खड्ग की भाँति जिसने भेद दिया था
अंतर शाम्भवी का
एक मध्याह्न नहीं आ पाई शाम्भवी तो
तारकेश्वरी को करने लगा चुम्बन, भरने लगा विग्रह को
बारम्बार आलिंगन में
माँ को नहला दिया अपने ह्रदय के रक्त से,
उसे घोषित कर दिया विक्षिप्त उसके ही पिता ने
भुवन भरा है जो असंख्य जन से
सबसे मान लिया आगंतुक पंडित को क्षुब्धमन
किंतु जिसके पीछे पागल हुआ उस शाम्भवी ने
उसे नहीं माना पागल, सदैव कहती,
'आगंतुकदा, विकृतमस्तिष्क नहीं कवि है
उनके ह्रदय को गूँथ दिया किसी ने माला में
सुई से छिन्न बिंधे ह्रदय की यन्त्रणा कम न होती
यदि प्रेम छोड़ उसकी मृत्यु हुई होती'
क्या अपनी प्रिया के स्वामी की हत्या करना
कौर तोड़ने जितना स्वाभाविक नहीं है बंधु!
वहीं किया भाद्रमास की एक रात्रि
घोंट दिया कंठ, आज भी जाओगे यदि नबागतपाड़े
बोईबाड़ी तो तुम्हें सुनाई पड़ेगा
सती शाम्भवी का क्रंदन अपने मृत स्वामी और भाग चुके
क्षुब्धमन प्रियतम के लिए
जिसके लिए वह नष्ट हुई थी
वर्षा में मिट्टी के ढेले की भाँति।
40
परमहंस रामकृष्ण और माँ शारदा का शारीरिक सम्बंध
बिना देह का आधार लिए कोई
सम्बंध नहीं होता बंधुमणि, रक्त के सूत्र में
पिरोये जाते है ह्रदय
नाड़ीतंत्र में विष की भाँति घुलते है प्राण
तब किसी दूसरे प्राण से एक होते है
माँमोनी का गदाई से गाढ़ दैहिक बंध था
जब नवबधू होकर आई तब स्तन भर आए थे दूध से
माछेरभात त्यागके गदाई माँ के स्तनों के भरोसे
करते रहे मासों भरन अपना
तिथिभर पूरे दक्षिणेश्वर में हल्ला मचाने के पश्चात्
संध्या होते ही शारदामाँ के कक्ष की दिशा दौड़ते
अपनी स्त्री की गोद में था उन्हें विश्राम
अनुराग से भरकर कहते,
'बामाचरन काली का गर्भ है यह गोद,
सब सुख यहीं है'
कंठ का रोग हुआ जब खा नहीं पाते थे भात का
एक कौर भी जल का घूँट नहीं उतरता था नीचे
तब बूढ़ वयस में भी माँ को आ गया अपने गदाई के
लिए धारों दूध
गदाई लजाते, व्रत साधते और माँ से दूर दूर भागते
तब माँमोनी पकड़ लेती उन्हें जहाँ तहाँ
ताँत हटा कर हठ करती, पिला देती दूध
कहती, 'स्तन में दुःख होगा दूध नहीं पियोगे यदि तुम'
गदाई की समाधि के पश्चात
माँ को पड़ गई थी दूध की गाँठें स्तनों में।
43
अपराधिनी मिष्टीमोनी और जल्लाद नज़रुल मलिक की
प्रेमकथा
अलीपोर जेलेपोरा की प्रेस में मसि से सोरबोर
सितबरन साड़ी में मिली थी मिष्टीमोनी
'सरकारी कागोज की छपाई बाँए हाथ का
खेला है इसके लिए' बताया जेल वॉर्डन ने
सजा मृत्यु, क्यों?
'अपार राग होता है क्लेश भी अपार
जननी होकर अपनी ही दो कन्याओं की
विष देकर हत्या। एक तो इसीका दूध पीती थी'
'हाय कलयुग हाय त्रियाचरित्र' आते जाते जन
उच्छवास भरते किंतु मिष्टीमोनी मौन माथा नीचे
सदैव काजमग्न रहती, न कुछ सुनती न कहती
मध्याह्न का भोजन करती जल्लाद नज़रुल मलिक के
संग दूर पुकुर के निकट
'हाय कलयुग हाय त्रियाचरित्र' तब फिर कहते जन
स्त्रियाँ उच्छवास भरती पुरुषों की श्मश्रु व्यंग से तिर्यक
कभी कभी नज़रुल से अनुग्रह से मंगवाती रसगुल्ला
गिरीशचंद्र डे और नकुरचंद्र डे की दोकान से
सरस्वतीरंजन मुखरंजन से दो पान
यही उत्सब था मिष्टीमोनी और नज़रुल मलिक के मध्य
मेघों से कलंकित दिन की दोपहर कभी स्वामी आते
जिन्होंने किया था बलात्कार अपनी ही दोनों कन्याओं का
जिसके कारण विष दे दिया मिष्टीमोनी ने दोनों को
मिष्टीमोनी प्रसन्न हो जाती थी उस दिन
हाय कलयुग हाय त्रियाचरित्र' जन उच्छवास भरते
'ऐसे स्वामी के आने पर हर्ष! बिस्मय है! वेश्या की
विष्ठा भी इससे अल्प कामुक होगी'
किंतु कोई नहीं जानता कि मिष्टीमानो की
दोनों कन्याओं के विषय में वही था जो
बात करता था जैसे कोई अपनी कन्या के विषय में
बात कहता है, सुनाता है उनके विषय में कोई
प्रसंग पिता की स्नेह से भर
बताओ भला बलात्कारी सदैव नहीं होता बलात्कारी
हत्यारिन सदैव नहीं होती हत्यारिन
इसे केवल जानता था जल्लाद नज़रुल इस्लाम
जो प्रतिदिन रस्सी पर मोम चढ़ाता था
जिसे मिष्टीमोनी को फाँसी देनी थी।
41
क्या मृत्यु के पश्चात् जीवन है?
'प्रिय नलिनीकांत, द्रुत चले आओ
नहीं, मत आओ, मुझे सन्निपात हुआ है
प्रलाप करती हूँ, भीषण ज्वर पाँखभर से नहीं उतरा
रक्त जाता है प्रतिदिन किंतु तुम व्यथित मत होना
मैं शीघ्र ही स्वस्थ होकर नवीन बालुचर धोती पहनूँगी
तुम्हारी दासी'
केवल इतना कहा था पत्र में और रात्रि
खाटोलि के निकट खड़ी दिखाई दी थी सुबकती
दूसरे दिनांक नलिनीकांत लौट आया क़ुतुबपुर
'सुधांशुबाला चली गई'
उसके पश्चात् नलिनीकांत यंत्री मोशाय जिन्होंने
मरन तक जीवन माना था अब तक
जाना था कि मरकर मानुष भस्म की पोटली रह जाता है
उन्हें सुधांशुबाला यत्रतत्र दे जाती थी दर्शन
कभी उसके केशों की जबाकुसुम के तैल की गंध से
भर जाते नासापुट आते जाते
मद्रास गया मृत स्त्री से बात करने
एक बार प्राण से प्राण का आलिंगन करने
एक बार सुधांशुबाला के पुकारने पर
सही काल उस तक पहुँचने को
कभी मिलती भी थी सुधांशुबाला, बात करती आधी-अधूरी
पुनः अंतर्धान
एक योगी ने वचन दिया साक्षात मिलवाने का
पल बेला को प्रकट हुई पुनः अंतर्धान
बीत गई तरुण वय, केश श्वेत होने को आए
मृत स्त्री को ढूँढता नलिनीकांत चट्टोपाध्याय
परमहंस निगमानंद सरस्वती हो गया
किंतु पुनः कभी भेंट नहीं हुई सुधांशुबाला से
मरनेवाले लौट कर नहीं आते कभी न मरकर
हम मिल पाएँगे कभी उनसे
मरन केवल अंधकार है जहाँ प्रेम का दीपक
नहीं करता कोई आलोक
कोई आशा नहीं दिखती हम सब कितने अकेले है बंधु।
42
रंगून के राजकुमार की काया में प्रवेश
सेंदूरफल की भाँति मुख दीप्त, मानो आलता
रचित हो पगतल करतल ऐसे कुंकुम बरन
सोभ रहे थे अद्वितीय
ललित गठित भुजायें, जंघा, कटि
बिशालाक्ष कोरों से रतनार, ऐसा था
रंगून के राजकुमार का रूप
दर्शक बिस्मित मानता ही न था कि मृत है राजकुमार
उदर मेरुमूल तक धँसा, अस्थि की गठरी कलेवर
रह गया, दृष्टि क्षीण होते होते रह गई है आलोक की एक
रेख भर
तिब्बतीबाबा पुरातन वदन रह गए थे जब
रंगून की रानी से माँग ली रंगून के राजकुमार की काया
भूतपूर्व तनुज में प्राण देखने को माँ देने को तैयार थी
अपना पूरा राज
परकाया प्रवेश खेला है नित का
नित्य नबीन तन रहता है सदा
पुरुष स्त्री में प्रत्येक रात्रि प्रवेश कर रहा
नक्षत्रों में ग्रह
कुसुमों में भ्रमर
ऋषभ ब्रह्मो की ध्वनि मुझमें
िऋषि और कवि स्त्री पुरुख पशु पादप
कहाँ नहीं कर सकते परकाया प्रवेश, द्वार खुले है
सदैव उनकी कथा प्रथम पुरुष में चला करती है
जो इन पर दोष लगाते है
वह कामुक है किंतु केलि कभी कर नहीं पाए।
43
रामकृष्ण के अनुकूलप्रिय दोईमाछ की विधि
रज नहीं, केश, स्वेद, बरौनी की धूल
स्वामी को वश में करने के लिए
यह सब नहीं चाहिए किंचित भी
केवल अतीव अनुराग माँमोनी शारदा का
स्वामी को बालक बना लेता है जो
धोनेपाता डालके झालमूड़ी दे देती तो परमहंस
भक्तों से ब्रह्मचिंतन छोड़ केवल झालमूड़ी पर
ज्ञान होता
कोई कोई तिथि बनाती दोईमाछ
श्यामल गाभी के दुग्ध का दोई करती
और पद्मवाले पुकुर की भेटकी माछ
सरसों तैल तरल स्वर्ण की भाँति आलोकित करता था
माँमोनी के मत्स्यनयन
अद्भुत सुबास उठता दस दिश में
रसोईघर के द्वार पर देवता आ लगते लुक-झुक करते
परमहंस भी वातायन से झाँकते पूछते बारम्बार माँमोनी से
'क्या देर है? क्या देर है? शीघ्र करो न माँ'

जो भवसमुद्र से पार हो गया उसे एक मरी
मछली ने बाँध लिया अपने जाल में।
44
आत्महत्या का प्रयास
पोड़ा, शुक्तो, गोकुलपीठे, मोआ और काँचागोल्ले
जिसने संसार त्याग दिया हो जूठन जान
उस सन्यासिनी को मरन हेतु इतना आयोजन
करना पड़ता है
कलेवर की आसक्ति शंख है देबीमंडप का
इसका नष्ट होना सम्भव नहीं इससे काली
पिपासिनी पीती है मानुष का रक्त भर भर नित
मिष्टी अपूर्व, कटु, खारे, औमबोल, तीखे, फीके
अष्टव्यंजन सिद्ध किए किंतु श्री जगन्नाथ को
बिना अर्पित किए खाने को बैठी संध्याकाल
जब अंत में नीले थोथे से भरे काँचागोल्ले खाने को
हाथ उठाया, ठहर गया
सब जा चुके जन जीवन के पुनः आ खड़े हुए
जीवन जिनके कारण प्रिय था चले गए सब
एक एक करके
किंतु फिर भी ह्रदयगति का लोभ भरा था कपाल में
खोद भूमि गाड़ दिए सब काँचागोल्ले
जीवन सब चुक जाने के पश्चात् भी प्रिय है
पंचांग पलटता है जो उसी में कितना सुख है पतिता को
आश्विन में दुर्गा कलेवर गढ़ता था कोई
एक और एक और एक और दुर्गापूजो करने में
आ गया बार्धक्य
किंतु गया नहीं इन निष्फल प्राणों का मोह।
५०
जल समाधि
पौषपार्बो की रात्रि मेघ घनघोर बरसता था
भीषण था समुद्र ऊँची लहरें नाग की भाँति
पछाड़ खाती थी माथा और पूँछ पटक पटक कर
कछार पर
किंतु मेरा कछार अब श्वास में गहरा नीला
जल था,
तिमिर ब्रह्म की भाँति
सब और व्याप्त था केवल क्षणांश को
दामिनी के दमक में छोड़ दिया जो संसार
माया की भाँति कौंध उठता था
अभिसारिका मैं गुरुजनों की दृष्टि बचाती
सखियों से छल कर, छंद बाँध चरनों में चली
अपने प्रियतम काल से रति करने
उद्दंड समुद्र के चित्र जो बोईबाड़ी में पिता के
पुस्तकालय में देखा करती थी वही सत्य हुए मेरे जीवन में
अंतर केवल इतना है कि उनमें पालोंवाली नौका होती थी
मेरे निकट केवल यह शरीर है
विदा बंधुओं।
45
क्षमा याचना
जो कह न सकी उसके लिए क्षमा और जो कहा
उसके लिए भी क्षमा
स्त्री की कोई कथा नहीं होती
केवल दृष्टांत होता है तब उस दृष्टांत के लिया क्षमा
और क्षमा कि यंत्रना केवल सहकर मैं चली नहीं गई
उसे कहने के दुस्साहस के लिए क्षमा
जिस प्रसव में जन्म लिया और जिन प्रसवों में जन्म दिया
सबके लिए क्षमा
असंख्य पुरुषों स्त्रियों से अतीव अनुराग के लिए क्षमा।


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