बहुत दिनों बाद पाई फुर्सत तो, मैंने खुद को पलट के देखा,
मगर मैं पहचानता था जिसको, वो आदमी अब कहीं नहीं है
◆ जावेद अख्तर
***
"मैं थोड़ी देर बाद कॉल करता हूँ"
"अभी बिजी हूं , मीटिंग में हूं"
"बाजार में हूँ"
"कोई जरूरी काम कर रहा हूं, गाड़ी चला रहा हूं"
"कॉल पर हूँ, एक ज़रूरी मीटिंग चल रही है"
"ऑफिस में मीटिंग है बहुत जरूरी"
या फिर Pre scripted SMS - "I am busy, call you later" और बाद में करता हूँ- कभी नही आता
हर जगह मीटिंग का भयानक खूनी खेल चल रहा है, भगवान जाने काम कैसे हो रहें है, कब हो रहें हैं - अल्लाह के बन्दे मीटिंग में हैं तो, काम कैसे होते है, कैसे संसार चलता है - क्या वाकई भगवान चला रहा यह समूचा संसार
98% दुनिया के लोग इस समय मीटिंग में है, सरकारी से लेकर सड़क पर भीख मांगने वाले ही मीटिंग में है और बहुत बिजी है, इतने कि खाने को टाइम ना है, पानी पीने या दवाई लेने का टाइम ना है किसी को, वो लौंडे जो धक्का खा - खाकर दसवीं - बारहवीं पास हुए सप्लीमेंट्री से - फोन पर कहते है "इम्फाल एयरपोर्ट पर चेक इन कर रहा हूँ, जापान एम्बेसी में हूँ वीजा के लिए आया हूँ"
कॉलेज के मास्टर दिनभर पढ़ाने के बजाय गप्प में लगे है - साहित्य, संस्कार और हिन्दू राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं बापड़े, स्त्रैण कवि अपने छर्रों और उनकी बीबियों की कॉपी पेस्ट पोस्ट्स पढ़कर अहो अहो करते रहते है फोन पर और अश्लील अधनँगे फोटो को निहारते रहते हैं ससुरे पढ़ाते कब है, हिंदी के पीजीटी बाइक पर घूम रहे है कुत्तों के पिल्लों के साथ या बूढ़ी तितलियों को रिझा रहें है पर फोन पर व्यस्त मिलेंगे, रिटायर्ड बूढ़े खब्ती इंस्टाग्राम पर बद्री केदार या अयोध्या के लाईव दिखाकर अपने आपको व्यस्त दिखा रहें - दो कौड़ी की तोतली आवाज़ में घटिया हिंदी के उच्चारण कर रजनीगन्धा की पीक थूकते हुए धर्म पढ़ा रहें है ससुरे
कम्पाउंडर,चपरासी या पुलिस के ठुल्ले साहित्यकार या कहानीकार वाट्सएप्प पर भेंगी और कचरा कवयित्रियों की कविताओं का उद्धार करते और वर्तनी सुधारते मिलेंगे इसलिए फोन व्यस्त है, बाबू, पटवारी, तहसीलदार या प्रमोटी ब्यूरोक्रेट्स अपनी स्टेनो के फोटो खींचकर उसके हुस्न की वर्तनी सुधारकर फोटो चैंपते मिलेंगे, इसलिए फोन व्यस्त है या अर्जी - फर्जी किताबों के बेसिर पैर किताबों के उद्धहरण कॉपी मारकर विद्वान बन रहे है, आधे - अधूरे वाक्य लिखकर ज्ञानी बन रहे हैं
घरेलू किस्म की महिलाएँ इधर वाट्सएप्प से लेकर टिंडर तक जुगाड़ में लगी है इसलिये व्यस्त है
मजेदार यह है कि यह सब खेला एक भयावह शब्द "मीटिंग" के नाम पर चल रहा है - इससे बेहतर है कि फोन ही मत लगाओ किसी को - मरने दो सालों को, बहुत ही ज्यादा जरूरत हो तो व्हाट्सएप पर एक हेलो लिखकर भेज दो, या एक एस एम एस भेज दो कि डूब मरो कम्बख्तों और सब तो छोड़ो बाकी अपने ही बच्चों से बात नहीं हो पाती- तो दुनिया की छोड़ दो
सब अस्त - व्यस्त है, दुनिया मस्त है
***
जाने वाले कही नही जाते....
●●●
कल ही यह लिखा था यह पोस्ट, कल भी सोया नही और आज भोर में ऐसी खबर मिली कि दहल गया, मन उचाट हो गया, पिछले 35 वर्षों का साथ था, तमाम वैचारिक विरोधों के बाद भी वो अग्रज थे - भाऊ थे , राँची से लौटता तो घण्टों उनसे बात करता, क्योकि वो वही जन्में थे और वो भावुक हो जाते - चर्च रोड, लालपुर चौक, HEC कॉलोनी, हरमू हाऊसिंग कॉलोनी, रिम्स, एयरपोर्ट, विधानसभा और पतरातू सब उनके ज़ेहन में यूं बसा था जैसे हृदय में खून
भाऊ यानी प्रदीप कजवाड़कर को जाना ही था, शुगर की वजह से हार्ट की बीमारी हुई और इसके चलते पिछले 4,5 वर्षों से वे लगातार बीमार रहते थे, घर - अस्पताल - इंदौर - जाँचे और देवास मुम्बई के बीच शटल कॉक बन गए थे
यहाँ घर था, बेटा - बहु मुम्बई में, वहाँ जाते तो मन नही लगता था - दोस्त - यार, बड़ा घर, बगीचा, फल - फूल और खुली हवा यहॉं थी, सुबह - शाम की सैर, ज़माने भर की यारियां और ज़िन्दगी भर के रिश्ते - नाते यहॉं थे, जिस बैंक में जीवन भर काम किया - वो यही था - अच्छा यह रहा कि अंत समय में सब लोग पास थे, घर की देहरी से अंतिम यात्रा निकली और वो सब लोग कन्धा देने आ गए जिनके घरों के सुख - दुख में वो शामिल रहें ताउम्र, एकदम व्यवहारिक व्यक्ति थे
संगीत की कोई महफ़िल हों या कोई सामाजिक काम ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ भाऊ ना हो, कॉलोनी की सड़क समस्या हो या एबी रोड के एक्सीडेंट, संघी होने के बाद भी दिल खोलकर लिखते थे, भाजपा के जिलाध्यक्ष घर के सामने रहते है और उसे रोज सुबह उठकर टोकते कि राजू ये क्यों नही कर रही सरकार, Shyam Sankat जो उनके मित्र थे, से फेसबुक पर मुहब्बत भरी तकरार रोज़ ही होती थी
खूब लोग मिलें, लम्बे समय बाद पूर्व न्यायाधीश [लोकायुक्त और मप्र मानव अधिकार आयोग ] श्री डीके पुराणिक जी से बात हुई जो रिश्ते में है तो Girish Patwardhan जी का ज़िक्र निकला, जस्टिस धर्माधिकारी जी की भी बात हुई, मप्र उच्च न्यायालय के सिरपुरकर साहब की भाभी नीता जी से मुलाकात हुई , राजीव काशिव, भाटवाडेकर, सिसौदिया , नीतिन, आवटे, सुपेकर, निश्चय, अमेय, निशांत, चिन्मय, विप्रव, मुकादम परिवार, खातेगांव से गोटू, कलापिनी, डॉक्टर प्रकाशकान्त और ना जाने कितने लोग मिलें कॉलोनी के जिनको देखें दशक हो गए, हम लोग कैसे और क्यों हो गए है इस तरह के कि मिलने - जुलने से ही कतराने लगे है - मुझे लगता है दुख ही हमें जोड़ता है , सुख में तो हम राजा हो जाते है और सबकी उपेक्षा करते हैं
भाऊ के घर सुबह ही पहुँच गया था - जब नितीन का पहले सन्देश और फिर फोन कि "भाऊ अपोलो अस्पताल में अभी - अभी नही रहें", इस बहाने बहुत पुराने लोग, शहर छोड़कर जा चुके लोग, बैंक के मित्रगण, संगी - साथी और ढेरों रिश्तेदार भी मिलें - सबके बच्चे अमेरिका, जकार्ता, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी या फ्रांस में है - बुढ़ापा काटते और अपने अंतिम समय को गिनते हुए सबकी साँझी चिंता थी कि अंतिम समय में बच्चे नही आएं तो क्रिया कर्म कौन करेगा, बच्चे शादी नही कर रहें, लिव इन में रह रहे है, 37 - 38 साल उम्र हो गई है, कइयों के बच्चो ने त्योहारों पर भी आना छोड़ दिया है कि माँ - बाप पर्सनल लाइफ में दखल देते हैं, and this is ridiculous, who are they to interfere in our life... What the shit, we are free and matured enough to take our decisions, प्रॉपर्टी से कोई लेना - देना नही है उन्हें, ये ओल्ड फैशन्ड घर का क्या करें - जिनमें ढंग के कमोडस भी नही, शौवर्स भी नही....
जब भाऊ की देह अग्नि में धूँ धूँ जल रही थी तो हम सब उस धुएँ में अपने अक्स देख रहें थे और गिन - गिनकर सम्भावनाएं टटोल रहें थे कि कौन - कौन आ सकता है और क्या सचमुच आ भी पायेंगे...अंतिम बेला में, आज ही हँस लें, ठहाके लगा लें, भाऊ के बैंक कर्मी साथी उसकी लाश के पास मख्खी उड़ाते हुए संग की हुई यात्राओं की बातें, पोहा - कचोरी, बैंक की डेस्क के किस्से याद कर जमकर हँस रहें थे पर मैंने देखा उनकी पलकें भीगी थी बुरी तरह, देह जलने के साथ ही कुछ लोग फफक उठे और बेतहाशा रोने लगें - यह 50-60 साल की यारी थी निस्वार्थ प्यार और दोस्ती .
श्मशान में एक ही लाश जलती है पर उसकी लौ में कई अरमान, सम्भावनाएँ और उम्मीदें जलकर खाक हो जाती है
ठंड बढ़ गई है, हल्के स्वेटर, गले में पट्टे, शुगर की गोलियाँ, हाथ के फ्रेक्चर, घुटनों के दर्द से आज़िज़ आकर वॉकर के सहारे चलते, ड्राईवर को साथ लाये इन दोस्तो की भी मजबूरियाँ रही होंगी कि वे अपने यार को विदा करने आज आये है, खूब हँस भी लिए पर अब लौटते में रास्ते भर कैसे जायेंगे घर भरे आँसुओं के साथ, वो आ गए थे भाऊ को विदा करने यह बड़ी बात थी, भाऊ के नेक कर्म थे जो इतने लोग इंदौर, उज्जैन, बम्बई, राँची, महू या भोपाल से आ गए, जब हम लौट रहे थे तो हम सबके दिमाग़ में हम अपनी ही कपाल क्रिया को लेकर अदृश्य लहरा रहे कंडे के टुकड़े अपनी ही चलती - फिरती देह पर यूँ फेंक रहें थे जैसे जल्दी से मुक्ति मिलें तो चैन पड़े
पार्श्व में गीत बज रहा था
"मत कर काया का अहंकार
मत कर माया का अभिमान
काया थारी गार से काची...."
मुझे अंत में शांति और सुकून कबीर पास ही मिलता है
भाऊ यानी Pradeep Kajwadkar को श्रद्धांजलि
***
सारी रात राग कल्याण में निबद्ध इस गीत से जूझता रहा, सोचा पहला अंतरा ही जीवन का दर्शन है, फिर लगा दूसरा और अब समझ आ रहा कि गुलज़ार का लिखा और लता दी का गाया गीत ही जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है, रह - रहकर सामने वो लोग आते रहें, उनकी आवाज़ें पसरती रही कमरे में, और बार - बार छत पर जाकर दूर होने की कोशिश की, परन्तु आवाज़ें तेज होती गई - ये सब जुड़े थे, जुड़े है, उनकी खनकती आवाज़ें, अट्टाहास, क्रंदन, बेचैनियाँ, शोर, चुप्पी और वो सब गूँजता रहा जिसने मुझे आवाज़ों से जीवन के तालमेल का सूत्र दिया, जिसने स्वरों के साथ राग - रागिनियों की समझ और अपने जीवन के बेसुरे होने का एहसास दिलाया, आरोह - अवरोह के बीच धीमे से एक उफ्फ के साथ कैसे सब खत्म हो जाता है - इसका एहसास पुख्तेपन से करवाया, आवाज़ की बारीकियों में अपनत्व, स्वार्थ, परायेपन और संग - साथ का भरोसा दिलवाया
अब पौ फटने वाली है तो एक सन्नाटा है - गीत के बोल रह गये हैं कमरे में किसी कागज़ पर लिखें सुनहरे हर्फ़ों की तरह और बाकी सब बेहद शांत है, एक अजीब क़िस्म की उदासी है और आँखों में नींद का खुमार है
कोई गीत इतना जकड़ सकता है - सोचा नही था, आप भी पढ़िये
नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही, पहचान है
गर याद रहे
वक़्त के सितम, कम हसीं नहीं
आज हैं यहाँ, कल कहीं नहीं
वक़्त से परे अगर, मिल गये कहीं
मेरी आवाज़ ही ...
जो गुज़र गई, कल की बात थी
उम्र तो नहीं, एक रात थी
रात का सिरा अगर, फिर मिले कहीं
मेरी आवाज़ ही ...
दिन ढले जहाँ, रात पास हो
ज़िंदगी की लौ, ऊँची कर चलो
याद आये गर कभी, जी उदास हो
मेरी आवाज़ ही ...
[ अपने देश लौटने के लिए इस स्त्री को गिटार बजाकर टिकिट का रुपया इकठ्ठा करना पड़ रहा था, आवाज़ें त्रासदियों से भी निज़ात दिलाने में सक्षम है ]
***
एक दिलचस्प कहानी कहीं पढ़ी, आपको सुनाता हूँ
एक चतुर व्यक्ति ने दुनिया के जन्म और मृत्यु के क्रम को देखते हुए एक तरीका खोजा, उसने काल को प्रसन्न किया, समय को बांधा और काल से मित्रता कर के कहा, काल तुम सब के जन्म और मृत्यु का कारण हो, अब मेरे मित्र हो तो एक सहायता कर दो। काल ने पूछा बताओ क्या बात है? उस चतुर व्यक्ति ने कहा कि मुझे मृत्य को जीतना है क्या यह संभव है? काल ने कहा नहीं बिल्कुल नहीं यह विधान है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही।
काल ने कहा बस इतनी सी बात ? क्यों नहीं ? और एक क्यों, मैं तुम्हे चार पत्र लिखूंगा।
व्यक्ति खुश हो गया, आराम से जीने लगा, समय बीतता गया, और एक दिन काल अपने दूतों के साथ आ पहुंचा, बताया की चलो अब तुम्हारे चलने का समय आ गया, व्यक्ति चौंक गया। उसे विश्वासघात हुआ लगा, उसने काल को कहा तुमने मुझसे विश्वासघात किया। यह कैसी मित्रता, तुमने कहा था तुम चार पत्र लिखोगे, लेकिन तुमने एक पत्र भी नहीं भेजा।
काल मुस्कुराया और कहा, किसने कहा मैंने पत्र नहीं भेजे मैंने वचन अनुसार चार पत्र भेजे। क्या तुम उसे समझ पाए?
काल ने आगे कहा, पहला पत्र मैने तुम्हारे सर , और शरीर के बाल सफेद कर के भेजा, श्वेत अक्षरों में, की सावधान हो जाओ, जो समेटना है आरम्भ कर दो, ईश्वर हेतु , पुण्य कर्म हेतु समय निकालो, लेकिन उस सफेद बालों को तुमने काला कर पुनः संसार विषयों में खुद को रचा दिया। उस पत्र को जैसे न समझा, न देखा।
दूसरा पत्र मैंने तुम्हारे नेत्रों को भेजा, तुम्हारी बाहर देखने की शक्तियां क्षीण कर, की भीतर झांक पाओ, लेकिन तुमने नए चश्मे बनवाकर बाहर के विषयों को बार बार देखना चाहा। भीतर की और दृष्टि न गई।
तीसरा पत्र मैंने तुम्हारे दांतों को भेजा, जड़ से हिला दिए, तोड़ दिए, लेकिन विषय रसों को भोगने के लिए बनावटी दांत बना दिए। मैं मायूष हो गया कि इसे अब तक पत्र समझे नहीं। हर बार नया बनावटी रास्ता ढूंढ लिया।
अंतिम पत्र मैंने रोग, क्लेश और पीड़ाओं का भेजा कि अब विरक्त हो जाओ, ईश्वर प्राणिधान अब तो कर लो, किंतु तुम्हारे मोह और अहंकार ने इसे भी न समझा, तुम अंतिम पत्र को भी न समझ पाए।
अब वह व्यक्ति फूट फूट कर रोने लगा, कि मैं हमेशा सोचता रहा, कर लूंगा ईश्वर ध्यान, कर लूंगा पुण्य, झांक लूंगा खुद में। समय है, समय है, लेकिन समय स्वप्नवत् निकल गया।
काल के यह पत्र भी भाग्यवानों को मिलते है, कुछ लोग यह पत्र भी नहीं पाते और काल अपने समय पर चौखट पे आके दरवाजा खटखटा देता है। नाशवंत सी यह दुनिया, संसार का मोह, माया का मोह, मन की चंचलता इतनी अधिक है जो हमें विरक्त होने ही नहीं देती।
किंतु सावधान होना होगा, झकझोड़ना होगा खुद को। मन नियंत्रित करना ही होगा। यह अनित्य संसार में नित्यता की आराधना आरम्भ करनी ही होगी।
***
फिर उसने पूछा कि -" क्या हुआ, सब तो पसंद करते है तुम्हें फिर ये सब बातें, गुस्सा, तनाव और अकुलाहट क्यों, किसके लिए "
"नही, सब गलत है, मैं साधारण तुच्छ सा आदमी, गुस्सा क्यों और किस पर करूँगा - बस इतना कहना है कि मैं एक घृणास्पद ज़िन्दगी जी रहा हूँ और अब बहुत हो गया ...."
यह उसके जीवन की लिखी अंतिम कविता की आख़िरी पँक्ति थी, और पूर्ण विराम लगाकर वह ठहरा, फिर उसने कॉपी से पन्ना फाड़ा और निकल गया कही दूर , कभी ना लौट आने के लिये
असल में हमारे अधिकांश सवालों के जवाब हाँ और ना के परे होते है और हम हाँ - ना के बीच दूरियाँ पाटने में जीवन बीता देते है
***
लगातार व्यस्त रहना आपको बहुत कठोर बना देता है - लम्बी यात्राएँ, यात्राओं के दर्द, दर्द के अफ़साने, अफ़सानों की स्मृतियाँ, स्मृतियों को लगातार छानना और तराशना - फ़ेंकना, घर - परिवार - मित्र - सहकर्मी सब आपको दुश्मन लगते हैं और इस सबके बीच जब आप कई - कई किरदारों और परिस्थितियों से मुख़ातिब होते है तो आपके जीवन में आये ठहराव, बसे हुए चरित्र, किस्से, मुद्दें और प्रश्न आपको व्याकुल नही करते, लगता है एक किस्सागोई है ज़िन्दगी, एक कड़वी हक़ीक़त है, एक फ़साना है और इस सबके लिए एक ही दिल और एक ही ज़िन्दगी है - लिहाज़ा सब तरफ से मुंह मोड़कर बस भीतर लौट जाओ, बन्द कर लो कान, आवाज़ों के शोर पर ध्यान ही ना दो और बस अपने आप से प्रीत लगा लो - क्योंकि यही परम सत्य भी है और व्यवहारिकता भी
जब होवैगी उमर पूरी
तब छूटेगी हुकुम हुजूरी
यम के दूत बड़े मरदूद
दूसरों के ना मुद्दे हमसे हल हो सकते है, ना हमारे मसले कोई हल कर सकता है - ना हम कुछ समझ सकते हैं, ना कोई हमें समझ सकता हैं, सबकी अपनी - अपनी प्राथमिकता है और सबके निहित स्वार्थ - बेहतर है हम एकदम शांत हो जाये, तटस्थ हो जाये और बहते पानी को देखते रहें किसी स्तब्ध रात में, एक नदी में आप एक बार भी नही उतर सकते क्योंकि नदी में उतरना नही डूबना पड़ता है, समुद्र में उछलना पड़ता है, पहाड़ को रौंदना पड़ता है और ज़िन्दगी को निशाने पर लेना होता है
दोपहर कुछ तकलीफ़ हुई सीने में आज फिर से, तो आज यहाँ अस्पताल में एक बेहद युवा डॉक्टर मनीष ठाकुर आश्चर्य कर रहा था कि 372 RBS है और 190/160 HT निकला जाँच के बाद - बोला "आपको घर अपनों के पास रहना चाहिये", ढेर दवाएँ दे दी और बड़े प्यार से अधिकार जताते हुए बोला कि "सर, अब आप सब बन्द कर दो - घर ही रहिये, बहुत Vulnerable है आप इस समय", मैंने उससे हाथ मिलाया और कहा कि सब ठीक होगा, जितना कबाड़ा ज़िन्दगी का हो गया है - उतना तो भगवान भी नही कर सकता, जीवन में बस नदी, पानी, यात्रा, थकान के साथ मुस्कुराहट बनी रहें - थोड़े से प्यार और सम्मान के साथ, यदि ज़मीर गवाही देना बंद कर देगा इसकी भी तो घर क्या, अपने आप में ही क़ैद हो जाऊँगा
रात गहरा रही है, डिंडौरी में अभी जब नर्मदा किनारे घाट पर बैठा अकेला मैं आसमान, हल्की सी ठंड महसूस कर मनीष की दी दवाएँ देख रहा हूँ झोले से निकालकर तो दुआ दे रहा उसे कि उसका यह सहजपन बरकरार रहें, क्या करूँ दवाओं का जो इतनी खा ली है कि अब मन भर गया है, अपनी तो शुगर और बीपी का यही आरोह - अवरोह है अब राग भैरवी पर ही खत्म होगा - मोनो सोर्बिट्रेट ज़िंदाबाद
नर्मदे हर
Comments