बहुधा हर काबिल आदमी अपनी काबिलियत से डरता है और उसको यह भान होता है कि उसकी सार्वभौमिक उपस्थिति किसी भी उपलब्धि, बात या किसी बड़े कार्यक्रम को बर्बाद कर देगी, वह हर बार, हर जगह और हरेक बात से पहले अपने - आप पर शक करता है और हर उस जगह से अपने - आपको खारिज करना चाहता है, जिससे औसत दर्जे के या बुद्धि के या सिर्फ कागज़ी काम करने वाले लोग सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ सकें और सफलता के अपने काल्पनिक एवं अभेद्य किले बनाकर एक भ्रम में जी सकें और शेष जीवन मुगालतों में रह सकें
शायद औरों को मौका देना या हौंसला अफजाई करना भी एक तरह की काबिलियत है - जो बहुत तपस्या या श्रम से आती है, इसके लिए बुद्धि नहीं - मेधा और दीर्घकालीन अनुभव की जरूरत होती है
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These days, I see many non law - individuals, CSOs (Civil Society Organizations), and NGOs working on the Constitution. They are organizing fellowships, street plays, rallies, yatras, discussions, awards, songs, booklets, leaflets, brochures, posters, and books. I highly appreciate this massive effort, as well as the writing and publication of these materials, especially since one of the major funding agencies is providing substantial, untied funds to grassroots-level CSOs, helping generate awareness across the country.
However, on the contrary, fundamental rights, duties, and values are deteriorating day by day—whether in the premises of Honorable Courts, on the roads, in families, or within CSOs. There is a lack of transparency, equality, and proper dissemination of information.
There is an urgent need to train MLAs, MPs, and representatives of local governance. Teachers, NGO workers, AAWs, ASHAs, and community groups are often the softest targets and are bound to follow orders. The real challenge is to train the actual implementers of the Constitution, who are sitting in legislative bodies at every level. Such NGOs must have the courage to engage with these lawmakers, administrators and bring them into line, creating a conducive atmosphere for upholding rights, duties, and democratic values. Otherwise, every workshop and training session will simply be a feather in their own cap —nothing more.
It is time to rethink, rebuild, and bring about real change.
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23 - 24 दिसंबर 2024 की बात होगी, किसी से खबर मिली कि एक बचपन के साथी की तबियत खराब हुई और उसे इंदौर के एक बड़े निजी अस्पताल में भर्ती किया है, बाद में पता चला कि ब्रेन हेमरेज है और स्थिति गंभीर है
मध्यमवर्गीय परिवार दो बेटियाँ और पत्नी, भारतीय परिवार व्यवस्था, जो सड़ांध मार रही - पर हम ढो रहें है, जैसे तैसे आठ - दस दिन गुजरे, रुपया खत्म होने लगा, रोज का लगभग चालीस हजार खर्च हो रहा था, फिर रिश्तेदार, मित्रों ने मदद की, आख़िर निजी अस्पताल छोड़ना पड़ा और एक सरकारी अस्पताल जिसे सुपर स्पेशलिटी के नाम से जानते है, में भर्ती किया
तीन माह होने को आए थे, कल पता चला कि दोस्त को घर ले आए है, सो, आज हम दो - तीन मित्र देखने चले गए, दोस्त का घर वार्ड लग रहा था दवाएं, ऑक्सीजन, सलाइन, रोगियों वाला पलंग और वो सब जो अमूमन अस्पताल में होता है, पर शुक्र यह था कि वो अब आंखें खोल रहा है, नाक से ही सही पर लिक्विड भोजन ले रहा है, उम्मीद है कि जल्दी ठीक होगा, उसकी पत्नी और बेटियों की आंखों में जो उम्मीद की चमक देखी, ईश्वर करें वह बनी रहे और दोस्त फिर से हंसने बोलने लगें
लगभग पचास साठ लाख खर्च हो चुके होंगे, पर इस सारे के पीछे उसकी पत्नी और दोनों बेटियों ने जो श्रम किया, और अभी भी नौकरी और उसकी देखभाल के साथ दिन - रात जागती है, वह काबिले तारीफ है, उस घर से हम निकलें तो अपनी सारी उम्र भर की दुआएँ उस घर की देहरी पर छोड़ आये कि यहाँ बीमारी का साया फिर ना पड़े
एक अन्य दोस्त भी 2012 - 13 में ऐसा बीमार पड़ा था कि दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में लगभग छह माह रहा, लौट तो आया पर आज भी बोल नहीं पाता, पहचान लेता है, इधर वाट्स एप पर लिखने लगा है, पर लगभग 15 वर्ष हो गए बिस्तर पर ही, उसकी बेटी ने मेडिसिन में पीजी कर लिया कानपुर मेडिकल कॉलेज से, बेटा स्नातक हो गया, करोड़ों रुपया खर्च हो गया, सक्षम परिवार था, जमीन जायदाद, राजनैतिक रसूख वाले लोग थे पर इस मित्र की पत्नी ने भी अपना जीवन लगा दिया पूरा सेवा में और आज वह जो भी है उसी की वजह से है, सोचिए 15 वर्ष बिस्तर पर, और लगभग दस वर्ष याददाश्त का ना होना, जीवन कितना अनिश्चित और भयावह है
आज सोच रहा हूँ कि हम सत्यवान - सावित्री की कहानी पढ़ते है, तो काल्पनिक और मिथकीय चरित्र लगते हैं, पर मेरे अपने छोटे भाई का चौदह वर्ष तक डायलिसिस हुआ तो उसकी पत्नी ने जो श्रम और मेहनत की वह सोचकर ही काँप जाता हूँ - ये सब स्त्रियाँ ही वास्तव में सावित्री है - जो अपनी जिंदगी दाँव पर लगा देती है कि उनके परिवार, पति और बच्चें स्वस्थ रहें, सुखी रहें और उन्हें कोई कष्ट ना हो, पर पतिदेवगण यानी पुरुष कभी नहीं कर सकते इतना - यह मेरा अनुभव है, मेरी माँ ने भी पिताजी को मृत्यु की बेला आने तक लगातार चार - पाँच वर्ष सेवा की, नौकरी की और हम तीन भाईयों को बड़ा किया, पिता की मौत के बाद घर सम्हाला और मरने तक घर की मुखिया बन घर को घर बनाया, पूरे कुनबे को इकठ्ठा रखा
स्त्रियाँ जीवन में वरदान है वे किसी भी रूप में हो अपना सर्वस्व दे देती है पर अफ़सोस समाज, रूढ़ियाँ, परम्पराएं, अंध विश्वास और हमारे उजबक पूर्वाग्रह उन्हें सम्मान और गरिमा से जीने लायक जीवन भी नहीं दे पातें, धिक्कार है ऐसी मान्यताओं और चलन पर जो स्त्रियों को एक पल भी बराबरी, सम्मान और मनुष्य होने का दर्जा ना दे सकें
पूरी बात का समाहार यह है कि हम सबको मेरे इन दो बेहद करीबी दोस्तों को देखकर सीखना चाहिए कि जीवन में स्वस्थ रहना, चलना - फिरना, बोलना, समझना, याद रखना, खान - पान बनाए रखना, पाँचों इंद्रियों का इस्तेमाल कर जीवन गुजारना कितना महत्वपूर्ण है, वरना करोड़ों रुपया खर्च कर आप किसी पर बोझ बनकर किसी के हाथ से पानी पी रहे है या दैनिक क्रिया कलापों के लिए दूसरों पर ही निर्भर है तो कितना मुश्किल हो जाता है यह जीवन, इसकी कल्पना ही वीभत्स है
पहला सुख निरोगी काया यूँही नहीं कहा गया है, सबके लिए दुआएँ कर रहा हूँ आज श्रीराम नवमी के पुनीत अवसर और दिन पर, अपना ध्यान रखें मित्रों
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जीवन में कुछ अधूरा रह जाए तो जीने की इच्छा बनी रहती है
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कुछ संबंधों से हम बाहर नहीं निकल सकते-कोशिश करें, तो निकलने की कोशिश में माँस के लोथड़े बाहर आ जाएँगे, खून में टिपटिपाते हुए।
एक ज़िंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में संपूर्ण है। उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है जैसे उम्र की रेखा वह चाहे कितनी लंबी क्यों न हो - मृत हथेली पर मुरझाने लगती है। क्या रिश्तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं ? हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्मृतियाँ उसे नहीं बचा सकतीं, जो बीत गया है। मरे हुए रिश्ते पर वे उसी तरह रेंगने लगती हैं जैसे शव पर च्यूँटियाँ। दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी। क्या उन्हें (बिंदुओं को) नाम दिया जा सकता है ? दोनों के बीच जो है, वह सत्य नहीं पीड़ा है। वह एक अर्धसत्य और दूसरे अर्धसत्य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्हें संपूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपनी गति में जो उसकी आदिम अवस्था है-हमेशा अपूर्ण रहता है।
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निर्मल वर्मा को याद करते हुए उन्हीं का लिखा और समझा हुआ कटु किंतु निर्मम सच
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अब तक सब धक गया, गुजर गया, निकल गया, कभी झटके से कभी आहिस्ते से, पर धीरे धीरे करते हुए अब छह दशक पूरे होने में दो साल और शेष है ; इस बीच जीवन के अनुभव बहुत है जैसे सबके होते है, अच्छे बुरे लोग मिलें, अच्छे बुरे अनुभव और बाकी भले कुछ ना सीखा, पर लोगों को पहचानना आ गया और यह लगा कि अब यह भेद भी करने की जरूरत नहीं है कौन, क्या और कैसा है
एक लंबी रेलम पेल में, कष्ट, अवसाद, तनाव, नौकरी और काम के बीच कुल मिलाकर अफसोस यह होता है कि हमेशा गलत लोगों का साथ दिया, गलत लोग जो धन, यश, ख्याति, पद, प्रतिष्ठा, संपत्ति के लालच में थे उनका साथ दिया, महज इसलिए कि मैं हमेशा कमजोरों के पक्ष में था और अब पलटकर देखता हूँ तो लगता है एक लम्बा हिस्सा इसी सबमें चला गया, बहरहाल, अब जो है सो है, पर अब समझ आया कि आपको सीढ़ी बनाकर महत्वकांक्षी लोग ऊपर चढ़ ही जाते है
नई सुबह सामने है, नए आसमान, नए क्षितिज और अपने आप से प्रीत की डोर लगानी है लिहाज़ा एक दो दिन में बड़े निर्णय लेने है, उम्मीद है कि इस बार भी निकल पाऊंगा, समय देना है अपने आपको, बहुत कुछ लिखना है, बहुत से मुखौटा पहने लोगों को उघाड़ना है, पर्दे के पीछे की कहानियों को ज्यों का त्यों रखना है और एकदम तटस्थ होकर बगैर द्वंद के सब कुछ लिपिबद्ध करना है
समय निकलेगा तो कुछ मन की कर पाऊंगा और जाने से पहले कुछ अनुभव दर्ज कर सकूंगा शायद कोई पढ़ लें तो कुछ सबक सीख सकें बाकी तो सब व्यर्थ ही है, बदलाव और किस्से कहानियां मन बहलाव की बातें हैं और ना कुछ बदलता है और ना कुछ सुधरता है, यह नैराश्य नहीं बल्कि भुगती हुई पीड़ा है और जिन लोगों की कहानियां बेचकर दुनिया के योग मायावी किस्से और धनपशुओं की दुकानें चल रही हैं वह भी दृष्टि भ्रम है
भीतर लौटना है भीतर
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6 फरवरी 2025 की डूबती शाम थी, दिल्ली के भीड़ भरे भारत मंडपम के हॉल नंबर चार के पिछले दरवाजे से मै निकला कि शाम हो गई है बाहर फिर ऑटो मिलने में दिक्कत होती है तो हड़बड़ाहट में था, बाहर देखा तो Mamta Kalia दी अकेली बैठी थी, मैने कहा अरे आप यहां इस वक्त, तो बोली "संदीप हम एक कार्यक्रम में आए थे, सिक्योरिटी वालों ने आते समय तो ओला को अन्दर तक आने दिया पर अब जाते समय आने नहीं दे रहे बेटा गया है गोल्फ गाड़ी लेने, मुख्य द्वार यहाँ से लगभग दो किलोमीटर है, अब इतना चला नहीं जाता हमसे"
बस, दीदी से खूब बातें हुई, विक्रम विवि, उज्जैन के अंग्रेजी विभाग की, जहां वो बहुत पहले पढ़ी है और मैं तो उसी विभाग में 1987 से 1992 तक रहा, स्व रविन्द्र कालिया जी के उपन्यास "गालिब छूटी शराब में" देवास के जिन स्व प्रमोद उपाध्याय का जिक्र आता है , उनकी बात हुई , उनके नए उपन्यास इलाहाबाद की बातें हुई और भी ढेर सारी, बोली घर आओ गाजियाबाद, पर अगले दिन मुझे लौटना था तो जा नहीं पाया
"अंतिम अरण्य" में निर्मल वर्मा कहते हैं "कुछ चीज़ें अधूरी रह जाए तो जीने की इच्छा बनी रहती है", बस इसी बात को सोच रहा हूँ कल से, आज अचानक ममता दी का लिखा कुछ पढ़ था, तो यह स्मृति जेहन में ताजा हो गई
थोड़ी देर में उनका बेटा गोल्फ गाड़ी लेकर आ गया था और दो चार अधिकारी भी आ गए थे और उस गार्ड को लगभग डांट रहे थे कि can't you see , she is old and senior most literary person, how dare you are to refuse Ola for her ... ममता दी मुस्कुराते हुए बोली "अरे उसे मत डांटो वो तो अपना काम कर रहा था, संदीप तुम अगली बार घर आना, सुषमा जुल्का और मिसेज ओबेरॉय की, प्रोफेसर टंडन और डाक्टर टाटके की बहुत बातें करनी है... शाम विदा हो रही थी और मैं उन्हें दूर तक दिल्ली की धुंध में जाते देख था, बरसों से हँसी जैसे उनके चेहरे पर चिपकी हो, एक वात्सल्य का भाव, सहजपन, अपनत्व और सच में ममता का स्थाई भाव लिए वो बरसों से जी रही है और सबके लिए ताकत बनी हुई है
कैसे जी लेते है लोग इतना सरल होकर, आज यह भी याद आया कि
"Don't spend your precious time asking - "Why isn't the world a better place?"
It will only be time wasted.
The question to ask is "How can I make it better?"
To that there is an answer.
Ancient Egyptians believed that upon death they would be asked two questions and their answers would determine whether they could continue their journey in the afterlife.
The first question was, 'Did you bring joy?'
The second was, 'Did you find joy?”
~ Leo Buscaglia
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जन पैरवी करने वाले - संवाद, संप्रेषण, और संचार के नाम पर काम करने वाले लोग और मीडिया हाउसेस जब षड्यंत्र, कुचक्रों और घोर चुप्पी के साथ अपारदर्शी तरीकों से तानाशाही के बीच फंस जाए, सत्ता को समर्थन देने लगें तो आप किससे उम्मीद करेंगे, अफ़सोस यह है कि यह प्रवृत्ति इधर दिल्ली से लेकर छोटे-मोटे कस्बों तक फैल गई है और इसमें वो सारे मीडिया से जुड़े और फर्जी क्रांतिकारी शामिल है जो सिद्धांतों और मूल्यों की दुहाई देकर लंबी लड़ाई लड़ने आए थे और धीरे - धीरे ये सब बड़े साम्राज्य के हिस्से बनकर, अपने कम्फर्ट जोन बनाकर इस दलदल में धंस गए हैं
आज ना इनके पास स्वप्न है, ना बदलाव के मंसूबे बस धन, संपत्ति और बने रहने की चाहत है और इसके लिए ये कुछ भी करने को तैयार है, और ये भटके हुए मीडिया के लोग नहीं बल्कि इनके सारे कृत्य रणनीतिक रूप से चुने हुए हैं
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