"शाहिद" (हंसल मेहता द्वारा निर्देशित) सिर्फ एक फिल्म नहीं वरन हमारे सात दशकों की वो कहानी है जो आज भी टीस बनकर नासूर के रूप में मौजूद है, शर्मनाक यह है कि इसे एक फिल्म के रूप में बनाकर परोसना पड़ रहा है और हाल में सिर्फ चन्द लोग बातें करते हुए देख रहे है इस फिल्म को. असल में जो केके मेनन इस फिल्म में जेल की सीखंचों के भीतर रहते हुए कहते है ना कि "उसे मालूम नहीं कि काबुल में घोडें नहीं होते, वह चालाक है, उसने सारे गधों को इकठ्ठा करके खुद घोड़ा बना बैठा है' यह सिर्फ एक डायलाग नहीं वरन हमारे लोकतंत्र पर एक करारा तमाचा भी है, क्योकि ऐसे चालाक लोग हमारे आसपास मौजूद है जो सिर्फ अपने मकसद के लिए और बाजारीकरण के इस कमाऊ दौर में बुद्धिमानों को भी गधा समझ कर इस्तेमाल कर रहे है, और अकूत संपत्ति बना रहे है और अपनी राजनैतिक ताकत भी. यह फिल्म जिस मुम्बई के दंगों के साथ शुरू होकर स्व शाहिद आजमी के सम्पूर्ण कार्यों को दर्शाती है वह प्रशंसनीय है शाहिद के जेल के अनुभवों को बार बार अंत तक कोर्ट में तक सरेआम जलील किया जाता है यह दिखाता है कि गंगा- जमानी तहजीब वाले इस देश में कैसे एक इंसान को सिर्फ शाहिद, फहीम या जहीर होने से अपनी जिन्दगी दांव पर लगाना पड़ती है. यह फिल्म हमारी सुस्त और सांप की तरह रेंगने वाली कछुआ न्याय व्यवस्था पर भी गहरे कटाक्ष करती है परन्तु इस सबके बावजूद भी हालात सुधर कहाँ रहे है. शाहिद को अपनी जान देना पडी परन्तु हुआ क्या? संकीर्ण समाज में जहां एक इंसान को धर्म, जाति और रूपयों की कसौटी पर परखा जाता है और लगातार उसे यह एहसास हर कदम पर दिलाया जाता है तो निश्चित ही यह किसी भी विकसित समाज की निशानी तो कतई नहीं है.
दूसरा पहलू है मुस्लिम समाज की अपनी समस्याएं. बंद और तंग गलियों में शिक्षा के प्रकाश से दूर किन्ही अंधेरों में पलता जीवन स्वास्थ्य और मूल सुविधाओं से वंचित ज़िंदगी जीने को अभिशप्त ये समाज भी क्यों नहीं समझता कि इल्म वह ताकत है जो इन्हें अर्थ शास्त्र से जोड़ेगी, दुर्भाग्य से वोट बैंक की चपेट में और अपढ़ मुल्लों के वर्चस्व के बीच ये कौम धीरे धीरे पिछड़ती चली गयी, बावजूद इसके कि देश में जामिया से लेकर तमाम तरह के मदरसों के लिए सरकारों ने "रहम' करके शिक्षा देने की नौटंकी की. सच्चर समिति बनी और सरकार ने आखिर अल्प संखयक कहकर देश के बड़े समाज का भद्दा मजाक बना रखा है. बहुत खूबसूरती से फिल्म भारत, पाकिस्तान और बंगलादेशी मुसलमानों के मानवीय पहलूओं और अधिकारों की बात करती है. यद्यपि यह दीगर बात है कि सउदी अरब, कुवैत, दुबई, या और बड़े बाजारों में मुसलमानों का कब्जा है और वहाँ हमारे यहाँ जामिया, अलीगढ़ या मेरठ याकि लखनऊ से मुस्लिम विवि से पढ़े शिक्षक इल्म बाँट रहे है और कमा रहे है. फिल्म में शाहिद भी ऐसी ही किसी संस्था से जकात के रूपये लेकर मुकदमा लड़ता है और बार-बार उसका इस तरह की संस्था से मिलने के दृश्य है जो दर्शाता है कि इस तरह की संस्थाओं के पास पर्याप्त रूपया है पर ये संस्थाएं इन्ही जामबाज मुस्लिम युवाओं को सुरक्षा देने में समर्थ नहीं है सिर्फ राजनीती कर सकती है या चिन्ता कर सकती है. हो सकता है हंसल मेहता और समीर गौतम सिंह की मंशा भले यह दर्शाने में ना रही हो परन्तु वे इंगित जरुर करना चाहते थे इसलिए जहीर की जीत की खुशी के बाद शाहिद इन कौम के ठेकेदारों से मिलता है. खैर, शाहिद की व्यक्तिगत जिन्दगी में तनाव और जिस बेरुखी का चित्रण है वह थोड़ा अवास्तविक लगता है या परिवार द्वारा उसकी पत्नी को स्वीकारने और फिर अलग होने की बात है वह भी थोड़ा अव्यवहारिक लगता है.
पुरी फिल्म में कोर्ट के सीन बहुत वास्तविक है जों परम्परागत मुम्बईया फ़िल्मी लटकों- झटकों या भव्य कोर्ट की जिरह ना होकर बेहद वास्तविक है परन्तु जिस स्टाईल में सरकारी वकील और शाहिद के बहस के दृश्य है वह थोड़ा चिंतित इसलिए करता है कि यदि इस तरह के मुकदमों में जज साहब अपने टेबल के पास बुलाकर बात करते है तो "डीलिंग" की सम्भावना बने रहने का खतरा बना रहता है जों हमने "मोहन जोशी हाजिर हो" या "एक रुका हुआ फैसला" में देखा समझा है. पुरी फिल्म में कैमरा मुम्बई की उन संकरी गलियों, चालों, बजबजाते हुए माहौल में घूमता है जो मुस्लिम जीवन की वास्तविकता को दिखाता है और जिसकी वजह से जीवन बहुत खतरे में हो जाता है और अक्सर सरकारों या क़ानून या हिन्दू फासीवादियों के निशाने पर रहता है.
मेरे पास बैठे सज्जन ने एक प्रचलित कमेन्ट किया था कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है. इधर हाल में यह धारणा भी टूटी है शायद इस पर भी हंसल मेहता राजकुमार उर्फ़ शाहिद से कहलवातें तो यह भ्रम भी दूर हो जाता क्योकि जब वे 9/11 की बात कर रहे है तो उस समय तक हिन्दू आतंकवाद भी न्याय पालिका में अपनी पहचान बना चुका था, इसे अगर वे धीरे से हलके में ही सही, उठाते तो शायद देश की संवेदनशील पीढी को एक सार्थक और सकारात्मक सन्देश दे पातें और कम से कम यह धारणा, जो जबरन फैलाई गयी है कि हर आतंकवादी मुसलमान होता है, को तोड़ पाते. बहरहाल फिल्म बहुत ताकतवर है, बॉस जैसी फ़िल्में भी इसके मुकाबले में है पर मेरा पक्का मानना है कि भले ही इसे दर्शक कम मिल रहे है और यह ग्यारह करोड़ का बिजिनेस ना दें पायें पर आने वाले दस बरसों में जब हिन्दी फिल्म इतिहास लिखा जाएगा तो बॉस को जगह शायद ना मिलें पर शाहिद का नाम और वर्णन सुनहरें हर्फों में लिखा जाएगा, मेरा सुझाव है की इसे जरुर देखे एक मुकम्मल समझ और सोच बनाने में यह फिल्म कामयाब है.
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