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Showing posts from July, 2012

प्रेमचंद के बाद दूसरा कौन लिखे गोदान......??

  होरी पड़ा अचेत खेत में धनिया खाए पछाड़ रेत में गोबर भूखा फ़िरे शहर में ऐसी हालत है घर-घर में प्रेमचंद के बाद दूसरा कौन लिखे गोदान...... हिन्दी के विलक्षण विवादास्पद लेखक, जिन पर अभी तक लाखों शोध हो चुके है, भारत और दुनिया में एम ए करके अपने गाईड की जी हुजूरी और चापलूसी से प्रेमचंद पर पी एच डी का अनुपयोगी पोथा लिखकर तलवे चाटकर नोकरी दिलवाने वाले बेचारे साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को पता नहीं था कि उनका इतना दुरुपयोग होगा . आज ये सब चाटुकार प्रेमचंद के नाम पर अपना परिवार चला रहे है और आज जी भरके अपनी भड़ास निकालेंगे. हे प्रेमचंद आप अनुभवी और जीवन्त हो दुनिया में, हमें माफ कर दो कि हमने आपकी कहानी उपन्यास की परम्परा में कुछ नया गढने के बजाय आपको अपनी रोजी रोटी बना लिया. आज आपको याद करते हुए आपके अथक कार्य और मेधा, समझ और बुद्धिमत्ता को प्रणाम.

लड़के जवान हो गए - अच्युतानंद मिश्र

और लड़के जवान हो गए वक़्त की पीठ पर चढ़ते लुढ़कते फिसलते लड़के जवान हो गए उदास मटमैला फीका शहर तेज़ रौशनी के बिजली के खम्भे जिनमे बरसों पहले बल्ब फूट चुका है अँधेरे में सिर झुकाए खड़े जैसे कोई बूढा बाप जवान बेटी के सामने उसी शहर में देखते-देखते लड़के जवान हो गए लड़के जिन्होंने क़िताबें पढ़ी नहीं सिर्फ बेचीं एक जौहरी की तरह हर किताब को उसके वज़न से परखा गली-गली घूमकर आइसक्रीम बेचीं चाट-पापड़ी बेचीं जिसका स्वाद उनके बचपन की उदासी में कभी घुल नहीं सका वे ही लड़के जवान हो गए एकदम अचूक निशाना उनका वे बिना किसी ग़लती के चौथी मंज़िल की बाल्कनी में अख़बार डालते पैदा होते ही सीख लिया जीना सावधानी से हर वक़्त रहे एकदम चौकन्ने कि कोई मौक़ा छूट न जाए कि टूट न जाए काँच का कोई खिलौना बेचते हुए और गवानी पड़े दिहाड़ी वे लड़के जवान हो गए बेधड़क पार की सड़कें ज़रा देर को भी नहीं सोचा कि इस या उस गाड़ी से टकरा जाएँ तो फिर क्या हो ? जब भी किसी गाड़ीवाले ने मारी टक्कर चीख़ते हुए वसूला अस्पताल का खर्च जिससे बाद में पिता के लिए दवा ख़रीदते हुए कभी नहीं सोचा चोट

नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा VI

कमरे का पानी जितना उलीच रहा था उतनी ही तेजी से भर रहा था कमरा, सारा सामान यूँही अस्त व्यस्त सा पड़ा था और दाल आटा बह गया था जीवन की बिलकुल बुनियादी आवश्यकता यूँ पानी में बहते देख वह लगभग हक्का बक्का सा रह गया था अपने जीवन के चार दशकों को याद करके सिहर उठता था अक्सर यादों ने कितना कुछ उसे दिया था दर्द, संताप, संत्रास, विलाप, स्मृतियों का दंश, तनाव, पछतावे और एकाकीपन पर इस सबको वो छोडकर खुश था कि कभी कभी जीवन में किसी को कुछ मिलता नहीं है और जो जीवन वो अपनी शर्तों पर जी रहा है- पिछले पन्द्रह सालों से, वह भी करोड़ों लोगों का एक महज सपना ही तो है, पर एकाएक आये इस तूफ़ान ने और कमरे में छोटी सी सिमटी हुई जिंदगी को और भीगो दिया. यह आत्मा को किसी कुए में डूबोने जैसा था जबरन....लगा कि यह सिर्फ गद्दे- तकियों, कपड़ों का भीगना नहीं, सामान का बहना- नहीं वरन ये वो घाव है जो शरीर, आत्मा और कमजोर पड़े जज्बे को बाहर ले आया है. सारा काला और घिघौना अतीत एक बदबूदार मवाद में बह रहा है और जीवन के सुख-दुःख इस मवाद में शामिल है , जिस तरह से यह सामान जिसे उसने गत पन्द्रह सालों में जतन से खरीदा, सहेजा और बचाया था..

क्या बिजली जाने का आपको अफसोस है?

टी वी की न्यूज वाला एक आदमी से .....आप कहा जा रहे थे आदमी - जी नोयडा क्यों? जी मेरी सास बीमार है क्यों? जी उसे किडनी फेल है क्यों? जी मुझे नहीं पता तो ये मेट्रो बंद होने से आपको क्या फर्क पड़ा है ? जी जा नहीं पा रहा हूँ........... टी वी की न्यूज वाला दूसरे आदमी से- आप कहा काम करते है आदमी - जी केन्द्रीय सचिवालय में क्यों? जी मेरी नौकरी है क्यों? अरे ये क्या सवाल है सॉरी , मेट्रो के बंद होने से आपको क्या लगता है मै दफ्तर नहीं जा पा रहा हूँ समय पर और आज आवश्यक बैठक है तो दिल्ली में बिजली गुल होने में आपके दफ्तर का क्या रोल है जी वो उनसे पूछो टी वी की न्यूज वाला तीसरे आदमी से- ट्राफिक में कब से फंसे है आप जी तीन घंटे से क्यों? जी मै क्या बताऊ सुना है कि सिग्नल खराब हो गये है तो आपको यहा कैसा लग रहा है जी बहुत परेशानी है पानी नहीं है पीने को क्या आपको लगता है कि केन्द्र सरकार को पीने के पानी की व्यवस्था करना चाहिए दिल्ली में बिजली जाने पर........ जी .मुझे नहीं पता..... क्या बिजली जाने का आपको अफसोस है? जी हाँ है पर तो दर्शकों आपको यह बता दे कि ये है द

एक बार फ़िर फराज.............

खुद को चुनते हुए दिन सारा गुज़र जाता है फ़राज़ फ़िर हवा शाम की चलती है तो बिखर जाते हैं मेरे सब्र की इन्तेहा क्या पूछते हो फ़राज़ वो मेरे गले लग कर रोया किसी और के लिए  वो मुझ से बिछड़ कर अब तक रोया नहीं फराज़ कोई तो है हमदर्द जो उसे रोने नहीं देता
तटस्थ होना भी एक कला है जहां ना दुःख है, ना सुख है, ना उम्मीद की कोई धुंधली किरण.......बस एक देह है और साँसों का अनवरत क्रम जो पता नहीं कितनी सदियों और युगों तक चलता रहेगा....

नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा V

दरका तो कुछ नहीं था ......टूटा भी कुछ नहीं था....कही से कोई आवाज़ भी नहीं आई थी. इस भीगते हुए मौसम में जब सब कुछ भीगकर तरबतर हो गया था तो जीवन, वो भी एक बस आस पर चल रहा था, जब वो  आख़िरी भी  आस उस दिन टूट गयी तो जीवन में बचा ही कुछ नहीं, सब कुछ वही उसी जगह जमींदोज करके आ गया या यूँ कहू कि जमीन में गाड़कर अपने वजूद और उन रूपहले सपनों को जो मैंने कभी तुम्हारे साथ देखे थे, उन ऊँची पहाडियों पर घने पेड़ों की छाँव तले या मैसूर की गलियों में गोल गोल घूमते हुए या उस बौद्ध मंदिर में जहां अपने साथ हमेशा रखने की कसमें खाई थी, उस समय चक्र में जीवन के अनमोल क्षण और वो सामीप्य भी क्या सामीप्य था, शायद इसके सहारे ही जीवन चल सकता था पर कहाँ होता है सब कुछ अपना सोचा हुआ और फ़िर ये अपेक्षा भी तो एक दर्द ही है ना??? सब छूट गया .......सच है जमीन में सब कुछ गाड़कर सब कुछ खत्म हो ही जाता है, जब इंसान की देह भुरभुरी हो जाती है महज तीन चार माहों में तो यादें और सपने, कसमें और रिश्ते तो स्वाभाविक रूप से खत्म हो ही जाते है. एक आदमी को मारने के लिए जीवन में बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ते बस छोटी सी दो बातें और छोट

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं, सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं। दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई, दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई। पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर? मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर। इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर? कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर! आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद – जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

"तुम्हारा इंतज़ार"- मोहन कुमार डहेरिया

तुम नहीं जानती कहां -कहां किया मैंने तुम्हारा इंतज़ार मस्तिष्क में उठते संशयों तथा द्वंद्वों के मकड़जाल के अंदर धैर्य के एक बेहद संकरे दर्रे में दहशत की तोप के मुहाने पर कीचड़ और काई से भरी प्रायश्चित की रपटीली ढलान पर बनाते हुए बमुश्किल संतुलन मैंने किया तुम्हारा इंतज़ार उन दिनों जब जीवन की एकरसता से ऊब रहे थे लोग बदल रहे थे बहुत तेजी से शब्दों तथा चीज़ों के अर्थ कोई बादलों के पीछे बने फूलों के मंडप में कर रहा था किसी का इंतज़ार तो कोई समुद्र के अंदर मछलियों की रंग- बिरंगी दुनिया के बीच तुम नहीं जानती कामनाओं के एक सीले हुए पटाखे के भीतर आशंकाओं की हिलती हुई दीवार से टिकाकर पीठ इतिहास की प्रेमगाथाओं के मलबे के नीचे दबकर मैंने किया तुम्हारा इंतज़ार मैं जानता था जर्जर हो चुकी थी तुम्हारे प्रेम की लौ सूखे पीले पत्तों के शोर से भरा अब मेरे जीवन का भी नेपथ्य एक छोटी सी गांठ की तरह था मेरे ज़िस्म के अंदर जो तुम्हारा प्रेम बदल चुका था एक बड़े टृयूमर में फेंकता मेरे शरीर के खून के अंदर रेशे नए फिर भी बुझे हुए चिराग से निकलते अंधेरे की एक प्रखर किरण के सहारे

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा III

ये एक लगभग खाली बस थी जो नर्मदा के किनारे बसे शहर से राजधानी जा रही थी. वो लगभग पचपन साल का आदमी होगा, शरीर पर एक खादी की बंडी, नीचे पीले रंग का धोतीनुमा कपड़ा लपेटे, पाँव में दो अलग अलग स्लीपर और बाल बेतरतीब से बढे हुए, ललाट पर लंबा सा चन्दन और आँखों में कही खालीपन था. जैसे ही उसके पास जाकर बैठा तो पूछने लगा रेलवे का ड्राईवर तो दो लाख कमा लेता है हर माह, पर ये वकील को कितनी तनख्वाह मिलती है........मैंने कहा कि नहीं अगर नौकरी करे तो तनख्वाह मिलेगी नहीं तो खुद की प्रेक्टिस करते है....फ़िर बोला तो फ़िर हलवाई को डेढ़ दो लाख मिलते होंगे, मैंने कहा नहीं उन्हें तो रोज के हिसाब से मजदूरी मिलती है अगर बड़े होटल में हो तो बात अलग है....हैरान था फ़िर बोला तो डाक्टर को भी मजदूरी मिलती है या वे धंधा खोल लेते है..........और बेचारे नाई की तनख्वाह कितनी कम है, सुतारों को छठा वेतनमान अभी तक नहीं मिला, लुहार साले केन्द्र के बराबर महंगाई भत्ता उठा रहे है......इतनी गैर बराबरी क्यों है तुम्हारे इस देश में,  मै परेशान हो गया ससुरा रेडियो मिर्ची नहीं सुनने दे रहा मैंने कहा बाबा दिक्कत क्या है चुप बैठो नहीं तो यह

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा II

माननीय प्रातः स्मरणीय श्री एन डी तिवारी जी के अदम्य साहस को प्रणाम और उनकी हिम्मत को जो लगातार नकारती रही रोहित को, और उस जज्बे को जिसने बत्तीस साल तक एक बाप को छुपा रखा जमाने से............अब सवाल यह है आने वाले बत्तीस सालों में कितने रोहित होंगे मेरा मतलब है आज के नेता आने वाले समय में क्या गुल खिलाएंगे............देश में कितने रोहित........अब सरकार को डी एन ए टेस्ट की प्रकिया को सरल और विकेन्द्रित ढंग से करना चाहिए और सभी पंचायत स्तर पर परीक्षण प्रयोगशालाएं स्थापित करना चाहिए............हमारे पास एनआरएचएम में "अन्टाईट" फंड होता ही है, बस कर दो स्थापित, म् प्र में तो जगह जगह जीवन आरोग्य केंद्र खुल ही रहे है बस देश भर में इस मॉडल को रेप्लीकेट करते हुए डी एन ए टेस्ट भी शुरू कर दे और मेरा विनम्र अनुरोश है कि यह नेक काम शीघ्र शुरू करें क्योकि आधे से ज्यादा रोहित अँधेरे में है और इन सबको एन डी तिवारीयों से स्वीकृती दिलवाने में समय तो लगेगा क्योकि १९९३ से पंचायती राज के प्रतिनिधि आये है और इसके पहले से विधायक और सांसद रहे है और फ़िर इसके बाद हमारे ब्युरोक्रेट्स भ

नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा I

एक रात है और एक लंबी ट्रेन है जो काली रात में घनघोर पानी की तेज बूंदों के बीच नागिन सी सरसराती जा रही है, खूब लंबी ट्रेन है, यात्री बेसुध सो रहे है और बाहर पानी तेज हो रहा है अचानक घाट पर सिग्नल ना मिलने के कारण घाट पर यह नागिन रुक जाती है और दूर कही सदियों से ना सोया यात्री यंत्रवत सा उठता है और अपना सामान लेकर उतर जाता है... बगैर यह जाने कि उसके सामान  में कई दीगर महत्वपूर्ण सामान के साथ उसकी जान से प्यारा लेप टॉप भी है, एक अदद मोबाईल जिसमे उसके दोस्तों परिजनों के नंबर और फ़िर अपनी ज़िंदगी का पूरा बोझ... बस उतर जाता है यह यात्री और चलने लगता है बेसुध लगभग नींद में चलने के माफिक .....लोग चिल्ला रहे है पर जाने वाले कभी सुनते है किसी की ??? बस चल दिया पूरी नर्मदा की घाटी को पार करके वो सतपुडा से विन्ध्याचल की जमीन पर आ गया जब शहर की चकाचौंध में पहुंचा तो खम्बों की रोशनी में तेज बूंदें देखी, बस अपने घर (जिसे वो घर कहता था) जो सिर्फ चार दीवारों से बना था और कुछ जरूरी सामान थे जीवन जीने के या यूँ कहे कि जीवन को मारने के..........तमाम संसाधन ........रात गहरा रही थी तसल्ली यह थी कि वो लौट आया

अरविंद का आत्मघाती कदम.......

अन्ना आंदोलन से मेरे वैचारिक मतभेद रहे है पर आज जब अरविंद को भूख हडताल पर बैठे देख रहा हूँ तो दुःख इसलिए हो रहा है कि वो शक्कर की बीमारी के मरीज है वो भी घातक स्तर की शक्कर, यह मै खुद जान सकता हूँ कि यह कितना आत्मघाती कदम है क्योकि मै खुद भी इसी लाईलाज बीमारी का शिकार हूँ और यदि दो से तीन घंटे में कुछ खाया नहीं तो हालत पस्त हो जाती है और लगता है कि अब गया कि तब गया...........एक व्यक्ति के रूप में वो बेहद अच्छे इंसान है और इस बीमारी के साथ लड़ते हुए वे अनशन पर ना बैठे या कम से कम तरल फलो का ज्यूस लेते रहे यही कामना और अनुरोध है. मै खुद इस समय इससे लड़ रहा हूँ अपने माँ और पिता को शक्कर की बीमारी से खो चुका हूँ.............इससे घातक और कोई बीमारी नहीं है आज सुबह जब एनडीटीवी पर उनके माता पिता कह रहे थे तो मुझे एक पल के लिए लगा कि ये क्या हो रहा है इस देश में........सब भूल गया मै और सिर्फ शुगर के मरीज को देखते हुए मुझे यह लगा कि अरविंद को अनशन नहीं करना चाहिए हर हाल में नहीं..........उन्हें समझाओ भाई ........
‎ Sushobhit Saktawat की दीवार से साभार बहुत ही प्रेरक पंक्तियाँ ....पढ़ो और समझते रहो....... सैद्धांतिक रूप से सुख की एक संपूर्ण संभावना है : अपने भीतर के उस एक तत्‍व में भरोसा रखना, जिसे कभी नष्‍ट नहीं किया जा सकता, और कभी उसकी कामना न करना। [काफ़्का]

कविता का चरम !!!

आज होशंगाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान इस सदी के महानतम संचालक महोदय (स्थानीय विधायक के भाई द्वारा विभूषित) को यह कहते सुना कि "जब कविता अपने चरम पर पहुँच जाती है तो वह भजन बन जाती है" और उन्होंने इसके तर्क भी दिए जैसे रामायण, महाभारत, गीता आदि..........हे अशोक पांडेय, कुमार अम्बुज, राजेश जोशी, देवताले जी, बोधिसत्व, जितेन्द्र श्रीवास्तव, बहादुर पटेल, आभा निवसरकर मोंढे, सुनीता, ज्योति, अनुज लुगुन, और ढेर सारे हिन्दी के मूर्धन्य कवियों आप लोगों की कविता भजन कब बनेगी..................ताकि हम हारमोनियम तबले पर झूम झूम कर गा सके और बजा सके तालियाँ.....................

Janani parivahan a reality in Hoshangabad

I was in Govt hospital just to see what all is happening for IMR and MMR. I just entered today at 815 PM in Call center of janani parivahan. There was a call at 835 PM the operator informed the janani Driver to reach in some near by village which was 45 KM away from Dist HQ. The driver took it very casually when I asked, he said am going and want to go but there is no Petrol in my Van, I have consumed all petrol while coming from Bhopal the owner will reach hospital in 15-20 minutes and then I will start for village. It was 840 PM by this time and then I show little anger and finally he took van and went out of the premises at 855 PM. When asked the operator why this van had gone to Bhopal he said every day the Doctors are referring 4-6-8 cases as SNCU is having only 20 beds for infants and they dont want to take any risk. Now district hospitals has only two vans for janani parivahan and if both are going to Bhopal with referred cases who will take care of Women of R

यानी कि हिन्दी के लोग ही हिन्दी के दुश्मन................है???

Saurabh Arya says सरकारी स्‍तर पर होने वाली खरीद के संबंध में राजभाषा विभाग, भारत सरकार का नियम कहता है कि प्रति वर्ष एक मंत्रालय/विभाग/ किसी भी केन्‍द्रीय कार्यालय द्वारा खरीदी जानी वाली कुल पुस्‍तकों की राशि का न्‍यूनतम 50 % हिन्‍दी पुस्‍तकों पर व्‍यय होना चाहिए. बस यहीं से इस गोरखधंधे की शुरूआत हो जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि राजभाषा विभाग ने यह नियम हिंदी पुस्‍तकों और हिंदी को बढ़ावा देन े के लिए किया है. परंतु इन कार्यालयों के लिए पुस्‍तक चयन समिति के कोई मानदण्‍ड निर्धारित नहीं किए हैं. हालांकि राजभाषा विभाग एवं एकाध सरकारी समिति कुछ श्रेष्‍ठ पुस्‍‍तकों को अनुशंसा जरूर करती हैं पर यह नियमित आधार पर नहीं हो रहा है एवं उसमें नई और उत्‍कृष्ट पुस्‍तकें अपना स्‍थान नहीं बना पा रही हैं. आम तौर पर विभागों के अधिकारी अपने यारों-प्‍यारों की पुस्‍तकों और कमीशन देने वाले प्रकाशक से पुस्‍तकें थोक में खरीद रहे हैं. पाठकों ने किन पुस्‍तकों को कितना पढ़ा, पाठकों की इन पुस्‍तकों के स्‍तर पर प्रतिक्रिया को भी सरकारी खरीद के समय मद्देनज़र रखा जाना चाहिए. इस बारे में दो-चा

मन की पुतलियों में बसा रहा मिलन स्वप्न - जितेन्द्र श्रीवास्तव

I मै तुम्हे पहचानता हूँ, अपनी हथेली की तरह तुम्हारे माथे पर उभर आयी रेखाएँ मेरे हाथ की लकीरों जैसी दिखती है. II मोबाईल में दर्ज है कई नाम और नंबर ऐसे जिन पर लंबे अरसे से मैंने कोई फोन नहीं किया. III वे तरसते रहे एक दूजे के लिए और हाय री किस्मत कि कभी मिल ना पाए आलमारी में भी पर अटका रहा उनका प्राण एक दूसरे में मन की पुतलियों में बसा रहा मिलन स्वप्न अपने प्रिय अनुज और हिन्दी के वरिष्ठ कवि Jitendra Srivastava के तीनों कविता संकलन मेरे सामने है और बहुत तल्लीनता से उन्हें पढ़ रहा हूँ लगता है एक एक कविता एक सदी की कहानी है जो छोटे छोटे जीवनाभुनवो से शुरू होकर बहुत बड़े फलक पर जाती है. "असुंदर सुन्दर", "बिलकुल तुम्हारी तरह" और " कायांतरण" वाह क्या बात है भाई.......बाहर बरसात है नर्मदा का किनारा, और कही दूर बहा ले जाती कवितायें सच में मन को गहरी तसल्ली और आश्वस्ति देती है कि हिन्दी का काव्य बहुत सशक्त है और अभी इसमे बहुत कुछ ठोस और सार्थक है जो इसे हमेशा शाश्वत रखेगा.

अमृतलाल वेगड-सहज, सादे और बहुत ही आत्मीय

जहां भी गये अहम छोड़ आये सलोने सलोने गम छोड़ आये होशंगाबाद में आज अभी अमृतलाल वेगड से मिला और जब अपना परिचय दिया तो उन्होंने देवास को रुंधे हुए गले से याद किया, कुमार जी और नईम जी की स्मृति को नमन करते हुए बड़ी देर तक बातें करते रहे और कहा कि "नईम जी और सुल्ताना जी दोनों मेरे घर जबलपुर आ चुके है और भोजन किया था खूब गपशप की थी, कुमार जी के भजन और कबीर की निर्गुण धारा को मैंने नर्मदा परिक्रमा के दौरान बहुत बारीकी से सुना, देखा और महसूसा है. मालवा क ी समृद्ध संस्कृति से वे अभिभूत थे. देवास के साहित्यिक और सांगीतिक माहौल जैसा माहौल बिरले शहरों में होता है और वहाँ जन्म लेने वाले को घूंटी में साहित्य संगीत की विरासत संस्कारों में मिलती है". होशंगाबाद में नर्मदापुरम कला जगत द्वारा आयोजित से ठाकुर ब्रजमोहन सिंह "सत्य कवि" के गीतों को संगीतमय कर यहाँ के स्थानीय कलाकारों की प्रस्तुति को प्रोत्साहित करने आये वेगड जी ने नर्मदा नदी और संगीत से जुड़े वरिष्ठ गायकों और संगत कलाकारों की स्मृतियों को साझा किया और कहा कि संगीत ही वो शक्ति है जो हर समय आपको चेतन रखत

Impose rule of Returning the Amount Incurred in your education

Better to go USA than of getting in IIM, you dont need brains and intelligence to get in US University as our country is donating Crores of Dollars to US and just because of this they are making education most expensive and their economy smooth and here if one fights for IIM its really hard to get in 'am sure, I think Mr Kapil Sibbal should bring an amendment that any student going out by payin g 10 to 80 Lacks to US University, s/he should return the amount incurred on his/her education by State or Central Govt and without this the concerned will nt be allowed to step out. The amount which is really huge is paid by we the poor of Indians in terms of Taxes and these students dont have any right to misuse and freak out to abroad Universities. Interestingly they are ready to pay each and everything there and obey all shit rules but here they would use all Govt Property at their own discretion under dirty politics and all. I just saw a website which says lacks of

सब कुछ तो है जिससे जिन्दगी बनती है

Kushagra Kadam की दीवार से साभार.......अदभुत पंक्तियाँ .....देर रात की बेचैनी और संताप के बाद लगा कि भाई सही कह रहा है.......गोया कि अपना क्या है इस जीवन में सबसे लिया उधार.......... थोडा डर गया था, थोडा सहम गया था फिर रात आई, मैं अपने पास आया बात खोली और स्थिति टटोली हाथ वहीँ, पैर वहीँ, उम्मीद वहीँ और ताकत अपनी भी तो अपने ही भीतर है सब कुछ तो है जिससे जिन्दगी बनती है फिर क्या?

कफस हवा का ही परवाज़ खा गया मेरी *

असुविधा पर मेरी कोशिश हमेशा से नए से नए रचनाकार को स्पेस देने की है. मुझे संतोष है कि आज प्रिंट तथा ब्लॉग ,  दोनों क्षेत्रों में अपनी जगह बना चुके तमाम रचनाकार सबसे पहले या अपने बिलकुल आरम्भ के समय में असुविधा पर छपे थे. आज इसी क्रम में  आदित्य प्रकाश  की यह पहली कहानी पेश करते हुए एक गहरा आत्मसंतोष हो रहा है ,  यह इसलिए और कि मैंने पिछले दो सालों में आदित्य के भीतर के मनुष्य और रचनाकार ,  दोनों को बनते हुए और बदलते हुए देखा है और इस कहानी की रचना-प्रक्रिया में कहीं न कहीं शामिल भी रहा हूँ. काल सेंटर में काम करने वाले एक संवेदनशील युवा की कशमकश को यह कहानी बहुत  सहजता से दर्ज करते हुए नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था के इन नए प्रेक्षागृहों के भीतर पनप रही उस नयी संस्कृति के उस भयावह चेहरे को बेपर्द जिसे सतरंगे रैपरों में लपेट कर पेश किया जाता है. इस कहानी में जो चीज मुझे सबसे अधिक अपील करती हा वह है किस्सागोई का शुद्ध एशियाई तरीका. इसपर फिलहाल किसी बड़े लेखक का प्रभाव दर्ज नहीं किया जा सकता. साथ ही आदित्य ने जो विषय  उठाया है वह उसके आसपास का है और हिन्दी में अब तक अछूता. असल में मुझे यह बड

मरने वालों के साथ कोई मरता नहीं

जब दर्द नहीं था सीने में तब ख़ाक मजा था जीने में अबके सावन हम भी रोये सावन के महीने में, यारों का गम क्या होता है मालूम न था अनजानों को साहिल पे खड़े होकर हमने देखा अक्सर तूफानों को अबके शायद हम भी रोये मौजों के सफीने में ऐसे तो ठेस ना लगती थी जब अपने रूठा करते थे इतना तो दर्द ना होता था जब सपने टूटा करते थे अबके शायद हम भी रोये सावन के महीने में इस कदर तो कोई प्यार करता नहीं मरने वालों के साथ कोई मरता नहीं आपके सामने मै ना फ़िर आउंगा गीत ही जब ना होंगे तो क्या गाऊंगा मेरी आवाज़ प्यारी है तो दोस्तों यार बच जाये मेरा दुआ सब करो दुआ सब करो......... http://www.youtube.com/watch?v=du2m9D_NWFg

मौत तो एक कविता है

  शुरू दौर में जिन दो लोगों के नाम हम जानते थे, उनमें राजेश खन्ना भी थे। तब हमने टेलिविजन नहीं देखा था। सिनेमा हॉल की कल्पना भर करते थे। तुमने काजल लगाई दिन में रात हो गई टाईप के गाने तब हमें खूब सुनने को मिलते थे और कौलेजिया लड़के आपस में बात करते हुए राजेशा खन्ना-राजेश खन्ना किया करते थे। हमने राजेश को पहली बार श्वेत श्याम टेलिविजन पर ही देखा। कभी जब वे मूछें लगाकर या दाढ़ी बढ़ाकर पर्दे पर चले आते तो हमें पहचानने में दिक्कत होती। यह सन 1986-87 के आस-पास की बात होगी। जब लोगों के दिलों पर अमिताभ का जलवा तारी था। हमारे जमाने में राजेश खन्ना सीधे-सादे हीरो के रूप में जाने जाते थे। अपने कम अक्ली में हमने लेकिन अमिताभ को ज्यादा महत्व दे रखा था। राजेश को सही तरीके से हमने आनंद में पहचाना। फिल्म देखकर हफ्तों परेशान रहे। बार-बार कई बार देखी। इसके बाद अमर प्रेम और अमृत अवतार जैसी फिल्में भी। खास बात यह कि फिल्म जगत एक अजीब सा जगत है, जहां लोग आते हैं जाते हैं। उठते गिरते सम्हलते हैं। कभी आसमान पर रहने वाला कोई एक अभिनेता आम लोगों के साथ मुंबई की बसों में सफर करत

राजेश खन्ना सिर्फ राजेश खन्ना थे-श्रद्धांजलि और नमन

अमर प्रेम के हीरो अपने जीवन की कटी पतंग को आखिर सम्हाल नहीं पाए और बावर्ची बनकर उन्होंने कई तरह की रेसिपी से अपने जीवन की रोटी ना बचा सके लगा कि उनका आनंद खत्म हो गया था. बड़ा विचित्र समय है जिसने किसी को छोड़ा नहीं है इस साल के सात माहों में हमारे बीच से कितने लोग विदा हो गये अभी तक सिहर जाता हूँ  और याद रहता है कि मौत ने किसी को नहीं बख्शा है अभी तक....................पर एक बात है राजेश खन्ना सिर्फ राजेश खन्ना थे जय जय शिव शंकर काँटा लगे ना कंकर वाले जिन्होंने जीवन के विष प्याले को अमृत बना दिया और हिदुस्तानी फिल्म इतिहास में ही नहीं वरन आम लोगों के दिलों दिमाग में अपना नाम बहुत रोमांटिक तरीके से लिखाकर धीरे से विदा हो गये.......सलाम काका आपकी मेधा और प्रतिभा को और सलाम उन जज्बे को भी जिसने आपको इतने साल लगातार एक बेहतरीन जिंदगी और अदाकारी की हिम्मत दी, युवाओं के प्रेरणा स्रोत बने और जो कहा वो करके दिखाया....... श्रद्धांजलि और नमन............

सात नाकारा और निकम्मे एक कॉमेडी सर्कस में

सात नाकारा और निकम्मे एक कॉमेडी सर्कस में काम कर रहे है दो साल से ......कोई है जो इन्हें खरीद ले ...........ये सब देंगे प्रतिबद्धता, लगन, इमानदारी, मेहनत और आउटपुट.............असल में कहना यह चाहिए कि ३६ थे धीरे धीरे सब भाग गये जब जैसा मौका मिला..........हुआ यूँ था कि गिरगिट के झुण्ड में, लोमड़ियों के बीच ये ३६ जीजिविषा को लेकर जूझते रहे फ़िर जब लगा कि दाना पानी बसर नहीं हो रहा तो निकल लिए और सबसे मजेदार था कि वो लोमड़ी पहले भाग खडी हुई जो बहेलिया बनकर ले आई थी इस निकम्मों को इस मक्तल में ज़िंदा मारने के लिए.......लोमड़ी आजकल नरसंहार के हीरो के बीच नए शिकार कर रही है और नए गिरगिट ने जगह ले ली है जो खूब चिकनी चुपड़ी बातें कर सबका मन हर लेता है........जंगल में यह शिकारी अब अकेला है और यह चुन चुन कर रोज एक एक जानवर मारता है............

सरकार एक और गया.....

सरकार: कितने आदमी थे................ कालिया: सरकार ३६ सरकार:तो अब क्या है........? कालिया:सरकार एक और गया............अभी गया .... सरकार:अरे पिछले महीने ही तो दो गये थें ना.............फ़िर अब एक और गया............. कालिया:जी सरकार एक और गया .............. सरकार;तो अब कितने बचे ...... कालिया:सरकार सात और वो भी भागने की तैयारी में है जब मौका मिलेगा तब निकल लेंगे............ सरकार;तो प्रतिबद्धता और लगन और समाज बदलने का स्वप्न जो गिरगिटों ने देखा था राज्य के काँधे पे खडा होकर उसका क्या होगा............? कालिया:सरकार कुछ नहीं होगा गिरगिट ने अपनी गोटी सेट कर ली है, लोमड़ी तो बरसों से जंगल में बैठी है निकम्मी और नया गिरगिट रंग बदलने में बहुत माहिर है सरकार सब कागजी कार्यवाही पूरी कर लेगा.... सरकार: तो अब प्रदेश में कैसे होगा विकास कालिया: सरकार वैसे भी कौन कर रहा है विकास माई बाप सब कॉमेडी सर्कस में काम कर रहे है इस देश के ........... सरकार: जाओ सरकार तुमपे खुश हुआ शाबाशी दी और अब जब एक बचेगा तो राजधानी में बिठा देगा, बाकी कब जायेंगे और ये गिरगिट का क्या होगा रे..............

तस्वीरें जो विलाप, संताप, तनाव पैदा करती है

आज अपनी हार्ड डिस्क, फेसबुक और पिकासा अलबम की सफाई चल रही है, सदियों से ढेर जगह घेरे हुए, समेटे हुए फोटो निकाल रहा हूँ नई तस्वीरों के लिए कही जगह ही नहीं बची है और फ़िर बेचारे गूगल और मार्क को क्यों परेशां करू कि अपनी वजह से उन्हें मेरे लिए वर्चुअल वर्ल्ड में जगह खरीदनी पड़े, सो कल रात से ही मन बना लिया था कि आज सुबह से लगभग सारे तस्वीरें डिलीट कर दूंगा हमेशा के लिए ताकि नई जगह बन् सके..........हाला ंकि दिल दिमाग में भी कही डिलीट का ओप्शन होता काश................ अब तक 124 जी बी खाली कर चुका हूँ लक्ष्य है 250 जी बी. "स्पेस" लेने का...................बस आपमें से कुछ लोग डिलीट हो गये है ................चित्रमय स्मृतियों में ............. तय यह भी किया है कि बहुत ही जरूर तस्वीर होगी तो सम्हालूँगा वरना देखकर डिलीट मारो और फ़ालतू झमेलो से बचो, ऐसी ही तस्वीरें बहुत रुलाती है और विलाप, संताप, तनाव पैदा करती है..........

सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में

आज सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष पहुँच गयी है, मुझे लगता है कि अब जेंडर के मुद्दों को नए परिपेक्ष्य में देखने की जरूरत है. कहाँ  प्रायोजित मीडिया विमर्श में हम गौहाटी का मुद्दा, फ़िर महिला आयोग की सजी संवरी गुडियाओं के नाम पर मातम पुरसी करते रहेंगे. दरअसल में सब मीडिया की चाल है अब यह सिद्ध हो ही गया है, और जेंडर वादी बहने भी बहनापा जताकर चुप बैठी है, सब चुप है, अजीब सी बहस चल रही है और देखत देखते अपने काम और लक्ष्य में लगी सुनीता अपने उद्देश्य को पूरा करने निकल गयी किसने आड़े हाथ दिए है करने वालियों को....................हिम्मत है तो करे वैसे भी भले ही निगेटिव पर परोक्ष रूप से इस समय देश में ताकतवर महिलाए सच में अपनी ताकत दिखा रही है तो कुल मिला के कहना यह है कि बहुत हो गया गौहाटी और महिला आयोग के पुराण जिसने कमाना था कमा खा लिया, असली मुद्दों की बात करो और नए सन्दर्भों में बात करो और इन पर काम भी करो...........अभी म् प्र में जिस तरह से थोकबंद तबादले हुए है उसमे कितना रूपया इन्ही अबलाओं ने खाया-पीया-लिया-दिया है किसी ने पूछा...............? छोडो......बकौल रांगेय राधव कि संसार में सबको दुःख

प्रशासन पुराण 54

और लों आज म प्र में तबादलों की आख़िरी तारीख थी15 जुलाई 2012  ...........सो खत्म हो गया है समय, नेट पर लोग बाग देख रहे है कि जो सेटिंग हुई थी जितना "लिया-दिया" था उसके सकारात्मक परिणाम निकले या नहीं..............अभी एक दोस्त से बातें हुई उसका तो मामला निपट गया, सो मैंने जम के बधाई दे दी और भोपाल जाने पर एक शानदार पार्टी  अपने नाम बुक कर ली है, मामला ले देके निपट गया और वो वहाँ पहुँच गया -जहां जाने की हसरत लिए पिछले बाईस बरसों से जी रहा था, हाँ इस बार भाव थोड़े नहीं बहुत ज्यादा थे. साला मानसून नहीं आ रहा और बाजार में सब्जी  भी महंगी हो गयी, पेट्रोल महँगा, चुनाव सामने है, फ़िर अब जब पूरी दुनिया में रूपये का अवमूल्यन हुआ है तो सबकी इच्छाएं है कि उनका साला कुछ नहीं तो बेंक बेलेंस बढ़ जाये और फ़िर साले ये प्रोफ़ेसर, मास्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, सहायक यंत्री, राजस्व निरीक्षक, पटवारी, एस डी एम, डिप्टी कलेक्टर, डाक्टर, नर्से, पंचायत सचिव यानी कुल मिलाकर ये जमीनी अमला साला कौन सा दूध का धुला है??? देखो ना अभी अभी खनिज में साले ठेकेदार जैसे दो कौडी लोगों ने जम के मूँड दिया सरकार को भी, त

प्रशासन पुराण 53

अभी एक सरकारी दफ्तर में गया था वहाँ दो व्यक्ति साहब के बाहर कमरे की ड्यूटी दे रहे थे बाबा आदम के जमाने के काले रंग के फेड हुए जूते, मटमैले सफ़ेद कपडे, सर पर मटमैली सी टोपी, चेहरे पर सदियों की उदासी और गले में लाल रंग का पट्टा डला हुआ जिसपर पीतल चमचमाता हुआ एक बेच था जिस पर कार्यालय का नाम लिखा था और खूब बड़े अक्षरों में लिखा था "चपरासी". मैंने दोनों से बात की पता चला कि पिछले ३२ बरसों से वो इस पट्टे को धारण किये हुए है और अब उम्र निकल गयी, अब तो इस शब्द को उनके नाम के साथ जोड़ दिया गया है. बेहद अफसोस हुआ कि भारतीय लोकतंत्र में और खासकरके पदों के सम्बोधन  और नामों की विसंगतियाँ अभी भी बनी हुई है, क्या इस पद को कार्यालय सहायक या सेवाप्रदाता या किसी सम्मानजनक नाम से नहीं बुलाया जा सकता? इस तरह के सामंती शब्द और उनके अर्थ ही दरअसल में अफसरों के गर्व और अहंकार को और अधिक ऊँचा कर देते है और इस मारम्मार में अपने घर / दफ्तर में जितने चपरासी होंगे उतना ही अधिक बड़ा रूतबा होगा यह मानसिकता पनपती है. अफसरों की बीबियाँ इन्हें अपने बाप का माल समझ कर नाजायज / बेजा इस्तेमाल करती है और शोषण करती

दारा सिंह जैसे विनम्र शख्स को श्रद्धांजलि

फेस बुक पर दारा सिंह के हनुमान वाले पोस्टर और छबि बनाकर दोस्त लोग गलत कर रहे है वे कभी भी सिर्फ हिंदू धरम के ध्वजवाहक नहीं बने ना ही उन्होंने कभी ऐसा प्रचार प्रसार किया एक महान व्यक्तित्व के धनी और बल के पर्यायी दारा सिंह को सिर्फ हनुमान तक सीमित कर देना हमारी संकुचित सोच का परिणाम है और इस तरह की लेबलिंग मृत्यु के बाद करना घोर अपराध भी है. अभिनय के लिए वे रामायण में आये थे और इस हेतु उनकी जितनी प ्रशंसा की जाये कम होगी, बिलकुल व्यावसायिक तरीके से उन्होंने रामायण में काम किया. वे हमेशा कुश्ती के लिए जिए और बहुत सीमित संसाधनों में मिट्टी की सौंधी महक से देश की माटी का नाम ऊँचा किया. वे आज शारीरिक रूप से भले ही हमारा साथ छोड़ गये हो पर देशी कुश्ती के लिए उनके प्रयास और लड़ाई को हमेशा याद रखा जाएगा. दारा सिंह जैसे विनम्र शख्स को श्रद्धांजलि