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Showing posts from 2012

अम्बर रंजन पांडेय की नई कवितायें.

पानी-१ आलोकधन्वा, प्रभात की पानी पर कविताएँ पुल बन गई हैं। पूछूँ यदि तुमसे तो तुम कहोगे नाँव। आजकल बहुत ऊपर से निकल जाती हैं रेलगाड़ियाँ। हवा बीच ही भख लेती है- गर्भवती का वमन तर्पण का कलदार तुम्हारे घड़े में कितना जल है, सुनो तुम्हारे लोटे में कितना? मेरे एक अध्यापक है संदीप नाईक होशंगाबाद में नर्मदा के घाट रहते थे पहले सुनते है- एक उलाँक ** जल में रह रहकर कोमल पड़ गया था जिसका पाट माट्साब के पाँव धरते ही हिलसा हो गई थी। मानोगे क्यों तुम! गल्पकला कहोगे किन्तु यह पानी जितना ही सत्य है बंधु। **उलाँक- नौका का एक प्रकार। पानी-२ भीतर जैसे मंूगे की बेल फल गई हो। इतना भर गया था कवि के फेफड़ों में जल, रोज़ अस्पताल में नली से निकलाने जाते स्कूटर पर। ग्रीष्म के दिवस, शिप्रा बस गोड़डुबान लोटा भर पानी भी स्वप्नवत् लगता था फिर एक समय जल के सभी लक्षण प्रकट हुए कवि पर- मत्स्य, नौका, कलश, धान और पिपासा एक समय कवि अंजुरि भर जल रह गया जग में। पानी-३ कुल्ले के जल की मार से जब मुच गई थी आँखें- उसी टाईम तुम मुझे सबसे अच्छे लगी थी। खारे जल की पुतली- आँखे, जिह्वा, काँख, योनि-सब में केवल अाब अौर नमक ही था;
thanx Smriti Joshi for this Damini is no More | दामिनी का अंतिम खत हम सबके नाम...... hindi.webdunia.com मेरे जनक और मेरी मां मैं माफी चाहती हूं कि मै तुम्हारे सपने पुरे नहीं कर पाई नहीं बन पाई एक फिजियोथेरेपिस्ट, एक कर्ज है मेरे सर पर पर मैं
दामिनी का आख़िरी खत आप सबके नाम....... दामिनी का आख़िरी खत आप सबके नाम...... www.kharinews.com मेरा मरना कोई नया नहीं है अपने देश में बस फर्क इतना है कि आज आप सब मेरे बाद मेरे साथ हो, मेरे बलात्कार के बाद, मेरी मौत का इंतज़ार करते, रायसीना की पहाडियों पर पुलिस की बर्बरता के बीच पानी के छींटों के और आंसू गैस के गोलों के बीच आप अब मेरे साथ

दामिनी का आख़िरी खत आप सबके नाम

मेरे देश के प्रबुद्ध लोगों,  सलाम !!! मेरा मरना कोई नया नहीं है अपने देश में बस फर्क इतना है कि आज आप सब मेरे बाद मेरे साथ हो, मेरे बलात्कार के बाद, मेरी मौत का इंतज़ार करते, रायसीना की पहाडियों पर पुलिस की बर्बरता के बीच पानी के छींटों के और आंसू गैस के गोलों के बीच आप अब मेरे साथ हो. क्या यह सब भी एक इवेंट है इस देश में मुझे अब लगता है कि मेरे मरने से आप लोग चलो एक बार ही सही, इकठ्ठा तो हो गये हो, उस दिन ना सही पर आज तो हुए हो, चलो मुझे इसका संतोष है कि मरने से मै कुछ तो कर पाई. बस अब यही कहूंगी कि अपने इन बेशर्म सांसदों को, विधायको को और ब्यूरोक्रेट्स को सम्हाल लो, सम्हाल लो पुलिस को जो आजाद भारत में आजादी के इतने सालों बाद भी आजादी का अर्थ नहीं समझ पा रहे है, और देश को अपने बाप की बपौती मानकर जेब में रखकर चल रहे है.   मुझे अफसोस है कि जिस देश के मंत्री, नेता, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की बेटियाँ हो और ये इसका बखान भी मेरे बलात्कार के बाद कर रहे हो,  उस देश के उन जगहों का क्या होगा जहां किसी बेटी का बाप कोई रसूखदार पद नहीं रखता. थाने में जाकर बलात्कार की रपट दर्ज कराने वाली लड
thanx a lot Vinay Dwivedi for this quick Post सन्दर्भ दामिनी की मौत: हम पुनः हजार साल पीछे लौट गये है एक आदिम और बर्बर युग में kharinews.com हम पुनः हजार साल पीछे लौट गये है एक आदिम और बर्बर युग में.... और इसका कारण मै, तुम, आप हम और वो सब है.....

हम पुनः हजार साल पीछे लौट गये है एक आदिम और बर्बर युग में- सन्दर्भ दामिनी की मौत

  हम पुनः हजार साल पीछे लौट गये है एक आदिम और बर्बर युग में................और इसका कारण मै, तुम, आप हम और वो सब है........   मेरा सर अपने देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसदों, मुख्य मंत्रियों, विधायकों, नेताओं,ब्यूरोक्रेसी, जन प्रतिनिधियों, मीडियाकर्मियों, के कृत्यों से झुका हुआ है. आप सबने और हमारी सड़ी-गली मान्यताओं ने दामिनी का खून किया है.   आज की सुबह ने हमारे लिए कई सवाल छोड़े है आज़ादी के बाद हम कहाँ आ गया है और क्या पाना चाहते है, महिलाओं के लिए भद्दे इशारे, चुटकुले, छेड़ छाड, मजे लेना और बलात्कार जैसे कृत्य आखिर में एक लडकी की मौत या आत्महत्या को मजबूर कर देना यही सब हम चाहते थे, यही हमारा लक्ष्य था, यही हममे निहित है, ये है महिला आरक्षण और पंचायतों में पचास प्रतिशत भागीदारी और शिक्षा दीक्षा के परिणाम? साल के अंत में जो कुछ हुआ उससे पूरा देश शर्मसार है और दुनिया के सामने हम पुनः एक पाशविक समाज के रूप में उभरे है.   कितने अहिंसक हो गये है हम कि इतने सब होने के बाद भी कहा जा रहा है कि उसकी लाश दिल्ली लाने के बाद भी दिल्ली पुलिस उसके शव का
thanx Ashvini Verma for the link........ http://www.youtube.com/watch?v=65_haTj_r70 web TV24 News Channel. Morning Live. NEWS

प्रतिछाया - बहादुर पटेल

 आदिवासी जीवन में भी अब लडकियां जो एक "असेट" हुआ करती थी अब वहाँ भी हमारी सभ्यता ने घुसपैठ कर ली है. जन्म लेती एक लडकी अपने होने से पहले ही चिंतित है. जल-जंगल-जमीन को लेकर जो उसके होने के अर्थ बयाँ करते थे और उसकी अस्मिता वही से आती थी पर उस की जिजीविषा को सलाम कि वो बचाना चाहती हूँ अपने को ,जंगल जमीन को, जीने की हर कोशिश को. Bahadur Patel की एक नायाब कविता, इस बार बहादुर अपने परम्परागत तेवरों को छोड़कर एक नए मिजाज़ और अंदाज़ में एक गहरी चिंता उस बड़े समुदाय से जो महानगरों में नहीं रहता और इनके लिए किसी दिल्ली या देवास में कोई प्रदर्शन नहीं होते. आदिम संस्कृति का कोई "सभ्य कवि" नहीं लिखता इनकी आवाजें, किसी साहित्य पुरस्कार में दर्ज नहीं है ये दस्तावेज और किसी सजिल्द पुस्तक में नहीं चीन्हीं गई गई है ये करुणा की आप्त गूँज और कोई कथ्य या गल्प नहीं बुना गया है इस बात को लेकर कि...... "हक की शाखें लगातार छांगी जा रही थी माँ का भय नदी पर बनाये जा रहे बांध की तरह सख्त होता जा रहा था डूब में जीने का भरोसा डूबता जा रहा था"

वो साथ है तो जिन्दा हूँ,

वो नहीं मेरा मगर उस से मोहब्बत है तो है, ये अगर रस्मो रिवाजों से बगावत है तो है; सच को मैंने सच कहा जब कह दिया तो कह दिया, अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है; कब कहा मैंने की वो मिल जाये मुझको, उसकी बाहों में दम निकले इतनी हसरत है तो है; वो साथ है तो जिन्दा हूँ, मेरी सांसो को उसकी जरूरत है तो है; दूर थे, दूर रहेंगे हर दम ये ज़मीन आसमान, दूरियों के बाद भी दिल में कुरबत है तो है; मैंने कब कहा वो मिल ही जाए मुझे, पर गैर न हो जाये इतनी सी हसरत है तो है;.!! II आ तू दौड़ के लिपट जा सीने से हमारे फिर इशारा इस तरफ से होगा ये उम्मीद न रख.. कि एक बार मोहब्बत की भीख मांगी थी तुझसे बार बार मेरा सर झुकेगे ये उम्मीद न रख.. अच्छा न किया तुने इस दिल को ठुकरा कर तुझे कोई न ठुकराएगा ये उम्मीद न रख.. बहुत ही तड़पाया गम ने तेरे हमको, हम यूँ घुट घुट के मर जायेंगे ये उम्मीद न रख...!!  

हम जो घरों से एक बार बाहर निकले हैं तो अब वहां लौटकर नहीं जाएंगे। - मनीषा पांडेय

पूरी तरह सहमत हूँ मनीषा पांडेय से, आज यह जोखिम लिए बिना मूंछों वाले निकम्मे, नालायक मर्द तुम्हें ना इज्जत देंगे ना स्वतन्त्रता ...........और सरकार से बड़ा नपुंसक कोई नहीं है जो क़ानून के नाम पर हजारों सालों तक लोकसभा-राज्यसभा के दायरे में खेल खेलती रहेगी, जैसे महिला आरक्षण के साथ पिछले कई बरसों से खेल रही है और इसमे वो सारी महिलायें भी शामिल है जो संसद में टसुए बहाने का नाटक करती है और सत्ता के खेल में रोज नए सौदे करती है.   लड़कियों ! 1- अपने घरों से बाहर निकलो । 2- पब्लिक स्‍पेस पर कब्‍जा करो। यकीन करो, धरती की हर इंच जगह तुम्‍हारी है और तुम्‍हें कहीं भी जाने-होने-रहने-जीने से कोई रोक नहीं सकता। 3- जान लगाकर पढो, टॉप करो और अपना कॅरियर बनाओ। (करियर टॉप प्रिऑरिटी पर रखो।) 4- अपने पैसे कमाओ, अपना घर बनाओ। अपना कमरा और अपना स्‍पेस। 5- एक गाडी खरीदो, दो पहिया या चार पहिया, कुछ भी चलेगा। और उस पर सवार होकर पूरे शहर में घूमो, दूर दराज के शहरों में भी। चाहो तो पूरे देश भर में। 6- अपनी जिंदगी की जिम्‍मेदारी अपने हाथों में लो। अपने फैसले खुद करो। 7- अमीर पति का ख्

हिन्दुस्तान का ऐतिहासिक विरोध एक बलात्कार के विरोध में

देश के माननीय राष्ट्रपति महोदय अपने दडबे और कड़ी सुरक्षा व्यवस्था से बाहर आओ और कहो कि "मै सरकार को हुक्म देता हूँ कि बलात्कार के लिए कडा क़ानून बनाए और सजा और क़ानून में राजनैतिक हस्तक्षेप बंद होगा." "सभी प्रदेशों में यह एक साथ लागू होगा और जिस प्रदेश में सरकार की अयोग्यता साबित होगी उस प्रदेश की सरकार तुरंत बर्खास्त कर दिया जाएगा." और यह शुरुआत मप्र से हो क्योकि यहाँ महिलाओं के खिलाफ अपराध दर सबसे ज्यादा है पिछले बरस सबसे ज्यादा बलात्कार इसी प्रदेश में हुए है.   देश के माननीय राष्ट्रपति महोदय अपने दडबे और कड़ी सुरक्षा व्यवस्था से बाहर आओ और कहो कि "कि अगर सरकार यह चौबीस घंटे में नहीं करती है तो मै जन भावनाओं का आदर करते हुए देश की सभी विधानसभाओं, संसद और न्यायपालिकाओं को भंग करता हूँ" देश को अब सरकार नहीं दबंग राष्ट्रपति की दरकार है अब समय आ गया है कि यह रबर स्टाम्प अपने होने को चरितार्थ करे और जो करोडो रूपया इस पद के चुनाव में बर्बाद होता है उसका चुकारा हो और देश की जनता को मालूम पड़े कि देश में सर्वोच्च पद क्या होता है.  

ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा.......डा राकेश अग्रवाल, अमेरिका

यूँ तो सन १९९४ में वो देश छोड़कर चला गया था, वही शादी कर ली थी, तीन बच्चे हो गये थे और आज वो अमेरिका का जाना माना डाक्टर है. लगभग एक साल पहले मेरे ब्लॉग पर एक अनजान आदमी के कमेंट हर लिखे पर आ जाते थे और मुझे घोर आश्चर्य होता कि यह कौन है जो पहचान नहीं बता रहा और मेरे बारे में इतना जानता है और वो बातें जो मेरी किशोरावस्था से सम्बंधित थी, स्कूल, कॉलेज से सम्बन्धित थी, और हर लिखे पर कमेन्ट आता था. पहले मैंने जिज्ञासा वश ध्यान दिया फ़िर जवाब ना मिलने पर छोड़ दिया कि होगा कोई. पर एक दिन इसी फेस बुक पर दोस्ती का एक सुकून भरा आमंत्रण आया और यह राकेश निकला. फ़िर तो बातों का सिलसिला चल निकला और आनन-फानन में उसने यहाँ, देवास, आने का कार्यक्रम बना लिया. तीन माह पूर्व उसने सब तय कर लिया था, मैंने भी उसके वापिस जाने का टिकिट बनवा दिया था. जैसे-जैसे दिन करीब आते गये वो रोज पूछता सब तय है ना, तुने छुट्टी ले ली है ना, सबको बता दिया है ना, ठण्ड कितनी है आदि आदि. और आखिर वो दिन आ ही गया जब वो इंदौर उतरा और देवास आ गया शाम को १६ की. खूब बातें पुराने दोस्तों से जो

बहादुर पटेल का जन्मदिन और कविता पाठ

दोस्ती, यारी, संगीत, साहित्य और जिंदगी कितनी हसीन  हो सकती है यह शब्दों में बता पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है कई बार. देवास में हम लोग इस मामले में बहुत सुखी है और इस बात पर हमें गर्व भी है. कल प्रसंगवश बहादुर पटेल का जन्मदिन था और हमारे जीवन काका यानी श्री जीवनसिंह ठाकुर की नई किताब जो पाकिस्तान पर लिखे गये उनके लेखों का संग्रह है भी राधा प्रकाशन, नई दिल्ली से आई है. हम सब लोग आदरणीय डा प्रकाश कान्त जी के यहाँ एकत्रित हुए और फ़िर क्या बात थी, एक शाम कब रात में ढल गई, ताई संजीवनी का अपनत्व, अमेय और पारुल और श्रीकान्त  का स्नेह और मेजबानी , और देवास भर के साथी मोहन वर्मा, ओम वर्मा, समीरा नईम, दीक्षा दुबे, विजय श्रीवास्तव, जीतेंद्र चौहान(इंदौर) केदार, रितेश जोशी, संजय मालवीय, कैलाश राजपूत, रेखा भाभी, कृष्णा, कविता और बहादुर के परिजन, मेहरबान सिंह, सुनील चतुर्वेदी, अभिषेक और ढेर साथी इस महत्वपूर्ण  आयोजन में शामिल थे. जीवन काका ने अपनी किताब के बारे में बताया और अपनी सारगर्भित टिप्पणी से भारत पाक मुद्दों को लेकर समझ स्पष्ट की. बाद

जीवन से गायब है प्रेम और सुकून

तुम्हारे लिए................सुन रहे हो...............कहाँ हो तुम........................... ... एक बार कुएं ने नदी से, नदी से सागर से, सागर ने आसमान से, और आसमान ने धरती से, और फ़िर धरती ने छोटे- छोटे नालों से, और छोटे-छोटे नालों ने कुएं से फ़िर फ़िर पूछा कि पानी कहाँ गया ? तो जवाब मिला- नालों में बह गया, कुएं पी गये, नदियाँ पी गई, समंदर ने उलीच दिया, आसमान निगल गया, धरती ने खाली कर दिया ! बस तब से गायब है पानी जैसे जीवन से गायब है प्रेम और सुकून इन दिनों !!!

एक बार फ़िर फराज़...............

    फ़क़त अहसास के अंदाज़ बदल जाते हैं "फ़राज़" वरना आँचल भी उसी धागे से बनता है और कफ़न भी.   दिल कि दुनिया कुछ इस तरह से उजड़ी "फ़राज़" उसने दर्द का आदी बना के दर्द देना छोड़ दिया...    

मेरे नदीम मेरे हमसफ़र - साहिर लुधियानवी

मेरे नदीम मेरे हमसफ़र उदास न हो मेरे नदीम मेरे हमसफ़र उदास न हो कठिन सही तेरी मंजिल मगर उदास न हो कदम कदम पे चट्टानें खडी रहें लेकिन जो चल निकले हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते हवाएँ कितना भी टकराएँ आँधियाँ बनकर मगर घटाओं के परचम कभी नहीं झुकते मेरे नदीम मेरे हमसफ़र हर इक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं मगर हर इक तलाश मुरादों के रंग लाती है हजारों चांद सितारों का ख़ून होता है तब एक सुबह फ़िजाओं पे मुस्कुराती है मेरे नदीम मेरे हमसफ़र जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते वो जिंदगी में नया रंग ला नहीं सकते जो रास्ते के अँधेरों से हार जाते हैं वो मंजिलों के उजाले को पा नहीं सकते मेरे नदीम मेरे हमसफ़र -साहिर लुधियानवी

हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है ! शैलेन्द्र की पुण्यतिथि के बहाने

आज महान कवि-गीतकार शैलेंद्र की पुण्‍यतिथि पर उनका यह क्रांतिकारी गीत कितना प्रासंगिक लगता है... कहाँ गये ऐसे तेजस्वी लोग जो इतना खुलकर लिखते थे और गाते-बजाते थे ..........शायद उस समय ये ससुरी धारा 66 A नहीं होगी वरना सरकार उन्हें फांसी पर टांग देती..............   तुमने माँगे ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा छीनी हमसे सस्ती चीज़ें, तुम छंटनी पर हो आमादा तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है ! मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है इन बनियों चोर-लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है बगलें मत झाँको, दो जवाब क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है ? हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है ! मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें जब काले-गोरे बनियों में चलती थीं सौदों की बातें रह गई ग़ुलामी बरकरार हम समझे अब छुटकारा है हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है ! क्या धमकी देते हो साहब, दमदांटी में क्या रक्खा है वह वार तुम्हारे अग्रज अँग्रज़ों ने भी तो चक्खा है दहला था सारा सा

पंडित रविशंकर जी का यूँ गुजर जाना

पूरी दुनिया में बनारस और संगीत की खूशबू फैलाने वाले पंडित रविशंकर का देहावसान हो गया है जो कि बहुत ही दुखद खबर है. वर्ष के अंत में यह एक और बड़ा झटका है, ना जाने क्यों यह साल कलाकारों विशेषकर गायन विधा से जुड़े लोगों के लिए बहुत ही अशुभ रहा है. पंडित रविशंकर जी का यूँ गुजर जाना एक आघात है पूरी शास्त्रीय परम्परा पर और भारतीय संगीत पर. भारतीय संगीत के मनीषी को नमन............. फोटो सौजन्य Dr Akash Dutt Dubey

अचानक मुझमे असंभव के लिए प्राप्ति जागी

रेल  से गुजरते हुए सुबह की नर्म धूप और वो भी जाड़े की, पहाड़ों पर धूप की आभा मानो उन रूखी- सूखी पहाड़ी चोटियों को सुनहरा बना रही थी, धूप के कतरें मानो किसी ने उन पर चून-चून कर बिछा दिए हो और कही से उग आये छोटे-मोटे पेड़ हरेपन को दिखलाते हुए इठला रहे हो. यह रेल धीमे-धीमे रेंगती जा रही है और एक शहर जिसका नाम अजमेर है- जो ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का शहर है, जहां से कोई कभी खाली हाथ नहीं गया, जिन्होंने हरेक की झोली भरी है,  गुजर रहा है. जब भी किसी परिचित या अपरिचित शहर से यूँ गुजरता हूँ तो आसमान देखने की जिद के साथ मै दूर फैलते जा रहे शहर के विस्तार को भी देखता हूँ, और खोजने की कोशिश करता हूँ कि क्या कही उस भीड़ में इंसान अभी बाकी है, क्या इंसानियत बाकी है, क्या रिश्तों की मिठास और संवेदनाएं बाकी है........ऐसे ही इस समय महसूस कर रहा था जब एक बेहद सर्द रात के बाद  ठन्डे हो चुके लोहे पर रेल के पहिये गुजर रहे थे. आवाजों के शोर में, भयानक कोलाहल में इन पहाड़ियों को देखना सुखद लग रहा था- जब सूरज बस उगा ही था और अपनी पहली रश्मि किरणे इन पहाडियों पर छिटक कर गर्म होता जा रहा था.......बेजान सी पडी पहाडि

राजघाट पर बुश का कुत्ता छी छी छी- यश मालवीय

राजघाट पर बुश का कुत्ता छी छी छी किसके हाथ तुरुप का पत्ता छी छी छी राजघाट पर बुश का कुत्ता छी छी छी गांधी जी की रूह रो रही सूने में अपने तन का खून धो रही सूने में मनमोहन ने टेका माथा छी छी छी तुम ही माई बाप, सभी ने गाया है नरमुंडों की माला पहने आया है उसकी कुर्सी, उसका हत्था छी छी छी इसको उसको सूंघ रहा सन्नाटे में सरकारी पूंजी है सैर सपाटे में कड़ुआ हुआ शहद का छत्ता छी छी छी ऐश महल में, अर्थ व्यवस्था घाटे में आँसू भड़ी गरीबी गीले आटे में उसकी पौबाड़ा अलबत्ता छी छी छी होली पर हल्की सर्दी है, गर्मी है बातचीत में देखो कैसी नरमी है पोछे नहीं पसीना सत्ता छी छी छी भरी सुबह रोशनी हुई चितकबरी है धड़ से अलग अहिंसा वाली बकरी है धूप के सिर पे छांव चकत्ता छी छी छी जनगणमन की सुबह कहो क्या शाम कहो बजट बीच मेहमानवाजी राम कहो बिना बात का बोनस भत्ता छी छी छी सच्चाई के सिर पर भारी बक्सा है मंहगे होटल में भारत का नक्सा है राशन पानी कपड़ा लत्ता छी छी छी अपनी कोई शक्ल नहीं आइने में आग नहीं बस धुआँ भरा है सीने में संविधान कागज का गत्ता छी छी छी

और लो एक बार फ़िर एफडीआई

मेरे घर के पास किराने वाला पूछ रहा है इसका मतलब क्या ? अभी एक सब्जी वाला भी पूछकर गया कि भैया ये दस किलो मैथी बिकी नहीं सारे मोहल्लों में घूम लिया हूँ क्या कोई सरकार या एफडीआई वाला इसे ले लेगा क्या, ताकि मै घर जाते समय दूध और बाकी सामान ले जाऊं घर पर बीबी-बच्चे राह तक रहे होंगे!!!!! अब मै क्या कहू मेरे पास कोई जवाब नहीं है.!!!! कल सुषमा जी ने आगाज़ कर दिया था कि हम आपको मनाकर जीतना चाहते है हराकर नहीं..........तो अगर प्रस्ताव गिरता है तो किसकी गलती और बसपा और सपा ने अपनी औकात दिखा दी है. सोनिया जी ने हमेशा की तरह तरकश में रखा सीबीआई का तीर सम्हाल कर रखा ही है ना वक्त - बेवक्त के लिए...........बस अब भुगतो. कुल मिलाकर एक ही बात समझ आई कि बस सब चोर है और सब शातिर है और इस देश की जनता का भला तो कोई नहीं चाहता बस सबको अभी तक "एक्सपोर्ट वाले माल"का चस्का है और स्विस बेंक दिखता है बाकी तो अब राम ही राखे. खूब भन्ना रहे थे ना मौन मोहन सिंह पर लो देख लो कि कितनी राजनीति सीख गये है और कितना प्यारा "गेम" खेलते है.......दो बड़े दलों को प्यार से बाहर करवा

ये कहीं चमन को जला न दे

मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब, मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे   मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी, इसी रौशनी से है ज़िंदगी मुझे डर है ऐ मेरे चाराग़र, ये चराग़ तू ही बुझा न दे   मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चाराग़र ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दे मेरा अज़्म इतना बुलन्द है के पराये शोलों का डर नहीं मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे   -शकील बदायूँनी

तुम्हारे लिए.............सुन रहे हो..............कहाँ हो तुम............

सच तो यह है कुसूर अपना है चाँद को छूने की तमन्ना की आसमा को जमीन पर माँगा फूल चाहा कि पत्थरों पे खिले काँटों में की तलाश खुशबू की आग से माँगते रहे ठंडक ख्वाब जो देखा चाहा सच हो जाये इसकी सजा तो मिलनी ही थी. - जावेद अख्तर

तुम्हारे लिए.............सुन रहे हो..............कहाँ हो तुम............

जिधर जाते है सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता मुझे पामाल* रास्तों का सफर अच्छा नहीं लगता गलत बातों को खामोशी से सूनना, हामी भर लेना बहुत फायदे है इसमे मगर अच्छा नहीं लगता मुझे दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है किसी का भी हो सर, कदमों में अच्छा नहीं लगता बुलंदी पर इन्हें मिट्टी की खुशबू तक नहीं आती ये वो शाखें है जिनको अब शजर** अच्छा नहीं लगता ये क्यों बाकी रहे आतिश-जनों***, ये भी जला डालो कि सब बेघर हों और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता . -जावेद अख्तर *पामाल- घिसे-पिटे **शजर- वृक्ष ***आतिश-जनों- आग लगाने वाले

३ दिसंबर के बहाने गैस पीड़ित भोपाल

मप्र के भोपाल में उत्सवों की श्रृंखला में लों फ़िर आ गया एक और ३ दिसंबर पर ढाक के तीन पांत......................फ़िर अखबार रंगे जायेंगे मृतात्माओं को याद किया जाएगा, एंडरसन का पुतला फूँका जाएगा.........सरकार को गाली दी जायेगी, रैली धरना और प्रदर्शन , मेरे एक मित्र है सुशील जो बेहद ईमानदार से कह रहे थे कि वे कही भी रहे पर ३ दिसंबर को भोपाल में रहते है हालांकि उन्होंने सदिच्छा से कहा था आज तक वे विज्ञान के "जन विज्ञान वाले मार्ग" पर चल रहे है एक साधू सा जीवन जीने वाले सुशील भाई की प्रतिबद्धता पर सवाल ही नहीं है परन्तु जो लोग ३ दिसंबर के नाम पर धंधा कर रहे है १९८४ से उनका क्या....... मुझे लगता है कि अब भोपाल की छबि बदलने की जरुरत है और गैस पीड़ितों को जो भी अनुदान मिला या पेंशन मिल रही है वो....पर्याप्त है जिन्हें मरना था वो मर खप चुके है, रिश्तेदारों के आंसू भी सूख चुके है अब हो रही है तो सिर्फ राजनीती और अनुदान प्राप्त करने की लंबी गहरी चालें................बस यही सच है इसलिए मुझे लगता है कि अब आंसूओं को पोछ कर (वैसे भी आंसू सूख चुके है और पुतलियाँ पथरा गई है) एक नए कल की ओर देख

गरीबी बड़ी बुरी चीज है आप सब भी जानते है - रामसखी........

ये है रामसखी ..............ग्यारह साल की पचास रुपये रोज मिलते है और पांच से छः घंटे तक सर पर बोझा उठाकर चलती है गालियाँ खाती है सो अलग............बरात जनवासे पहुँच जाती है तो लोग दुत्कार देते है रास्ते भर पानी नहीं पीती और आख़िरी में में एक कप चाय की उम्मीद में बैठी रहती है बरात के दरवाजे पर कि कोई एक कप चाय पिला देगा या कुछ खाना खिला देगा..............स्कूल....... .अरे वो तो बड़े लोग जाते है हमें क्या ...........हाँ कभी कभी ठेकेदार दस पांच रूपया दे देता है तो फुल्की खा लेती है चटपटी अब अंदर जाकर पार्टी में नहीं खा सकते ना साहब........पचास रूपये..... बाबू ले लेते है कभी घर का सामान ले आते है और कभी पौवा ...........साहब अगर बरात चलते में लाईट बूझ गई तो बाराती के साथ ठेकेदार भी बहुत गाली देता है माँ-बहन की, और फ़िर आठ दिन तक काम पर नहीं बुलाता तो घर में बाप-माँ भी गाली देते है भाई भी मारता है खूब, अब मै क्या करू मै कोई कारीगर नहीं और फ़िर वजन से सर दुखता है.... इन दिनों तो बहुत ठण्ड है साहब.... गरम सूटर भी नहीं है और बाराती देर तक नाच-गाना करते है और बड़े लोग बैंड वालों को

एक दिन ड़ा दिनेश कुशवाह और ड़ा प्रहलाद अग्रवाल जी के साथ रीवा में

यह ३० नवंबर की दोपहरी थी जब मैंने प्रिय मित्र, सखा और बंधू ड़ा दिनेश कुशवाह को रीवा में फोन किया और पूछा कि क्या वो रीवा में है तो बोले अरे जहां भी हो तुरंत चले आओ यहाँ ड़ा प्रहलाद अग्रवाल जी भी आये हुए है जिन्हें दिनेश प्यार से आचार्य कहता है, मै वेद के साथ भागा और जा पहुंचा विवि में हिन्दी विभाग जहां मै दर्जनों बार आया हूँ. दिनेश ने बहुत गर्मजोशी से गले लगाकर स्वागत किया और आचार्य जी से परिचय करवाया. बाद में अपनी एक कविता मेरे लिए एवं आचार्य जी के लिए पढ़ी "बडबोले" बहुत ही अदभुत कविता ढेरों सन्दर्भ, प्रसंग और मौजूदा हालात पर कचोट करने वाली बेहतरीन कविता. फ़िर गपशप, और अपनी पुस्तक "इसी काया में मोक्ष" दी, साथ ही जनपथ का ताजा अंक, और "अभिनव कदम" के भाग २७/२८ जो किसान आंदोलन पर केंद्रित थे. दो घंटे तक बहस, साहित्यिक गपशप और फ़िर गर्मागर्म पकौड़े और चाय वाह..........हाँ आचार्य जी के सुपुत्र जिन्होंने दिनेश के साथ ही हाल ही में पीएचडी पूरी की ड़ा उज्जवल अग्रवाल से मिलवाया. उज्जवल की भारतीय ज्ञानपीठ से हाल में किताब भी आई है. कितना कुछ

प्रदेश टू डे में प्रकाशित आज मेरा व्यंग्य ........

प्रदेश टू डे में प्रकाशित आज मेरा व्यंग्य ........

मिथिलेश राय की एक प्रभावी कविता "हम ही है"

  ‎        Mithilesh Ray की एक प्रभावी कविता. अच्छी बात यह है इस युवा कवि से मेरा बहुत पुराना परिचय है और इसी ने संभवतः मेरा नाम आज से पन्द्रह साल पहले चाचू रखा था, बचपन में इसकी कवितायें हमने चकमक में छापी है लगातार.........एक बार दिल्ली में मुझसे मिलने आया था, आजकल यह प्रभात खबर में संपादन डेस्क पर है और उम्दा काम कर रहा है. बधाई मिथिलेश कि यहाँ -वहाँ छप रहे हो......अब किताब की तैयारी करो. Ashok Kumar Pandey विश्वविद्यालय से असुविधा मिल ही चुकी है बस अब किताब ही आना चाहिए.......बहरहाल...बधाई.... "हम ही है" हम ही तोडते हैं सांप के विष दंत हम ही लडते हैं सांढ से खदेडते हैं उसे खेत से बाहर सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं खेत को अगोरते हुये निहारते हैं चांद को रात भर हम ही हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर हम ही रस्सी पर नाचते हैं देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर हम कौन हैं कि करते रहते हैं सबकुछ स

एक आदमी का गुस्सा.....

अगर इस बार संसद में सांसद नहीं बैठे और काम नहीं किया तो इन्हें हम जैसे लोगों को नैतिकता के उपदेश देने का कोई हक नहीं है साथ ही देश के सुप्रीम कोर्ट से निवेदन है कि इनकी सदस्यता सदनो से समाप्त कर दे ......सबके सब चैनलों पर बैठ कर ज्ञान बघार रहे है परन्तु संसद में बैठकर काम नहीं करना चाहते...............हद है मक्कारी और राजनीति की और बकवास करने की चाहे फ़िर वो भाजपा हो कांग्रेस हो या सपा हो या तृणमूल या बसपा.................सारे मक्कार रात में चैनलों पर बैठकर बकवास करते है और एंकर और मीडिया के लोग भी फ़ालतू के सवाल करते है बजाय इन्हें सदन में बिठाने के घेर-घार कर ले आते है. इनका चैनलों पर बहिष्कार किया जाये, मीडिया कवरेज देना बंद कर दे और सुप्रीम कोर्ट इनसे पूछे कि क्या किया, या फ़िर सदन की कार्यवाही में लगे हमारे श्रम के रूपयों को इनसे वसूला जाये ....... सब लाइन पर आ जायेंगें...........माननीय मुफ्तखोर............ एफ डी आई आदि सब चुतियापा है हम ऐसे लोगों को बरगलाने के लिए, साले मुफ्तखोर, काम नहीं करते साल भर और दिल्ली में बैठकर हमपर राज करना चाहते है और जे मीडिया वाले

आओ कसाब को फांसी दे - अंशु मालवीय

उसे चौराहे पर फाँसी दें ! बल्कि उसे उस चौराहे पर फाँसी दें जिस पर फ्लड लाईट लगाकर विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया गाजे-बाजे के साथ कैमरे और करतबों के साथ लोकतंत्र की जय बोलते हुए उसे उस पेड़ की डाल पर फाँसी दें जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान उसे पोखरन में फाँसी दें और मरने से पहले उसके मुंह पर एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें उसे जादूगोड़ा में फाँसी दें उसे अबूझमाड़ में फाँसी दें उसे बाटला हाउस में फाँसी दें उसे फाँसी दें.........कश्मीर में गुमशुदा नौजवानों की कब्रों पर उसे एफ.सी.आई. के गोदाम में फाँसी दें उसे कोयले की खदान में फाँसी दें. आओ कसाब को फाँसी दें !! उसे खैरलांजी में फाँसी दें उसे मानेसर में फाँसी दें उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर फाँसी दें जिससे मजबूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता कानून का राज कायम हो उसे सरहद पर फाँसी दें ताकि तर्पण मिल सके बंटवारे के भटकते प्रेत को उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक......और पूछें जमीनों को चबाते, नस्लों को लीलते अजीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में क्यों भटकता था बेटा तेरा किस घाव का लहू