अक्सर हमें जिंदगी में रोज कोई ना कोई मांगने वाले मिलते रहते हैं, कभी कोई दरवेश आ जाता है, कभी किसी वार के नाम पर, भगवान के नाम पर मांगने वाले, कभी शनि भगवान के नाम पर और कभी किसी और के नाम पर ; दिन भर कोई अल्लाह के नाम पर, कभी श्री साईं के नाम पर, कभी राम या कृष्ण के नाम पर कभी हम खुद उत्साहित होकर देने चले जाते है - अपने अपराध बोध में कि शायद नगदी या शिदा [गेहूं, दाल , चावल और गुड शक्कर आदि जैसा सूखा अन्न ] देने से पाप मुक्त हो जाएंगे, कभी हम अपने या अपने पुरखों के नाम पर भोजन करवा देते है - गरीबों, भिखारियों, विकलांगों को या अंधे लोगों को, कभी मंदिर में दान कर आते है या जुम्मे के दिन हीबा कर देते है - यह सोचकर कि हम यह सब करके मुक्त हो जाएंगे कभी आपने सोचा कि आप जो दान-धर्म में दे रहे है, वह आपका है ही नहीं - जिसे आप धन कहते है वह नोट या करेंसी सरकार की है, आपके पास आपकी संपत्ति के रूप में वह तब तक है - जब तक आपने उसे धरकर रखा है - तभी उस पर लिखा है कि "धारक को पांच सौ रुपए देने की गारंटी" कोई तीसरा आदमी दे रहा है, जो धान्य आप दान कर रहें है शिदा के रूप में वह प्रकृति का है...
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