जब तुम दार्शनिक बन जाते हो और अपने साथ के लोगों को या तो परम ज्ञानी समझने लगते हो या निपट कोरे कागद तो फ़िर तुम्हारा दर्शन भी व्यर्थ है और तुम्हारा जीना भी
किसी ने पूछा कि तुम्हारी दुनिया कहाँ है, बड़ा गंभीर सवाल था गोयाकि घूमते घूमते उम्र हो गई और अब समय भी गुजर रहा है थोड़ा और शेष........या यूँ कहूँ कि समर शेष है बस........
फ़िर सोचा कि सच मे जवाब तो मै भी शिद्दत से तलाश रहा हूँ. अचानक एक जवाब सूझा- दुनिया मेरे से शुरू होती है और मेरे से ही खत्म होती है. बस इस सब मे आप कही किसी से टकरा गये तो ठीक वरना सफर तो अनवरत जारी ही है.
किसी ने पूछा कि तुम्हारी दुनिया कहाँ है, बड़ा गंभीर सवाल था गोयाकि घूमते घूमते उम्र हो गई और अब समय भी गुजर रहा है थोड़ा और शेष........या यूँ कहूँ कि समर शेष है बस........
फ़िर सोचा कि सच मे जवाब तो मै भी शिद्दत से तलाश रहा हूँ. अचानक एक जवाब सूझा- दुनिया मेरे से शुरू होती है और मेरे से ही खत्म होती है. बस इस सब मे आप कही किसी से टकरा गये तो ठीक वरना सफर तो अनवरत जारी ही है.
सवाल तब भी उठना लाजिमी है जब तुम दूसरों की हर एक्शन को, हर बात को बहुत गहराई से ऐसे देखते हो मानो यह कोई एलियन है और तुम खुद परम ज्ञानी और फ़िर स्वयं को सिद्ध महात्मा समझ कर श्रेष्ठ समझने का जो कीड़ा तुम्हें काटता है वह किसी और को तो नहीं पर तुम्हें अंदर से एक दिन जरुर खोखला कर देता है बाबू............सुन रहे हो ना.
और अचानक एक दिन तुम पाते हो इन नर पिशाचों मे तुम अकेले ऐसे हो जो श्रेष्ठ हो और बाकि सब तुच्छ तो यही सही समय है जब तुम्हें सब छोड़कर आज के मायावी संसार मे भी वास्तविक जीवन मे वानप्रस्थ आश्रम मे चले जाना चाहिए क्योकि अब तुम्हारा यहाँ रहना व्यर्थ ही नहीं बल्कि इस पुरे समाज पर एक बड़ा बोझ हो तुम बाबू..............सुन रहे हो ना...
और तुम्हें क्या लगा कि यह चोला पहनकर सियार शेर हो जाएगा, चार नई बातें सीखकर तुम दुनिया से तो श्रेष्ठ हो सकते हो परन्तु अपने आप से, अपने अपराधबोधों से और अपने गिल्ट से कब निकलोगे और फ़िर एक ना एक दिन तो भले ही किसी चर्च, मंदिर, गुरुद्वारे या मस्जिद मे ना सही पर अपने शरीर के एक कोने मे धडकते हुए दिल के किसी निर्जन एकांत मे 'कन्फेशन' तो करना पडेगा ना, क्यों बाबू उस दिन आईना देखोगे तो अपने चेहरे से अपना मुँह देख पाओगे ना, बोलो ना बाबू .सुन रहे हो ना.
ये संसार का बड़प्पन है कि यह तुम्हारे जैसे लोगों को भी बर्दाश्त कर लेता है वरना असलियत तो यह है कि तुम जो आज इस बहुसमाज मे एक अमीबा के बराबर भी औकात नही रखते, किस हैसियत से यह स्वप्न देखते हो कि सब तुम्हारा है और सब तुम्हारे, मुझे लगता है बहुत गंभीर मसला है अब समय है कि तुम अपने बनाए घेरों से निकल आओ और वहाँ चले जाओ जहाँ से कम से कम तो कुछ क्षणों के लिए तो अपने हो सको, हाँ बाबू मै तुमसे ही कह रहा हूँ... यह बात इतनी स्पष्टता से भी समझ ना आये तो फ़िर तुम्हारा विद्वान होना और वागीश कहलाना व्यर्थ है, सुन रहे हो ना बाबू मै तुमसे ही मुखातिब हूँ आज सिर्फ तुमसे.......
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