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बरसात की रजत बूँदें


बारिश तो तन भिगो देती है पर जो सूखा रह जाता है एक मन, कुछ एहसास, कुछ आधे अधूरे से अपुष्ट सपनें और गुनगुनी होती इच्छाएं उनका क्या ? चारो ओर गिला सा होता देख और अन्दर तक धंसते जा रहे पानी को देखना अपनी शिराओं में झुरझुरी का एहसास करा देता है कि कैसे कोई सांस की तरह से कब धंसकर समा गया और फिर एक बीज कही से सारे विरोध के बावजूद पल्लवित हो गया। इंतज़ार है उस पल्लवित होते बीज का वट वृक्ष में तब्दील हो जाने का, देखे बरसात की रजत बूँदें इसे पोषित करती है या अश्रुओं की उद्दाम धाराएं !!!

खिड़की में कांच लगा है और ये रजत बूँदें सरकते आ रही है, एकदम करीब और जब छू जाती है तो सन्न सा रह जाता हूँ - पता नहीं क्यों लगता है मानो सब कुछ भिगोते हुए सब कुछ समेट कर ले जायेंगी और फिर सब कुछ रीता रीता सा रह जाएगा। उन्मुक्त उद्दाम वेग की ये जीवन रेखाएं कांच के इन्ही पारदर्शी आवरणों से सब कुछ झीना कर रही है मानो फिर कोई कबीर गा रहा है झीनी झीनी चाददिया ....या इस घट अंतर बाग़ बगीचे, इसी में पालनहार ....

Comments

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-07-2014) को ""क़ायम दुआ-सलाम रहे.." (चर्चा मंच-1686) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने....
Rewa Tibrewal said…
sundar ehsason say bhari rachna
Rewa Tibrewal said…
sundar ehsason say bhari rachna
Unknown said…
वाह क्या बात है. खूबसूरत रचना
Khoobsurat jajbaat...bina ruke.....
Asha Joglekar said…
बहुत भावपूर्ण।

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