बड़ी होटल्स में वेटर्स की स्थिति बड़ी करुण होती है, दो या तीन शिफ्ट में लगातार काम, कम तनख्वाह और हर वक्त सिर पर नौकरी छूटने का डर , ऐसे में दूर दराज़ के बच्चे शहरों में इस तरह की नौकरी के साथ पढ़ रहे है तो उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिये
इनके लिए कोई कानून और नियम कायदे नही शायद
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खजुराहो प्रेम का दूसरा नाम है और हर बार यहाँ आता हूँ और पाता हूँ कि मन्दिर की मूर्तियाँ और निखर गई है, जगह और सुंदर हो गई है, हवाओं में मादकता और तीव्र हो गई है , एक मदनोत्सव का ज्वर हर तरफ़ बना हुआ है और अपने आपको भरपूर प्रेम में पगा हुआ पाता हूँ, प्रेम - समर्पण और आस्था - विश्वास के बीच जीवन की पहेली को समझने का जतन करना ही खजुराहो का दूसरा नाम है
लौटता हूँ तो निराश होता हूँ, पलट - पलटकर उन यक्षिणियों की प्रतिमाओं को निहारता हूँ जो सदियों से इन बेजुबान पत्थरों पर तराशी हुई खड़ी है कि कोई आये और इन्हें उतार कर संग ले जाये, अफसोस कि दुनिया भर से रसिकजन यहाँ आते है - तस्वीरें, स्मृतियाँ और संवेदनाएँ लेकर लौट जाते है पर ये पत्थर इसी बन्द परिसर में क़ैद होकर रह जाते है
जिसने उकेरा उन कलाकारों से मिलकर पूछना चाहता हूँ कि यह अप्रतिम प्रेम, समर्पण, वासना, अतिरेक और सौन्दर्यानुभूति उन्होंने कहाँ से पाई थी, कैसे रच दिया इन शुष्क पत्थरों पर कि आजतक कोई ना समझ पाया और ना समझा पाया है
खजुराहो , कोणार्क या दक्षिण के मंदिरों में पत्थरों पर वर्णित संसार और जीवन का यह दर्शन हर बार चकित करता है, विस्मय से भर देता है, इतना जटिल है यह कि इसे बहुधा सांगोपांग ढंग से नही समझ पाता, बरसों से यहाँ आ रहा हूँ पर हर बार छूट जाता है बहुत कुछ
शायद अब लौटना ना हो, आज मतंगेश्वर महादेव के दर्शन से शुरू करके जब सबसे अंत में वराह के दर्शन किये तो लगा कि अब ना लौट सकूं कभी... पर उस यक्षिणी की याद बनी रहेगी मन - मस्तिष्क में सदैव कि जीवन अभिशाप है, जीवन वरदान है, अभीष्ट इच्छाओं का दानावल है और हम सब एक छोटे से सफ़र से बहुत कुछ हासिल कर लेना चाहते है परन्तु यह सब कहाँ हो पाता है
जीवन की खुशियाँ इसी खजुराहो का कोई "लपका" छीनकर अपने पास से ले जाता है और हम सिर्फ़ अंत में दर्शनीय बनकर रह जाते है
इन दिनों कोई भाई, भाई करके या भैया - दादा, दीदी - मासी - बुआ करके दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, पटना, लखनऊ, या भोपाल से फोन आये और आप पहचान ना पायें तो कृपया ना उठायें और तुरंत काट दें और ब्लॉक कर दें
वह फोन किसी पत्रकार या मीडिया के टेढ़े बदमिजाज नर या जटिलतम मादा का भी हो सकता है - जो फेसबुक, इंस्टाग्राम पर आपका मित्र हो 5000 की भीड़ में और आपसे मिलकर कोई डाक्यूमेंट्री, आलेख, शोध या फर्जी प्रश्नावली भरवाना चाहता हो अपना उल्लू सीधा करके इन दो तीन माहों में भरपूर माल कमाने का इच्छुक हो, हो सकता हो इमोशनल अत्याचार करके आपके घर आकर टिक जाए 8 -10 दिन और आपकी कार या बाइक पर आपके ही पेट्रोल से दस - बीस गाँव घूम लें और सर्वेक्षण टाईप काम कर आपको चूना लगा जाएं कि -"आओ कभी दिल्ली"
सावधान रहें, सतर्क रहें
#दृष्ट_कवि सिर्फ़ कवियों, साहित्यकारों के लिये ही नही पत्रकारों के लिये भी प्रतिबद्ध आत्मा है
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"क" ना अब कहानी का है और ना कविता का , "क" अब कारपोरेट का है जो चंद अति जोशीले, उत्साही और आत्म मुग्धता के कैंसर से ग्रसित लोग चलाने लगे है ठेके पर
स्व देवताले जी कहते - कहते मर गए कि कविता लिखना घर - घर दिन भर चलने वाले पापड़ बड़ी उद्योग जैसा हो गया है, पर अब यह उद्योग कार्पोरेट्स हो गया है - जहाँ क्लाइंट्स ढूँढकर चतुर सुजान भड़ैती करते है और बड़े - बड़े कार्पोरेट्स चला रहे है
यह हिंदी का दुर्भाग्य ही है कि संवेदनशील कवि, कहानीकार और आलोचक चंद ब्यूरोक्रेट्स के टुकड़ों पर पलने लगें और इधर सिर्फ़ हवाई यात्राओं और दस बीस हजार रूपट्टी के लिये इन्होंने चाटुकारिता की हदें पार कर दी, इतना तो मैंने किसी कुत्ते को पूँछ हिलाते नही देखा और इसमें हर माह दो से तीन लाख कमाने वाले रीढ़विहीन प्राध्यापक भी है - हिंदी, अंग्रेज़ी के - जो बिछ गये है, शर्मनाक
ये कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या कथेतर लिखने वालों को खोज - खोजकर लाते है, बाक़ायदा बंधुआ बनाकर दक्ष करते है कि चार लोगों के सामने कैसे बोलना है और फिर इन्हीं के रूपयों से स्वयम्भू अम्बानी - अडाणी बनते है
कोई नृप होवें, हमें का हानि - दूधों नहाओ और फुलों फ़लों
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"मेरी मसरूफ़ियत का आलम मत पूछ अनवर,
एक अरसा गुज़र गया खुद से मुलाकात किये"
◆ अनवर बरेल्वी
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कवियों से दूर रखना - प्रभु कम दिन बचें है, चैन से जी लेने दो
एक दिन में 51 कविताएँ पेलने वाले और साल भर में 365 सँग्रह लाने वाले मूर्खाधिराज कविगण कम कविताएँ लिखने का मशविरा दे रहे ताकि उनकी भड़कीली, चटकीली और कूड़ा कचरा कविताओं को लोग और बूढ़ी तितलियाँ पढ़ने आये, अरे ससुरों कितना कचरा पेलोगे
सारे बूढ़े, खब्ती, रिटायर्ड और पेंशनभोगी जो इस समय चुप है और अपने चापलूसों से घिरे रहकर सिर्फ़ नगद पुरस्कार बटोरने में लगे है उनको लानत भेजता हूँ कि तुम्हारे दरवाजे पर ना कविता फटके और ना तुम कभी कभी लिखने योग्य रहो क्योंकि हिंदी कविता का जितना नुकसान तुम जैसे फर्जी कवियों, भड़ैतियों और मक्कारों ने किया और अब चुप बैठकर फासिज़्म को समर्थन कर रहे हो वो किसी से छुपा नही है
अगले जन्म में तो कविता से रिश्ता ही नही रखूँगा और क्या कहूँ
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