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देहलिपि से बाहर 9 Jan 2018


देहलिपि से बाहर 

(दिल्ली पुस्तक मेला 6 से 14 जनवरी 2018 के बहाने कुछ अवलोकन) 


वहां किताबों की खुशबू में रंग था और मासूम सा प्यार, सारी जगहों पर नए कोरे पृष्ठ खोले जा रहे थे, बहुत आहिस्ते से जेब टटोलते और अपने बटुए को सम्हालते हाथों की उंगलियां नास पुटों से उस खुशबू को सूंघ रही थी और हर पन्ना पलटने पर हर्फ़ उचक कर उस हरे कार्पेट पर गिर गिर पड़ रहे थे मानो लेखक की कल्पना से होकर शब्दों, महीन, वाक्यों और पृष्ठों से सजिल्द होती किताबों से बाहर आकर अपनी दास्ताँ सुनाने को बेचैन हो। यह पाठक से रूमानी इश्क था जो बरबस हर जगह नजर आ रहा था। हॉल के बाहर भवन उजाड़े जा रहे थे प्रगति मैदान के गोया कि अब वहाँ सिर्फ किताबों के घर बनेंगे और उनमें प्यार करने वाले अपनी माशूकानुमा किताबों के साथ रहकर ताउम्र शब्द संधान करते हुए जीवन का वितान रचेंगे।

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बिक्री का हाल बेहाल और तिस पर कवियों की किताबों का हाल और भी खतरनाक
मित्र Kavita Verma ने मेरे सामने पुस्तक मेले के एक स्टॉल से 80 रुपये की कोई किताब खरीदी। उसे उस भले प्रकाशक ने एक कवि की किताब निशुल्क पकड़ा दी हार्ड बाउंड और कीमत थी 225/ रुपये मात्र
हे हिंदी के सुजान कवि, रवि की जगह कही भी बगैर बुलाये पहुंच जाने वाले और नितांत गैर उपयोगी ऐसा कचरा जेब से रूपया खर्च कर अपनी किताब छपवाने का ऐसा क्या मोह ? इतनी दुर्गति प्रकाशक कर दें कि नरक भी ना मिले तो क्यों अपनी इज्जत बाजार में उतरवा रहा है !
साल के बीच में कोई प्रतियोगिता करो कहानी -कविता की बच्चों की तरह से और देश भर से प्रविष्टियां बुलवाओ लोगबाग भेजेंगे 7- 8 पेज लिखकर या टाइपकर- बस उसके बाद तीन चार महीने चुप रहो , लेखक बेचारा फोन कर करके पूछेगा कि क्या हुआ - क्या हुआ , परंतु कोई जवाब ना दो।
पुस्तक मेले का मौसम आते ही लेखक को फोन करो कि आ जाओ भैया पहले ही दिन, तुम्हें खास पुरस्कार के लिए चुना गया है । गांव कस्बे का ईमानदार लेखक अपने साथ अपने चुनिंदा 4-5 दोस्तों और औलाद को लेकर मेला पहुंचता है। जाने के पहले प्रेस न्यूज भी देता है कि अब वह बड़ा लेखक है - दिल्ली बुलाया है।
दौड़ते-भागते कोहरे से जूझता हुआ वह भूखा- प्यासा, ट्रेन की लेटलतीफी सहते , अपनी जेब से रुपया लगा कर ट्राफिक कूदकर जैसे तैसे मेला ग्राउंड के लेखक मंच पर पहुंचता है तो वह पाता है कि वहां चार ज्ञानी बैठकर भाषण दे रहे हैं । एक सजी-संवरी महिला संचालन में निबद्व है और सामने बेचारे मेले में घूमकर थके-हारे लोग बैठे हैं ।
वह अपनी संस्था और पोर्टल के बारे में डेढ़ घंटा बोलती है और फिर मंच के ज्ञानी पेलते है भयानक मानो सामने मूर्खों की जमात बैठी है। इसके बाद उद्घोषणा होती है कि लेखकों को पुरस्कृत कर रहे हैं भद्र महिला पंक्तिबद्ध लेखक लेखिकाओं के नाम पुकारती है , कुछ आते हैं और 10 -12 - 15 अनुपस्थित हैं ।
जो पुरस्कृत होने आए हैं, उन्हें कोई जानता नहीं, उनको बैठने के लिए नहीं कहा जाता , उनके लिए कुर्सी नहीं, पानी का नहीं पूछते , एक कोने में चाय का टेबल है टूटी टाँग का - जिस पर फ्रिज में रखी ठंडी चाय है , मांगने जाओ तो वह कहता है गिलास खत्म हो गए।
लेखक का नाम पुकारा जाता है वह आगे बढ़ता है और किसी ग्रामीण पाठशाला में दिए जाने वाला एक प्रतीक चिन्ह पकड़ा दिया जाता है - एक घटिया सा कप - जिस पर महज दो ही दिन में जंग लग जाएं। जिसकी बाजारु कीमत ₹50 से ज्यादा ना हो , प्रमाणपत्र नही, नगद राशि नहीं , कोई किताब नहीं , शॉल नही , श्रीफ़ल नही। साथ आये दोस्त मोबाइल से फोटू हिंचते है और खड़े रहते है भीड़ में अपमानित महसूसते हुए पर क्या बोलें दोस्त है अपना यार !
किस डाक्टर ने लिखकर दिया था बे कि ये उलजुलूल हरकतें करो कमीनों। अबे मूर्खों की जमात के चूतियों क्यों साहित्य की धज्जियां उड़ा रहे हो - अपनी नही तो, उस लेखक की तो कदर करो - एक इंसान की कद्र करो जो तुम्हारे एक फोन पर दिल्ली दौड़ा चला आया। शर्म आती है तुम्हे या नही ?
जितना बड़ा नाम था डाक्टर शाहनी या चोपड़ा टाईप वो तो छोड़ो तुम तो खुद साले साहित्य के भगन्दर बवासीर हो।
खबरदार जो आगे से ऐसे झांसे में किसी गरीब लेखक को रखा तो नाम उजागर कर खटिया खड़ी कर दूंगा ससुरों।
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हिंदी उर्दू पंजाबी मलयाली तमिल और मैथिली मचान भी गया। मजा आया अच्छा लगा कि साहित्य बिक रहा है। विज्ञान प्रयोग की किताबें भी और वो टुच्चे किट भी जो बाबा आदम के जमाने मे बबुल के काँटे से विच्छेदन की क्रीड़ा मयी प्रक्रियाएं सीखाते थे - गांव देहात के बच्चों को फिर एक सरफिरे राजनेता ने बला की खबसूरत प्रशासनिक अधिकारी के कहने में आकर उस एनजीओ की दुकान उठवा दी और वो अब एक अनुवादक घर मे सिमट गया है। उसकी दुकान पर खिलौने और जुगाडू लोगों की भीड़ है पीछे शिक्षा में आई टी के नाम पर भौंडे तरीकों से ए बी सी डी के गानों और कम्प्यूटर सिखाने वालों की दुकान है।
आगे बढिये भगवा , सफेद चोलों में अपनी देहयष्टि को छुपाती बहनों की जमात है जो तमाम तरह के बाबाओं, बहनजियों के फोटो, अंगवस्त्र, अगरबत्ती, पूजन सामग्री और उनके लिखे बकवासी प्रवचनों की दुकान पर ले जाएगी। प्यार से भरी कातिल मुस्कानों में आपका मोबाइल लेकर गूगल प्लेस्टोर से एप डाऊनलोड करवा देगी और आपका मेल आई डी लेकर तुरन्त यूट्यूब पर सदस्य बनवा देगी। ये भगिनियाँ निवेदिता से थोड़ी ज्यादा दक्ष और विदुषी है किसी बड़े गायक की भौंडी आवाज वाली बेटी की तरह या किसी मरे हुए बड़े साहित्यकार की बेटी की तरह जो आज भी उसके नाम को कूट कूटकर भुनाती है और ट्रांसफर नही होने देती अपना शहर से।
सामने तमाम आध्यात्मिक जगत गुरु है और फादर मदर है, मुल्ले है , पण्डित है , संघी है, वामी है और समाजवादी है। दलितों के मसीहा तो स्वयं उपस्थित है और बौद्धलामा अपनी कुटिल मुस्कान के साथ हाजिर है बुद्ध की फ्री किताब बांटते हुए। बाहर शीत में कोहरे में काँपता एक युवा पादरी बल्कि काला पादरी और नया मुल्ला लड़कियों को ताड़ते हुए फ्री में कुरान और बाइबिल के नए - पुराने नियम हिंदी -अँग्रेजी में लेकर खड़ा बाँट रहा है -आपको क्या चाहिए ?विकल्प और भी है -गुरुजी का जीवन या सत्यार्थ प्रकाश ?
हाँ बापू जेल में है तो क्या उनकी दिव्य दृष्टि मेले में उनके भक्तों को मैला खोज के दे ही देगी। सवाल यह है कि प्रकाशक को जगह नही बेचारा थोड़ी सी जगह में कूच काचकर किताबों की नुमाइश कर रहा है पर ये सांस्कृतिक देश अपना परलोक सुधार रहा है।
भीड़ इधर नही उधर है ।
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कुछ काग भुशुण्डी और बौद्धिकता के अभेद किले दिल्ली में विचरते हुए देश दुनिया के न्यून बुद्धि के लोगों को अपनी घटिया पोथी थमा रहे है 700 -800 रुपये में - यह कहकर कि "ले लो मियाँ यह काम इतिहास में अभी तक किसी ने नही किया", सनद रहे कि तीन चार लाख खर्च करके, बेशकीमती समय खर्च कर ये दिमाग़ी मवाद बहाने वाला ग्रंथ जुगाड़ और सेटिंग से आया है।
यह नही बताते कि सरकारी एल टी ए लेकर छुट्टियां खपाकर यहाँ वहाँ से जुगाड़ कर अपनी लोकतांत्रिक गैर जिम्मेदारी वाली दुनियावी प्रतिबद्धता से अनामदास का पोथा रच बैठे हो और दिनभर न्यून बुद्धि के पाठक जुगाड़कर प्रकाशक से रॉयल्टी की खेप सुनिश्चित करवा रहे हो।
अगला भी ले लेता है बेचारा - क्योंकि यारबाश है और कभी दारू के ठेके पे संगी साथी रहा था वरना तो वो एक अध्याय तो क्या एक पृष्ठ को भी समझ लें तो हिंदी के लोग अँधेरे से निकल कर वयम रक्षामहै पढ़ लें । शायद यह पोथा उसकी आलमारी से हाथों की उंगलियों और मुंह के थूक से पलटे जाने वाले पन्नें तरस जाएंगे।
फिर भी कह लेने दो कि लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो शरीफ लोग उठे और एक तरफ बैठ गए।

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पुस्तक मेले में जाना और लोगों से मिलना मुझे सबसे ज्यादा भाता है। किताबों का व्यवसाय अपनी जगह पर अपने लोगों से मिलना बहुत ही सार्थक और ऊर्जावान होना होता है।
कवि , आलोचक और प्राध्यापक डाक्टर जितेंद्र श्रीवास्तव जब पुस्तक मेले में आते है तो उनके साथ उनके युवा शोधार्थी भी होते है साथ। जितेंद्र और युवा मित्रों के साथ स्टाल दर स्टाल घूमना, प्रकाशकों से एक अलग तरह की आपुलकी से मिलना, नई किताबों पर बात करना बहुत रोचक, शैक्षिक होता है। यह एक अलग तरह से देखने समझने का नजरिया विकसित करता है जो किताबों के छपने की कथा और उसके भविष्य की दास्तान सुनने जैसा होता है। विषय और उसकी सामयिकता , दर्शन और विविधता पर लम्बी बात होती है विशुद्ध अकादमिक तरीके से।
पिछले पांच छह वर्षों में अरुण पांडे, शम्भू मिश्र, शिवा वावलकर , रेखा, मोहित मिश्र से लेकर कई युवा मित्रों को बढ़ते हुए देखा - छात्र से शोधार्थी, और फिर महाविद्यालय या विश्व विद्यालय में अध्यापन का दायित्व सम्हालते देखा। कुछ घर गृहस्थी में भी आ गए । अच्छा यह है कि ये सभी मेघावी, गहरी समझ वाले बहुत प्यार करने वाले है जो सालभर फोन से सतत सम्पर्क बनाये रखते है । ये सब अब मेरे जीवन का हिस्सा है , ताकत है और इनसे सीखा जाता है अब।
यह सिर्फ इसलिये कि अनुज Jitendra Srivastava बहुत सम्मान देते है - सिर्फ मुझे ही नही बल्कि हर उस शख्स को जो साहित्य से सरोकार रखता है , छोटे से छोटे व्यक्ति या बी ए पढ़ने वाले छात्र को-बहुत प्यार से कहेंगे -मैदान गढ़ी आओ, कोई मदद की जरूरत हो तो बताना दिल्ली में।
वे मूल रूप से सांगठनिक व्यक्ति है - इग्नू में पढ़ने पढ़ाने के अलावा देश भर में निरंतर यात्राएं करते है और सबसे सम्पर्क बनाये रखते है। मैंने अपने जीवन मे जितेंद्र जैसे जीवट आदमी को नही देखा जो इतना सब एक ही जीवन मे कर लें। जैसे अभी कल्पना प्रकाशन से प्रेमचंद समग्र किताब आई है विशालकाय ग्रंथ है। प्रेमचंद जैसे व्यक्ति की सम्पूर्ण 297 कहानियां एक जगह लाकर 45 पेज की समालोचनात्मक टिप्पणी भी लिख लें, प्रकाशक को छापने के लिए राजी भी कर लें -यह एक ऐतिहासिक कार्य है, यह जितेंद्र जैसे ऊर्जावान व्यक्ति के ही बस की बात है। इसी के साथ प्रांजल धर के साथ साथ कई पुरस्कार समितियों का निर्णायक मंडल, पी एच डी की थीसिस जांचना समय सीमा में और वायवा के लिए जाना यह सब अलग है जो मैं गिना नही रहा। घर की दो किशोर बेटियों को पढ़ाई में मदद करना और फिर पत्नी, प्रेम कविताओं की बात !
इसलिए मैं जितेंद्र और उनके सभी युवा छात्रों को विलक्षण मानता हूँ। Shiva Wavalkar की एक किताब अभी आई, एक अभी प्रेस में है। भाई शिवा ने मुझसे हर हाल में एक 12 -13 पेज का आलेख अपनी आने वाली किताब के लिए लिखवा लिया - वरना मैं तो उन्हें लगातार झांसे दिए जा रहा था,मेरे जैसा महा आलसी क्या अकादमिक लेख लिखता पर यह शिवा का ही डर था और आग्रह कि आखिर माट साब को होमवर्क करके देना पड़ा, मेरी वजह से बहुत लेट हुआ उसकी माफी भी मांगता हूं भाई शिवा से।
खैर , मैं जब तक यायावरी कर पाऊंगा तब तक इन जैसे मित्रों से मिलने, बहुत गम्भीर और प्रतिबद्ध प्रकाशकों से मिलने और किताब की दुनिया समझने पुस्तक मेलों में जाता रहूँगा।
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कुछ लोग ऐसे होते है जिनसे आप बहुत ही सहज रूप से मिलते है मानो एक परिवार के सगे लोगों से मिल रहे हो। यह मिलाप ठीक वैसा है जैसे दीवाली होली पर पुरे कुनबे का इकठ्ठा होना।
रमेश उपाध्याय जी और उनके परिवार से पुस्तक मेले में मिलकर लगता है कि नवरात्रि में अपने खानदान की देवी "अष्टमी" पर पूजकर लौट आये हो सबसे मिलकर। रमेश जी बड़े कहानीकार और चिंतक है पर जिस अपनत्व और सहजता से गले लगकर स्नेह दर्शाते हैं वह अतुलनीय है। उनकी दोनो बेटियां भी विदुषी है बेटा अंकित भी एकदम नेक इंसान। दामाद भी अपने घर गांव के दामाद जैसे है ।
ये मेले में जाकर मिलने का ही नही बल्कि सालभर प्रज्ञा की कहानियां पढ़ना, टिप्पणी करना एक आदत है, दिल्ली जैसे शहर में गूदड़ बस्ती लिखना कितना जोखिम का काम है और कितनी सघन अनुभूति का भी यह प्रज्ञा से ज़्यादा कौन जानता होगा जो कॉलेज में पढ़ाती है घर सम्हालती है और रेडियो पर भी नियमित जाती है । संज्ञा के श्वेत श्याम चित्र देखना सुकून देता है जब वो पत्तों से गिरती बूंद को क्लिक करती है तो चित्र बोल उठता है। अंकित का चुपके से मेरी किसी पोस्ट पर आकर लाईक कर जाना या राकेश का प्रज्ञा को प्रोत्साहित करते कोई पोस्ट लगाना या गम्भीर कमेंट। 
हमेशा मिलने पर मैं सबसे चुहल करता हूँ कभी कहता हूँ वो लड्डू कहां है , कभी संज्ञा से मजाक पर हम सब एक वृहद परिवार के हिस्से है तो लगता ही नही कि कोई औपचारिक रिश्ता है।
ये सब हमेशा एक रहते है प्रज्ञा की और हम सबकी लाड़ली बिटिया तान्या की बड़ी होती दुनिया को देखकर उसके लिए एक जीने लायक दुनिया बनाने की कोशिश कर रहे है। साथ रहते है छोटी छोटी चीजों की खुशियां मनाते है साल में ये घूमने जाते है। बस यही संयुक्तपन ताउम्र बना रहे और सारी दुनिया को घर बुलाकर बढिया से बात करते रहै , खाना खिलाते रहै !!! दिल्ली जैसे बेदर्द शहर में ऐसे बिरले लोग देखें आपने , नही ना ? यही मुझ जैसे मानवीयता के गुणों को जीवन मे अपनाने वालो को खोजने और समझने में मदद करता है और रोज इंसानियत में विश्वास पुख्ता करता है।
आप सबके लिए आकाश भर प्यार और दुआएँ - रमेश जी, आंटी जी, Pragya RohiniSangya Upadhyaya Ankit Upadhyaya Rakesh Kumar
प्रज्ञा की टिप्पणी - (Pragya Rohini हम सब एक रचनात्मक परिवार का ही हिस्सा हैं और पहली बार मिलना तो कहीं बीच मे आया ही नहीं। लगातार एक दूसरे को जानते रहे हैं इसीलिये मिलने पर खूब गर्मजोशी रही। आपके संग बहादुर पटेल जी और मनीष जी से भी मिले। जैसा आपकी पोस्ट देखा करते थे उससे बीस ही पाया क्या ज़िंदादिली और क्या उत्साह। सच कहूँ आपकी इस पोस्ट ने भावुक कर दिया है। हमारे परिवार के एक एक व्यक्ति को कितना पढ़ा और समझा है आपने। यकीन जानिए लौटकर आपने अपने घर और सुकून का जो चित्र लगाया मैं देर तक पैरों में थकान के चिन्ह ढूंढ रही थी। आपसे मिलकर अच्छा लगा कहना बहुत बहुत नाकाफी होगा और जो काफी है उसके लिये शब्द नहीं सिर्फ मेरी भावनाएं हैं )

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आज से 22 बरस पूर्व हंस में एक कहानी पढ़ी थी "झौआ बेहार" . आदत थी कि एक पोस्ट कार्ड लेखक को लिखता था अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कि यह ठीक है या अच्छी लगी या गड़बड़ है मजा नही आया.
कहानी जोरदार थी और उस समय के संस्कारों के हिसाब से गजब की भाषा और दृश्य का विवरण देते हुए लेखक ने तत्कालीन बिहार का मजेदार तानाबाना बुना था. लिहाजा चिठ्ठी लिखी गई कहानीकार को जो भागलपुर के किसी टी एन बी कॉलेज में हिंदी पढ़ाते थे. 
बिनय सौरभ भी इसी प्रक्रिया से गहरे दोस्त बने -वह कहानी फिर कभी, खैर इन भागलपुर के कॉलेज वाले माट साब का भी जवाब आया और बात आई गई हो गयी जैसाकि हिंदी में होता है. तब ना मोबाईल था ना फोन और चिठ्टी लिखने के लायक इतने रूपये नहीं होते थे कि साला रोज़ लेखक को प्रेम पत्र लिखा जाएँ.

खैर, थोड़े दिन बाद लेखक महाशय का पत्र आया, मेरी "पश्यन्त्ति" में कहानी छपी थी, फिर हंस में सात आठ पेज की समीक्षा छपी थी - स्व. शंकर गुहा नियोगी पर डाक्टर अनिल सदगोपाल और स्व श्याम बहादुर नम्र द्वारा लिखी गई किताब की तो - इन लेखक महाशय ने बड़ी ही प्रशंसा करते हुए जोरदार अंतर्देशीय लिखा - जो 35 पैसे का होता था, बस फिर तो चिठ्ठियों की आमद होने लगी. हम लोग लगा कि आवक जावक बाबू हो गए इधर Binay Saurabh से भी चिठ्ठी पत्री होती थी.
थोड़े दिन बाद भागलपुर में दंगा हुआ और इनकी कुछ हालत खराब हुई , पत्नी सुषमा बैंक में अधिकारी थी सो बड़े लम्बे मशविरे के बाद तय हुआ कि ये साहब नौकरी छोड़ेंगे और पत्नी सुषमा का स्थानान्तरण दिल्ली करवा लेंगे. और यही हुआ , लेखक महाशय ने तय किया कि वे फुल टाईम लिखेंगे और पत्नी नौकरी करेंगी बैंक में. दिल्ली में आये तो गाजियाबाद में बस गए. थोड़े दिन चिठ्ठीपत्री लिखी गई और फिर वे दिल्ली और मै अपने जीवन में व्यस्त हो गया, हम भूल गए.
भूलना मतलब संपर्क से कट जाना , अगर आपसे कोई सम्पर्क नहीं कर सकता, आपसे बात नही कर सकता और मिल नही सकता तो आप संसार में ज़िंदा है या मर गए किसी को फर्क नही पड़ता . संसार की अपनी गति होती ही है और यादें याद रखने वाले को वैसे ही मूर्ख समझा जाता है. एक दिन फेसबुक आया और हम सब वर्चुअल वर्ल्ड के गुलाम हो गए और फिर खोज - खोजकर ढूंढते रहें - जूने पुराने दोस्त और रिश्तेदार. और फिर अचानक देखता हूँ कि एक दिन संजीव ठाकुर की रिक्वेस्ट आई . खोलकर देखा तो ये सज्जन वही थे जो मित्र थे, बस मजा आ गया - झट से एड्ड किया और फोन नम्बर लेकर गपियाने लगें - कमोबेश रोज या हफ्ते में एक बार जरुर. संजीव कहते रहें कि यार दिल्ली आ जाओ, हमेशा आते हो और चले जाते हो बिना मिलें पर हो नही पाया मिलना.
बीच में दो बार भोपाल आये, साँची आये किसी लेखक बनाओ कार्यशाला में, पर मै लेखक था नही - लिहाजा बुलाया नही गया और पूछने पर अगले भाई ने लंबा लेक्चर अलग पिला दिया फोकट में !
ख़ैर, अबकी बार पुस्तक मेले में मोबाइल और सूचना तकनीक का जमकर दोहन किया और जीवन में पहली बार मिलें और दो दिन तक संजीव साथ रहे छाया की तरह से और अपने मित्रों को हम एक दूसरे से मिलवाते रहें और गप्प की. संजीव ने अपनी सारी किताबें भेंट की और आग्रह किया कि पढूं और कुछ लिखूं - जरुर पढूंगा और खूब - खूब लिखूंगा पर अभी बस इतना ही - इतना काम करने वाला लेखक और बहुत ही सज्जन व्यक्तित्व के धनी संजीव का संज्ञान हिंदी जगत ने क्यों नही लिया यह मेरे लिए विचारणीय प्रश्न है.
अगली बार दिल्ली जाउंगा तो सिर्फ इस पर ही बात होगी अभी सिर्फ इतना ही कि Sanjeev Thakur एक बेहतरीन इंसान, संवेदनशील लेखक और यारों का यार है..........जियो मेरे यार .

(चित्र में बीच मे संजीव है और साथ है चन्द्रकान्त जी)
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कब्रगाहों में दफन किताबें और लेखक भी पुस्तक मेले के समय निकल आते है पिशाचों की तरह और आत्मरति और आत्म मुगद्धता में अपने को इतना महान सिद्ध कर देते है कि वाग्देवी भी शर्मा जाएं।
धन्य है हिंदी का संसार जो यहाँ वहाँ से चिरौरी कर लिखवाई गई समीक्षाओं को मुर्दे सा पुनः पुनः जिलाकर परोसता रहता है और इस सबमे वो प्रकाशक मजे लेता है जिसके गोदाम में पड़ी सड़ गल रही , बसाती और जीर्ण शीर्ण किताबें हांफती रहती है और लेखक के होने को कोसती रहती है।
गांव कस्बे और दूर दराज के लोग जो पटना,भोपाल, दिल्ली या कोलकाता में पैदा नही हो पाएं अपने खींसे से धेला खर्च करके महान बनने की पंक्ति में अपनी बारी आने तक अपने मरे बच्चे को छाती से चिपकाए बंदरिया की तरह किताब का यशगान करते रहते है। गरीबी का रोना धोना करने वाले अचानक से मेले के पहले देश भ्रमण पर निकल जाते है और नर से ज्यादा मादाओं के साथ जलवे बिखरते रहते है और ये मादाएं घर की साज सजावट से लबरेज सोफा सेट पर श्रृंगार कर तस्वीरें हिंचकर लेखक से अपनी करीबी का घोषित और तयशुदा एजेंडा सामने रखती है।
यह समय ऐसा होता है कि दुनिया के सभी पौराणिक फीनिक्स भी जन्मना होने से डरते है कि कही कोई किताब ना थमा दें !

Comments

Unknown said…
यह तो सिंहावलोकन है।बढ़िया किया।
Niraj Pal said…
मजा आ गया पढ़कर....

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