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Showing posts from July, 2010

ज्वरग्रस्त कवि का प्रलाप

किसी गृहवधू द्वारा धूप में कुंए की मुंडेर पर विस्मृत कांसे के कलश जैसा मैं तप रहा हूँ, देवि यह ज्वर जो किसी पंहसुल सा पंसलियों में फँसा है. स्फटिक के मनकों जैसी स्वेद बिन्दुओं से भरी हैं पूरी देह. आँखों में रक्त और भ्रूमध्य क्रोध के त्रिशूल का चिन्ह. दादे के ज़माने की रजाई के सफ़ेद खोल जैसा पारदर्शी आकास. नीचे कुंए में जल पर किसी एकाकी कव्वे की रात्रिकालीन उड़नसैर का बिम्ब पड़ता हैं चन्द्रमा के ऊपर. ठहरों थोड़ी देर और बैठे रहो, जल में झांकती अपनी श्याम मुखच्छवियाँ और बात करों बंधुत्व से भरी मेरा क्या हैं? मैं तो मात्र ताप ही ताप हूँ. पारे से नाप सकती हो मुझे किन्तु तुम आम्रतरू की छांह कठिन हैं नापना जिसकी शीतलता, बस अनुभव ही अनुभव हैं. तुम्हे तो होना था अगस्त्य मुनि का कमण्डलु. तुम्हे सुनकर यों लगता हैं जैसे नहाकर आया हूँ होशंगाबाद की नर्मदा में, ठेठ जेठ के अपरान्ह. चलो ठीक हैं, तुम्हारे पाँव व्याकुल हैं. जाओ, तिमिर में लगी अपनी शय्या पर जहाँ सिरहाने धरा हैं पानी से भरा लोटा. मेरा क्या हैं, तुम्हारे शब्दों के सीताफल सहेज लूँगा पकने को गेहूं से भरी कोठी में. देखो बातों में लगा...