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kuchh Rang Pyar ke , राग इश्क - 1,2 and 3 , Post of 13 Feb 2022



राग इश्क - १

पचमढ़ी में किसी भी जगह पर जाओ - चाहे पानी छूने के लिए बी फॉल में नीचे उतरो, छुपने के लिए पांडव गुफा जाओ, धूपगढ़ के सूर्योदय हो या सूर्यास्त, दर्शन के लिए गुप्त महादेव जाओ या सिर्फ यूं ही यायावरी करते हुए पहाड़ों में घूमते रहो, तो आपको एक न एक उस वीराने में गाने वाला कोई मिल जाएगा - एक बूढ़ी औरत को बहुदा मैंने वहां पर देखा है - जो अकेले में अपनी धुन में गाती रहती है, पता नही कौन मीरा दीवानी है
चित्रकूट जाओ तो अनुसूया के मंदिर जाओ या पहाड़ पर किसी मंदिर जाओ, सरयू में पाँव डालकर घण्टों बैठे रहो - एक बंजारा वहां पर गाता रहता है तम्बूरे पर - जिसके पास इतना दर्द है कि उसकी आवाज सुनकर आप पल भर ठहर जाते हैं, समझ नहीं आता यह एकाकी स्वरों में गाने वाले, विरान में भटकने वाले क्यों इतना विराट गाते हैं - इनके पास क्या ऊर्जा और ताकत है जो यह लगातार बरसों से गा रहे हैं ; हो सकता है वे बदल भी जाते हो, परंतु मुझे हर बार वही चेहरा नजर आता है
मांडव जाता हूं तो जहाज महल में सुनाई देती है एक उदास दर्द में डूबी आवाज, रानी रूपमती के महल में लगता है - कोई नाद के स्वर बज रहे हो, मंडला में गौंड राजाओं के किले में उस बन्द पड़े कमरे में मधुमख्खियों की भिनभिनाहट मुझे पूर्वा धनश्री राग की याद दिलाती है, ओमकारेश्वर जाता हूं तो वहां पर नर्मदा नदी के किनारे कलकल बहती नदी में मालकौंस सुनाई देता है, महेश्वर जाता हूं तो नर्मदा के घाटों पर यमन और ललित सुनाई देता है, ऊँचे महल की दीवारें मल्हार गाते सुनाई देती है, भेड़ाघाट में ऐसा लगता है जैसे कोई हरिप्रसाद चौरसिया बैठकर बांसुरी पर पहाड़ी कानड़ा की धुन बजा रहे हो और जिस तेजी से वह पानी गिरता है - उससे लगता है कि जाकिर हुसैन कोई नई बंदिश लेकर आए हैं, थकी - हारी नर्मदा नदी जब मंडला में सहस्र धाराओं पर जाकर हाँफती है तो लगता है कोई नृत्यांगना लगातार थाप पर नाचते हुए बैठ गई है और अब मन ही मन आलाप लेकर दिल दिमाग़ में थिरक रही है
जब पानी, पहाड़, नदी, उजड़े महल, घुँघरुओं की थाप पर घूमती धरती या वीराने में गूँजती आवाज़ें सब इश्क के सबब है तो प्रेम को बार - बार परिभाषित करने की ज़रूरत क्या है ; यह प्रेम ही है जो सदियों से पागलों की तरह से इसी उजाड़ में लगातार अनहद नाद की तरह से बज रहा है और फरवरी माह में जब वसंत मेरे पास से गुजरता है तो मुझे आवाज ही है - जो पागल कर देती है और अब समझ आता है कि ऐसा क्यों होता है, जानते है ना क्यों - क्योंकि फरवरी इश्क का महीना है
राग इश्क - २
पटरियों ने हमेंशा समानांतर रहकर मूक साथ निभाया, पहाड़ों ने धरती और आकाश के बीच रहकर जोड़ने का काम किया, नदियाँ अपने उदगम से निकली तो समुद्र में मिल जाने तक कल - कल करती रही, उसका रोना किसी ने नही देखा, अनथक चलती रही, जोड़ते रही, जो मिला - उसे अपने मे समा लिया और कभी उफ़्फ़ नही किया किसी से
सूरज और चाँद एक दूसरे के पूरक थे - जैसे एक सिक्के के दो पहलू पर कभी मौका नही मिला संग साथ रहने का, एक की उपस्थिति दूसरे का विलोप था, एक उजाला - एक अँधेरा और इस अँधेरे उजाले के खेल में हजारों सितारें डूबते उभरते रहें, पर कुल मिलाकर समझ यही आया कि यही सच है उजास और अँधेरे के बरक्स ही जीवन जीना पड़ता है
जीवन जैसे लम्बी अंधी सुरंग था और इससे गुजरते हुए दूसरी ओर के किनारे पर आलोक होने की आश्वस्ति ही ज़िंदा रखती थी पर एक - एक कदम पर क्षोभ, अवसाद, तनाव और संघर्ष का अपना महत्व भी था, और इनसे पार पाये बिना उस झिलमिलाते प्रकाश पर्व का सुख मिल नही सकता था पर ये भी एक दूजे के सम्पूरक ही थे
जड़े हमेंशा गहन अँधियारे में रहीं, यहाँ - वहाँ से खाद पानी खिंचती रही और सींचती रही उर्ध्व पथ पर बढ़ती डगालों को - ताकि वे कलियों, फूलों को जन्म दे सकें, कि फल आ सकें एक दिन - जिनके बीजों से वंश बेल चलती रहें - सभ्यता जीवित रहें, फलें फुले और पल्लवित होते रहें संसार में - यह अनूठा संयोजन रहा - तभी आज संसार में एक तिहाई पानी के साम्राज्य के बाद हरियाली का राज है इस धरा पर
हम सबके आसपास भी ऐसे कितने ही क्षितिजनुमा आसरे है, बेहद कड़वे सच है पर वे कभी नही कहते कि हम जुड़े है, समझ और समर्पण के बीच सब कुछ समिधा बनाकर जीवन यज्ञ में समाहित कर दिया पर उफ तक नही की किसी ने, दूर से एक साथ होने का भान बना रहता है सबको, कभी किसी ने किसी को प्रस्ताव नही दिया पर जो सृष्टि के आरम्भ से आजतक बहुत कोमल तंतुओं से जुड़े है - उसे कोई ना समझ पाया है, ना तोड़ पाया है और यह समझने और जुड़ने के लिये कभी कोई दिन या तयशुदा वक्त मुकर्रर नही था - पर सब कुछ आज भी एकदम नवीन, नूतन और अनूठा है
शायद मुझे लगता है कि हमें संग - साथ रहने को किसी मौके या क्षण की आवश्यकता नही होती और जब भी यह किसी क्षण किया गया हो वह फिर प्रेम तो नही - बल्कि एक अनुतोष और प्रतिफल भरी संविदा ही होगी और यह भी सच है कि जड़ें कभी उत्तुंग शिखर से, नदियाँ समुद्र से या धरती आकाश से, साँसें आरोह अवरोह से, ब्रह्म नाद किसी राग से, सूरज चाँद से, सुरंगे अंधियारों से और प्रेम किसी से संविदा नही करता
क्योंकि प्रेम जीवन है, जीवन की अपनी गति है और मदमस्त लय है , अपने - आपको एक सुर में गूँथकर प्रेम राग गाते हुए जीवन बीताना है और इसी से सब होगा - क्षितिज भी होंगे, गहनतम अँधियारे, उदगम से चरम का मिलन भी और अनहद नाद भी सदैव बजते रहेंगे और यह ख्याल रहें कि प्रेम में किसी प्रस्ताव और ठहराव की गुँजाइश भी नही होती - वसन्त के बाद पतझड़ और फिर लम्बी वीरानी जरूर आती है जीवन में कि सावन के लिए पर्याप्त अवसर मिल सकें - इसलिए कहता हूँ कि फरवरी इश्क का महीना है और इसे इश्क की तरह ही जियो

राग इश्क -

जीवन के उत्तरायण में सब सही होना चाहिये प्रेम भी
बहुत दिनों में कल किसी से बातचीत में कड़क ब्लैक कॉफी का जिक्र सुना तो अचानक वहाँ से उठा और सीधा घर चला आया, अपने सामान में, रसोई में ब्लैक कॉफी के पाउच खोजता रहा, बहुत सारे पाउच थे मेरे पास, लगभग सारे गिफ्ट में मिलें थे और कुछ खरीदे थे - कॉफी के रोस्टेड बीज थे जिन्हें ताज़ा कूटकर कॉफी बनाना पसन्द था, कुछ ऐसे बीज थे जो किसी जानवर के खाने के बाद उसके मल में से निकालते हैं और उन्हें फिर प्रोसेस करके बेचा जाता है और ये सब बहुत महंगे थे, पर जब भी ये ब्लैक कॉफी का जिक्र निकलता - एक कड़वाहट और बहुत तीखी गन्ध के साथ कमरे में बहुत कुछ फैल जाता था - प्रेम या कुछ नही पता पर इस एक डेढ़ कप कॉफी में बहुत कुछ ऐसा था जो इंडियन कॉफी हाउस की याद दिलाता, एयरपोर्ट की, स्टेशन की, किसी मॉल के बरिस्ता की या कॉफी कैफे डे के उस कोने वाली जगह की जहाँ से "रंजिशें ही सही दिल जलाने के लिए आ" - साफ़ सुनाई देती थी पसंदीदा ग़ज़ल
जीवन में 55 वर्ष पूरे होकर अभी चैत में 56 वां वर्ष आरम्भ हो जाएगा और अगर गिनने बैठूं तो कितने सूर्योदय और कितने सूर्यास्त हो गए होंगे मेरी गिनने की क्षमता ही नही है , यह सब अकेले देखते, जूझते और बूझते हुए पता नही हर सुबह को सूर्योदय को देखा अपनी आँखें फाड़कर और हर सूर्यास्त देखा - जमाने की ओर पीठ फेरकर - कभी जल्दी उठ बैठा, कभी देर हो गई - हर बार कॉफी ने ही जगाये रखा या कॉफी ने लम्बे समय तक सुलाये रखा, एक सहारा सिगरेट बनी थी पर कमाल यह था कि मुश्किल से एक माह की संगी साथी रही और विदा हो गई जीवन से - ये पिछली सदी के नौंवे दशक की शुरुवात थी शायद मेरे देखते
इस सबमें लोग, ज़माना और वो सब सामने या पीछे रहें जिनसे हम हमेंशा डरते है - पर थोड़ी समझ आई थी तो यह तय किया था कि जीवन अपनी शर्तों और पैमानों पर जीना है, और इसके लिये सबको खुश भी रखा और सबको नाराज़ भी किया - यह सब साहजिक था, खींचते - खींचते गाड़ी अब ढलान पर आ गई और यह समझ में आया कि जीवन राग - रागिनियों के उद्दाम वेग से भरी एक धारा समान था - जिसे अंततः समुद्र में मिलकर विलोपित होना ही था
कितने बसन्त, पतझड़ और सावन बीते और अपनी छाप छोड़कर चले गए, हर बार पीठ के पीछे होती चुहल, दर्प में डूबे ठहाके, गर्व एवं उन्माद से भरी हंसी को सुनता रहा - पर सब कुछ नजर अंदाज़ कर सिर्फ उगते या डूबते सूरज को देखता रहा - क्योकि ताप और आंच के बीच के फ़र्क को जानता था, बहुत जल्दी यह महीन और बुनियादी फ़र्क़ सीख गया था - लिहाज़ा सामने या पीछे की बातों का कोई बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा जीवन पर और अब जैसा भी हूँ अपने आपको स्वीकार लिया है
शून्य, रिक्तता या ख़ालीपन इसलिए कभी रहा नहीं कि हृदय प्रेम से भरा हुआ था, बहुत याद करता हूँ तो एक सहपाठी का नाम दिमाग़ में कौंधता है जिससे कभी नफरत हुई थी, बाद में जब सीख लिया कि हर सूर्यास्त के बाद यदि कोई बैर, नफ़रत, बदला या हिंसक भाव मन में है तो भूल जाना चाहिये - उसे भी मुआफ़ कर दिया एक दिन, सबको माफ करके मन के उस कोने में प्रेम दीपक जलाना चाहिये जहाँ घृणा घर कर गई हो, यह अपनाया तब से अदभुत शांति मिली, यद्यपि मनुष्य होने के नाते कमजोरियाँ अभी भी है - विद्वैष, घृणा जैसे दुर्गुण छूटते नही है
'प्रेम बाडी ना उपजै' तो कभी समझ नही आया पर जो भी समझा वो सिर्फ इतना था कि जब कभी कही शून्य हो उसे प्रेम से भर दो, जब बहना ही है तो सबको समेटते चलो - मन में उद्धिग्नता और विषाद लेकर चलने से कुछ हासिल नही, यह खोना और पाना ही असल द्वन्द उत्पन्न करता है, प्रेम में सब कुछ पाने की जिद सब कुछ हासिल कर लेने का दुराग्रह ही प्रेम को खत्म करता है और हम यह हासिल करने में सब कुछ क्षत - विक्षत कर लेते है अपनी आत्मा को भी छलनी कर देते है जबकि उसका शरीर से कोई सम्बन्ध ही नही है और जब किसी दिन अपने आपसे सामना होता है तो हमारे पास अपने से ही कहने - सुनने को कुछ नही होता
पिछले दो सालों के भयावह समय के बाद इधर दो - तीन दिन से मौत के खेल फ़िर देख रहा हूँ, उन लोगों को खत्म होते देखा जो मूक भाव से समर्पित करते रहें जीवन, अपनी उम्मीदों और छोटे स्वप्नों को समिधा बनाकर तिरोहित कर दिया जीवन, मृत्यु शैया पर प्रचंड दानावल में उनका चेहरा कितना स्निग्ध लग रहा था - मानो उन्होंने खत्म होते समय वो पा लिया - जो शायद जीकर कभी नही पा सकते थे, जीवन के बिछोह के बाद यह चिर शांति और पुरखुलुस सुकून किसी सुख के बरक्स नही ठहर सकता, सबको इस पार से गुजरते हुए धूं - धूं दहकते दानावल में जाना है पर मन में प्रेम रहेगा तो चेहरे पर सौम्यता बनी रहेगी
ब्लैक कॉफी कड़वी जरूर है पर उसमे एक सुकून है, चाहत का इशारा है और फ़लसफ़ा भी कि कड़वाहट प्रेम का समाहार है, प्रेम का उपजना सृष्टि में एक चमत्कार है और इसे सदैव के लिए संसार में बनाये रखना एक चुनौती, पर मनुष्य होने के नाते हमने इसे आरम्भ से ही स्वीकार किया है और सांस लेने की जरूरी रस्मों की तरह निभाया है, हम सबको प्रेम की ज़रूरत है और यदि कोई दिलेरी से कहता है प्रेम, तो कोई कौतूहल नही होना चाहिये - ना ही औचक की तरह से समझने का प्रयास करना है - बल्कि इसे घटता हुए देखें, पुष्पित और पल्लवित होने दें - तभी प्रेम भी बचेगा और संसार भी, तभी रोज़ सूरज भी उगेगा और डूबेगा - ताकि संसार में चक्र चलता रहें और साल के सबसे कम दिनों का यह मधुमास हम सबमें प्रेम को इतना सगुणी बना दें कि फिर किसी जुलाहे को ना कहना पड़ें कि 'ढाई आख़र प्रेम का' या 'प्रेम गली अति सांकरी ता में दो ना समायें' , क्योकि यह फरवरी का महीना है और दिन - रात अपनी सीरत और सूरत बदल रहें हैं, इसलिए डूब जाओ इसमें और संसार को प्रेम से भर दो
कॉफी इंतज़ार कर रही है, कड़वाहट और कॉफी की सौंधी खुशबू फ़िजां में है - सारे पाउच मैंने टेबल पर सजाकर रख लिए है और अब सोच रहा हूँ कि रोज इन्हें सूँघकर, प्रेम से उबालकर और बदल - बदलकर पियूँगा ताकि सारे अवसाद, तनाव और द्वैष मन से निकल जाए - फिर एक फरवरी के आगाज़ का इंतज़ार नही करूँगा - मेरे लिए, तुम्हारे लिए और हम सबके लिए हर दिन, हर पल एक फरवरी हो क्योंकि फरवरी इश्क का महीना है

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