Skip to main content
भाषा भी होती है सर्वहारा, दलित और सवर्ण
22 March, 2010 16:23;00 आशीष कुमार 'अंशु'
Font size: Decrease font Enlarge font 41
image भारत भाषा संगम में नारायणभाई देसाई और महाश्वेता देवी

बड़ोदरा में भाषा अनुसंधान एवं प्रकाशन संस्था ने एक बेहतरिन आयोजन किया। जिसमें भाषा और बोली के सवाल पर देश भर के विद्वान और सामाजिक कार्यकर्ता इकट्ठे हुए। भाषा के सवाल पर इतने बड़े पैमाने पर विद्वानों के जुटान का शायद यह एक अभूतपूर्व कार्यक्रम था। प्रोफेसर गणेशी देवी के संयोजन में हुए इस कार्यक्रम को बड़ोदरा की स्थानीय मीडिया में तो अच्छी कवरेज मिली लेकिन नहीं कह सकता उसके बाहर वह खबर बनी या नहीं।

‘क्या हुआ अगर एक भाषा खत्म हो गई
वह अपने झूठ और सच के साथ दफन हो गई,
शब्द नहीं रहे, दुनिया बढ़ती रही
बोआ की दुनिया की खातिर,
कहीं कोई नहीं रोया।’

बाबुई और अर्जून जाना की यह कविता उस 85 वर्षिय अंदमानी महिला बोआ को समर्पित है जो अंदमान में बोली जाने वाली दस भाषाओं में से एक बो भाषा की अन्तिम जानकार थीं। इसी वर्ष 26 जनवरी को उनकी मृत्यु के साथ मानव सभ्यता की 65000 साल पुरानी संस्कृति का ज्ञान भी चला गया। भाषा वैज्ञानिकों के पास इस भाषा से जुड़े तमाम अनुसंधान तो हैं लेकिन उसे संवाद के स्तर पर लाने वाली अन्तिम माध्यम अब हमारे बीच नहीं रही।

यहां बोआ को याद करने की एक खास वजह यह है कि 8 और 9 मार्च को गुजरात के बड़ोदरा में 320 भाषा-बोलियों के प्रतिनिधि के नाते 650 वक्ता भाषा शोध एवं प्रकाशन केन्द्र के द्वारा आयोजित ‘भारत भाषा संगम’ में एक साथ इकट्ठे हुए। भाषा के स्तर पर इतनी विविधता के बीच जो एक बात बार-बार ध्वनित हो रही थी, वह यह कि भाषा हमारे बीच सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है। बल्कि यह हमारी संस्कृति और सभ्यता का वाहक भी है। संवाद के स्तर पर अपने बोलने वालों के खत्म होने के साथ सिर्फ भाषा खत्म नहीं होती बल्कि एक पूरी संस्कृति उसके साथ खत्म हो जाती है।

प्रसिद्ध भाषाविद और सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैन्गवेजेज के संस्थापक निदेशक डीपी पटनायक के अनुसार सभी भारतीय भाषाओं के लिए यह खतरे की घड़ी है। ना सिर्फ कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली या आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा/बोली बल्कि हिन्दी जैसी बड़ी भाषाएं भी इस संकट से बाहर नहीं है। श्री पटनायक के अनुसार हमलोग गवाह बने हैं, अंग्रेजी जैसी भाषा की उन्नति के। आज अंग्रेजी भारत के सबसे अधिक बोली जाने वाली 35 भाषाओं में एक है। अंग्रेजी की यह उन्नति अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के लिए घातक साबित हो रही हैं, वहीं दूसरी तरफ जिन बोलियों और भाषाओं को बोलने वाले कम लोग हैं, उनके लिए अंग्रेजी दूगुनी घातक साबित हुई है।

आयोजन में देश भर से अलग-अलग भाषा बोलियों के 350 प्रतिनिधियों ने अपनी भाषा बोली के साथ पेश आ रही कठीनाई को पेश किया। इस आयोजन में जाने के बाद ही यह बात समझ आई कि भाषा भी बुर्जूआ-सर्वहारा, दलित और सवर्ण होती है। दार्जलिंग से आए एक साथी ने बताया कि किस प्रकार उनके यहां बांग्ला और अंग्रेजी की वजह से युवा पीढ़ी अपनी बोली-भाषा से अलग होती जा रही है। अपनी बोली बोलने वाले लोगों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है। बोलने वालों की संख्या कम होने की हालत सिर्फ लेप्चा और हालाम जैसी कम संख्या में बोली जाने वाली बोलियों के साथ नहीं बल्कि हिन्दी जैसी अधिक बोली जाने वाली भाषाओं के साथ भी है। इसी का परिणाम है कि एक समय में अंग्रेजी जैसी बिल्कुल ना समझी जाने वाली भाषा अब हमारे देश में सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली 35 भाषाओं में शामिल हो गई है। भाषा का महत्व एक व्यक्ति के जीवन में क्या होता है, इसकी एक मिशाल सोमानी कुरोसी है। जो बुडापेस्ट के पास के एक गांव से अपनी भाषा, बोली, संस्कृति को ढूंढ़ता हुआ अपने पूर्वजो के गांव भारत आया था। कोलकाता, तीब्बत की उसने खाक छानी और यात्रा के दौरान ही उसकी मृत्यु दार्जलिंग में हुई। एक दूसरा उदाहरण ‘द इंडिजेनस लेप्चा ट्राइबल एसोसिएशन’ का है। जो लेप्चा भाषा की सरकारी उपेक्षा के बाद, अपनी संस्कृति से कट रहे लेप्चा बच्चों को अपनी मातृभूमि और मातृभाषा से जोड़ने के लिए बनी। आज यह संगठन आपसी मदद से 40 रात्रि स्कूल चला रहा है। 18 महीने के पाठ्यक्रम में लेप्चा बच्चों को यहां अपनी भाषा, पारंपरिक नृत्य, पारंपरिक वाद्य यंत्र, लोक कथाएं और लोकगीत से परिचय कराया जाता है। इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय बच्चों को स्कूल से अलग देना होता है। ऐसोसिएशन के संयुक्त सचिव एनटी लेप्चा के अनुसार- कलिमपोंग, दार्जलिंग, मिरिक, सोनाडा के अलावा दिल्ली में भी उनके केन्द्र चल रहे हैं। वे पश्चिम बंगाल सरकार से खुश नहीं हैं, जो उनपर बांग्ला भाषा जबरन थोप रही है। उन्हें बांग्ला से परहेज नहीं हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे लेप्चा भाषा भी स्कूल में सीखें। जिससे नई पीढ़ी के युवा लेप्चा कटते जा रहे हैं।

दुनिया के 16 फीसदी आबादी वाले हमारे देश में 1961 की गणना अभिलेख के आधार पर कुल 1652 मातृभाषाएं हैं, जिनमें 103 विदेशी मातृभाषाएं हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में दुनिया भर में बोली जाने वाली लगभग 8000 भाषाओं में लगभग 90 फीसदी भाषाएं 2050 तक विलुप्त होने की कगार पर होंगी। भाषा को लेकर बड़ोदरा में हुए भाषा कुंभ में जिस प्रकार एक-एक कर देश भर से आए प्रतिनिधि अपनी बात रख रहे थे, उससे देश भर में भाषायी स्थिति की भयावहता का थोड़ा अंदाजा लग ही रहा था।

इस पूरे कार्यक्रम को समाजसेवी महाश्वेता देवी और गांधीवादी नारायण भाई देसाई का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के लेकर नारायण भाई ने कहा कि इस कार्यक्रम में भारत और इंडिया का अंतर कम से कम दिखा। भाषा के स्तर पर जिस प्रकार का लोकतांत्रिक माहौल पूरे कार्यक्रम में दिखा उसे लेकर नारायण भाई ने यह टिप्पणी की। किसी पर भी किसी खास भाषा में अपनी बात को कहने का दबाव नहीं था। सबने खुलकर अपनी-अपनी बात रखी। यह सच है कि जिन लोगों ने अपनी बात हिन्दी में कही उनकी बात को अधिक सुना गया। चूंकि हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी हिन्दी ही समझती है। वे लोग भी इसे समझते है, जो ठीक से बोल नहीं पाते। महाश्वेता देवी ने भी अपनी बात हिन्दी-अंग्रेजी में रखी। भाषा शोध एवं अध्ययन केन्द्र के संस्थापक प्रोफेसर गणेश देवी ने कहा कि हमने इस कार्यक्रम को भाषा स्वाभिमान नाम नहीं दिया। यह भाषा संगम है। संगम माने जहां सभी आकर मिले। लेकिन यह मिलन विलीन होने के लिए नहीं है, बल्कि आगे बढ़ने के लिए है।

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...