"कामेडियन और शायर दोनों को अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए कोर्ट से राहत"
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कुणाल कामरा को मद्रास हाई कोर्ट और इमरान प्रतापगढ़ी को सुप्रीम कोर्ट से
'लाइव लॉ' की खबर है कि मद्रास हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के खिलाफ कथित टिप्पणी के मामले में मुंबई में दर्ज एफआईआर को लेकर कुणाल कामरा को 7 अप्रैल तक अंतरिम अग्रिम जमानत दी है. कामरा को संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत बॉन्ड भरने के लिए कहा गया है. हालांकि एफआईआर मुंबई के खार पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी, लेकिन कामरा तमिलनाडु के निवासी होने के कारण वहीं के उच्च न्यायालय पहुंचे. उनके वकील वी. सुरेश ने तत्काल राहत की मांग की, यह तर्क देते हुए कि उनके नए स्टैंड-अप वीडियो 'नया भारत' के प्रसारण के बाद कामरा को कई बार जान से मारने की धमकियां मिली हैं. न्यायमूर्ति सुंदर मोहन ने कहा कि वह प्राथमिक रूप से संतुष्ट हैं कि कामरा महाराष्ट्र में अदालतों से सुरक्षा की गुहार लगाने में असमर्थ हैं. इसलिए अदालत ने अंतरिम अग्रिम जमानत देने की सहमति जताई. अदालत ने खार पुलिस स्टेशन (मामले में दूसरे प्रतिवादी) को निजी नोटिस भेजने की अनुमति दी है. कामरा ने मुंबई में दर्ज एफआईआर को लेकर ट्रांजिट अग्रिम जमानत की मांग करते हुए मद्रास हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. शिवसेना विधायक मुरारी पटेल की शिकायत पर कामरा के खिलाफ 353(1)(b), 353(2) [सार्वजनिक उपद्रव] और 356(2) [मानहानि] की धाराओं के तहत ज़ीरो एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसे बाद में मुंबई के खार पुलिस स्टेशन ट्रांसफर कर दिया गया. हालांकि कामरा ने उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का नाम सीधे तौर पर नहीं लिया था, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि उन्होंने शिंदे को 'गद्दार' कहा, जब उन्होंने शिवसेना के विभाजन का संदर्भ दिया.
इधर सुप्रीम कोर्ट ने अदालत और पुलिस की लगाई संविधान पर मास्टरक्लास और फटकार
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सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इंस्टाग्राम पर शेयर की गई एक वीडियो क्लिप में दिखाई गई कविता मामले में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी को बड़ी राहत दी. शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता और गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर को खारिज कर दिया.
जस्टिस अभय ओका और उज्ज्वल भुइयां की पीठ गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर के खिलाफ प्रतापगढ़ी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी. इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट में, प्रतापगढ़ी ने "ऐ खून के प्यासे बात सुनो" कविता के साथ एक वीडियो क्लिप साझा की थी. हरकारा के 22 जनवरी के अंक में ये पूरी नज्म और गुजरात पुलिस की एफआईआर की खबर पढ़ सकते हैं.
पीठ ने अदालतों और पुलिस को अलोकप्रिय राय व्यक्त करने वाले व्यक्तियों के अधिकारों को बनाए रखने के उनके कर्तव्य की याद दिलाई. फैसले को पढ़ते हुए न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि विचारों और दृष्टिकोणों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक स्वस्थ सभ्य समाज का अभिन्न अंग है और विचारों और दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत सम्मानजनक जीवन जीना असंभव है. पीठ ने अपने आदेश में कहा,
"साहित्य और कला मानव जीवन को अधिक सार्थक बनाते हैं; गरिमापूर्ण जीवन के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है. व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों द्वारा विचारों और मतों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक स्वस्थ सभ्य समाज का अभिन्न अंग है. विचारों और मतों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत गरिमापूर्ण जीवन जीना असंभव है. एक स्वस्थ लोकतंत्र में, किसी व्यक्ति या समूह द्वारा व्यक्त किए गए विचारों का प्रतिकार दूसरे दृष्टिकोण को व्यक्त करके किया जाना चाहिए... यहाँ तक कि यदि बड़ी संख्या में लोग किसी के विचारों से सहमत नहीं हैं, तब भी उस व्यक्ति के विचार व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान और संरक्षण किया जाना चाहिए. कविता, नाटक, फिल्में, व्यंग्य और कला सहित साहित्य मानव जीवन को अधिक सार्थक बनाते हैं."
जस्टिस ओका ने तो आदेश में यहां तक लिखा, "कभी-कभी, हम न्यायाधीशों को बोले गए या लिखे गए शब्द पसंद नहीं आते हैं, लेकिन फिर भी, अनुच्छेद 19(1) के तहत मौलिक अधिकारों को बनाए रखना हमारा कर्तव्य है. हम न्यायाधीशों का भी संविधान और संबंधित आदर्शों को बनाए रखने का दायित्व है. अदालत का कर्तव्य है कि वह मौलिक अधिकारों की रक्षा करे. विशेष रूप से, संवैधानिक न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे रहना चाहिए. यह सुनिश्चित करना न्यायालय का कर्तव्य है कि संविधान और संविधान के आदर्शों का उल्लंघन न हो."
"न्यायालय का प्रयास हमेशा मौलिक अधिकारों, विशेषकर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता—जो किसी भी उदार संवैधानिक लोकतंत्र में नागरिकों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार है—को सुरक्षित और संवर्धित करना होना चाहिए."
अदालत के साथ-साथ पुलिस अधिकारियों की जल्दबाजी पर भी सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई.
"पुलिस अधिकारियों को संविधान का पालन करना चाहिए और इसके आदर्शों का सम्मान करना चाहिए. संवैधानिक आदर्शों का दर्शन स्वयं संविधान में निहित है. प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है कि भारत के लोगों ने गंभीरतापूर्वक भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और सभी नागरिकों के लिए विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का संकल्प लिया है. अतः, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान के आदर्शों में से एक है. पुलिस अधिकारी, नागरिक होने के नाते, संविधान का पालन करने के लिए बाध्य हैं और उन्हें इस अधिकार को बनाए रखना है."
#हरकारा से साभार
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भक्तों को यदि लिखना-पढ़ना आता हैं और न्यूनतम समझ भी हैं पढ़कर आत्मसात करने की, तो यह पढ़कर समझना चाहिए और फिर आगे से किसी की अभिव्यक्ति और लिखने पर आपत्ति नहीं लेनी चाहिए, यदि ऐसा हुआ तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आलोक में पुलिस और प्रशासन को शिकायत की जा सकती हैं - बशर्तें कलेक्टर और टीआई, एसपी गिरगिट ना हो और स्थानीय छूटभैये नेताओं के दबाव में ना हो और संविधान समझता हो
बाकी तो जो है हइये हैं
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स्व अर्जुन सिंह जी के सामने स्व रमेश सिकरवार ने जब तत्कालीन आईपीएस अधिकारी सुश्री आशा गोपाल के सहयोग से आत्म समर्पण किया था तो स्व शरद जोशी ने लिखा था
पत्रकार : "मुख्यमंत्री जी के सामने समर्पण करके आपको कैसा लग रहा है"
रमेश : "जैसा एक राजा दूसरे राजा के सामने महसूस करता है"
[ राजा के बदले कुछ और लिखा था, पर मृतात्माओं का सम्मान करना हमारा सनातन धर्म सीखाता है इसलिए शब्द बदला है , चूंकि तीनों ही अब संसार में नहीं हैं ]
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आज पता नहीं किसी संदर्भ में यह बात याद आई
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लम्बी रेस का घोड़ा बनने में ही फ़ायदा है, बोझ तो गधे भी ढो लेते है
मज़ेदार बात है ना ? हालांकि गधों की आवश्यकता को नकारा नही जा सकता, व्यवस्था में उनका होना उतना ही ज़रूरी है जितना किसी चेहरे पर डिठोना
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किशोरों के लिए एक मप्र भोपाल से एक पत्रिका निकलती है, तमाम तरह की रचनात्मकता और नएपन की बात करती है यह पत्रिका, पर चापलूस और फर्जी लेखकों के जमावड़े से ज़्यादा कुछ नही है उसमें, देश के नामी गिरामी छटे हुए इलीट गैंग के लोग इन कृत्यों में शामिल होकर अपनी कही ना छप सकने वाली रचनाएँ नवाचार के नाम पर परोसकर मानदेय की दौड़ में शामिल रहते है
हद तो यह है कि एक सम्पादक एक ही अंक में चार - पाँच रचनाओं के सम्पादन, कल्पना, अनुवाद और मौलिकता में अपना नाम छापकर ज्ञानी होने का दावा करता है, इसमे अक्सर बहुधा एक ही लेखक या चापलूस कवि की 4,5 रचनाएँ छप जाती है - यदि आप वाजपेयी खानदान या किसी पत्रकार की औलाद हो, या जी हुजूरी में माहिर, हीहीही करके पपोल सकते हैं तो दो पंक्तियों के लिये हजारों रुपये आपकी राह तक रहें हैं
यह एक निज हाउस से छपती है और किसी छुटभैये अडानी अम्बानी टाईप माफ़िया सेठ के अंडर है सब कुछ तो - कोई क्या ही कहेगा, बस अपुन अब ना पढ़ेगा ना पत्रिका लेगा, इस प्रकाशन के बाकी प्रकाशनों से भी आज से मुक्ति ले ली, पुराने अंक किसी जगह दान कर रहा हूँ
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