भारत में आजकल साठ प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है, तेजी से होते शहरीकरण ने काफी तादाद में लोगों को शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर कर दिया है. इसलिए यह आंकड़ा साठ प्रतिशत हो गया है. गाँव में शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के साथ शौचालय की समस्या अब नई समस्याओं में शुमार हो गयी है, कारण स्पष्ट है कि अब तेजी से सिमटते जा रहे गाँवों में खुली जगह बची नहीं है. हालांकि यह बहस भी नई है कि बलात्कार और छेड़छाड़ का मूल कारण शौचालयों का ना होना है परन्तु शौचालयों का ना होना और जागृति ना होना इस मुद्दे को इस तरह से राजनैतिक रूप देकर संकुचित कर देना शौचालयों की आवश्यकता को गौण कर देगा.
घरों में शौचालय होना वास्तव में एक स्वच्छता का प्रतीक ही नहीं वरन मानवीय आदतों में गरिमा के साथ शुमार एक महती आवश्यकता भी है. हाल ही में सरकार ने समग्र स्वच्छता अभियान में शौचालय निर्माण हेतु दी जाने वाली राशि में भरी बढ़ौत्री की है, इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार क़ानून के साथ जोड़ते हुए अनुदान की राशि साढ़े नौ हजार कर दी है जिसमे हितग्राही को मात्र पांच सौ रूपये नगद या मानव श्रम के रूप में देने होते है, गाँवों में शत प्रतिशत शौचालय बनाने और इस्तेमाल होने पर प्रतिवर्ष महामहिम राष्ट्रपति द्वारा उस ग्राम पचायत को निर्मल ग्राम पंचायत से पुरुस्कृत भी किया जाता है.
अब समय आ गया है कि शौचालयों को छोटी और अर्थहीन बहसों से निकलकर एक जन जागृति और निर्माण के लिए अभियान के रूप में फैलाया जाए और हर घर में - शहर या गाँव में, बस्ती में या शहरी झुग्गी में शौचालय के निर्माण और उपयोग पर जोर दिया जाए. यह सिर्फ एक सस्त्राब्दी गोल बनकर ना रह जाए, इस हेतु ठोस और सार्थक पहल की जाना चाहिए, भारत में बिदेश्वरी पाठक ने सुलभ शौचालयों की श्रृंखला बनाकर यह साबित किया है कि मुश्किल कुछ नहीं है बशर्ते लगन, प्रतिबद्धता और समयबद्ध नियोजन हो.
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