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Showing posts from May, 2017

इन परछाईयों को उजालों की दरकार है -नटरंग थियेटर्स की प्रस्तुति 31 मई को देवास में.

इन परछाईयों को उजालों की दरकार है   देवास का सांस्कृतिक परिवेश बहुत समृद्ध रहा है संगीत, ललित कलाएं और चित्रकला यहाँ की प्रमुख विधाएं रही है परन्तु नाटय कर्म में यह शहर पिछड़ा रहा. मुझे याद पड़ता है मराठी का प्रसिद्द नाटक "फ़क्त एकच प्याला" के रचनाकार गडकरी जी यही के थे. स्थानीय महाराष्ट्र समाज ने काफी समय तक नाटकों को संरक्षण दिया कालान्तर में यह मुहीम धीमी पड़ गई जब लोग टेलीविजन में व्यस्त हो गए और शौक की बात व्यवसाय में बदल गई. इधर दो तिन समूह बनकर उभरें भी, परन्तु व ह दम खम नहीं दिखा जो नाटक को स्थापित कर सकें. हमने अपने जमाने में नुक्कड़ नाटक करके बहुत चेतना और अलख जगाने का काम किया था जिले के लगभग सभी गाँवों में , परन्तु समय के साथ वह भी खत्म हो गया. स्व अमित कवचाले ने "अभिव्यक्ति संस्था" बनाकर काफी काम करने की कोशिश की थी परन्तु अल्पवय में उनके निधन के कारण यह भी गति नहीं पकड़ पाई. कहने को यहाँ से चेतन पंडित ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश लेकर नाटको और फिल्मों में बहुत झंडे गाड़े पर शहर में नाटक का माहौल दुर्भाग्य से नहीं बन पाया.     

है देश ज़िंदा क्योकि देश सबका है.... संदीप नाईक

देश की स्थिति गृह युद्ध से ज्यादा घातक है, हर जगह जाति, वर्ग, वर्ण, राजनीति, अर्थ और वर्चस्व के मुद्दों पर हिंसा हो रही है। तीन सालों में यह सबसे घातक समय है और महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जी ने कल कहा कि जनता को सवाल और अधिक पूछने चाहिए ।कल जब वे एक मीडिया संस्थान में बोल रहे थे तो उन्होंने कहा कि सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति और सत्ता में बैठे लोगों से सवाल होना चाहिए, खासतौर पर ऐसे समय जब सबसे ऊंची आवाज में बोलने वालों के शोर में असहमति की आवाजें डूब रही हैं! अर्थात ये स्वर कोलाहल में ज्यादा तनाव पैदा कर रहे है।ठीक इसके विपरीत मीडिया में आज सभी अखबारों में रंगीन पृष्ठों पर 2, 3 जैकेट और थोथी उपलब्धियों में अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की प्रवृत्ति बहुत ही शर्मनाक है। बहुत निष्पक्ष और तटस्थ भाव से कह रहा हूँ कि जनसंघ से शुरू हुई और संघ के अनुशासनात्मक आचरण वाली पार्टी जो आज भाजपा भी नही मात्र दो व्यक्तियों पर केंद्रित होकर रह गई है यह भी भाजपा के लिए नुकसानदायक है। समय रहते यदि इस आंतरिक तानाशाही और व्यक्ति केंद्रित सत्ता में बने रहने की राजनीति को नियंत्रित नही कि

देवास में सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने की जरुरत 22/5/17

मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र का देवास एक महत्वपूर्ण शहर है, एक ज़माने में यह शहर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी हुआ करता था. सन 1970 में बैंक नोट प्रेस खुलने के बाद यहाँ उद्योग धंधों का प्रादुर्भाव हुआ और तेजी से कल कारखाने खुले. यदि थोड़ा और इतिहास में जाए तो ग्वालियर से धार तक का पूरा इलाका मराठा साम्राज्य के अधीन रहा है जहां शिक्षा एक महत्वपूर्ण और राज्य की जिम्मेदारी हुआ करती थी. क्या कारण है कि यह शहर लगातार पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ता गया और यहाँ के छोटे नौनिहालों और बच्चों को इंदौर तक रोज तक़रीबन तीन से चार घंटें यात्रा करके शिक्षा प्राप्त करने जाना पड़ता है. सरकारी स्कूलों की स्थिति देखें तो हम पायेंगे कि शहर की आबादी के हिसाब से सरकारी स्कूल कम है खासकरके उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बहुत ही कम है प्राथमिक और माध्यमिक की संख्या ठीक ही है. निजी स्कूलों का जाल पुरे शहर में फैला हुआ है जो शिक्षा के नाम पर सिर्फ व्यवसाय कर रहे है. सरकारी विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापक है जो विषय के ज्ञान के साथ पर्याप्त अनुभव भी रखते है परन्तु पालकों को निजी विद्यालयों की लोक ल

Jantar mantar BhimSena and Zee News & Sudhir Choudhary

जंतर मंतर दिल्ली पर जो योगी के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे है , हो सकता है वह सही हो - न्याय पाने के लिए सब कुछ किया ही जाना चाहिए , पर फिर वही सवाल है मेरा जो मैंने तमिलनाडु के किसान आंदोलन के समय किया था कि मित्रों लखनऊ जाओ ना दिल्ली में क्यों। यहां सिर्फ एक तमाशा बनकर रह जाओगे और होना जाना कुछ नही है। दूसरा देश मे इतनी सेनाएं बन चुकी है कि अब किसी मे भरोसा नही रहा - ना हमें , ना दलितों को और ना आदिवासियों को - तो ये नया प्रपंच क्यों। आश्चर्य यह है कि अभी दो माह ही हुए है उप्र में चुनाव को, थोड़ा पहले चेतना जगा लेते तो शायद सत्ता में होते क्योकि जिस अंदाज में बौद्धिक और ज्ञान की बातें हो रही है -कम से कम सोशल मीडिया पर इस सेना के पैरोकार तो महानतम बता रहे है, यह बात थोड़ी पहले करनी थी। वैसे यह बता दूँ कि स्व कांशीराम की पार्टी लाख प्रयास करने के बाद भी 20 सीट्स के आगे कम से कम उप्र में तो बढ़ नही पाई है बाकि चार राज्यों में तो बात मत करो जी, और मुआफ कीजिये दलितों और मुसलमानों ने ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देते हुए प्रचंड बहुमत दिया तो कुल मिलाकर कहना यह है कि यह जो "सनस्क्रटाइजेशन

Narmada Yatra in MP and People

इस गर्मी में जब लोग बस स्टैंड पहुंच रहे है तो प्रशासन के लोग बसों को अधिगृहित कर रहे है , यात्रा के लिए बसें नही है, रोते बिलखते बच्चे, गर्भवती महिलाएं कड़ी धूप में 43 डिग्री तापमान पर झुलस रही है और बस नही है - पूछिये क्यों, क्योकि प्रधान मंत्री अमरकंटक आ रहे है। तीन चार मूल सवाल है जो विरोध नही बस कानूनी दायरे में देखने की जरूरत है : - 1- क्या बसों को अधिगृहित कर भीड़ भेजना कलेक्टर या आर टी ओ का काम है ? 2- क्या यह किसी संविधान में लिखा है कि किसी महामहिम के आने पर इतनी दूर के जिलों से भीड़ को इकठ्ठा कर, जानवरों की भांति ठूंस ठूंसकर ले जाया जाए आखिर इसके मायने क्या है ? 3- बसों को इस तरह के मजमे जहाँ व्यक्ति या पार्टी या सत्ता विशेष की ब्रांडिंग होती हो उसमे आम लोगों को कष्ट देकर सार्वजनिक यातायात के साधनों का दुरुपयोग करना कितना जायज है ? 4- जिले में आये दिन फलाना ढिमका आता रहता है और जिला कलेक्टर स्कूल बंद करवाकर बसें अधिगृहित कर लेते है वो भी प्रायः मुफ्त में और एक चलते फिरते तंत्र को बर्बाद कर देते है ये शासन, प्रशासन या संविधान के किस नियम के तहत करते है इसकी जानका

Justine Biever and Social Worker of CG state.

जिस अंदाज में जस्टिन वीबर मूर्ख बनाकर गया है उससे जस्टिस काटजू फिर एक बार सामयिक हो गए है । वैसे उसकी कोई गलती नही वह तो बच्चा है 23 साल का, उसे बताया गया होगा कि ये गत 70 साल से ये सुतिये बन रहे है और पिछले तीन साल से तो रोज बन रहे है, 15 लाख लेने के लिए अम्बानी अडानी जैसो को अमूल्य देश जोकरों के हाथों सौंप दिया तो 75 - 50 हजार का टिकिट तो यूँही बर्बाद कर सकते है, बाहुबलि जैसी घटिया फ़िल्म को अरबों रुपये से देख सकते है, कूड़े कचरे और प्रदूषित गाड़ियों को एक दिन में खरीद सकते है  तो 5 हजार का निम्नतम टिकिट का क्या, अरबों रुपये लगाकर संसद के सत्र ठप्प रख सकते है तो स्टेडियम की सजावट में खर्च हुए करोड़ो का क्या, उसे समझ आ गया कि ये वो ही बेवकूफाना कौम है जो घण्टों लाइन में लगकर नोटबन्दी में जीवन बर्बाद कर देती है !!! जो जनता शराब, वेश्यावृत्ति और नशे के लिये देश का सोना गिरवी रख देती है, एक जियो की मुफ्त सिम पाकर अपने देश का नाम सर्वाधिक पोर्न देखने वालों में शामिल कर लेती है, 5000 हजार करोड़ घण्टे वाट्स एप से वीडियो कॉल रोज करती है। वस्तुतः यह गाय और मंदिर मस्जिदों के लिए लड़ मरने

जीवन की कहानियां - जीवन की तपती धूप से

1- कॉलोनी में घर के ठीक सामने रहने वाले श्री उमाकांत नागर जी की माताजी का आज देहांत हुआ। प्रवास के बाद आज आया तो यह खबर मिली। श्मशान से लौट रहा हूँ अभी । लग रहा है कि हम कितने अच्छे समाज मे रहते है जहां श्मशान में कोई भेदभाव नही, जात पात नही, ऊंच नीच नही, सब अपनी जिम्मेदारी समझ कर कंडे, पानी, लकड़ी आदि लाने में और सब काम बगैर किसी निर्देश के स्वचालित ढंग से करने लगते है, शांत रहते है, पहचान ना होकर भी सब कितने अनुशासित रहते है, शांत रहकर आपस मे तटस्थ भाव से बातचीत करते रहते है। एक दूसरे को घर या गली तक भी छोड़ देते है पेट्रोल डीजल की परवाह किये बगैर !!! लगता है जीवन मे यह सीखने समझने के लिए और अपनाने के लिए माह में एक दो बार श्मशान जरूर जाना चाहिए, भले ही किसी की भी मिट्टी में चले जाएं - ताकि यह परिवार, समुदाय, समाज , प्रदेश और देश और सबसे ज्यादा भाईचारा बना और बचा रहें। अनुशासित और समझदारी दिखाते हुए साथ मिलकर सब रहें । नागर जी की माताजी को नमन

निर्भया उर्फ़ दामिनी उर्फ़ भारत का ऐतिहासिक न्याय 5 मई 2017

निर्भया उर्फ दामिनी उर्फ एक नाबालिग लड़की उर्फ देश मे आंदोलन और मोमबत्ती की अंगड़ाई से हाहाकार !!! सजा पाए 4 मर्दो को फांसी हो शायद अब, ग़र माफ़ी या पुनर्विचार में कुछ ना हुआ तो सवाल वही कि क्या इससे किसी को भी सबक मिलेगा ? क्या छेड़छाड़, बलात्कार रुकेंगे ? मर्दवादी सोच बदलेंगी ? पितृ सत्ता के ढांचे में बदलाव होगा महिलाओं को समता का अधिकार मिलेगा? क्या महिलाएं खुद आगे आकर अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाएंगी ? क्या अपने जीवन के अधिकार - चाहे वो पढ़ाई का हो, नौकरी करने का, छोटे कपड़े पहनने का, रात बेरात बाहर जाने का, अपनी मर्जी से जीवन जीने का, शादी का या अकेले रहने का महिलाएं खुद लेंगी और क्या ये सब अधिकार उन्हें समाज या परिवार देगा ? काम करने की जगह पर शोषण रुकेगा या महिलाएं खुद तरक्की के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल नही करेंगी, या स्त्री ही स्त्री के विरुद्ध कोई रणनीतिक षड्यंत्र नही रचेंगी ? इस फ़ैसले का दुरुपयोग धन ऐंठने और पुरुषों को परेशान करने में नही होगा DV Act 2005 की तरह ? जेंडर के पुराने पड़ते मुद्दों और जेंडर समानता के नाम पर दुकान चलाने वाली और जेंडर की त

कविता के नोट्स - एक कहानीकार के बानजरिये

स्त्रियों को अपनी कविता में घर गृहस्थी से, प्रेम के उलजुलूल बिम्बों और आत्ममुग्ध सौंदर्यबोध से बाहर निकलना होगा क्योकि यह सब लिखकर वह कुल मिलाकर पुरुष को ही सम्मोहित कर रही है और कविता की पितृ सत्ता उसकी इस कमजोरी का फायदा लेकर उसे पुनः उसी श्रृंगार और छायावादी युग ने धकेलने का कुचक्र रचता है जहां वह कहती रहें - मैं नीर भरी दुःख की बदली। स्त्रियों कविता लिखने के नए बिम्ब चुनो और सदियों पुराने अनुष्ठानिक उपक्रमों को तोड़कर नया रचो वरना सभ्यता की दौड़ में तुम फिर एक काँधा ही तलाशती रहोगी और शिकारी कहानियाँ लिखते रहेंगे तुम्हारे सर्वस्व समर्पण की। **** कविता में स्त्री को अब चूल्हा, चौका, रोटी- माटी या बेसन की गन्ध, फूल पत्ती से आगे आकर लिखना होगा क्योकि अब स्त्री भी बदली है बहुत। जीवनानुभव की चौहद्दी में रहकर शोषण, पीड़ा और काल्पनिक दुनिया में उपेक्षित रहने का उपक्रम बहुत हो गया। आज वस्तुस्थिति यह है कि पुरुष की दुनिया भी उतनी ही एकान्तिक, शोषित और पूर्वाग्रहों वाली है तो क्या पुरुषों ने दीगर विषयों पर लिखना छोड़ दिया है - नहीं बल्कि वे ज्यादा मुखर और प्रखर होकर आवाज उठा रहे है