रात भर से बारिश हो रही है, इधर पहली बार वर्षों में देखा कि जून के पहले हफ्ते में पानी आ गया, बचपन मे 7 जून का इंतज़ार रहता था पर धीरे धीरे जून अंत और फिर जुलाई की आदत पड़ गई थी
गर्मी की दो माह की छुट्टी से पेट ना भरता और सरकारी स्कूल की छत को निहारते कि कब टपके और माड़साब छुट्टी कर दें, आठवी तक आते - आते 5 भवन बदले मेरी स्कूल ने और हम हर बरसात में बिल्डिंग ढह जाने की कामना करते थे, नई जगह शिफ्ट होने में अगस्त निकल जाता - रज्जब अली मार्ग का स्कूल टूटा, फिर राजवाड़ा, आलोट पायेगा के कमरे गिरे, 'सब जेल' में फिर से कैदी आये तो हम बाहर हुए , सुतार बाखल में बांस गिरे, नई बिल्डिंग के पतरे उड़े - बरसात में नाली से उमड़े कीचड़ का सड़क पर लोटना और उस पानी मे छपाक छपाक जाना - आना कितना सुहाना था और फिर झड़ी लगने की छुट्टी अलग
विज्ञान भी कितना साहित्यिक है - "निसर्ग" , तूफान को इतना सुंदर नाम देने की हिम्मत कम से कम साहित्य तो नही कर सकता, नए शब्द भी गढ़ता है "अम्फन", "सुनामी" - तूफान हो या पुच्छल तारों के नाम या किसी विषाणु के नाम
तेज बारिश हो रही है - भविष्यवाणी थी कि मुंबई गुजरात से होते हुए अब यह निसर्ग मालवा से आज गुजरेगा, अभी आठ बजे नही है और रात भर से जाग कर निहार रहा हूँ, सब धुल गया है, साफ़ हो गया है, पत्ते हरे हो गए है, आज गमलों में पानी देने का काम बच गया है पर बाकी दूसरे काम बढ़ गए है
बारहों मास प्रिय है पर वर्षा ऋतु सबसे प्रिय है लगता है नेह की बूंदों को अँजुरी में भरकर किसी नदी में उंडेल दूं कि बह ना जाये व्यर्थ में - सोया नही रात भर , बहुत से फोन आये, सन्देश पड़े रहें जवाब के इंतज़ार में - पर मैं पहली बारिश में बूँदों से बात करता रहा कि कैसे बीतें आठ माह
बारिश आंसूओं को ओझल कर देती है
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अप्प भुक्तभोगी बनो
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केजरीवाल कह रहे है कि कोरोना के लक्षण सामान्य है घर पर ही ठीक हो जाओ
नीतीश कुमार जी को चुनाव दिख रहा है
योगी जी के यहाँ हर पांचवा प्रवासी कोरोना ग्रस्त है फिर भी घर रहिये
मप्र में शिवराज जी की गुड़ बुक के चमकते हीरो इंदौर कलेक्टर ने 19 फीवर क्लिनिक खोल दिये है - जाईये बुखार नपवा लीजिये और दवा लेकर आईये
अभी गूगल किया तो बेंगलोर, मैसूर और इंदौर में कोविड के इलाज के लिए यह टेक्निक अपनाई जा रही है - यह जानकारी मिली
क्या कोई कम्युनिटी मेडिसिन का डाक्टर, प्राध्यापक या ज्ञानी बता सकता है कि ये फीवर क्लिनिक का क्या अर्थ है - घर ही नाप लें बुखार - अब अरबों स्वाहा करके घर, गांव या मुहल्ले में चार पांच तो साक्षर मिल ही जायेंगे सही सलामत आंखों के साथ जो उपर नीचे होते पारे की रीडिंग पढ़ लें, क्या यह शासकीय आदेश है या स्थानीय लॉलीपॉप, इसका बजट और व्यवस्था क्या है और दैनंदिन जाँचें और नियमित ओपीडी और अस्पताल का क्या
उधर श्रद्धेय ने कह ही दिया है कि कोरोना के संग जीना सीख लें
बहरहाल, अब दस्त क्लिनिक, उल्टी क्लिनिक, सर्दी क्लिनिक, खांसी क्लिनिक से लेकर बाकी सारे क्लिनिक खुलेंगे या मोहल्ला क्लिनिक जैसा कुछ एडहॉक व्यवस्था खोलकर झुनझुना दे रहें है जनता को और परम ज्ञानी केजरीवाल को यह श्रेय ना देकर हमारे प्रदेश के नौकर शाह सच में "गुड़ बुक" में डटे रहना चाहते है
कोरोना क्या - क्या ना करेगा, यह देखने के लिए अभी ज़िंदा हूँ
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कुछ किताबों पर कभी ना बोलना ही बेहतर होता है और उन पर ना लिखना तो सबसे श्रेष्ठ - भले ही वो किसी की भी हो, असल में वो मेरी निजी राय में किताब ही नही - बल्कि एक तरह की बर्बादी है पेड़, पर्यावरण, स्याही, समय और मानवीय श्रम की
ऐसी कुछ पुस्तकें निकालकर आज आलमारी खाली की है - कौन धूल पोछे और साज सम्हाल करें, किसी को गिफ्ट भी नही दे रहा, कोरोना काल से पहले के अखबार इकठ्ठे हुए पड़े है , अपने लॉ की भी कुछ रद्दी जैसे कुंजी, नोट्स आदि पड़े है - उसी लॉट में मिलाकर बेच दूँगा - अटाले वाले, रद्दी वाले आने लगे है सुबह इन दिनों फिर से
ना पढ़ पाने का अफसोस होगा - ना लिख पाने का अपराध बोध , माफ़ कीजिये नाम नही बता पाऊँगा इन किताबों के - लगभग सभी विधाएं है और किसी एक पर बात करना पाप होगा
बहुत विद्वान नही, ना ही किसी भी भाषा का सिद्धहस्त हूँ पर "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान" और मैं तो सुजान भी नही हूँ पर इतने सालों से पढ़ने से थोड़ी सी अल्प समझ है कि अच्छा बुरा क्या है और जब मैं अपनी ही किताब को खारिज कर चुका था और जिक्र नही करता तो और क्या कहूँ, शुरू में जब क़िताब आई थी तो प्रचार किया था पर इधर बिल्कुल ही बंद है, पता नही कैसे लोगों को दौरे पड़ते है और बारम्बार आत्म मुग्धता से लोग लगे रहते है किताब के प्रचार पर जबकि वो अब इतिहास में दफन है
बहुत सारी जगहों से पुस्तकें आती है समीक्षा के लिए - दो पन्ने नही पढ़ सकते आप बाकी तो छोड़ दीजिए, कुछ मित्रों की खरीदी थी - बेस्ट सेलर और जागरण सूची पर भरोसा करके, कुछ पुस्तक मेलों में प्रकाशक मित्रों का लिहाज करते हुए ले ली थी और कुछ ज्यादा कमीशन मिला तो उस लालच में खरीद ली थी, कुछ सेट लिए जिसमे से 50 % कूड़ा निकला, कुछ उपहार में मिली और कुछ सम्मेलनों में - इन 60 - 70 दिनों में बहुत हिम्मत की, टटोला और बार - बार हाथ मे ली पर धैर्य जवाब दे गया - अस्तु बहुत कड़ा मन करके आज एक थप्पी लगाई है 45 पुस्तकों की जो किसी के किसी भी काम की नही है, कल सुबह फिर निकलेगा यह माल दूसरी खेप के रूप में आलमारी से - और कोई चारा भी नही, मेरे पास जगह कम है - और मजबूरी भी है
[ विशुध्द निजी राय और मेरी पसंद है, आहत और सहमत होना आवश्यक नही ]
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हम काले है तो क्या हुआ
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कई लोगों से मिला जिनके फोटो फेसबुक पर एक दम गौर वर्ण के थे और जब मिला तो काले - महिलाएं तो ठीक उसमें पुरूष भी शामिल थे और उम्रदराज अधेड़ पुरुष भी जब पूछा कि ऐसा क्यों तो "बोले ब्यूटी एप से हो जाता है"
कई बार आप मित्रों से मिलते है तो फोटो खींचते है, अक्सर लोग कहते है फेसबुक या इंस्टा पर मत डालना, आप ऐसे ही डाल देते हो - मतलब ? अरे यार फोटो डालने के पहले उस पर काम करना होता है थोड़ा - चाहे जो थोड़े ही डालते है
बहुत दुख होता है, अरे भाई इस सबकी जरूरत क्या है - जैसे है - वैसे रहें - ज्यादा बेहतर वही है , फिर हमारे यहां तो कृष्ण को भी काला कहा गया है रसखान और सूरदास ने कितना सुंदर लिखा है कृष्ण और उनकी माँ के साथ हुई रंग की बहस को - बाल सुलभ बहस को - फिर हम तो कृष्ण को भगवान मानते है ना
मेरा घर मे अभी भी नाम काळ्या यानि काला ही है क्योकि अपने घर मे सबसे काला हूँ पर अच्छा लगता है, हमारे एक मित्र का नाम कालूराम है पर उसे कालूराम कहो तो मिर्च लगती है - के आर कहो तो ख़ुश , मतलब क्या दिक्कत है यार - नाम मे क्या रखा है
फोटो जैसे हो वैसे लगाओ ना - क्या दिक्कत है -आपको कौनसा ब्यूटी कॉन्टेस्ट जीतना है या गोरे होने का नोबल पुरस्कार, काला एक रंग है जो त्वचा में एक पिगमेंट के कारण रिफ्लेक्ट होता है, बल्कि भारत जैसे देश मे काला रंग ही सबसे मुफ़ीद रंग है जीने को - जीवन मे अभी तक बहुत गोरे लोगों को काले काम करते देख रहा हूँ, अपने साथ ही में काम कर रहें गोरे लोगों को मन में घटियापन और ओछापन लिए हुए, बारहों मास - चौबीस घण्टों षड्यंत्र रचते हुए और दुनिया को नष्ट करते हुए - इन जैसे गोरे लोगों ने ही दुनिया को जीते जी नरक बना डाला है , इनके भी काले - गोरे धन्धों और चरित्र को देखा है नजदीक से और यह कह सकता हूँ कि हम काले कुटिल लोग ही ठीक है इन मक्कारों से, ब्रिटेन, अमेरिका का गोरापन क्या है इतिहास और वर्तमान इसका साक्षी है ही
क्या हमारे सारे दक्षिण भारतीय मर जाये, क्या अफ्रीकन मर जाये या वे सभी लोग मर जाये जो काले है - और क्या गोरे रंगभेदी लोग अपनी आँखों की पुतलियों को फोड़ दें, बाल जला दें अपने ... और फिर जलवायु, वातावरण, काम की परिस्थितियां या जेनेटिक विरासत का क्या
हमारे यहां तो गोरा करने का एक भरा पूरा उद्योग है जो इस घृणित मानसिकता पर ही जिंदा है - कभी लोगों को वास्तविक जीवन में जाकर एकदम से देख लीजिए बगैर मेकअप के तो आप औचक रह जाएंगे और सच मे दिल से घृणा करने लगेंगे और तब समझ आएगा कि ये सौंदर्य प्रसाधन में अरबों रुपये क्यों लगे हुए है और FMCG का यह व्यवसाय कितना प्रभावी है बाज़ार में
मुझे तो फोटो को गोरा करना आता भी नही ना कोई एप है मोबाइल में
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