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Showing posts from June, 2011

रंग बिरंगे अलबम

घर छोडकर शहर आते हुए जरूरी सामान के साथ रख लेते है अपनी यादे, अतीत और जड़ो से जुड़े होने के एहसास छोटे से कमरे में नीम अँधेरे के साथ या कि खूब बदी सी हवादार बैठक में या लाकर वाले बड़ी सी अलमारी में रख देते है रंग बिरंगे अलबम काम से लौटकर अवसाद के क्षणों में दर्द भरे विरोधाभास और तनावों में जीवन मूल्यों और संवेदनाओं को आहत होते देख खोल देते है हम रंग बिरंगे अलबम परिचित- अपरिचित के सामने बिखेर देते है तस्वीरो का पुलिंदा हर तस्वीर के साथ जुडी स्मृतिया यकायक भावो, शब्दों और टींस के साथ निकल पडती है कमरे में बिखर जाती है माँ पिता, चचेरे ममेरे भाई- बहन जिंदगी के विभिन्न सोपानो पर बने दोस्त साथ में पढ़ी हुई लडकिया जीवंत हो उठते है सब कमरे के फर्श पर अवतरित होने लगते है सब जयपुर, सूरत, गौहाटी, त्रिवेंदृम, बद्री, केदार, रामेश्वरम और वैष्णो देवी ताज महल, कुतुबमीनार और लाल किले के साथ खिचाईतस्वीरो के साथ खीज उठती है अजंता एलोरा ना देख पाने की खेत कूए और बड़े से दालान वाला घर तस्वीरो में देखकर लगता है यह कमरा कितनी छोटी और ओछी कर देगा जिंदगी को ? दर्द भरी मुस्कराहट होठो पर आकार गुम हो जाती है बोलते र

आत्माओं के सामूहिक वधस्थल

Ashok Kumar Pandey मेरे परम स्नेही मित्र कहते है कि सरकारी दफ्तर "आत्माओं के सामूहिक वधस्थल" है और इसमे सब शामिल है और फ़िर अब तो मुझे इस विशेषण के बाद यह कहना पडेगा कि सामूहिक जौहर बिना या Forced Killing बिना कुछ नहीं हो सकता, सारे एनजीओ, सरकारी और राजनितिक लोग जो इस देश का भविष्य तय करते है, को अब पीछे हट जाना चाहिए और फ़िर देखते है कि जनता जनार्दन क्या करती है
जितना अनर्गल प्रलाप और बकवास सरकारी दफ्तरों में होता है लीपापोती होती है उसके सिवाय कही भी हो नहीं सकता, गधो और ढोरो को भी यदि भर्ती कर लिया जाता तो हिन्दुस्तान के हालात आज से बेहतर होते कम से कम कुछ तो दीखता, हम कैसे समय में रह रहे है और कैसे बर्दाश्त कर रहे है तंत्र और प्रक्रियाओं के नाम पर सिवाय मूर्खता के कुछ नहीं होता. सिवाय राष्ट्रीय शर्म के हमारे पास कुछ नहीं है कि डूब मरे
जब बहुत ही घटिया काम के हालात हो, कोइ भी व्यवस्थाएं ना हो, जो विकास के विभाग है उनके दफ्तरों में पानी चु रहा हो और कर्मचारी हाथो हाथ धर के बैठे हो, पुरे समाज के लोगो का रिकार्ड भीग रहा हो तो हम क्या उम्मीद करे कि ये कर्मचारी सबका भला कर देंगे जो अपनी देखभाल नहीं कर सकते वो देश समाज की क्या करेंगे ? शर्मनाक है ऐसे देश में रहना और देशभक्ति के कोरे गुण गाना....अब कुच्छ होने की संभावना खत्म हो गयी है. देश में कुछ सुधर नहीं सकता, सबसे पहले सरकारी विभागों और उसमे बैठे लोगो को निपटाये बिना कुछ नहीं हो सकता, Abhishek Mohanty सही कहता था देश का सबसे बड़ा दुश्मन LBSNAA है और जब तक वहाँ से चीजे नहीं सुधरती हम कुछ नहीं खत्म कर सकते ना भ्रष्टाचार ना राजनीती ना तंत्र ना स्थितिया ना लोगो की हालत, मुझे लगता है कि यही सही समय है जब सब निपटा दो.........

तंज कहे या व्यंग

फेसबुक मेनिया एक व्यंग के रूप में परिणित होता जा रहा है और एक तंत्र में काम करके में देख रहा हूँ कि कितनी लाचारगी है और बेचारगी है अक्ल से मंद और बुद्धी से लठ्ठ लोग जिम्मेदार पदों पर आसीन है जिनके लिए लक्ष्मी ही सर्वेसर्वा है बाकी सब गौण अब आप इसे तंज कहे या व्यंग पर हकीकत तो हकीकत है बस यही दुआ करता हूँ कि सच लिखू और लिखता रहू...

फेसबुक मेंनिया

अचानक सबको पता चला कि वो बहरा था जब नए अधिकारी ने जमकर डाट लगाई तो खडा हो गया और बोला जी श्रीमान जी में कल ही फाईल भिजवा देता हूँ सारे कागजात नस्ती करके, तब समझ में आया कि जिले के प्रमुख विभाग के अधिकारी पुरे ३५ बरस् काम करते रहे लोक सूचनाओं के निराकरण का और सेवा निवर्ति के करीब पहुंचकर भी एक केस नहीं हल हुआ बस शासन को दोष देते रहे पर आज पोल खुलने पर भी वही डटे है मजाल कि कोइ कुछ उखाड ले(फेसबुक मेंनिया)

फेसबुक मेंनिया

जिंदगी भर अपनी खेतीबाडी सम्हालते रहे नौकरी भी चलती रही माहवार बोनस के रूप में तनख्वाह आती रही बच्चे पढ़ लिख गए अब सवाल यह है कि बेटे तो राजधानी में मार्केट की गुलामी कर रहे है बेटिया दहेज का रूपया ससुराल में उड़ा रही है, अब फिक्र है तो इनको कि अब ये खेती कौन करेगा नौकरी भी करना मुश्किल हो रहा है, ससुरे कलेक्टर ने अलग नींद उड़ा दी है सुना है रिश्वत का धंधा अभी शुरू नहीं किया है अब आगे क्या होगा (फेसबुक मेंनिया)

फेसबुक मेंनिया

गत पच्चीस वर्षों की शासकीय सेवा में गुलामी उनके तन मन में बस गयी थी जिले के सबसे बड़े अधिकारी होने के बाद भी उन्हें प्रश्न समझ नहीं आते थे या तो वे मुर्ख थे या बनते थे ताकि काम से मक्कारी आकर सके, अपने से युवा अधिकारियों से गालिया खाना उनकी किस्मत में बदा था और फ़िर वो गर्व से कहते ऐसे कई कलेक्टर हमने निकाल दिए है क्या करेगा ज्यादा से ज्यादा निलंबित, बस मुझे आज पता चला कि रिश्वत के रूपयों ने उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है -शर्मनाक(फेसबुक मेंनिया)

फेसबुक मेंनिया

प्रशासनिक सेवा के वो जिमीदार अधिकारी था वो बस एक ही बात उसने सीखी थी कि धमकाकर सबसे काम लेना, अक्सर बैठक में अपनी नाक से गुमडे निकालता रहता था और बार बार बैठने की स्टाइल बदलता रहता था जैसे बवासीर का मरीज हो, वो सिर्फ बीबी के फ़ोन पर डरता था और बाकी तो सबसे कहता था कि शासन को लिखकर निलंबित करवा देगा, जिला उसके अधीन था और बाकि सारे सरकारी नौकर उसके अधीन और वो अपनी नाक के जो बहती रहती थी(फेसबुक मेंनिया)

"यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है"

आज एनजीओ पुराण के १०८ अध्याय पुरे हुए अब लगता है कि या तो बंद कर दू या फ़िर चालु रखू कुछ दोस्तों को बुराजरूर लगा पर यह सब बेहद जरूरी था और इसलिए भी कि देश में एनजीओ के नाम पर क्या हो रहा है यह सब पारदर्शिता के नियमों के अनुसार भी था अब आप लोग तय करे कि सही या गलत क्या था, मुआफी और प्यार के साथ, इस बात के साथ कि "यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है" 26 Jun 2011....... 8.16 PM

एनजीओ पुराण 108

आर्यसमाजी था वो वही पढ़ा और वही लग गया, जब आत्मा कुलबुलाई तो सब कुछ छोडकर समाजसेवा में लग गया दूर देश् में निकल गया और फ़िर अपना बाजा बजाते बजाते कब उसके हाथो में दुकानदारों का बैंड आ गया पता ही नहीं चला फ़िर जिंदगी दूकान और दूकान जिंदगी बन गयी धीरे धीरे उत्साह बढ़ाना उसका काम हो गया बस आजकल वो सबका बाजा बजाता है देशभर में उसकी तूती बाजे में बोलती है और वो झकाझक है वैसा ही जैसा था(एनजीओ पुराण 108)

एनजीओ पुराण 107

सुबह रोज मंदिर जाना , सारे बाबाओं के लिए शहर भ्रमण पर इंतज़ाम करना, अखबार के लिए काम करना, सरकारी ठेके लेना और फ़िर दूकान का काम इतना थक जाता है कि वो परिवार को समय नहीं दे पाता, बड़े शहर में दो बड़े मकान और शहर से दूर जमीन और फ़िर यार दोस्तों के ढेर सारे जायज- नाजायज काम, अब दूकान खोली है तो उसे चलाने के लिए खटकरम तो करना पड़ेंगे ना मजाक में वो कहता है में धार्मिक किस्म का कम्युनिस्ट हूँ (एनजीओ पुराण 107)

एनजीओ पुराण 106

पिछले पन्द्रह वर्षों से वो दूकान का सर्वेसर्वा था और इस दौरान उसने तीन आलीशान मकान और तीन चार गाडिया ले ली, बच्चे विदेश में थे और अब उसका ग्लैमर खत्म हो रहा था और वो बस शराब के लिए रूपया बचाता रहा कि नई दूकान पर जाकर "मामला फिट " करने में टाईम तो लगेगा ना, पता चला कि उसने नई दूकान पर सेटिंग कर ली है और नए मालिक के वफादार को गच्चा देकर निकल गया है अब पता चला कि बैंक अकाउंट में गडबड निकली, जय हो(एनजीओ पुराण 106)

एनजीओ पुराण 105

वे दोनों मरियल सी काली कलूटी औरते सदियों से मानो उस दूकान पर नागिनो के समान फन फैलाए बैठी थी और अब हालात ये थे कि कोइ उनहे निकाल भी नही सकता था क्योकि क्या करेंगी बाहर जाकर, ना दम, ना कौशल ना योग्यता बस अपनी घटियापन और फ़ालतू दलीलों से वो दूकान पर किसी एक काम को लेकर सदियों से अभी तक निपटा रही है और सब पर उलजुलूल फिकरे कसती रहती है भगवान बचाए इनसे (एनजीओ पुराण 105)

एनजीओ पुराण 104

वो बता रही थी कि साहब आये थे फील्ड देखने और सारे गांव वालो से अंगरेजी में बात कर रहे थे बाद में दूकान वालो पर बरस पड़े कि उन्हें इतना रूपया दिया पर गांव वाले कुछ बोल नहीं पाते फ़िर क्या था दुकानदार और साहब गुथम्गुत्था हो गए, आखिर ट्रेक्टर बेचने वाले को समाज गांव और लोग या समुदाय की क्या समझ बस ऊपर अपने होने से सब चल रहा है भगवान और रिश्तेदारों का शुक्र है(एनजीओ पुराण 104)

फ़ैज़ अहमद फैज़...रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

फ़ैज़ अहमद फैज़... रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ एक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुश’फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें ये आख़िरी शम्में भी बुझाने के लिए आ (मरासिम=agreements/relationshi ps, रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया=customs and traditions of the society.. सबब=reason, ख़फ़ा=angry.. पिन्दार=pride… लज़्ज़त-ए-गिरिया=taste of sadness/tears… महरूम=devoid of, राहत-ए-जाँ=peace of life ...दिल-ए-ख़ुश’फ़हम=optimistic heart, शम्में=candles)

एक भाषा हुवा करती है -उदय प्रकाश

) एक भाषा हुवा करती है जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ 'आंसू' से मिलता - जुलता कोई शब्द हर बार बहने लगती है रक्त की धार एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं और क्रन्तिकारी सब शर्माते हैं जिसके व्याकरण और हिज्जे की भयावह भूलें ही कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं बहुत अधिक बोली - लिखी, सुनी - पढ़ी जाती, गाती - बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंखार, सबसे काहिल और सबसे थके - लूटे लोगों की भाषा अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब, लफंगों की जनसँख्या की भाषा वाह भाषा जिसे वक़्त जरुरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंडुवे, रंडिय और कुछ जुनूनी नौजवान भी बोला करते हैं वाह भाषा जिसमें लिखता हुवा हर इमानदार कवि पागल हो जाता है आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं 'ईस्वर' कहते ही आने लगती है जिसमें बारूद की गंध जिसमें पान की पिक है, बीडी का धुवाँ, तम्बाकू का झार, जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के महंगे ल

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिल नवाजी की न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज नजरो से मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाएं तेरी बातों पर न जाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज नजरों से चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से मुझे भी लोग ये कहते हैं कि जलवे पराए हैं मेरे हमराह की रुसवाइयां है मेरे माजी की तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई यादों के साएं में चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम ताल्लुफ रोग हो जाए तो उसे भूलना बेहतर ताल्लुक बोझ बन जाए उसे तोड़ना अच्छा वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुन्किन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं (साहिर लुधियानवी)

चिथड़ा हो चूका डाकिया

आंसू और पसीने और खून से लिथड़ी एक भाषा पिछली सदी का चिथड़ा हो चूका डाकिया अब भी जिसमें बांटता है सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिठियाँ वाह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सुचना संजाल - उदय प्रकाश

चिथड़ा हो चूका डाकिया

आंसू और पसीने और खून से लिथड़ी एक भाषा पिछली सदी का चिथड़ा हो चूका डाकिया अब भी जिसमें बांटता है सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिठियाँ वाह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सुचना संजाल - उदय प्रकाश

हिंदी कविता का छत्तीसगढ़

हिंदी कविता का छत्तीसगढ़ १ मई २०१० को महेश वर्मा से परिचय शुरू हुआ था. तब आलोक पुतुल के रविवार और शिरीष के अनुनाद पे छपी मेरी कविताओं की बात करता हुआ एक ई- मेल आया था. रविवार पे उससे पहले उनकी कवितायेँ भी आयी थी जो उनके बताने से पहले मेरे देखने से चूक गयी थीं. वहां कवितायेँ पढ़ते ही मैंने उनसे प्रतिलिपि के लिए मांगीं . अगस्त २०१० से वे १३ कविताएँ मेरे पास स्वीकृत पडी हैं. इस दौरान उनकी कवितायेँ धीरे धीरे प्रकाशित होने लग गयी हैं. ग्वालियर में उनसे मिलना भी हुआ. और पिछले कुछ महीनों में उनके ‘परस्पर’-आतंक का सामना भी हो ही रहा है. महेश के बारे में यह कहना गलत होगा कि उनकी तरफ ध्यान नहीं गया आदि वे खुद आलसी और टालू जो रहे खुद उनके शब्दों में. यूं भी आप किसी शीर्षस्थानीय टाईप पर २० पेज लिखने को तैयार है तो वह भी आप पर २० पेज लिख ही देगा वाले माहौल में ध्यान नहीं जाना या किसी के काम के बारे में चीख पुकार नहीं मचाया जाना उसे ज्यादा विश्वसनीय ही बनाता है यह सबक समझ आ रहा है. अभी एक सुखद संयोग से उनकी पूरी पाण्डुलिपि पढ़ रहा हूँ तो अपने जैसा-तैसा कवि होने का संत्रा

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आज सुबह से बारिश हो रही है मन करता है कि भरे पानी में बाहर निकल जाऊ और गाता रहू.........."बावरा मन देखने चला एक सपना " पर हम जब बड़े हो जाते है तो अपना छोड़कर लोक लाज की ज्यादा फिक्र पालते है जबकि लोक हमारे बारे में सोचते ही नहीं है फ़िर क्यों में बाहर पानी में जाने से डर रहा हूँ और किससे डर रहा हूँ.........पर काश आज वो साथ होते...........तो बात ही कुछ और होती...."इस सयानी भीड़ में बस हाथो में तेरा हाथ हो......"(फेसबुक मेनिया) २२ जून २०११ सुबह ९ बजे सीहोर

आखिरी दिनों में पिता

आखिरी दिनों में बिना आँखों के भी जिंदगी को पढ़ -समझ लेते थे कापते हाथो से भी बताई जगह पर हस्ताक्षर कर देते थे छुट्टी की अर्जी मेडिकल के बिल बैंक का लोन ज्वाइंट अकाउंट का फ़ार्म आखिरी दिनों में पिता की आँखें काम नहीं कर पाती थी में, माँ भाई उन्हें देखते थे और पिता देखते थे हमारी आँखों में आशा, जीवन, उत्साह अस्पताल के कठिन जांच प्रक्रिया लेसर की तेज किरणे पर आँखों का अन्धेरा गहराता गया पिता तुम आखिरी दिनों में कितना ध्यान रखते थे हमारा स्कूल से आने पर पदचाप पहचान लेते थे हमारे साथ बैठकर रोटी खाते और हाथों से टटोलकर हमें परोसते माँ के आंसू की गंध पहचानकर डपट देते थे माँ को पिता का होना हमारे लिए आकाश के मानिंद था ऐसा आकाश जिसके तले हम अपने सुख दुःख ख्वाब, उमंगें उत्साह और साहस भय और पीड़ा भावनाए और संकोच रखकर निश्चित होकर सो जाते थे पिता हर समय माँ से हमारे बारे में ही बाते करते थे हमारी पढाई, हिम्मत तितली पकडना पतंग उड़ाना कंचे खेलना बोझिल किताबे टयुशन और परीक्षाए नौकरी और शादी माँ कुछ भी नहीं कहती तिल-तिल मरता देख रही थी घर से अस्पताल अस्पताल से प्रयोगशाला प्रयोगशाला से घर एक दिन रात के

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इस ढलती शाम को एक पत्ती अचानक तेज हवा में पेड़ से छिटककर गिर गयी, हवा में पानी की गीली गीली बुँदे भी थी जो पत्ती के इर्द गिर्द लिपट गयी जब थोड़ी सी हवा शांत हुई तो पत्ती की एक अनवरत यात्रा शुरू हो गयी, अब देखना है कि ये अवागर्द और उद्दाम वेग से रूकी हुई यात्रा कहाँ ठहरती है और किस मोड पे जा के समाप्त होती है, पानी के बोझ और अपने अस्तित्व के बीच जूझती ये पत्ती समझा रही है अपने आप को कि माया महाठगिनी हम जानी(फेसबुक मेनिया)

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जब घर जाता हूँ तो ओजस मेरा भतीजा कहता है काका अगर तू अगली बार लेपटोप लेकर आया तो में इसे फेंक दूंगा क्योकि तू इससे ही चिपका रहता है, मुझे अहसास हो रहा है कि मुझे समय अपने लोगो को देना चाहिए क्योकि वही तो है सब जो कल मुझे समय देंगे और फ़िर अब किसे देना है वैसे भी यह समय बहुत पुराना हो गया है और फ़िर दुनिया से जुडकर भी क्या मिलेगा (फेसबुक मेनिया)

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कल रात बारिश हुई थी आवाजें भी थी और सुबह पानी की मोटी मोटी बुँदे सारे आँगन में पडी थी यहाँ वहा बिखरी सी, लगा कि सारी उमस के साथ ताप भी बटोर ले जायेंगी पर कहा ताप जाता है दिल दिमाग से अपना ही कुछ है जो दरकता रहता है और ऊर्जा के बजाय ताप मिलता है बारम्बार इसी में पानी की बुँदे भाप की मानिंद उड़ जाती है और बचे रहते है तो निशाँ और कुछ गुनगुने से पछतावे जो एक आवाज के कलरव में खो जाते है(फेसबुक मेनिया)

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आज सुबह नाखून काटे तो याद आया कि अभी तो काटे थे इसका मतलब कि अब पाश्विकता ज्यादा बढ़ गयी है, एक पुराना निबंध याद आया" नाखून क्यों बढ़ते है" जिसमे लिखा था कि नाखून बढ़ना पाश्विकता की निशानी है, डर लगने लगा है कि यह बात गर सही है तो मुझे कुछ और सोचना चाहिए और इस झंझावात से निकल कर कुछ और करना चाहिए वैसे भी ये वो मकाम नहीं जिसकी तलाश थी(फेसबुक मेनिया)

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में तुम्हारे दर पर कुछ देने आया था लेने नहीं बाबू मोशाय...पर तुमने हमेशा की तरह बहुत ही नासमझी दिखाई और तब तक में लौट आया था ...तुम शायद अभी तक मुझसे वही उम्मीद कर रहे हो पर में, अब कहाँ लौटूंगा अब देर हो चुकी है और अब हिम्मत भी नहीं है कि फ़िर से लौट सकू, एक नदी में हम दोबारा नहीं उतरते ना? तुम अब पछताना नहीं सब भूल जाना dost थे ना, पता नहीं हम थे या भी नहीं.......???

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उस स्कूल में वो नया ही आया था प्राचार्य के पद पर और उसे जिम्मेदारी दी गयी कि देश के सबसे बड़े बोर्ड के अधिकारियों का निरीक्षण संपन्न करवा दे बदले में उन्हें एक -एक लाख नगद दे दे इस तरह से यह आज का महान स्कूल उस कस्बे का सबसे पहला राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त स्कूल बना और स्थानीय लोग कहते थे कि ये एस बी एस ई क्या होता है और बैंक का वो गबन अफसर इसका मालिक था(फेसबुक मेनिया)

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ढेर सारे औरते उस स्कूल को एक सदी से चलाते आ रही थी स्वभाव से बेहद चिडचिड़ी दुनिया जहां के अनुभवों से दूर और एक मठ में घेरा बनाकर प्रभु की भक्ति में लींन ये औरते अपने आप को सदी की बेहतरीन शिक्षा का वाहक बताती थी बस डंडे के जोर और रूपयों के दम से शिक्षा का व्यापार चलाकर इन्होने सिद्ध कर दिया था कि शिक्षा इस जाति की बपौती है और इनके अलावा और कोइ इस देश में काम नहीं कर सकता हाँ व्यापक जनमानस भी इस धारणा को मान बैठा था(फेसबुक मेनिया)

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उसके स्कूल में एक नवोदित शिक्षिका ने आत्महत्या कर ली थी पुलिस जांच में सब नोर्मल निकला, पर दबी जुबान से उसके मालिक से संबंधो के बड़े चर्चे थे बाद में वो स्कूल एक कोचिंग के मालिक को बेचकर भाग गया, बात आई-गयी हो गयी आजकल उस स्कूल में धंधा जम से हो रहा है, सारी चरित्रहीन औरते जो शहर में रात को धंधा करते पाई गयी थी आजकल नैतिक शिक्षा के साथ गहन विषय अध्ययन कराती है और मालिक एश करते है और बच्चे?(फेसबुक मेनिया)

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छोटे से कस्बे में 40X60 के एक प्लाट पर दो कमरे में स्कूल चालु किया था जब उसे बैंक से गबन के आरोप में निकाल दिया था आज वो देश के सबसे बड़े बोर्ड का स्कूल है जहा हर साल सेंकडो नोंइहालो को भर्ती करते है और फ़िर 12 साल बाद प्रोडक्ट बनाकर निकाल देते है अपंगो की भाँति आजकल वो भ्रष्ट पति पत्नी प्रदेश की राजधानी में दुकान चला रहे है अपने बेटो के साथ, सुना है कि अब वो प्रदेश भर में अपनी ब्रांच खोल रहे है(फेसबुक मेनिया)

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वो अभी आया और एक प्ले स्कूल का पर्चा थमा गया बोला अब ये करके देखता हूँ सारे तो धंधे कर लिए, क्या होगा में भी चार शिक्षित बेरोजगार ही पैदा करूँगा ना पर अब और क्या करू, और फ़िर ये स्कूल का धंधा नगद का है और बीबी है न अपने को क्या करना है, में सोच रहा था शिक्षा का अधिकार क़ानून और देश की शिक्षित पीढ़ी और ना जाने क्या पर मुझे नहीं पता कि अब सीजन शुरू होते ही कुकुरमुत्तों की तरह ये धंधे चालु हो गए है(फेसबुक मेनिया)

पिताजी को याद करते हुए...........

अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है "अंतिम दिनों में पिता" जो नईदुनिया ने छापी थी, आज इस दिवस पर पिता जी को याद करते हुए मन भर आता है, पिता जो आसमान के माफिक एक साया होता है मुझ पर से बहुत पहले ही उठ गया और हम भाई महरूम रह गए उस प्यार और अपनत्व की भावना के लिए, आज इस दिन पर उन्हें बेहद याद कर रहा हूँ.....अपने अकेलेपन के साथ (Father's Day, 19 June 2011 )

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कभी धूप तेज हो रही है कभी बादल आसमान को ढँक लेते है हवाओं का भी अपना क्रम है यहाँ, कभी मोटी मोटी बुँदे बरस रही है आंसूओ के समान और कभी ओले गिर रहे है दुखो के पहाडो के समान जिंदगी में क्या क्या होता है और हम क्या क्या देखते है बस दिखता नहीं है तो रास्ता और आगे का सफर जो किन मुश्किलों से तय होगा और किसके साथ, कैसी अनसुलझी कहानी है और नित नई पहेली है ये(फेसबुक मेनिया)

तुम्हारे लिए......................

तुम्हारे लिए...................... अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया

एनजीओ पुराण 103

पिछले तीन दशकों से वो दूकान के ही धंधे में है जब से साला फंड कम हो रहा है उसने अपनी बीबी को एल आई सी के काम में डाल दिया और उसके बहाने से सारे दुकानदारों का बीमा करता रहता है और इस तरह से उसके दुश्मन ज्यादा और दोस्त कम बचे है कहाँ तो वो लाल रंग का मुरीद था और अब केसरिया बालमा का सुर लगाता रहता है बस अब वो एड्स और इस तरह के काम के बहाने बीमा के ग्राहक ज्यादा ढूंढता है जय हो(एनजीओ पुराण 103)

एनजीओ पुराण 102

उसके चेहरे से ही वो नशे का आदी लगता था, मानो सदियों से सोया ना हो ढीला ढाला कुर्ता और लाल तरेरती हुई आँखे, क्या बोल रहा था और क्या समझ रहा था पता ही नहीं चला कि कब वो बातचीत से उठकर चला गया, बताया यह गया था कि वो उस जिले में सबसे बड़ी दूकान का समन्वयक है और पांच छः परियोजनाओं का काम देखता है और तो और वो किसी तरह से मानसिक रूप से ग्रस्त भी लग रहा था(एनजीओ पुराण 102)

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आज जब उसने देखा कि जन शिकायत निवारण शिविर है तो वो जोश में चला गया तपती धूप में बैठे लोग, महिलायें और बच्चे अधिकारियों के आगे हाथ पसारे बैठे थे, कार्यवाही में सारे प्रकरण ऊपर अग्रेषित कर दिए थे बेचारे जिले के अधिकारी ने! अब चाय पानी और नाश्ते का दौर था बढ़िया रहा शिविर ? यार वो तुम्हारे खेत में आम बड़े मस्त है दो एक बोरा भेज देना क्या है कि बच्चे खा लेंगे राजधानी में मिलते नहीं फ़िर तार खींच देंगे (फेसबुक मेनिया)

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बड़ी हसरतो से वो इस सिस्टम में काम करने आया था एक लंबे और महंगे प्रशिक्ष्ण के बाद उसने जिले में ज्वाइन किया था पर पहले ही दिन अधिकारी ने कहा कि बेटा जबरन अपने ऊपर जिम्मेदारी मत लेना और जब कही बैठक में जाओ तो कुछ भी मत बोलना वैसे भी जाने की जरुरत नहीं है यह सरकारी नौकरी है बस आकर चिड़िया बना दो हो गयी नौकरी, सारी बदलाव की तमन्नाएं अधूरी रह गयी क्रान्ति कहा से आती है?(फेसबुक मेनिया)

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तैतीस करोड हिंदू देवता, ईसाई, सिख और मुसलमानों के और छोटे मोटे धर्मो के देवता मिलाकर चालीस करोड तो हो ही जायेंगे यानी कि एक भगवान के हत्थे पांच इंसान आयेंगे ओह तभी समझ में आया कि इस देश में भगवान है जो सबको चला रहा है वरना सरकार में दम नहीं है. जब से वो सरकारी नौकरी करने लगा था उसे लग रहा था कि आखिर मक्कार सरकार कैसे इतने लोगो का ख्याल रखती है(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

अब उसे समझ में आ रहा था कि क्यों दोस्तों के फोन कुछ दिनों के लिए बंद हो जाते है, जब आज उसने राजेन्द्र का फोन सूना तो वो सिर्फ छः मिनिट तक यही कहता रहा कि कोइ जॉब हो तो बताओ एकदम खाली बैठा हूँ मार्केटिंग नहीं करना कुछ मिलता नहीं और गाली गलौच अलग से उसे लगा कि फालतू में ही मिस कल के बाद उसने काल बेक कर दिया अब साला उठाउंगा ही नहीं इस कमीन का फोन (फेसबुक मेनिया)

गुलज़ार की कलम से कुछ मिसरे

चाँद के साए बालिश्तो से नापने है चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में। हम भी गुनगुना चाहते थे गीत तुम्हारा, पर देर क्यों लगादी तुमने गाने मैं दिल पे दस्तक देने ये कौन आया है किसकी आहट सुनता हूँ वीराने में । जाने किसका जिक्र है इस अफसाने में दर्द मजे लेता है जो दोहराने में . एक पुराना खत खोला अनजाने में, खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में हम तो उम्मीद थी खजाने मैं रहे खाली हाथ झुनझुना बजने में ....................

तुम्हारे लिए.........................

तुम्हारे लिए......................... मेरी जिंदगी में एक ऐसा भी शख्स है ऐ मेरे दोस्त........... कि वो मेरी पूरी जिंदगी है और में उसका एक लम्हा भी नहीं.................

फराज के कुछ शेर

फराज के कुछ शेर वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका अब नींद से कह दो हमसे सुलह कर ले फराज वो दौर चला गया जिसके लिए हम जगा करते थे अगर मेरे लफ्जो की पहचान वो कर लेते फराज उन्हें मुझसे नहीं खुद से मुहब्बत हो जाती इस बारिशो से दोस्ती अच्छी नहीं फराज कच्चा तेरा मकान है कुछ तो ख्याल करो में बस एक बार लाजवाब हुआ था फराज जब किसी अपने ने पूछा कौन हो तुम एक अरसे बाद मिले तो उसने मेरा नाम पूछ लिया फराज बिछड़ते वक्त जिसने कहा था तुम्हारी बहुत याद आयेगी। अबकी बार मिलेंगे तो खूब रुलायेंगे उस संगदिल को फराज सुना है रोते में उनके लिपट जाने की आदत है

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अपने लोगो से नाराज रहना या पाने लोगो को नाराज करना जायज तो नहीं है पर जब पानी हद से गुजर जाए तो क्या किसी अधिकार से हमारा इतना भी हक नहीं बनाता कि हम अपनी नाराजगी दर्शायें , और एक बार कह दे कि यह ठीक नहीं हुआ या ऐसा नहीं होना था? मुझे लगता है कि हमें कह देने का साहस होना चाहिए फ़िर सूर्यास्त के पहले सब सुलझा ले ताकि गिले-शिकवे ना रहे.

Face Book Meniya

Education can nt bring change in lives of People am damn sure, we still can nt respect time, coordinate,keep our own words, manage things which are really simple and meager, communicate properly, express clearly rather if we are more qualified we can create a lot of hell and mess nt only for us but for others, we kill time and days of people. we are Indians after all in spite of our Best Education, Jobs and Designations. All nonsense who say education can bring a change in lives of People.(Face Book Meniya)

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जब उसने कहा कि में तुमसे नफ़रत करता हूँ तो लगा कि चलो गुबार निकल गया अब वो इन यादो के सहारे तो ज़िंदा नहीं रहेगा बस मरते समय उसे लगेगा कि वो मुक्त हो गया सबसे और फ़िर एक दमकता हुआ निस्तेज चेहरा मानो जिंदगी जीतने की खुशी में वो सब कुछ हारकर भी जीत गया और बस यही वो क्षण था जब उसे लगा कि क्षमा बडन को चाहिए गलत नहीं था, मौत तो जीवन की सर्वोच्च अवस्था है जब हम नफ़रत को स्नेह में बदल देते है(फेसबुक मेनिया)

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बड़ा उपकार था तुम्हारा दोस्त कि तुमने अपने व्यस्त समय में से मेरे जैसे तुच्छ प्राणी को समय दिया और वो सब रिश्ते भी जिन्हें हम काम के रिश्ते कहते थे इस बीच कब ये रिश्ते निंदा, जलन, द्वेष, ईर्ष्या, एक प्रतियोगिता में बदल गए पता ही नहीं चला और आज हम एक दोराहे पर आ गए है इस बीच कितना पानी बह गया है गंगा में, बच गया है तो सिर्फ सिसकता हुआ उद्दाम वेग सा दर्प और एक तुच्छ सा अहम, माफ कर दो(फेसबुक मेनिया)

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धुल धूप धुंआ धूसर और धू धू धू करता जीवन लगता है अब यही रह गया शेष निशेष क्यों हो गया यह सब इसके लिए कुछ सोचना नहीं पडता बस एक बार गहराई से झाकना पडता है अपने तम में, मन के किसी सूने से कोने में जहा सब कुछ दर्ज है एक सिरे से और जहां अपने पराये सब इकठ्ठे है एकसाथ किसी विद्रूप हंसी को दहाडते हुए और तंज से मुस्कराते हुए, माफ कर दे मन और चला चल जहां सिर्फ जीवन अपनी पूर्णता पर गीत गा सके((फेसबुक मेनिया)

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एक दिन शर्मिन्दा होते है हम धीरे से, चुपचाप चल देते है एक लंबी लड़ाई से सर झुकाकर एक दिन जैसे चला गया था अशोक, अपने आप से मुह छुपा लेते है जैसे सारा अपराध हमारा ही था, कुंठाओ से घिर जाते है जैसे घिरा होगा नेपोलियन, एक दिन चुपचाप मौत की आहट सुन लेते है ऐसे जैसे कोइ सुनता है अपने साँसों की बांसुरी और चल देंगे उस वीरान मार्ग पर जहा शायद कम ही लोग चले होंगे, माफ कर दो चल दो उस मार्ग पर(फेसबुक मेनिया)

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आखिर में हारना तो पडता ही है अपने आप से और अपने दर्प से और झुकना पडता है उस सब के सामने जो अंततः हमें निचोड़ देता है, हवा में उड़ते सूखे पत्ते की नियति और फ़िर कुचल कर मिट्टी में मिल जाने की प्रक्रिया में बस सब खत्म हो जाता है फ़िर भी हम यह जानते हुए लड़ते जाते है लगातार अपनों से और मान बैठते है ये वही है जो अंतिम सांस तक साथ देंगे पर कहाँ ..माफ कर दो सबको माफ कर दो(फेसबुक मेनिया)

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यह तन यह मन सब मिथ्या है जिन्हें मैंने तुमने अपना माना वो ही तो सबसे ज्यादा दुःख देने वाले साबित हुए जीवन में, जिनके लिए तुमने सर्वस्व समर्पित कर दिया वही एक दिन मुह फेरकर चल दिया, उसी ने जीवन को एक बेचारगी और लाचारगी तक ला दिया, और अब वो वहाँ बैठा है जहां तुम कभी भी जाना ही नहीं चाहते थे फ़िर ये स्यापा क्यों ये दुःख का आवरण क्यों छोडो सब माया है और सबने ही तो तुम्हे धोखा दिया माफ कर दो(फेसबुक मेनिया)

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धूप और बरसात की बूंदों के बीच जीवन हमेशा चलता रहता है, सूखे दरख्तों के बीच लंबी राह पर एक अनवरत यात्रा चलती रहती है, इसलिए जीवन को चलने दो जो हो रहा है उससे जूझो और सबको माफ कर दो- सब या तो बहुत भोले है या सब बहुत चतुर है इसलिए इन सबको माफ कर दो और अपना जीवन चलाते रहो दुश्मनों को भी अपनी ही रूह का हिस्सा समझो और दोस्तों को पराया मानकर अपना लो यही सच है यही जीवन है(फेसबुक मेनिया)

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"हद बेहद दोनों तके वो ही संत औलिया" कबीर की इस वाणी को वो पसंद करता था पर जब से उसने दिल खोजा आपणा, तो उससे बुरा ना कोई समझा, तो संसार माया लगा और फ़िर उड़ जाएगा हंस अकेला की तर्ज पर वो बस पिंजरे से पंछी उड़ जाने का इंतज़ार करने लगा, इस घट अंतर बाग बगीचे इसी में पालन हार जैसे गाता रहता और फ़िर एक दिन यम के दूत जो बड़े मरदूद थे ले गए उसे हद बेहद के पार (फेसबुक मेनिया)

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"हद बेहद दोनों तके वो ही संत औलियाज" कबीर की इस वाणी को वो पसंद करता था पर जब से उसने दिल खोजा आपणा, तो उससे बुरा ना कोई समझा, तो संसार माया लगा और फ़िर उड़ जाएगा हंस अकेला की तर्ज पर वो बस पिंजरे से पंछी उड़ जाने का इंतज़ार करने लगा, इस घट अंतर बाग बगीचे इसी में पालन हार जैसे गाता रहता और फ़िर एक दिन यम के दूत जो बड़े मरदूद थे ले गए उसे हद बेहद के पार (फेसबुक मेनिया)

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उसे मजाक तब भी नहीं लगा था जब सबके सामने उसे अपमानित किया गया था पर आज वो बेहद अपमानित महसूस कर रहा था जब उसे इस फेसबुक मंच पर सार्वजनिक रूप से उपेक्षित किया गया उसने तय किया कि अब इस दुनिया से भी नाता छोड़ देगा और फ़िर उसने मोबाइल भी बंद कर दिए और एकाकी बन गया फ़िर उसे लगा कि अभी भी अत्याचार बाकी है तो उसने इहलीला समाप्त कर ली दोस्तों के नाम और प्यार पर(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

ऐसा नही था कि अवसर उसके पास नहीं आये थे पर उसे इमोशन बेचना नहीं आता था ना ही दूसरों के सामने अपने आंसूओ को बिछाना, एक दिन उसे पता चला कि वो सब जो बहुत सिद्धांतों की बात करते थे एक नई दुनिया में बस गए और सब एक साथ संगठित हो गए, धीरे धीरे एक गूगल ग्रुप और याहू ग्रुप और फेसबुक कम्युनिटी पर सब छा गए बस यही वो चूक गया अपना मान बैठा था इन सब मुखौटो को(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

दोस्तों के फोन आने पर उसे लगता कि इस अँधेरी खोह में मानो रोशनी के एक किरण दिख गयी हो आज ऐसा ही हुआ और उसे लगा कि मानो ४५ तापमान में बारिश की कुछ बुँदे बिछ सी गयी हो, जिंदगी जिस मकाम पर आ गयी है वहाँ सिवाय गहरी सुरंगों और इस वर्चुअल वर्ल्ड के कुछ बचा नहीं है हां संगीत सीखने की उसकी तमन्ना थी पर अब क्या आरोह अवरोह को वो सम्हाल पायेगा(फेसबुक मेनिया)

एनजीओ पुराण 101

उम्र भर नौकरिया बदलता रहा वो ना विचारधारा मिली ना ढंग का काम, लाल रंग के इश्क ने उसे कार्यकर्ता तो बना दिया पर लाल रंग के झंडेबाज धंधेबाज बन गए और यह भटकता रहा यहाँ वहाँ. एक दिन तंग आके उसने वाईज का साथ छोड़ा और फ़िर मौत को गले लगा लिया , दुकानदारों की मीटिंग में उसके कामो को सराहा गया और एक ने कहा कि उसके जैसा पैनापन मैंने देखा नहीं था, क्या गाता था बस एक ही कमी थी कि साला बोलता बहुत था खरी-खरी(एनजीओ पुराण 101)

एनजीओ पुराण 100

विदेश में पढ़े होना और एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी की लडकी से शादी करना यही योग्यता उसे अन्य दुकानदारों से अलग करती थी फ़िर स्थापित होती दूकान में प्रयोग, छोटे कस्बे में नवाचार फ़िर अपनी मिल्कियत की जमीन, कालांतर में अपनी दूकान, फ़िर ढेरो नौकर चाकर, बस अपने होने का दर्प उसके चेहरे से हरदम टपकता रहता था, वो घरवाली भी देश भर में घूम घूम कर रूपया बनाने में लगी थी भला हो 1860 के सोसायटी क़ानून का जिसने सबको सब छूट दे दी(एनजीओ पुराण 100)

एनजीओ पुराण ९९

बड़ी मीटिंग थी जिले के अधिकारी थे दुकान की मालकिन भी, वार्षिक योजना पर बातचीत थी, सबको बढ़िया जलजीरा दिया गया और फ़िर दूकान के लोगो ने खूबसूरत प्लान पेश किया भोजन और सबने जवान विधवा मालकिन से सहानुभूति छूकर जताई, निकल लिए, वार्षिक योजना अप्रूव हो जाने की खुशी में रात को जमकर जश्न मना सोमरस के पीपे खुले और मुर्गो की शामत आई, सरकार का साला यही रोना है कि इन अधिकारियों को साल में टुकड़े डालना पड़ते है(एनजीओ पुराण ९९)

एनजीओ पुराण ९८

भरी धूप में गांव में लंबी बेहद थकी और उबी हुई यात्राएं निकालने का उसे शौक था, जिंदगी भर वो ट्रेक्टर बेचता रहा था, दूरदराज के आदिवासी गांवों में यात्रा निकालना और फ़िर अपनी दूकान की वेब साईट पर भडकीले चटपटे किस्से अपलोड करना ताकि उसकी नौकरी पक्की रहे और उसके इन्क्रीमेंट पर कोइ असर ना पड़े, बस यही सोचा था कि हर वर्ष करेगा पर वो इस साल नहीं कर पाया वो ये सब साली गर्मी बहुत थी और वो भी चली गयी थी अब(एनजीओ पुराण ९८ )

फेसबुक मेनिया

लगता है पूरा देश एक रंगमंच बन गया है और सब लोग कलाकारी कर रहे है प्रजा, प्रधानमंत्री, मीडिया, एनजीओ, मुख्यमंत्री, उद्योगपति, अफसर, बाबा और समाजसेवी, सब साले रंगे सियार है और में भी इस भीड़ में शामिल एक आदमी हूँ जो मजमे में जाता हूँ ताली पीट कर घर लौट आता हूँ और एक सपना देखता हूँ कि देश सब प्रपंचो से मुक्त हो गया है सुबह फ़िर पानी, गेस और सड़क की किल्लत ..अब तो हर तरह के बदलाव से डर लगता है नेताओं से, बाबाओं से, मीडिया से, अफसरों से, पड़ोसी से, एनजीओ से, गांव वालो से, शहर वालो से, युवाओं से, बूढों से, बच्चो से, और यहाँ तक कि अपने आप से भी डर लग रहा है . पता नहीं ऊंट किस करवट बैठेगा..........और बदलाव की बयार क्या गुल खिलायेगी........???

एनजीओ पुराण ९७

ये प्रदेश का एक बड़ा गेंग था जो हर तरह की सत्ता पर काबीज रहता था मछली पालन से लेकर कंडोम बांटने तक का सभी काम करते थे, मीडिया को जेब में रखकर , प्रशासन के अधिकारियों को सुविधाएँ देकर, नेताओं को रिश्वत देकर अपना उल्लू सीधा करने में ये बेहद सधे हुए लोग थे जो विश्व विद्यालयों, मीडिया, शोध संस्थाओं, उद्योगों, में अनाप शनाप रूपया कमाते थे और एनजीओ की दूकान पर परोपकार के बहाने से यश और रूपया बटोर रहे थे.(एनजीओ पुराण ९७)

एनजीओ पुराण ९६

एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते है लोग बस ऐसा ही कुछ था वो जब में मिला था उससे हर बार वो एक नए चेहरे के साथ मिलता और उसकी विचारधारा भी कुछ ऐसी ही थी, अपनी दूकान खोलने के लिए उसने क्या क्या नहीं किया बस सिर्फ अपना धर्म जाती नहीं क्योकि वो ऊँची जाति से था है आज वो एक बड़ा समाजसेवी और प्रदेश का निर्णायक, हर बैठक में दिख जाएगा खीसे निपोरता हुआ और बिना रीढ़ की हड्डी के साथा(एनजीओ पुराण ९६)