भारत में भ्रष्टाचार को कमोबेश एक अनिवार्य प्रक्रिया के तहत संस्कार के रूप में मान लिया गया है और सभी सरकारी और गैर सरकारी कार्यों और प्रक्रियाओं में इसे एक आवश्यक सोपान की तरह देखा जाने लगा है. इसे इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि जिन संस्थाओं की महती जिम्मेदारी इसे आजादी के बाद हटाने की थी उन्ही संस्थाओं और व्युँक्तियों ने अपने निजी स्वार्थों के तहत इसे ना मात्र फलने -फूलने दिया बल्कि इसे पोषित भी किया फलस्वरूप आज इसके विशाल वट वृक्ष के नीचे अनेक लोगों के घर और परिवार पल रहे है. मप्र में आये दिन आपको एक सनसनीखेज खबर पढ़ने को मिलाती है जिसमे वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर चपरासी तक इस प्रक्रिया में लिप्त पाए जा रहे है. ताजे मामले में तमिलनाडू की मुख्य मंत्री जयललिता का केस सामने है जिसमे उन्हें कोर्ट से जमानत मिल गयी है. चीन में भ्रष्टाचारियों को सीधे मौत की सजा मिल रही है और हम अपने यहाँ रिआयत बरतते हुए घोषित अपराधियों को खुले आम छोड़ रहे है. अब सवाल यह है कि जिन अच्छे दिनों की कल्पना में भारतवासी जी रहे है या सुनहरे कल का सपना संजो रहे है क्या वह इन्ही अंधे गलियारों से होकर गुजरेगा? हमें सोचना होगा कि हम कैसा भारत निर्माण चाहते है और कब तक भ्रष्टाचारियों को बख्शते रहेंगे? क्या हमारे सामने दण्डित करने के सारे विकल्प ख़त्म हो गए है, क्या हमने आजादी के सत्तर सालों में ही मान लिया है कि हम इस देश में ना जयललिता का कुछ कर सकते है, ना ए राजा का ना, अरविंद - टीनू जोशी का या इसी क्रम में सभी उन नकाबपोशों का जो इस तरह के कृत्यों में लिप्त पाए गए है? एक ओर तो हम चीन से बराबरी की बात कर रहे है, वहाँ के साजो सामान को चुनौती देकर देशी माल को अपने बाजारों में खपाने की बात कर रहे है, दूसरी ओर वहाँ दी जाने वाली सार्वजनिक गलती या जानबूझकर की गयी गलती में कठोर सजा की उपेक्षा कर रहे है, या चीन के सामान सार्वजनिक जीवन में सामाजिक राजनैतिक मूल्यों और दंड प्रावधानों की बात क्यों नहीं करते ? चीन से हमारी टक्कर यदि है तो इस तरह के मामलों में भी हमें बहुत कठोर होकर भ्रष्टाचार में संलग्न पाए गए सभी लोगों के खिलाड़ कड़े दंड का प्रावधान करना चाहिए, चाहे वो फिर रतलाम, उज्जैन में पकड़ा गया चपरासी हो या जयललिता या ए राजा. भारतीय जनमानस इस समय बहुत आशाये लेकर आने वाले समय, खासकरके अच्छे दिनों, के सपने संजो रहा है और इस तरह के मामले भारत के विकास की प्रक्रिया को हजार साल पीछे धकेल देते है. जरुरत है कि अब भ्रष्टाचार को एक राष्ट्रीय मुद्दा मानकर सख्ती से निपटा जाए.
-संदीप नाईक
स्वतंत्र टिप्पणीकार
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