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Showing posts from March, 2014

प्रश्न, चुनौती और यथार्थ- सन्दर्भ युवा कविता

संदीप नाईक, सी 55, कालानी बाग़, देवास, मप्र, 455001 . प्रश्न , चुनौती और यथार्थ- सन्दर्भ युवा कविता साहित्य , कलाएं और अनुशासन संभवतः मनुष्यता के अंतिम हथियार होंगे जिससे एक सभ्य समाज में लड़ाई की गूंजाईश मूल्य और सिद्धांतों को ज़िंदा रखने के लिए रखी जा सकेगी. यह महज एक दृश्य के बिम्ब नहीं, किसी दस्तावेज का हिस्सा नहीं वरन हमारे समय के जीवंत प्रश्न है जिनसे हम रोज दो चार हो रहे है. साहित्य और कलाएं आज जब उथल-पुथल भरे समाज में एक बदलाव की भूमिका से बहुत दूर है, ऐसे में यह कल्पना एक सिर्फ गल्प के रूप में ही सामने आती है कि साहित्य के भीतर भी खेमे है और ये खेमे विधागत होकर बांटने का कार्य कर रहे है. कविता, कहानी, गद्य, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत और ना जाने कौन -कौन से हिस्सों में बंटा, चेतना के धरातल को छूता हुआ साहित्य सिर्फ आज ही नहीं वरन हमेशा से अपने आप से जूझते हुए प्रश्न, यथार्थ और चुनौतियों से लड़ता आया है. हिन्दी कविता का विकास अपने आप में एक वृहद् विषय है जिस पर लाखों शोध हो चुके है और करोडो अक्षर कागज पर उकेरे जा चुके है परन्तु क्या ठीक ठाक ढंग से हिन्दी कवि...

बाजार से गायब है कुंदन सेठ

आज शायद कोई जानता भी ना हो तुम्हारी दूकान को या कि उस कोने को जिस मीरा बावडी के किनारे चिमनाबाई कन्या शाला के बाहर एक खोमचे में लगती थी अदभुत चीजों की दूकान जिसमे कभी टोटा नहीं पडा उन चीजों का जो किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखते हम जैसो के लिए किसी वरदान से कम नहीं थी इमली की चटनी, खट्टे बैर, अमचूर की चटनी, करौंदे ढेर सारे कबीट, पेमली बोर, मांडव की इमली भी दिख जाती थी कभी कभी उस दूकान में अनेक अचारों के साथ, उस चौराहे से गुजरते हुए खटास की महक और खिलखिलाती हंसी अक्सर एक दूसरे के पूरक लगते थे तीन पैसों से जेब में चार अठन्नी होना दुनिया के किसी अम्बानी से कम ना होता था दस पैसे के एक कबीट से लड़कियाँ पटा लेने का हूनर हमसे भला कौन अच्छा जानता था कब बड़े हो गए और कहाँ खो गयी खटास जीवन की जो मिठास घोल देती थी रंगीन सपनों में भी एक दिन दूकान बंद हो गयी खो गया कुंदन सेठ मोहल्ले के लोगों ने बताया कि पाकिस्तान चला गया था कभी पूछ ना पाए उससे कि कुंदन सेठ कहाँ और क्यों जा रहे हो अब नहीं दिखते कबीट, करौंदे, चारोली, इमली, बैर, याकि मांडव की इमली लड़की ...

"मार्च सा जीवन "

रोज सोचता हूँ कि बस आज से  कुछ करूंगा ऐसा कुछ कि  जीवन जीवन सा लगे  अपने आप को ही खुश कर पाऊं  थोड़ा सा जी सकूं अपने लिए ही  पर जब बैठ जाता हूँ तो याद आता है कि  गैस का नंबर लगाना है  टेलीफोन का इधर बिल आया पडा है पासपोर्ट दिया था नवीनीकरण के लिए  थाने से आगे कोई कार्यवाही हुई नहीं बिजली का बिल भी फिर से बनवाना पडेगा  गुम गया था उस दिन हाट-बाजार में  तेल के भाव कम है तो दो पीपे लेकर पटक दूं  गेंहूं आ गया है कही साफ़ सुथरे देखकर भर दूं  नगर निगम में टैक्स भी जमा करना है  जलकर और पानी का रूपया जमा भी करना है ओह आरटीओ में अपने लायसेंस को भी देना था  जब उठाता हूँ फोन तो याद आता है कि  इसका भी सॉफ्ट वेयर अपडेट करना है स्क्रीन में दिक्कत है  उधर फोन आता है कि फ़ार्म 16 को दिए बिना  सीए कुछ भी नहीं कर पायेगा रिटर्न में  गाडी में प्लग खराब है जब तक बदलूंगा नहीं  चलेगी नहीं और कैसे ढोएगी मुझे  अटका पडा था एटीएम का नंबर तो बैंक का तगादा  लगता है मै गलत बैठ गया   ...

क्यों बुद्ध हो गए

गौतम - क्यों बुद्ध हो गए थे तुम ? यह अब सिर्फ सवाल ही नहीं मेरे लिए एक यक्ष प्रश्न है। क्या था निर्वाण, क्या था बोधिसत्व और क्या था बुद्धत्व , यह बुझने के लिए कितने जन्म लेकर तन मन की व्याधियों से जूझना होगा। नहीं जानता पर लग रहा है कि सब पीछे छुट रहा है और इस अथक यात्रा में अब कोई मकाम नजर नहीं आता भंते। विराम   ही प्रस्थान है और एकालाप ही प्रलाप, अपने आप से नित्य, हर पल का संत्रास ! क्या यही सब  भुगता था तुमने भी ??? क्यों एक मृत्यु, एक जरावस्था देखकर त्याज्य हो गए? संसार को तुमने नहीं छोड़ा, संसार ने तुम्हे रीता हुआ, अवसाद से परिपूर्ण जानकार छोड़ दिया और जंगल की वह राह पकड़ा दी जो कभी फिर शुद्धोदन, आनंद, भद्रशीला, आम्रपाली याकि अंगुलीमाल तक भी नहीं आती थी। तथागत   मौन रहकर भाषा देने का गुण तो अप्रतिम था, पर क्या कर पायें अपने से भी संवाद कभी? क्यों विपश्यना का रास्ता स्वीकार कर हर बार मौन हो जाते थे? कितना लड़े हो अपने आपसे एक बार कह कर जाते......

दीवार में दिल की बात

नीचे धरती थी, ऊपर आसमान, आसपास दीवारें - आखिर जाते कहाँ हम ? थोड़ा   और फैलता हूँ तो पाता हूँ कि दीवार से ज्यादा सट गया और फिर धीमे से एक दीवार मेरे अन्दर उग आती है और चलना शुरू करती है -उन जगहों पर, जहां अँधेरे कमरे अपनी तमाम रोशनियों के बावजूद किसी कोने में धंसी एक छोटी सी खिडकी के एक पल्ले के खुलने का इंतज़ार मानो सदियों से कर रहे हो. पानी   की सतह जब दूर तक फैलती तो अक्सर बिम्बों में दीवारें नजर आती और हर दीवार में पानी की परछाईयाँ डूबती सी लगती मानो किसी ने ख्वाब तैरा दिए हो - एकदम साबुत और ज़िंदा ख्वाब. खिड़की   की परत में झीना आवरण था जो सब कुछ ढक लेता तो लगता मानो सब कुछ खिड़की ओट से दीवार में धंस गया. यह   दीवारें ही थी जिन्होंने जीना सिखाया, जिन्होंने दायरे में बांधकर जीवन में सुख-दुःख और फासलों का मतलब सीखाया, आज दीवारें अपने अन्दर तक महसूस होती है मानो किसी ने आसमान से धरती की एक बड़ी दीवार ढककर साँसों की डोरी को आहिस्ते से एक कनवास की भाँती रंग-बिरंगे रंगों में रंग दिया है, और अब इस बेदम पड़े शरीर में पोर-पोर तक दीवारें मेरे अन्दर उतरती जा रही है, एक...

अविनाश मिश्र की कविताएं

सफदर हाशमी से निर्मल वर्मा में तब्दील होते हुए मैं थक गया हूं यह नाटक करते-करते रवींद्र भवन से लेकर भारत भवन तक एक भीड़ के सम्मुख ‘आत्म सत्य’ प्रस्तुत करते-करते मैं अब सचमुच बहुत ऊब गया हूं इस निर्मम, निष्ठुर और अमानवीय संसार में... मैं मुक्तिबोध या गोरख पांडेय नहीं हूं मैं तो श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ का वह बच्चा भी नहीं हूं जो एक अय्यास सामंत की जागीर पर एक पत्थर फेंककर भागता है मैं ‘हल्ला बोल’ का ‘ह’ तक नहीं हूं मैं वह किरदार तक नहीं हूं जो नुक्कड़ साफ करता है ताकि नाटक हो मैं उस कोरस का सबसे मद्धिम स्वर तक नहीं हूं जो ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर...’ गाता है मैं कुछ नहीं बस एक संतुलन भर हूं विक्षिप्तताओं और आत्महत्याओं के बीच मैं जो सांस ले रहा हूं वह एक औसत यथार्थ की आदी है इस सांस का क्या करूं मैं यह जहां होती है वहां वारदातें टल जाती हैं मैं अपने गंतव्यों तक संगीत सुनते हुए जाता हूं टकराहटें दरकिनार करते हुए... मुझे कोई मतलब नहीं- धरना...विरोध...प्रदर्शन...अनशन...बंद... वगैरह से मैंने बहुत नजदीक से नहीं...