बचपन में पढ़ी एक खुबसूरत कविता मयूर दुबे के सौजन्य से ......... " सतपुड़ा के घने जंगल। नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। झाड ऊँचे और नीचे , चुप खड़े हैं आँख मीचे , घास चुप है , कास चुप है मूक शाल , पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें , धँस न पाती हवा जिनमें , सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते , गले पत्ते , हरे पत्ते , जले पत्ते , वन्य पथ को ढँक रहे - से पंक - दल मे पले पत्ते। चलो इन पर चल सको तो , दलो इनको दल सको तो , ये घिनोने , घने जंगल नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। अटपटी - उलझी लताऐं , डालियों को खींच खाऐं , पैर को पकड़ें अचानक , प्राण को कस लें कपाऐं। सांप सी काली लताऐं बला की पाली लताऐं लताओं के बने जंगल नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। मकड़ियों के जाल मुँह पर , ...