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Showing posts from November, 2011

"कपोल कस्बे की कथा"

यहाँ लड़ाइयां सिर्फ इसलिए लड़ी जाती थी कि अपना झंडा ऊँचा रखना है और समाज में मर्द साबित करना है अपने आप को छोटे मोटे टुच्चे चाटुकार किस्म के लोग और अखाड़े की मिट्टी से बदन की चर्बी को मजबूत बनाए दो चार लोंढे लपाड़े शहर के दादा कहते थे, शहर की गल्ला मंडियों में किसानो से लूटकर अनाज के दाने बेचकर स्कूल चलाने वाले और मंदिरों के चंदे से कोठिया बनवाने वाले नगर सेठ हो जाते थे और यही लोग घासलेट बेचकर माँ वैष्णो देवी के दरबार में लंगर चलवाते थे सवाल दान पुण्य का नहीं पर नीयत का था हर बात के पीछे गहरी राजनीति और गहरी चाल, शिकस्त देने में माहिर और कस्बे से राजधानी तक रोज फोन पर घंटो बतियाने की कला में निपुण ये लोग बहुत कारीगर थे इनमे ही एक उपजा था समाजसेवी और फ़िर उसने इसी कस्बे में समाजवाद और लाल रंग के सूरज की कपोल कल्पना की थी अपने साथ बनाई एक टीम जो आपस में परेशान और दुनिया जहां से सताई हुई.....बस इन्ही के भरोसे मशाले जल रही थी और फ़िर एक दिन.... ( "कपोल कस्बे की कथा" लिखी जा रही एक श्रृंखला का अंश)

"कपोल कस्बे की कथा"

इंदौर से आते हुए वह भरी बस में एकदम अकेला है, खोज रहा है कोई अपना चेहरा कि दिख जाए और फ़िर वो खुद ही मुस्कुरा दे हलके से ...........बहुत जुगाड करने से भी कुछ हाथ ना लगा..ये कैसा शहर है जो इतना बदल गया है कि कोई चेहरा अपना नहीं लगता, सारे चेहरे लिपे पुते हुए है और बातचीत के बजाय कान में इअर फोन लगाए रेडियो के गाने सुन रहे है, फ़िर जब गौर से देखना शुरू किया तो समझ आया कि ये वो लोग है जो इस कस्बे की ही पैदाईश है पर अब ये प्रोफेशनल होने का स्वांग कर रहे है चवन्नी अठन्नी का धंधा और दिन भर की मारामारी में लगे ये लोग अपने बाप के नहीं तो किसी के क्या होंगे....कैसे पहचान आदमी को नंगा और कमजोर कर देती है ये वही कस्बा है जहा उसने उम्र के लगभग पैतालीस साल गुजार दिए और इन लोगो को बहुत करीब से जाना समझा है.....ये रीढ़ विहीन लोग कितने उथले और थोथे है यह तब समझ आया था जब उसने एक बार कुछ लिखा था फ़िर इन की ओकात पता चल गयी थी........ये वो लोग है जो अंदर से प्यारे सरपरस्त, कमीन पर ऊपर से बिलकुल घटिया और अहसान फरामोश है.......बस आगे बढती जा रही है और चेहरे के रंग और रूप सामने नजर आ रहे है अचानक एक उठा और उ
Mr Sanjay Shelgaonkar is one of my best friends in Dewas , I am in contact with the family for last 40 years, they are almost like my extended family . Sanjay's mother was very nice, religious and brave, always I found her smiling, decent and affectionate. She taught many years in Chacha Nehru Bal Mandir Dewas. She imbibed and inculcated values among so many students of Dewas who are now living a lavish life in society. In spite of her illness she did lot for society and family. She was fighting with her illness for last 30 years as a brave lady and always gave tough fight to diseases, but after a long struggle and courage she gave up on the eve of 22 Nov. My sincere Condolences to her may her soul rest in peace and Lord Almighty give strength to bear this unexpected shock to entire family.

एनजी ओ पुराण 112

देश के बड़े उद्योगपतियों की ही जमात का था वो, कंप्यूटर बेचकर और प्रोग्राम बनाकर रूपया ऐसे समय में कमाया था जब लोग क कंप्यूटर का नहीं जानते थे, आज एक बड़े साम्राज्य का मालिक अकूत संपदा और धन दौलत का दावेदार था वो. बड़ी कमाई पर बड़ा टेक्स भी देना लाजिमी था, पर एक गरीब देश में जैसे टेक्स बचाने की कई सारी गलियाँ थी एक समाजसेवा की दूकान खोलने से टेक्स की बचत ही नहीं की जा सकती थी वरन समाज में पुण्य भी कमाया जा सकता था, बॉस के दिमाग में यह आईडिया जम गया कुछ रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों को और कुछ अनुभवी लोगो को रखकर एक दूकान खोल ली और लगभग आठ सो नो सो करोड रूपया लगा दिया अपनी ही दूकान में. "शिक्षा" साली वो घटिया नाली जिसमे सब बह जाता है, बस इसी नाली को खोदने का ठेका ले लिया अलग अलग राज्यों में, हर जगह अच्छे कारीगर मिल गए जो पहले से इस तरह के कुत्सित प्रयासों के जानकार और विद्वजन थे, ये वो लोग थे जो ज़िंदगी भर कुकर्म करके भी रूपये की भूख मिटा नहीं पाए थे और अब बढती महंगाई में अपने सपने पुरे करना चाहते थे, लाल रंग की चुनरिया ओढ़े ये लोग इस उद्योगपति के घराने में शामिल हो गए और घराने की दू

कुछ कही सूनी और गुनी बुनी ............

दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है. (विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़' से) शब्दों से सबसे ज़्यादा भय उन्हें लगना चाहिए जो उनका भार पहचानते हैं - लेखक, कवि और वे जिनके लिए शब्द ही यथार्थ है - अन्ना कामीएन्स्का मनुष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बार उस रोज़ जन्म नहीं लेते जब उनकी माताएं उन्हें पैदा करती हैं ... जीवन बार बार उन पर अहसान करता है कि वे स्वयं को जन्म दें. - गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़
आस उस दर से टूटती ही नहीं जाके देखा न जाके देख लिया... हो गया हूँ अब मैं खुदरा , इस तरह खरचा हूँ खुद को .......

शांति चाहिए ज़िंदा लोगों की आत्मा को

हफ्ते का हवन करता हूं। पहले स्वाहा सोम का, फिर मंगल का करता हूं। बुध जले चूल्हे में, गुरु गले भट्टी में, बचे शुक्र का तो सर्वनाश करता हूं। हफ्ते का हवन करता हूं। हैं बस शनि और रवि, जिन्हें अपना समझता हूं, बाकी पांच दिनों का तो बस हवन करता हूं। टंगा रह जाता है कैलेंडर दरो-दीवार से, मैं तो सुबह शाम तमाम करता हूं। दिन मेरे लिए धूप है बस, कुंड में झोंक कर मंगलगान करता हूं। हफ्ते का हवन करता हूं। शांति, शांति, शांति। शुभ रात्रि, शुभ रात्रि, शुभ रात्रि। ऊं चिकन करी, ऊं मटन करी, ऊं करी करी, ऊं नौकरी। कुछ नहीं मिलता तो कविता रचता हूं, शब्दों का हवन करता हूं। शांति चाहिए ज़िंदा लोगों की आत्मा को, इसलिए हफ्ते का हवन करता हूं। ऊं फट ऊं फटाक। - बाबा नागार्जुन से प्रेरित [रवीश कुमार से साभार]
घर की दीवार में उग आये पीपल के मानिन्द है तुम्हारी याद......... तुम्हें पूजना भी है, तुमसे बिछड़ना भी है।
आओ मिलकर याद करें हम , गुज़रे साल महीनों को ! वक़्त मिले तो लौट भी जाना , वापस उन्ही ज़मीनों को !!

प्रशासन पुराण 37

मप्र जैसे उन्नत राज्य में एक सड़क है "भोपाल होशंगाबाद" आज जब हजारवी बार उससे गुजरा तो वो वैसे ही नजर आयी -उपेक्षित, अकेली और तनहा, रोजरोज हजारों गाडिया उस पर से गुजर जाती है जगह-जगह गड्ढे, धूल- धुंआ और गर्द के बादल, बिलकुल लावारिस और हर विभाग से धोखा खाई हुई. प्रदेश में बड़े बड़े दिग्गज है जो रोज हजारों किलोमीटर सडके बनाने का दावा करते है, अपने मुखौटे लोगो को दिखाते है राजधानी में, मीडिया के तुर्रे खां है, मंत्रियों से लेकर संतरियो की बड़ी फौज है और मजेदार यह है कि माननीय मुख्यमंत्री जी की विधानसभा और गाँव का रास्ता भी वहा से होकर ही गुजरता है, साथ ही प्रदेश में पर्यटन के नाम पर आने वाले भीम बैठिका के लिए और पुण्य सलिला माँ नर्मदा नदी के लिए भी भक्तजन यही से होकर गुजरते है पर इस सड़क की सुध किसी ने नहीं ली कितने बरसो से कई सरकारें आई और गयी पर सड़क का दर्द किसी ने ना जाना. आज बहुत हताश होकर यह सड़क बोली मुझसे अब तो आत्महत्या भी कर ली, सड़क के नाम पर मेरे ऊपर कुछ डामर चिपका है और कही से सपाटता है, वरना मेरी तो मृत्यु हो चुकी है अस्तित्व ही खत्म हो गया है विकास के नाम पर सबकी पोल हू

तू बहुत देर से मिला है मुझे

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे दिल धड़कता नहीं सुलगता है वो जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे लबकुशा हूँ तो इस यक़ीन के साथ क़त्ल होने का हौसला है मुझे कौन जाने के चाहतों में 'फ़राज़' क्या गँवाया है क्या मिला है मुझे --अहमद फ़राज़

मन की गाँठे

कोहरा तो घना था दिखना मुश्किल था नजदीक से देखने पर भी कुछ नजर नहीं आता था, बस लगा कि जैसे ज़िंदगी की शाम हो चली है, मै, हम, तुम, सब कही छिपे जा रहे है इस कोलाहल में और सब कुछ धुंधलके में खोता जा रहा है जैसे खो गए हो तुम कही... दूर बहुत दूर..................और सूरज की किरणों का कही पता नहीं, इस सर्द सुबह में थरथराती हल्की सी, मद्धम रोशनी और दूर तक पसरा सन्नाटा, गुनगुने से बड़े होते मन के ना पुरे होने वाले ख्वाब, अमिट इच्छाएं, और गहरे में कही डूबते और उगते हुए पश्चाताप, बस ऐसे ही कोलाहल और कोहरे में जीवन की नैया डूब रही है, चारों और शोर है, उजास और निरभ्र आसमान की तलाश है और फ़िर पड़े पड़े लगता है ये आगोश में पडी जिंदगी की सलवटें अब बदल देना चाहिए .........दास कबीर ने ऐसी ओढी ज्यों की त्यों धर दीनी, चदरिया झीनी रे झीनी.......(मन की गाँठे)

Mail sent by Narayan Murthy to all Infosys staff:

It’s half past 8 in the offic e but the lights are still on… PCs still running, coffee machines still buzzing… And who’s at work? Most of them ??? Take a closer look… All or most specimens are ?? Something male species of the human race… Look closer… again all or most of them are bachelors… And why are they sitting late? Working hard? No way!!! Any guesses??? Let’s ask one of them… Here’s what he says… ‘What’s there 2 do after going home…Here we get to surf, AC, phone, food, coffee that is why I am working late…Importantly no bossssssss!!!!!!!!!!!’ This is the scene in most research centers and software companies and other off-shore offices. Bachelors ‘Passing-Time’ during late hours in the office just bcoz they say they’ve nothing else to do… Now what r the consequences… ‘Working’ (for the record only) late hours soon becomes part of the institute or company culture. With bosses more than eager to provide support to those ‘working’ late in the form of taxi vouchers, food vouche

प्रशासन पुराण 36

नया युवा अधिकारी था और देश भर के बेरोज़गारों को पछाडकर अपनी योग्यता के बल पर इस सेवा में आया था करोडो की बेशकीमती जमीन, दहेज में मिले लाखों रूपये, मकान और अजब गजब के इलेक्ट्रानिक उपकरणों यानिकी गजेट्स इस्तेमाल करने वाला बेहद प्रतिभाशाली था वो- जिसके पास दृष्टि और मिशन दोनों था. उस दिन राजधानी में वो देश के गरीबों का एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहा था, बड़ी अकादमी थी बड़े लोग और बड़े ताम झाम बड़े ऐसी भी लगे थे, प्रदेश के गरीबों के बारे में बोलते हुए उसके तर्क अकाट्य थे तेंदुलकर समिति से लेकर भोजन के अधिकार वालो तक को कोट करते हुए उसने आंकड़ों का जमकर जाल बुना था फ़िर अचानक उसने प्रदेश के गरीबों के लिए "गरीब सम्मलेन" का नुस्खा दिया जिसमे सभी नंगें भूखे गरीबों को इकठ्ठा किया जाए और पूछा जाए कि उनसे कि वो गरीब क्यों रहना चाहते है और फ़िर हर जिले में गरीब सम्मलेन आयोजित करने का जोरदार बजट बताया, कहा कि इस सारे का वीडीओ बनाना भी जरूरी है ताकि विदेशी संस्थाओं से भी जिलों को सीधे अनुदान मिल सके, बेहद प्रभावी था गरीब सम्मलेन का विचार!!! सवाल यह था कि सिर्फ गरीबी का टेग लगे लोग ही इसमे

प्रशासन पुराण 35

पुरे प्रदेश के लोग इकठ्ठे थे बेहद जिम्मेदार और गंभीर काम करने वाले- आंकड़ों पर, रणनिती पर, नीति निर्धारण वाले लोग थे और जमकर रूपया भी था इनके पास, सौ - पचास लोगो को रोज़गार देना साल दो साल के लिए और फ़िर काम के बाद निचोडकर फेंक देना इनकी मास्टरी थी, इस तरह के काम में गजब का हूनर और दक्षता थी इनकी. खूब जमकर काम करते घूमते फिरते थे, रोज का भत्ता भी बड़ा भारी था, बहरहाल ये लोग एक बार इकठ्ठा थे और पुरे प्रदेश के लिए रखे भाड़े के लोग मौजूद थे बैठक में फ़िर ना जाने क्यों कही जाने की बात निकली फ़िर होटल , कमरे, बिस्तर, सफाई, भोजन और फ़िर कमरों के पर्दों और बाथरूम के फ्रेशनर्स पर जमके बातें होने लगी तीन चार लोग बहस करने लगे और फ़िर सारी बातचीत इसी बहस में उलझ गयी, एक के बाद एक सफाईयां दी जाने लगी फ़िर फ्लाईट और फ़िर ऐसी गाड़ी और फ़िर ड्राईवर की बातें होने लगी, आख़िरी में एक चाय की प्याली के साथ कुछ लोग जाने लगे और फ़िर धीरे धीर ये सब चले गए, बचे रह गए कुछ लोग जो दीवारों से बतियाते रहे और समस्या बताते बताते आपस में ही सिमट कर रह गए......चुपचाप खामोश से उठ गए वहाँ से ढेरो मुद्दे और प्रश्नों के साथ (प्रशा

प्रशासन पुराण 34

प्रदेश के नवाचारी और युवा बेरोज़गार जिन्हें बहुत मशक्कत के साथ सर्कसनुमा लंबा प्रशिक्षण देकर नए काम के लिए प्रदेश के कई जिलों में रखा था, के कामो का रिव्यू हो रहा था. अचानक किसी ने कह दिया कि सरकारी काम और इस तरह के काम में बहुत गेप है बस सब चिल्लाने लगे है गेप है, गेप है, गेप है, फ़िर क्या था बस सभी काम धाम छोडकर गेप की बातें करने लगे और फ़िर कहा कि देखो कितना गेप है हमारे संस्कारों में, कितना गेप है घर के खाने में और इस होटल के सड़े खाने में, कितना गेप है सुविधाओं में और भ्रष्टाचार में मिली सुविधाओं में, कितना गेप है प्रशासनिक अधिकारियों और हमारे रुतबे में, बस अन्तराष्ट्रीय संस्था के लोगों को तो गेप नजर आने लगा फ़िर किसी युवा ने छेड़ दिया कि आपको तो टेक्स फ्री तनख्वाह मिलती है तो वे सब एकदम संगठित हो गए कहने लगे आप लोग गेप की बातें करने आये है या काम का रिव्यू करने....( प्रशासन पुराण 34)
अब क्‍या करोगे यह कहानी सुनकर...कुछ तार जुड़े थे........तार-तार हो गए...

इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं नींद से मेरा त'अल्लुक़ ही नहीं बरसों से ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं -राहत इन्दौरी
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है|
बाज़ी ख़तम होने पर हर मोहरा एक ही डिब्बे में जाता है... चाहे प्यादा या राजा... इज्ज़त बस तब तक जब तक आप अपनी कर्मभूमि पर हैं...'
ये रिश्‍ता जुड़ा है हमारा... तुमने टूटकर चाहा....... मैं चाहकर टूट गया.... Miss call 1/11/11 6.02 pm Recd call 5/11/11 5.35 pm Dialed call 10/11/11 12.09 pm Great Account at my E 79 Nokiya handset.

We are proud of you Madhu.

My Friend & an Army Officer's wife and very senior thinker, writer Madhu Gurung has a great concern for dogs especially street dogs. Its indeed good that at least some one is there to look after Dogs on the street. I remember once Madhu was in Bhopal in 2006 at a workshop and we found a dog on the road thirsty and crying, it was Mid May and temperature was around 44* and she poured her Bisler y Bottle in the mouth of Dog, I was also an evident of the meeting when we all consoled the death of her Dog in Delhi. People like Madhu Gurung are rare, keep the spirit up, I see lot of PETA activists but in reality they all do for publicity but you really have a deep concern (not for name & fame)which should be appreciated. Hats off to your Spirit of saving this breed. Madhu says " I am born in the year of the dog as per the Chinese calender -- guess that may w ell be the reason that when I am walking down a road or driving a car I rarely see people, only dogs

जिहाले मस्ती

वो आके पहलू में ऐसे बैठे , की शाम रंगीन हो गयी है, जरा जरा सी खिली तबियत, जरा सी ग़मगीन हो गयी है कभी कभी शाम ऐसे ढलती है, जैसे घूँघट उतर रहा है, तुम्हारे सीने से उठता धुवां, हमारे सीने में उतर रहा है ! ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है, तुम्हारी पलकों से गिर के शबनम हमारी आँखों पे रुक गयी है !
जय हो भारत में सूचना तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल भी हो जाए तो कुछ नहीं होगा अफसोस यह खबर कमाल खान बता रहे है वरना यह नेक काम तो रजत शर्मा के किसी गुर्गे को करना था बहरहाल यह शर्मनाक है क्या मसूरी में भी काला जादू सिखाया जाता है इस क्रीम को जो फील्ड में जाकर ये ऐसा बिहेव करते है..........??? प्रशासनिक अधिकारी है भडभुन्जे की ओलादे ....... रवीश की दीवार से ......... ये है हमारी हकीकत। बहराईच की ज़िलाधि कारी ने एक महिला होमगार्ड पर आरोप लगाया है कि वो उनके बिस्तर पर सरसों के दाने छिड़ककर काला जादू करती है। डीएम साहिबा ने नोटिस जारी कर दिया है जिसमें लिखा है कि आपने डीएम साहिबा के बिस्तर पर एक लाइन में पीली सरसों डाली। आप बिस्तर पर सरसों डालने की वजह बतायें वर्ना आपकी नौकरी जा सकती है। एक पंडित का भी एंगल है जो कहता है कि डीएम साहिबा ने सरसों के बुरे प्रभाव से बचने के लिए पूजा पाठ करवा ली है। कमाल ख़ान की रिपोर्ट है। ऐसे ज़िलाधिकारी को तत्काल प्रभाव से बर्ख़ास्त कर दिया जाना चाहिए।

हमारा गुस्‍सा ही उन्‍हें नेस्‍तनाबूत करने के लिए काफी है!

अरुंधती राय ने आकुपाई आंदोलन के समर्थन में यह भाषण न्यूयार्क के वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में दिया था। इस भाषण को गार्जियन ने प्रकाशित किया है। मं गलवार की सुबह पुलिस ने जुकोटी पार्क खाली करा लिया, मगर आज लोग वापस आ गये हैं। पुलिस को जानना चाहिए कि यह प्रतिरोध जमीन या किसी इलाके के लिए लड़ी जा रही कोई जंग नहीं है। हम इधर-उधर किसी पार्क पर कब्जा जमाने के अधिकार के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं। हम न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। न्याय, सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों के लिए ही नहीं बल्कि सभी लोगों के लिए। 17 सितंबर के बाद से , जब अमेरिका में इस आकुपाई आंदोलन की शुरुआत हुई, साम्राज्य के दिलो दिमाग में एक नयी कल्पना, एक नयी राजनीतिक भाषा को रोपना आपकी उपलब्धि है। आपने ऎसी व्यवस्था को फिर से सपने देखने के अधिकार से परिचित करा दिया है, जो सभी लोगों को विचारहीन उपभोक्तावाद को ही खुशी और संतुष्टि समझने वाले मंत्रमुग्ध प्रेतों में बदलने की कोशिश कर रही थी। एक लेखिका के रूप में मैं आपको बताना चाहूंगी कि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए मैं आपको कैसे धन्यवाद दूं। हम न्याय के
ये दुनिया डरावने रहस्यों से बनी हुई है. हम उन ‘रहस्यों’ से चौतरफ़ा घिरे हुए हैं, हम उनके लिफ़ाफ़ों के भीतर बंद चिट्ठियों जैसे हैं, लेकिन हम तब भी नहीं समझ पाते कि आखिर वे हैं क्यों, किस लिए उन्हें बनाया गया है? यह एक सिहरा देने वाला, बेचैन करने वाला, भयभीत करने वाला साक्षात्कार है.. आपको मर्मांतक चोट पहुंचती है, जब पता चलता है कि आपको धोखा दिया गया है, आप ठ गी के शिकार हुए हैं. अचानक आपको पता चलता है कि उन सब चीज़ों को, जिन्हें आप बहुत प्यार करते थे, जिन्हें आपने अपनी आत्मा की तहों तक से चाहा था, वे पूरी तरह से सड़-गल चुकी हैं. उन्हें दीमक खा गये हैं… फिर भी अंधेरे में घिरे रहने से अच्छा है कि हम यह जानें.. यह यथार्थ रहस्यों से घिरा-बना है, जिसकी चाभी उन ताकतवर लोगों के पास है, जो इसी की बदौलत ऊपर, अपने किलों में सुरक्षित बैठे हुए हैं….जैसे ही इन रहस्यों से परदा उठता है, उनकी ताकत चली जाती है.

पर्दा, जर्दा और नामर्दा बनाम भोपाल

कल सारा दिन भोपाल में था काम काम, अपने मोबाईल नोकिया हेंडसेट का सॉफ्टवेर अपडेट करवाया, शाम को कुछ दोस्तों से मिला- सारिका, अविनाश, सौरभ, स्याग भाई, त्रिपाठी जी, अशोक केवट, पल्लवी, जीतेंद्र, सत्यजीत, जैसे प्यारे दोस्त जो अब कही इतने मशगुल हो गए है कि लगता है किसी संग्रहालय से निकल आये है. प्रेस के अजीज़ दोस्त- श्याम तोमर जो भास्कर रायपुर में काम करते है, से लगभग तीन साल बाद मिला मजा आ गया, ज्योत्सना पन्त से भी एक लंबे अरसे बाद मुलाक़ात हुई.... भोपाल की पत्रकारिता के नए रंग जो कमोबेश रोज बदलते है को फ़िर से देखा, बोर्ड ऑफिस के सामने वाला इंडियन काफी हाउस और बड़ा साम्भर के साथ उम्दा काफी, प्रेस के साथियों से मुलाक़ात -वही हडबडी, बेचैनी, माल बिकने का जोश और रोष, इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोस्तों को टी आर पी का तनाव और फ़िर भागते दौडते कैमरा उठाकर कही पहुँचने की जल्दी .....भोपाल से बहुत सारे यादें जुडी है जब भी इस शहर में जाता हूँ तो " नास्टेल्जिक " हो जाता हूँ, शहर छोडने के बाद शहर पूरा का पूरा मेरे अंदर दौडता है जैसे....धौकनी में सांस और फ़िर वो सारे रास्ते, अड्डे, गालियाँ और चौराहे मानो

सबसे अच्छे मस्तिष्क, आरामकुर्सी पर चित्त पड़े हैं।

सबसे अधिक हत्याएँ समन्वयवादियों ने की। दार्शनिकों ने सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा। भीड़ ने कल बहुत पीटा उस आदमी को जिस का मुख ईसा से मिलता था। वह कोई और महीना था। जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था, किंतु इस बार तो मौसम बिना बरसे ही चला गया न कहीं घटा घिरी न बूँद गिरी फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु कई प्रतिशत बढ़ गए कई बौखलाए हुए मेंढक कुएँ की काई लगी दीवाल पर चढ़ गए, और सूरज को धिक्कारने लगे --व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है सूरज कितना मजबूर है कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है। हवा बुदबुदाती है बात कई पर्तों से आती है— एक बहुत बारीक पीला कीड़ा आकाश छू रहा था, और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर शौचालयों के सामने पँक्तिबद्ध खड़े हैं। आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं लोग खोई हुई आवाज़ों में एक दूसरे की सेहत पूछते हैं और बेहद डर गए हैं। सब के सब रोशनी की आँच से कुछ ऐसे बचते हैं कि सूरज को पानी से रचते हैं। बुद्ध की आँख से खून चू रहा था नगर के मुख्य चौरस्ते पर शोकप्रस्ताव पारित हुए, हिजड़ो ने भाषण दिए लिंग-बोध पर, वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं आत्म-शोध पर प्रेम में असफल छात्राएँ अध्यापिकाएँ ब

मन लागो यार फकीरी में.............

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे वो बहुत देर से मिला है मुझे - अहमद फ़राज राकस्टार देखकर आ रहा हूँ अदभुत फिल्म बस फराज साहब का एक शेर याद आ गया बस सन्दर्भ थोड़े अलग है ............. इस दफा बारिश रूकती ही नहीं फराज , हमने आंसू क्या पीये कि सारा मौसम रो पड़ा ............. काश कि ज़िंदगी एक रॉक स्टार हो पाती और दुःख इस करीने से फूट पडता तो शायद अपने सच्चे दुःख छूपाने के लिए कही और से , किसी और तरीकों से , और मन के किसी निर्जन कोने में नहीं जाना पडता ............ एक अदभुत फिल्म जिसे बस सिर्फ देखा जा सकता है महसूसा जा सकता है और एकाकी मन के साथ गुँथा जा सकता है कि अब कोई ठोस निर्णय लों बहुत हो चुका घर आ जा परिंदे . चल खुसरो घर आपने रैन भी चंहुदेस ........... कागा सब तन खईयो . दो नैना ना खाईयो पीया मिलन की आस ........... रॉक स्टार -यह फिल्म नहीं एक हकीकत है जो बिरले लोग ही महसूस कर सकते है और फ़िर इसे गुनना, बुनना और उस चरित्र के साथ गूँथ पाना जिसे कबीर कहता था प्र

सहानुभूति और प्यार ऐसा छलावा है

मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है अब न तो कोई किसी का खाली पेट देखता है, न थरथराती हुई टाँगें और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है सबने भाईचारा भुला दिया है आत्मा की सरलता को भुलाकर मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में) सुला दिया है। सहानुभूति और प्यार अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये एक आदमी दूसरे को,अकेले – अँधेरे में ले जाता है और उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है ठीक उस मोची की तरह जो चौक से गुजरते हुये देहाती को प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर रबर के तल्ले में लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद डपटकर पैसा वसूलता है -धूमिल

सौ साल से भी पुराना है जापान में हिन्दी सीखने का इतिहास – तोमोको किकुची

इंदौर, “जापान के टोक्यो विश्व विद्यालय के विदेश शिक्षा विभाग में सन १९०८ से हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में हिन्दी और ऊर्दू की पढाई करवाई जा रही है. आज ओसाका, ताकुशोकू, दाइतो बुनका विश्वविद्यालय सहित कई संस्थाओं में हिन्दी की पढाई की जा रही है. यही नहीं जापान में कंप्यूटर में हिन्दी के विकास पर भी विशेष शोध हो रहे है”. ये जानकार ी जापान की हिन्दी विदुषी एवं लेखिका तोमोको किकुची ने दी.वे नेशनल बुक ट्रस्ट और हिन्दी साहित्य समिति द्वारा आयोजित पुस्तक मेले में विचार गोष्ठी को संबोधित कर रही थी. इस अवसर पर एनबीटी द्वारा प्रकाशित तीन पुस्तकों – हिरोशिमा का दर्द सूरीनाम और नीदरलैंड की लोककथा का विमोचन भी किया गया. उल्लेखनीय है कि हिरोशिमा का दर्द नामक पुस्तक का जापानी से हिन्दी में अनुवाद तोमोको किकुची ने ही किया है.विश्व में हिन्दी के प्रसार के सम्बन्ध में उन्होंने हिन्दी के वैश्विक रिसोर्स पोर्टल www.hindihomepage.com का विशेष जिक्र किया. उन्होंने बताया कि ये पोर्टल पूरे विश्व में फैले करोड़ों हिन्दी भाषियों के लिए एक वैश्विक मंच की तरह विकसित किया जा रहा है. इस पर विश्व की सभी
क्या संपूर्ण निराशा में लिखना संभव है ? काफ़्का आखिर तक लिखते रहे-और वे लोग भी जो मृत्यु को जानते थे। ‘‘आत्मा क्या है ?’’ किर्केगार्द ने पूछा था। ‘‘आत्मा वह है कि हम इस तरह जी सकें जैसे हम मर गए हैं, दुनिया की तरफ से मृत।’’ जब हम जवान होते हैं, हम समय के खिलाफ़ भागते हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों बूढ़े होते जाते हैं, हम ठहर जाते हैं, समय भी ठहर जाता है, सिर्फ मृत्यु भागती है, हमारी तरफ। निर्मल वर्मा

हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती - अनुज लुगुन

हमारे सपनों में रहा है एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए खेतों के सम्मान को बनाए रखना हमारे सपनों में रहा है कोइल नदी के किनारे एक घर जहाँ हमसे ज़्यादा हमारे सपने हों हमारे सपनों में रही है कारो नदी की एक छुअन जो हमारे आलिंगनबद्ध बाजुओं को और गाढ़ा करे हमारे सपनों में रहा है मान्दर और नगाड़ों की ताल में उन्मत्त बियाह हमने कभी सल्तनत की कामना नहीं की हमने नहीं चाहा कि हमारा राज्याभिषेक हो हमारे शाही होने की कामना में रहा है अंजुरी भर सपनों का सच होना दम तोड़ते वक़्त बाहों की अटूट जकड़न और रक्तिम होंठों की अंतिम प्रगाढ़ मुहर। हमने चाहा कि पंडुकों की नींद गिलहरियों की धमा-चौकड़ी से टूट भी जाए तो उनके सपने न टूटें हमने चाहा कि फ़सलों की नस्ल बची रहे खेतों के आसमान के साथ हमने चाहा कि जंगल बचा रहे अपने कुल-गोत्र के साथ पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें पेड़ की जगह पेड़ ही देखें नदी की जगह नदी समुद्र की जगह समुद्र और पहाड़ की जगह पहाड़ हमारी चाह और उसके होने के बीच एक खाई है उतनी ही गहरी उतनी ही लम्बी जितनी गहरी खाई दिल्ली और सारण्डा जंगल के बीच है जितनी दूरी
अपनो से कोई लंबे समय तक नाराज नहीं रह सकता है फ़िर तुमसे कैसे रह सकता हूँ नाराज़, बस युही थोड़ी सी कुनकुनी और गुनगुनी सी नाराजियाँ है जो भाप के मानिंद उड़ जायेगी पर तुम कही गहरे पैठकर तो बैठे नहीं हो.....किसी गहरे पानी में......किसी गहरी खोह में, किसी ऊँचे आसमान में, जहां तक मै पहुँच ही नहीं सकूं और चीखता रहू पागलों की तरह.....

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं, सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं। दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई, दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई। पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर? मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर। इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर? कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर! आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
तुम तो सब भूल सकते हो और भूल भी जाओगे ही पर में क्या करू...............मुझे तो लगता है कि अब साँसों के साथ ही स्मृतियाँ जायेंगी......... सुना तो था कि रिश्ते बहुत नाजुक होते है पर जब दरकते देखा तो लगा कि यह क्या हो रहा है..........ठीक ऐसे ही था जैसे किसी अपने को तिल - तिल मरते देखना और फ़िर..........एकाएक फक्क से उड़ जाना प्राणों का................बेजान सा रह जाना एक जीते जागते शरीर का.... बस मोहपाश से बचना, बचना उस सब से - जो बांधता है डोर से और फ़िर तोडता है डोर से.........बचना उस सब से जो आरोह अवरोह के सुरों से उठाकर अनहद तक ले जाता है और फ़िर मंद सप्तक के बीच तोड़ देता है सुर एकदम से ...बचना उस सब से जहां सब कुछ, सब कुछ के बीच खत्म हो जाता है..........