Skip to main content

UP Election a Few Points to be kept in Mind for ensuing Elections in country.



ये जो मायावती उर्फ़ बहनजी उर्फ़ मसीहा की बात जो कर रहे हो कि वो हार गई है ना, वह ना राजनीति की समझ रखती है - ना जेंडर का कोई उभरता हुआ रोल मॉडल है। अवसरवाद, पीठ में छुरा भोंपने और सवर्ण व्यवस्था से अपना व्यक्तिगत फायदा लेने का दूसरा नाम मायावती है। यह आज नहीं तो कल और साफ होगा ।
सिर्फ इतना कि कबीर ने संभवतः इसी के लिए लिखा होगा ;-
"माया महाठगिनी हम जानी"
______________

बीमारू राज्यों की श्रेणी से मप्र, राजस्थान, झारखंड, उड़ीसा, बिहार, छत्तीसगढ़ निकल ही चुके है। गुजरात पहले ही उन्नत और प्रोन्नत के दर्जे में था, उप्र बचा था सो अब वो भी पिछड़ेपन से उबरने की चाह में सीढ़ी पर आ खड़ा है। एक चमकीली राह और मेट्रो की नींव पर खड़ा आज यह राज्य नए जातीय समीकरणों, जातीय भेदभाव से ऊपर उठकर अपने आकाओं और पूर्वाग्रहों को त्यागकर सफलता की कहानी लिखने को उद्धत है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। निश्चित ही केंद्र और भाजपा का खेमा सन 2019 के मद्देनजर इसे एक दो वर्ष में सफलता का मॉडल बनाकर देश की राजनीती में, खासकरके दक्षिण में, इसे परोसना चाहेंगे ताकि पुनः सत्ता पर चमत्कारिक बहुमत से काबिज हो सकें। इसलिए अब उप्र को छोड़कर जो भी भाजपा शासित राज्य है उन्हें और वहां के मुख्य मंत्रियों को अब श्रीयुत मोदी और केंद्र से मदद की उम्मीद छोड़ देना चाहिए और मप्र की तरह से व्यापमं, अवैध खनिज, डीजल पेट्रोल पर सर्वाधिक टैक्स लगाकर अपना रेवेन्यू बढ़ाने के उत्तम प्रयास करना चाहिए। इन्वेस्टर्स भी अब चतुर हो गए है और फंडिंग की एजेंसियां भी जो माले मुफ्त दिले बेरहम की तर्ज पर अनुदान बांटती है - अब उप्र का रुख करेंगी। सो उप्र के अतिरिक्त भाजपाई राज्य अपने समीकरण और भिन्न खुद हल करें और रहा सवाल जीत हार का उसकी चिंता ना करें गुजरात में सोमनाथ के दर्शन से अवतारी पुरुष ने प्रचार का अभियान शुरू कर ही दिया है और उन्हें हर जिले और पंचायत में भेजकर चुनाव जीता ही जाएगा इसमें शक नही, दूसरा लोगों के पास कोई विकल्प भी है नहीं तो अब ये सारे मुख्य मंत्री आराम से रुपया भी बना लें, सो भी लें और कुछ ना भी करें तो बेचारे अमित शाह और मोदी जी सब कुछ कर ही देंगे। हाँ उप्र को तैयार रहना चाहिए - अम्बानी अडानी से लेकर हर तरह के विकासात्मक अनुष्ठान के लिए।
_____________

चार माह पूर्व एक घनघोर कामरेड देवास में थे, हम लोग बैठकर बियर पी रहे थे साथ में घोर वामपंथी लेखक और कवि और कुछ समाजसेवी थे। उस साथी ने कहा था कि उप्र में 50 लोग वामपंथ की तरफ से खड़े होने को नही मिल रहे। पिछले दिनों में ये वामी खत्म हो गए है और अब वे सिर्फ भक्तों की गालियों, उवाच और कुछ कबूतरों की बीट के बीच सड़ गल रही किताबों में ही मिलते है। पंजाब जैसे राज्य में जहां बड़े बड़े कामरेड जैसे सुरजीत, पाश, लाल से लेकर शिव बटालवी तक हुए- में सुपड़ा साफ़ हो गया तो मणिपुर में क्या खाकर आते ? वामपंथ तरक्की पसंद लोगों के लिए सौंफ और पान बहार मसाला है जो गरिष्ठ भोजन के बाद तले गले ज्यादा खा लिए भोजन को पकाने का साधन है जिसे अपच से बचने के लिए चलते फिरते खाया जाता है । और बाकी तो सरकारी नौकरी करके लच्छेदार भाषा में कहानी उपन्यास लिखकर थोथी वाहवाही लूटने और पुरस्कार बटोरने से लेकर हवाई यात्राओं से दीन दुनिया से संबंध बनाने का एकमात्र रास्ता रह गया है। बाकी तो वामपंथियों से बड़ा शातिर, अवसरवादी और घमंडी कोई है नहीं। जो कामरेड्स महंगे गजेट्स लेकर गरीबी का रोना रोते है, कार के नीचे पाँव नहीं रखते और नौकरी के बदले हरामखोरी कर छल्ले उड़ाते रहते है और ज्ञान की ब धि या बाँटते रहते है उन मूर्ख और घोर अवसरवादियों को क्या इज्जत देना और मार्क्स का वंशज समझना , इनकी असली औकात तब पता चलती है जब मुफ्त की बियर के दो घूँट गले से उतरते है।
____________

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारतीय संदर्भ में किसी राज्य के चुनाव, वहाँ के परिणाम और परिस्थितियां पति पत्नी के बेहद निजी और गोपनीय रिश्तों की तरह है जिसे हम सामाजिक लोग अपनी नाक घुसाने कही से भी चले जाते है एक टुच्चे से अख़बार या चैनल के घटिया और निकृष्ट पत्रकार की खबर के आधार पर विनोद दुआ के बाप बनकर टिप्पणी कर देते है - जबकि वहाँ के लोग सच्चाई भी जानते है और कैसे ठीक करना है, कौन करेगा और कितनी होने की संभावना है , भी तय करते है। हम आप सिर्फ तमाशबीन हो सकते है पर टिप्पणीकार नही। इरोम शर्मिला के 90 वोटों की कहानियां आ रही है पर 16 साल जिस जिद और अकड़ में वो अनशन पर रही क्या आम लोग यह नहीं सोचेंगे कि यह महिला हमारे कोई काम नहीं करेगी, आम आदमी नेता के पास जाता ही तभी है जब काम सीधी ऊँगली से ना हो रहा हो वरना तो भ्रष्ट प्रशासन में दो कौड़ी का बाबू 300 रुपया लेकर जमीन भी आपके नाम कर देता है। इरोम का हारना ही ठीक था और अब उसे भी ये सब विरोध और प्रदर्शन की नौटँकी बन्द कर कुछ मेहनत मजदूरी करना चाहिए ताकि अपनी बूढी माँ की देखभाल कर सकें। सत्ता का चरित्र अगर वो 16 सालों में नहीं समझ सकी तो वह अण्णा से भी ज्यादा मूर्ख है और उसे अपने ही राज्य और अपने ही समाज की समझ नही है, इससे तो उप्र में सातवी आठवी पास लोग ठीक है जो विधायक बन गए या पंजाब के वो कांग्रेसी जो नशा मुक्त राज्य बनाने के हवाई नारे में जीत गए या सिद्धू जैसे लोग जो कपिल शर्मा जैसे शो में घटिया शेर सुनाकर भौकाल बन गए। यह कोई तमाशा करने और नट की तरह रस्सी पर चलने का पुरातन समय नहीं है , आज जब सूचना तकनीक, भांड मीडिया और नोट बन्दी जैसे हथियारों को अपना कर या ट्रम्प को इम्प्रेस कर सरताज बनने की होड़ है, अपनी ही पार्टी के लोगों को धकेलकर खुद आत्म मुग्ध होकर मेहनत से स्वयं को लम्बे समय तक स्थापित करने का हौंसला है उसमे तुम जैसी नग्न होकर प्रदर्शन करने वाली स्त्रियों की नग्नता कोई मायने रखती है इरोम और आखिर आज ही तुरन्त तुमने राजनीति से पल्ला भी झाड़ लिया। इरोम तुम एक साधारण सी स्त्री हो और यही बनी रहो।
______________


जिन मुस्लिमों को हम जी भरकर काफ़िर, म्लेच्छ, पाक की औलादें और कटवे से लेकर तमाम तरह के उदबोधनों से नवाज़ते रहें और हमेशा दोयम दर्जे का मानते रहें उसीका नतीजा यह रहा कि वे और पक्के देशभक्त बनते गए और कुछ अपवादों को छोड़ दें -जिन्होंने रोज़ी के लिए, दहशत फैलाने के लिए अपने आसपास आतंक फैलाया और तस्करी से लेकर बाकी सब गैर कानूनी काम किये, जो भारत में हर कौम के लोग करते है, तो आम मुस्लिम मजबूत हुआ और ज्यादा देशभक्त भी। ये देवबंद से लेकर जो भी उदाहरण दिए जा रहे है वे यही दर्शाते है और यक़ीन मानिए उनका सत्ता में अच्छा खासा स्टैक है और वे हर स्तर पर हर तरह के नफ़ा नुकसान में बराबरी से शामिल है। अब सेक्युलर ताकतों को अपने नज़रिये में थोड़ा परिवर्तन करना चाहिये इस संदर्भ में कि वे पूरी ताकत के साथ काबिज है हर जगह और शिद्दत से भी। और जो गरीब गुर्गे है वो हर कौम में है इसलिए अब 70 साल बाद असलियत जानकर और यह मानकर कि वे यहां है और यही रहेंगे - जिसे श्रीयुत मोदी भी स्वीकार कर चुके है, अपनी धारणाओं पर स्वस्फूर्त भावना से विश्लेषण कर मुस्लिमों को लेकर राय बनानी चाहिए ।
हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ते देश में वोट के प्रतिशत को ना देखिये पर यह देखिये कि अब सत्ता,मीडिया और उसका फायदा लेने वाले कौन है, निश्चित ही मेहनतकश मध्यमवर्ग नहीं है जो इतना टैक्स देता है कि कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता।

_____________

दलित आंदोलन को अपने भीतर से चालाक और अवसरवादी दलितों को पहचान कर मनुवादियों के हाथों में सौंपना चाहिए या पूरा दलित वर्ग और खेमा चालाक हो गया है जो मनुवाद भी ओढ़ना चाहता है और जय भीम , ज्योतिबा और सावित्री फूले के नारे लगाकर अवसर का लाभ लेना चाहता है। वैसे मुझे लगता है कि दलितों ने अपने तई सारे प्रयास कर लिए और अब अंत में अपने को मान लिया कि इसके बिना कोई और चारा नहीं है और इसलिए यह धूर्तता नहीं, कपट नही बल्कि एक रणनीति के रूप में यह नया हथियार है जो क्या गुल खिलायेगा इसका विश्लेषण थोड़े इंतज़ार के बाद। पर यह निश्चित है कि शिक्षा और एक्पोजर के बाद भी पढ़े लिखे लोग आरक्षण बन्द होने के खतरे भांप रहे है और यह भी एक वजह है कि वे इस नए उदार पूंजीवादी व्यवस्था के लाभ को लेने या भकोसने का लोभ संवरण नहीं कर पाएं। दलित को थका हुआ, डरा हुआ या कमजोर या अशिक्षित मानने की गलती ना करिये , आज अपने 32 साल के जमीनी काम को नए एंगल से सीखने देखने का मौका मिला है और खुले रूप से कह रहा हूँ कि दलित अब इस्तेमाल की कला में निपुण नहीं पारंगत हो गया है।
*******************

#उप्रचुनावपरिणाम

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही