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Showing posts from January, 2012
एक अकेली छतरी में जब आधे आधे भीग रहे थे आधे गीले आधे सूखे, सूखा तो मैं ले आई गीला मन शायद बिस्तर के पास पड़ा हो.. .................. Gulzar

डायरी

डायरी Nityanand Gayen मैं जिस डायरी में लिख रहा हूँ यह कविता यह तुम्हरी है । इस डायरी की तरह , कभी मैं भी तुम्हारा हुआ करता था । आज न यह डायरी तुम्हारे पास है और न ही मैं तुम्हारे पास हूँ । इस डायरी को जब छोड़ा था तुमने मेरे पास खाली था इसका हर पन्ना बिलकूल मेरी तरह । इस डायरी का हर पन्ना तो मैंने भर दिया है लिख -लिख कर कवितायेँ किंतु मैं आज भी खाली हूँ बिलकूल पहले की तरह .

इंदौर में 4 फरवरी2012 को स्व ओम प्रकाश रावल स्मृति कार्यक्रम में

इंदौर में 4 फरवरी2012 को स्व ओम प्रकाश रावल स्मृति कार्यक्रम में "भाषा की राजनीती और राजनीती की भाषा" पर प्रखर वक्ता राहुल देव अपनी बात रखेंगे. प्रेस क्लब इंदौर में शाम 630 पर आप सभी आमंत्रित है. रावल जी मप सरकार में शिक्षा मंत्री थे साथ ही एक ओजस्वी वक्ता, विचारक और शिक्षाविद थे. सर्वोदय प्रेस सर्विस, स्व रावल जी के बेटे ड़ा असीम रावल, जो कई बरसो से अमेरिका में है, उनकी पत्नी कृष्णा जी और बाकी साथी मिलजुलकर इस कार्यक्रम को बरसो से सफल आयोजित करते आ रहे है........पुराने दुर्लभ साथियो से मिलने का मौका और महत्वपूर्ण चर्चा में भागीदारी के लिए अदभुत अवसर होता है यह मालवे में......कार्यक्रम में महत्वपूर्ण रोल निभाते है चिन्मय मिश्र, सिद्धार्थ जैन, ड़ा राजीव लोचन शर्मा, राकेश दीवान, और भी ढेर सारे जमीनी लोग. प्रगतिशील विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले साथियो से भेंट भी होती है....यहाँ जरूर आईये......

महाप्राण निराला और वसंत पंचमी 28 Jan 2012.

वर दे , वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ! वर दे, वीणावादिनि वर दे। भारति, जय, विजयकरे कनक-शस्य कमलधरे लंका पदतल शतदल गर्जिर्तोर्मि सागर-जल धोता शुचि-चरण युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे तरु-तृण-वण-लता वसन , अंचल में खचित सुमन गंगा ज्योतिर्जल-कण , धवल -धार हार गले मुकुट शुभ्र हिम-तुषार, प्राण प्रणव ओंकार ध्वनित दिशायें उदार , शतमुख-शतरव मुखरे शमशेर की एक कविता उनके लिए-- भूलकर जब राह – जब – जब राह.. भटका मैं तुम्हीं झलके, हे महाकवि, सघन तम की आँख बन मेरे लिए, अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिए- जगत के उन्माद का परिचय लिए,- और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम, हे महाकवि ! सहजतम लघु एक जीवन में अखिल का परिणय लिए- प्राणमय संचार करते शक्ति औ छबि के मिलन का हास मंगलमय; मधुर आठों याम विसुध खुलते कंठस्वर में तुम्हारे, कवि, एक ऋतुओं के विहंसत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल
काग़ज़ की कश्तियाँ भी बड़ी काम आएँगी जिस दिन हमारे शहर में सैलाब आयेगा - शहरयार

ड़ा प्रकाश कान्त की पोटली से "शहर की आख़िरी चिड़िया" और "टोकनी भर दुनिया"

आज शाम को एकांत श्रीवास्तव के कार्यक्रम के बहाने से पूरी देवासी चौकड़ी मिली इसी देवास शहर में घूमते- घामते कुछ काम किये और फ़िर ड़ा प्रकाश कान्त के घर जा पहुंचे ढली शाम और कुडकुडाती हुई ठण्ड में .......ताई के हाथो की चाय पीने, ढेर सारा नमकीन खाना जैसे पुराने कई जन्मो का कर्ज हो और ड़ा कान्त यानी हमारे अन्ना से ढेर सारी गपशप.....मेरी और मनीष वैद्य की तो खिचाई हो ही जाती है, जब जाते है तब क्योकि हम दोनों नालायक लिखते पढते नहीं है और हमारे पास राजेन्द्र यादव से ज्यादा ना लिखने के कारण है..........अब क्या कहे अन्ना शब्द जैसे तारे हो गए और जमीन पे आते ही नहीं.......कोई आमीर ही हमें जमीन पे खींच ला सकता है ...खैर आज तो हिट हो गयी किसी बहाने से मैंने और बहादुर ने जबरजस्ती की और अन्ना की पोटली से दो किताबे निकलवा ली....."शहर की आख़िरी चिड़िया" और हाल ही में नयीकिताब से प्रकाशित किताब "टोकनी भर दुनिया" और आज किस्मत ही थी इस भले आदमी ने हमें अपने हस्ताक्षर करके किताबे दी और तस्वीर भी खिचवाई है अपने साथ.....अमेय शायद यहाँ डाल दे उपकृत रहूंगा. ड़ा प्रकाश कान्त हिन्दी कहानी

किरदारों ने असर पैदा कर दिया! अदभुत है अग्निपथ!

27 January 2012 One Comment [X] ♦ संदीप नाइक अ ग्निपथ करण जौहर की एक बढ़िया फिल्म है। न सिर्फ उन्होंने अपने पिता को एक बेहतरीन तोहफा दिया बल्कि कसा हुआ निर्देशन, प्रभावी डायलाग, फिल्मांकन, दृश्य और सबसे बढ़िया कलाकारों का चयन और उनसे पूरा काम लेने की अदभुत कला करण के पास ही हो सकती थी। यह फिल्म सिर्फ फिल्म नहीं, बल्कि एक विचित्र समय में मानक, उपमाओं और बिंबों को बाइस्कोप के जरिये देखने का मौका है। जहां ऋषि कपूर अपने जीवन के श्रेष्ठ रोल में है, वहीं इस वर्ष के सारे खलनायको के पुरस्कार संजय दत्त ले जाएंगे। प्रियंका चोपडा को स्पेस नहीं मिला, इसलिए वो अपने जौहर नहीं दिखा पायी, पर ओमपुरी, हृतिक, जरीना वहाब और बाकी किरदारों ने गजब ढा दिया है। हृतिक की बहन बनी छोटी सी लडकी ने “मिली” फिल्म की जया भादुड़ी की याद दिला दी – वही निश्चलता, भोली सी आंखें और सहजपन। सूर्या के रूप में पंकज त्रिपाठी का अभिनय बहुत प्रभावी बन पड़ा है। जहां वे कांचा के सहायक के रूप में सशक्त भूमिका अदा करते हैं, वही वे दर्शकों पर स्थायी रूप से अपने किरदार की छाप भी छोड़ते हैं। उनके हकल

उस टेलर की तलाश आज भी है, जिसने कांचा के कपड़े सिले थे

[X] ♦ रवीश कुमार भो र होने में कुछ घंटे बाक़ी रहे होंगे। दरवाजे की सांकल को चुपचाप लगाकर निकल गया था। गांधी मैदान की तरफ पैदल ही। फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का जुनून टीवी और मल्टीप्लेक्स के आने के पहले सिनेमा संस्कृति का हिस्सा रहा है। टिकट खिड़की पर कतार में खड़ी भीड़ के कंधे के ऊपर से चलते हुए काउंटर तक पहुंच जाने वाले भले ही लफंगे कहे जाएं, मगर उनका यह करतब मुझे सचिन तेंदुलकर के छक्के जैसा अचंभित कर देता था। पर्दे तक पहुंचने के पहले ऐसे हीरो से मुलाकात न हो, तो सिनेमा देखने का मजा नहीं मिलता। तय हुआ कि पहले दिन और पहले ही शो में देखेंगे वर्ना अग्निपथ नहीं देखेंगे। पैसा दोस्तों का था और पसीना मेरा बहने वाला था। जल्दी पहुंचने से काउंटर के करीब तो आ गया, मगर काउंटर के उस्तादों के आते ही मुझे धकेल कर कोई अस्सी नब्बे लोगों के बाद पहुंचा दिया गया। लाइन लहरों की तरह डोल रही थी। टूट रही थी। बन रही थी। लाइन बहुत दूर आ गयी थी। लोग धक्का देते और कुछ लोग निकल जाते। नये लोग जुड़ जाते। यह क्रम चल रहा था। तभी पुलिस की पार्टी आयी और लाठी भांजने लगी। तीन-चार लाठी तबीयत से जब प

अगर वाकई कुछ करना है, तो डिग्रियों को फेंक दीजिए!- ♦ बंकर रॉय

[X] ♦ बंकर रॉय च लिए आपको एक दूसरी ही दुनिया में ले चलूं। और आपको सुनाऊं एक 45 साल पुरानी प्रेम-कथा। गरीब लोगों से प्रेम की कथा, जो कि प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम कमाते हैं। मैं एक बेहद संभ्रांत, खडूस, महंगे कॉलेज में पढ़ा, भारत में, और उसने मुझे लगभग पूरी तरह बरबाद कर ही दिया था। सब फिक्स था – मैं डिप्लोमेट, शिक्षक या डॉक्टर बनता – सब जैसे प्लेट में परोसा पड़ा था। साथ ही, मुझे देख कर ऐसा नहीं लगेगा कि मैं स्क्वैश के खेल में भारत का राष्ट्रीय चैंपियन था, तीन साल तक लगातार। (हंसी) सारी दुनिया के अवसर मेरे सामने थे। सब जैसे मेरे कदमों में पड़ा हो। मैं कुछ गड़बड़ कर ही नहीं सकता था। और तब, यूं ही, जिज्ञासावश मैंने सोचा कि मैं गांव जाकर रहूं और काम करूं – बस समझने के लिए कि गांव कैसा होता है। 1965 में , मैं बिहार गया। वहां अब तक का सबसे भीषण अकाल पड़ा था। मैंने भूख और मौत का नंगा नाच देखा। पहली बार ठीक मेरे सामने लोग भूख से मर रहे थे। उस अनुभव ने मेरा जीवन बदल डाला। मैं वापस आया और मैंने अपनी मां से कहा, “मैं एक गांव में रहना और काम करना चाहता हूं।” मां कोमा में चली

२६ जनवरी के अवसर पर " नि‍त्‍यानंद गायेन"

‎ Nityanand Gayen : २६ जनवरी के अवसर पर भूख-शोषण और धर्म की गुलामी में किन्तु सुना है मैंने कई बार- हम आज़ाद हो चुके हैं उन्हें कहते हुए कुछ तो सच्चाई होगी उनकी बातों में वे शायद सच में आज़ाद हैं तभी तो लूट रहे हैं जी भर कर उन्हें लूटने की आज़ादी है मेरी आज़ादी के नाम पर मिली है मुझे गरीबी, शोषण, अशिक्षा और कुछ आरक्षण का वादा एक सरकारी कागज़ पर उन्हें मालूम था मुझे पढना नही आता .

अग्निपथ करण जौहर की एक बढ़िया फिल्म

अग्निपथ करण जौहर की एक बढ़िया फिल्म है ना मात्र उन्होंने अपने पिता को एक बेहतरीन तोहफा दिया वरन कसा हुआ निर्देशन, प्रभावी डायलाग, फिल्मांकन, दृश्य और सबसे बढ़िया कलाकारों का एकदम सही चयन और उनसे पूरा काम लेने की अदभुत कला करण के पास ही हो सकती थी. यह फिल्म सिर्फ फिल्म नहीं, वरन एक विचित्र समय में मानक, उपमाओ और बिम्बों को बायस्कोप के जरिये देखने का मौका है; जहां ऋषि कपूर अपने जीवन के श्रेष्ठ रोल में है, वही इस वर्ष के सारे खलनायको के पुरस्कार संजय दत्त ले जायेंगे ......प्रियंका चोपडा को स्पेस नहीं मिला इसलिए वो अपने जौहर नहीं दिखा पाई, पर ओमपुरी, ऋतिक, जरीना वहाब और बाकी किरदारों ने गजब ढा दिया है. ऋतिक की बहन बनी छोटी सी लडकी ने "मिली" फिल्म की जया भादुड़ी की याद दिला दी- वही निश्चलता, भोली सी आँखे और सहजपन..... गीत संगीत और कैमरे के अदभुत संयोजन से यह फिल्म आज के दिन दो अजीज मित्रों के साथ देखना बहुत ही सुखद अनुभव है. करण जौहर निश्चित ही बधाई के पात्र है बस विजय दीनानाथ चौहान के रूप में अमिताभ की कोई बराबरी नहीं और डैनी का रोल भी उस अग्निपथ में अप्रतिम था ही...........पर यह आ

आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें: अल्‍लामा इकबाल की रचना। रब्‍बानी ब्रदर्स की आवाज़।

आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें: अल्‍लामा इकबाल की रचना। रब्‍बानी ब्रदर्स की आवाज़। अकसर यू-ट्यूब पर ग़ोता लगाने से कुछ अनमोल गाने हाथ लग जाते हैं। और इस बार भी यही हूआ है। इस बार हमें मिली है अल्‍लामा इक़बाल की रचना 'एक नया शिवाला'। इसे एक निजी कंपनी ने अपनी सीरीज़ 'म्‍यूजिक का तड़का' के लिए तैयार करवाया है। और आवाज़ें हैं रब्‍बानी ब्रदर्स की। रब्‍बानी ब्रदर्स कहने से तो वैसे भी समझ नहीं आता। पर अगर हम कहें कि इसे मुर्तज़ा, क़ादिर और रब्‍बानी मुस्‍तफा ने गाया है, तो शायद कुछ लोग इन गायकों को फौरन समझ जायेंगे। असल में ये तीनों रामपुर-सहसवान घराने के नामी गायक पद्म-भूषण उस्‍ताद गुलाम मुस्‍तफ़ा ख़ां के बेटे हैं। ज़ाहिर है कि उन्‍हीं के शिष्‍य भी हैं। यहां ये बता देना ज़रूरी लगता है कि इन भाईयों में से मुर्तज़ा और क़ादिर ने ए.आर.रहमान के निर्देशन में कई फिल्‍मों में गाया है। जिनमें 'पिया हाजी अली' (फिज़ां), 'नूर-उन-अल्‍लाह' (फिल्‍म मीनाक्षी), 'चुपके से' (फिल्‍म साथिया) और 'तेरे बिना बेस्‍वादी रतियां

कैसा और किसका गणतंत्र ?

परेड देखकर थोड़ा सा रोम्मंचित तो हो ही जाता हूँ खासकरके भ्रष्ट फौज में कुछ लोग जब इस देश नामक चिड़िया पर अपनी जान दे देते है..........और ये युवा अधिकारी अपने पीछे छोड़ जाते है बिलखते परिजन और असीम भावनाएं..............और देश एक तमगे के अलावा क्या देता है अपनी पेंशन लेने के लिए भी इन्हें कितनी मुसीबते झेलना पडती है यह अकथनीय है...........देश .............अरे कहा है वो देश और कहा है वो लोग.......कैसा और किसका गणतंत्र .? दिल्ली तो दिल्ली है इस शहर ने जितना देश का भला किया उससे ज्यादा नुकसान भी किया है सौ बार उजडने के बाद फ़िर फ़िर बसी और बाकी पुरे हिन्दुस्तान को उजाडा है............और सरे लोग आतंकित है यहाँ के बाशिंदों से और यहाँ की फिजाओं से...............राजपथ और अपने ताकत का गुमान, दर्शक दीर्घा में बैठे लोग और इसा सबके बीच नेताओं का हुजूम बस यही सब रह गया है गणतंत्र के नाम पर और हम जैसे लोग सिर्फ तुक्र टुकुर देखते रहते है दिल्ली की और............बोल दिल्ली तू क्या कहती है.. गणतंत्र दिवस के पहले तो कोई संदेश नहीं आये, सारे दोस्तों को इसकी याद नहीं रहती............नए साल के सन्

सूरज को सोचता हूं

Nityanand Gayen की कलम से............. अब कभी -कभी मैं सूरज को सोचता हूं उसके अकेलेपन को सोचता हूं उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं कैसे सह रहा है वह इस जलन को सदियों से ख़ामोशी से ? निथर हो कर मैं यह सोचता हूं

बुद्धिजीवियों के उद्धार का ठेका

सत्यनारायण के साथ मुझे बांदा जाना था सुनील और बहादुर जा रहे है और मुझे भी शबरी पुरस्कार वितरण समारोह में जाना था पर हमने सिस्टम बनाए है जो आदमी को मारने के लिए ईजाद किये गए है आदमी को किस तरह से इतना हैरान परेशान किया जाए कि वो त्रस्त होकर गुलाम बन् जाए और फ़िर बिलकुल गुलामो की तरह से व्यवहार करने लगे.......एक गंदे नाले में पड़ा हुआ सिस्टम और बेहद धूर्त दर्जे के घटिया लोग, सिवाय मक्कारी और रूपया कमाने के जिन्हें कुछ ना आता हो और ऊपर से सरकारी मुलम्मा पहनकर ओढकर बिछाकर ये लोग किस लोकतंत्र की बात करते है .....शर्मनाक है यह सब, राज्य और कल्याणकारी राज्य का सपना संजोये हुए हमने १९५० को गणतंत्र बनाया था और कल उसकी बरसी है दुर्भाग्य की ऐसे लीचड लोग जिन्हें लोकतंत्र के "ल" में यकीन नहीं, ना आस्था- वो इस देश के बुद्धिजीवियों के उद्धार का ठेका लिए बैठे है.....खून खोल रहा है आज देश के नाम , नेताओं के नाम, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स के नाम, दो कौड़ी के बाबूओ के नाम.... दिल करता है कि बगावत करके सबको ठीक कर दू और तंत्र उखाड फेंकू..................रास्ता किधर है.........????

सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

Varun Kumar मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो आपकी नज़र में रुकी होती है सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर गुंडों की तरह अकड़ता है सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है जो हर हत्‍याकांड के बाद वीरान हुए आंगन में चढ़ता है लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं पड़ता सबसे ख़तरनाक व

Nityanand Gayen एक बार फ़िर.......

Nityanand Gayen एक बार फ़िर....... तुम भी दूरी मापती होगी हम दोनों की आखरी दिवाली पर तुमने दिया था जो घड़ी मुझे आज भी बंधता हूं उसे मैं अपनी कलाई पर घड़ी - घड़ी समय को देखने के लिए उस घड़ी में समय रुका नही कभी एक पल के लिए तुम्हारे जाने के बाद भी निरंतर चलती रही वह घड़ी समय के साथ अपनी सुइओं को मिलाते हुए घड़ी की सुइओं को देखकर मैंने भी किया प्रयास कई बार उस समय से बाहर निकलने की जहाँ तुमने छोड़ा था मुझे अकेला समय के साथ किन्तु सिर्फ समय निकलता गया और मैं रुका ही रह गया वहीँ पर निकल न पाया वहां से अब तक जहाँ छोड़ा था तुमने मुझे नही पता तुम्हारे घड़ी के बारे में क्या वह भी चल रही है तुम्हारे साथ तुम्हारी तरह ? कितनी दूर निकल गई हो कभी देखा है पीछे मुड़कर ? जनता हूं आगे निकलने की चाह रखने वाले कभी मुड़कर नही देखते पीछे पर मुझे लगता है कभी -कभी अकेले में तुम भी दूरी मापती होगी हम दोनों के बीच की .

Nityanand Gayen की जादूई कलम ............

मैंने लिखे उन्हें ख़त मिले उन्हें मेरे ख़त किन्तु जबाव न आया मेरे किसी ख़त का मेरे ख़त के जबाव में कोई ख़त न भेज कर उन्होंने मेरे खतों का जबाव दिया खामोश रहकर . कहीं कभी किसी दिन हम दोनों मिल जाएं जीवन के किसी राह पर तब क्या हम मिल पायेंगे ठीक पहले की तरह ? अक्सर मेरे मन में यह सवाल उठता है उस वक्त शायद हम याद करेंगे उस पल को जब हम बिछड़े थे एक - दुसरे से मिलन से भी कठिन होगा मिलन को यादगार बनाना मन में उठे सवालों का तब हम जवाब खोजेंगे और खोजेंगे कुछ शब्द एक -दुजे को संबोधित करने के लिए और सोचेंगे यह कि कौन था जिम्मेदार हमारे बिछड़ने का ताकते रहेंगे एक -दुसरे का चेहरा कुछ छ्णों तक शर्म भरी आँखों से देखेंगे एक - दुसरे कि आँखों में और शायद - बनावटी खुशी की एक चादर ओड़ने का प्रयास करेंगे अपने चहरों पर फिर से एक औपचारिक मिलन बन जायेगा यह मिलन जैसे मिलते हैं - दो अजनबी कभी - कभी किसी सुनसान सड़क पर

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं बेफ़ायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये ने'आमत भी कम नहीं मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अह्ल-ए-सितम नहीं मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़ इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं - जिगर मुरादाबादी
हमसे बदल गया वो निगाहें तो क्या हुआ ! जिंदा हैं कितने लोग मुहब्बत किये बगैर !!

या तो इसे सब कुछ चाहिए या कुछ भी नहीं.............

जिंदगी में जो भी मिला उसे स्वीकारता गया पर अब लगता है कि एक पसंद होनी चाहिए, समझौते ना करना पड़े इतनी शक्ति अब होनी चाहिए चाहे कुछ भी हो जाए और तमाम उम्र तो लड़ते भिडते रहे पर अब सम्मान, पद, प्रतिष्ठा और वो सब कुछ लेना होगा जो एक अदद जीवन जीने के लिए चाहिए होता है .....मराठी में कहते है खायेंगे तो सोना या भूखों मर जायेंगे..........या जगजीत की गजल के शब्दों में कहू तो दिल भी किसी बच्चे की तरह जिद पर अड़ा है या तो इसे सब कुछ चाहिए या कुछ भी नहीं............. — with Mohit Dholi and 2 others .
हम जिसे अपना मानते है सबसे ज्यादा वही हमारे लिए परेशानी का सबब बनते है................... जीवन जीने के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत होती है और यार दोस्त वगैरह सब धोखा है................ठीक वैसे ही जैसे प्यार मुहब्बत..............................
एक जीवन जीने के लिये कितने लोगो की जरूरत पडती है.................आज आलोक से बातें हो रही थी तो उसने एक अदभुत वाक्य कहा कि " मुझे जीवन के लिए ज्यादा लोगो की जरूरत नहीं है" बात तो सही थी........मैंने भी अपने आप में झाँक कर देखा और पूछा कि क्या बात सही है और अपने जीवन में अपना सकता हूँ..........तो कोई बहुत ठोस जवाब नहीं आया....................पता नहीं बहुत उहापोह है और बेचैनी भी............

राख हुए सपने

'गुलाबी' के सपने तो बहुत थे उन्हें तोड़ने वाले कहाँ कम थे ? रंगीन चूड़ियों का सपना सहृदय बालम का सपना सबको अपना बनाने का सपना जलाई जाएगी उसे केरोसिन डालकर नही था ये सपना गुलाबी का पर ........................ राख हुए सब सपने गुलाबी के साथ Nityanand Gayen

बेवफ़ा हो जायें _अहमद फराज

इस से पहले के बेवफ़ा हो जायें क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जायें तू भी हीरे से बन गया पत्थर हम भी कल क्या से क्या हो जायें हम भी मजबूरियों का उज़्र करें और कहीं और मुब्तला हो जायें इश्क़ भी खेल है नसीबों का ख़ाक हो जायें किमिया हो जायें अब के गर तू मिले तो हम तुझ से ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जायें बन्दगी हम ने छोड़ दी है ‘फराज़’ क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जायें

मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं

जिंदगी तूने लहू लेके दिया कुछ भी नहीं तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं हमने देखा है कई ऐसे खुदाओं को यहाँ सामने जिनके वो सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं या खुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार ज़र्द ही ज़र्द है पेडों पे हरा कुछ भी नहीं दिल भी इक जिद पे अडा है किसी बच्चे की तरह या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं.....
कोई रूठे अगर तुमसे, उसे फ़ौरन मना लेना , कि जंग में अक्सर , जुदाई जीत जाती है !!

सरकारी नौकरी लग जाए किसी भी तरह से....

मप्र जैसे गरीब राज्य में जिस तरह से रोज भ्रष्टाचार के किस्से सामने आ रहे है और दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे के कर्मचारी पकड़ा रहे है वो बेहद चिंतनीय है, हो सकता है कि जोशी दंपत्ति और योगीराज जैसे शूरवीरों को पकडने के बाद लोकायुक्त की नजर प्रशासन सेवा पर नहीं पड़ रही या पडने दी जा रही है पर जिस अंदाज में छोटे कर्मचारियों के यहाँ करोडो की अकूत संपत्ति मिल रही है वो दर्शाता है कि ये सब लोग स्थानीय नेताओं औ र छुटभैय्ये के हाथो बिके हुए है और आम आदमी बेहद मजबूर है....आज एक सेवानिवृत कर्मचारी ने बताया कि निम्न श्रेणी का बाबू भी रोज अपनी टेबल से तीन हजार का गल्ला रोज उठा रहा है और इसमे से वो कम से कम दो हजार अपने घर ले जा रहा है....यहाँ तक कि चपरासी भी बेहद शेर हो गए है इस तंत्र में, शर्मनाक है यह सब. जितना मै उम्मीद कर रहा था पारदर्शिता और मूल्य प्रदत्त शासन की वो उतना ही खोखला साबित हो रहा है पिछले साढ़े तीन बरसो में भ्रष्टाचार ने खासकरके सरकारी कर्मचारियों के घरों से मिली संपत्ति से पुरे प्रदेश के बजट का उद्धार हो सकता है...मुझे आजतक नहीं पता कि जोशी दंपत्ति और बाकी से बरामद रू

सरकारी नौकरी लग जाए किसी भी तरह से....

मप्र जैसे गरीब राज्य में जिस तरह से रोज भ्रष्टाचार के किस्से सामने आ रहे है और दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे के कर्मचारी पकड़ा रहे है वो बेहद चिंतनीय है, हो सकता है कि जोशी दंपत्ति और योगीराज जैसे शूरवीरों को पकडने के बाद लोकायुक्त की नजर प्रशासन सेवा पर नहीं पड़ रही या पडने दी जा रही है पर जिस अंदाज में छोटे कर्मचारियों के यहाँ करोडो की अकूत संपत्ति मिल रही है वो दर्शाता है कि ये सब लोग स्थानीय नेताओं औ र छुटभैय्ये के हाथो बिके हुए है और आम आदमी बेहद मजबूर है....आज एक सेवानिवृत कर्मचारी ने बताया कि निम्न श्रेणी का बाबू भी रोज अपनी टेबल से तीन हजार का गल्ला रोज उठा रहा है और इसमे से वो कम से कम दो हजार अपने घर ले जा रहा है....यहाँ तक कि चपरासी भी बेहद शेर हो गए है इस तंत्र में, शर्मनाक है यह सब. जितना मै उम्मीद कर रहा था पारदर्शिता और मूल्य प्रदत्त शासन की वो उतना ही खोखला साबित हो रहा है पिछले साढ़े तीन बरसो में भ्रष्टाचार ने खासकरके सरकारी कर्मचारियों के घरों से मिली संपत्ति से पुरे प्रदेश के बजट का उद्धार हो सकता है...मुझे आजतक नहीं पता कि जोशी दंपत्ति और बाकी से बरामद रू

‎"कुछ रिश्ते ऊपर से दिखाई नहीं देते।"

उन्होंने कहा...मुझे कभी-कभी डर लगता है...क्रिश्चियन होने से ? मैंने पूछा...नहीं, वह बोली, अगर उन्होंने मुझे क़ब्र में दफ़ना दिया और मेरे भीतर जान बची हो ? मैं चाहती हूं कि मुझे ज़मीन में गाड़ने से पहले थोड़ा-सा जलाया जाए, ताकि अगर जीवित हूं, तो थोड़ी-सी जलन लगते ही उठ खड़ी हूं।...एक बार क़ब्र के भीतर गई, तो कोई मेरी आवाज़ भी नहीं सुन सकेगा...कैसी पागल थी...? ‎"कुछ रिश्ते ऊपर से दिखाई नहीं देते।" (अंतिम अरण्य, निर्मल वर्मा)

गोरख पाण्डेय-जनकवि--समझदारों का गीत ...........

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं हम समझते हैं ख़ून का मतलब पैसे की कीमत हम समझते हैं क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं हम इतना समझते हैं कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं। चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम हम बोलने की आजादी का मतलब समझते हैं टुटपुंजिया नौकरी के लिये आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं मगर हम क्या कर सकते हैं अगर बेरोज़गारी अन्याय से तेज़ दर से बढ़ रही है हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के ख़तरे समझते हैं हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं हम समझते हैं हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं। हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है हम सरकार से दुखी रहते हैं कि समझती क्यों नहीं हम जनता से दुखी रहते हैं कि भेड़ियाधसान होती है। हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं हम समझते हैं मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी हम समझते हैं यहां विरोध ही बाजिब क़दम है हम समझते हैं हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं हम समझते हैं हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं हर तर्क गोल-मटोल भाषा में पेश क

देवास के ओटले पर हिन्दी के सशक्त कवि एकांत श्रीवास्तव — 28 January at 17:30.

प्रिय साथी , सुनना , गुनना और बोलना हमारी परम्परा ही नहीं बल्कि संस्कृति का एक अभिन्न अंग है . हमारे मालवे में बड़े बूढ़े और सयाने लोग इसी सब के साथ हमेंशा लगे रहते है ओर सबके साथ सब कुछ साझा करते है , और यही हमारी ताकत है . हम सब देवास के लोग जो लिखने - पढने का शौक रखते है कुछ ल िखते पढते ओर गुनते बुनते है सबके साथ साझा ही नहीं करते पर दूसरों को भी सुनने में और समझने में यकीन करते है. देवास में लिखने पढने वालो की एक वृहद लंबी परम्परा रही है संगीत, साहित्य, चित्रकला ओर ना ना प्रकार की ललित कलाएं इस शहर की विशेषता है और इस कला को हम साकार होते देखते है जब अपनी ही माटी के लोग उठते और खड़े होते है पूरी प्रतिबद्धता ओर उत्साह के साथ कि देश- प्रदेश में सबके साथ सबके लिए कुछ सार्थक करेंगे. ओटले के प्रथम आयोजन में दिल्ली के ड़ा जीतेंद्र श्रीवास्तव के कविता पाठ को हम भूले नहीं है अभी, उस आयोजन की गरिमा और गंभीरता को आप सबने रेखांकित भी किया था. देवास के ओटले पर हम सब मिल रहे है दूसरी बार फ़िर से हिन्दी के सशक्त कवि एकांत श्रीवास्तव के
सगे कुए शेरे अजदानुम, हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ? रहे आजाद या ज़द में हमन दुनिया से यारी क्या ? जो बिछड़े हैं प्यारे से, भटकते दर बा दर फिरते, हमारा यार है हममे, हमन को इंतजारी क्या ? न पल बिछड़े पिया हम से, न हम बिछड़े पियारे से, इन्ही से निह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ? कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाजिक है, हमन से बोझ भारी क्या ?