मैंने उनके सामने तो नहीं खोला, पर बाद में जब वह कश्मीर के पास अपने घर बांदीपुर लौट गया तो एक दिन दफ़्तर से आने पर हिम्मत करके पैकेट खोला - जब खोलकर देखा तो थोड़े से यानी लगभग दो मुट्ठी चिलगोज़े बहुत नफ़ासत से बांधकर रखे थे और साथ में एक पेपर नेपकिन पर लिखा था - "उस लेखक के लिए जिसने "सतना को भूले नहीं तुम" जैसी अप्रतिम कहानी लिखी है"
भीग गया था मैं उस दिन पढ़कर, देर तक बिन्नी को याद करता था, सतना फिर याद आया, आज भी एक दिन ऐसा नहीं जाता कि सतना का पन्नीलाल चौक याद ना आता हो ; बहरहाल, बहुत दिनों तक कुछ नहीं किया, ना चिलगोज़े खाए - ना छुए, किसी स्वर्णाभूषण की तरह से सहेजकर रखे रहा एक अलमारी में, और एक दिन फिर कोई और दोस्त यानी फ्रांस से एक युवा शोधार्थी मेरे पास दो माह के लिए आया था 'फ्रांसुआ जैकार्ते ', तो उसके साथ रेत घाट गया शाम को और फिर वहीं बैठकर देर तक हम दोनों धीरे - धीरे खाते रहे और देर रात तक बातें करते रहे - चिलगोज़े कब खत्म हो गए थे मालूम नहीं पड़ा, माँ की कही हुई बात याद आ रही थी कि "यदि जब कुछ तकदीर में नहीं होता तो जीवन में समझौता कर लेना चाहिए और नदी की तरह चुपचाप बहते रहना चाहिए, सारी गंदगी एक समय बाद नीचे बैठ जाती है, परवाह मत करो किसी की और बस निर्मल मन से बहते रहो शांत चित्त धरकर"
नर्मदा बह रही थी और अश्रु उसके संग एकसार हो चले थे , बस रात के अंधेरे में दिखें नहीं उस तट पर
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युद्ध, उन्माद और दंगों की राजनीति के बीच आम आदमी का जीवन कठिन होते जा रहा है, ऐसे में रुपया पहुंच से भयानक दूर हो गया है, कमाई करना मुश्किल हो गया है, दूरदराज़ के गांव देहात हो, आदिवासी क्षेत्र हो, कस्बे हो या शहर "रुपया" है ही नहीं, जिनके पास नौकरी है वो इतनी बंधी बंधाई तनख्वाह देती है कि माह के पहले दस दिन भी चल जाए तो बड़ी बात है और धंधे वालों का लगभग नब्बे टक्का रोलिंग में है
दुर्भाग्य से समाज ने इसे एक शिष्टाचार की तरह मानकर अपना लिया है जोकि घातक है, आपको एक कागज या दस्तावेज भी कही चाहिए तो सौ-दो सौ के बिना कुछ भी नहीं होगा, इस सबमें सबसे ज्यादा नुकसान असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है, जिनके पास कोई नियमित आय या तनख्वाह जैसा शब्द नहीं है
आज कुछ वरिष्ठ अधिकारियों, सेना के ब्रिगेडियर, कर्नल, मीडिया से जुड़े साथी और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों - जो बहुत पुराने मित्र, सहपाठी या सहकर्मी थे, से बातें हुई तो इन सब मुद्दों पर गहन चर्चा हुई पर हम सब सिर्फ कुछ स्नैक्स, काफी और गपशप पर ही खत्म हो गए, इसके अलावा इन मुद्दों का हल निकालना तो दूर है - कुछ सार्थक बातें भी नहीं कर सकें, क्योंकि ये सब करने वाला गिरोह इतना संगठित और सुव्यवस्थित है कि उसमें संसार का कोई अभिमन्यु घुस नहीं सकता
मुद्दा बहुत गंभीर और विचारणीय है, देश - राष्ट्र प्रेम - जाति - वर्ण - वर्ग - कुल - गौत्र और बाकी सारे अवसादों के बीच आम आदमी का जीना दूभर हो गया है, पटवारी से लेकर प्रोफेसर और डाक्टर से लेकर ब्यूरोक्रैट कम से कम पचास हजार से लेकर ढाई लाख प्रति माह कमा रहे है, ऊपरी कमाई अतिरिक्त है जिसका कोई अंत और हिसाब नहीं है, ये सब चल - अचल संपत्ति बनाने में लगे है और जिनके पास खेती है - वे ज़मीन दुगुनी कर रहे है, दुकान वाले बड़े कांप्लेक्स बनाने में जुट गए है, पर संविधान में गरिमा से जीने की उम्मीद करता एक सड़क पर खड़ा निहत्था नागरिक सबके लिए एक सॉफ्ट टारगेट है और वो दो जून की रोटी तो दूर - स्वच्छ पीने के पानी की एक बूंद का भी अधिकारी नहीं है और इसके लिए उस बाशिंदे के साथ मै और हम सब संगठित रूप से जवाबदेह है, पर हम सबकी आंखों पर धुंध है, नशा है, रुपए कमाने की आपसी होड़ और हवस में हम सब लगातार गिरते जा रहे है - इतने नीचे कि कोई तल या छोर नहीं है
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जिस समाज में घर, परिवार, समाज, वृहद समुदाय में झगड़े, विवाद, लूटपाट, डकैती, बलात्कार, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार, माँ-बाप से लेकर पति-पत्नी के बीच के भयानक विवाद, महिलाओं के साथ अपराध, भ्रष्टाचार, युद्ध, उन्माद, बदला लेने की तीव्र प्रवृत्ति और गबन से लेकर चेक बाउंस के इतने मामले अदालतों में पेंडिंग पड़े रहते है, वहां न्याय, ईमानदारी, नैतिकता, आदर्श, मूल्य, नियम-कायदों और अंत में संविधान की बात करना विशुद्ध मूर्खता है और बकवास
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"सोए नहीं अभी , क्या कर रहे हो यार", लाईवा की भाट्सअप पर हरी बत्ती जलती देख फोन कर लिया मैंने
"कल मॉक ड्रिल है ना, तो पचास - साठ कविताएं लिख रहा हूँ, क्या है ना - कल बारह मिनट का ब्लैक आउट रहेगा तो लोग फुर्सत में रहेंगे - तो सुना दूंगा मुहल्ले भर को", बड़े दिनों बाद चहककर जवाब दिया ससुर ने
"भाई तू तो सीमा पर ही चला जा कल और फ्लाइट का किराया सुबू मुहल्ले से चंदा कर दे देंगे, पर निकल लें अब यहां से"
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तुम्हारे शहर के सारे दिए तो सो गए कबके
हवा से पूछना दहलीज पे ये कौन जलता है
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थाली पीटो की अपार सफलता के ठीक तीन वर्ष बाद पेश है मॉक ड्रिल - "सायरन बजते ही कही छुप जाना"
कितनी गजब की अक्ल है इस सरकार की, मानसिक दीवालियेपन और चुनाव जीतने की हवस इन्हें कहां से कहां ले आई है
वैसे एक करोड़ नौकरी, फाइव ट्रिलियन इकोनॉमी, से लेकर बाकी जुमले कहां गए सरदार के
मेरे कू तो चित्रा आंटी, अंजना ओम कश्यप, दीपक चौरसिया, रजत शर्मा, सुधीर दिहाड़ी, विस्मृति ईरानी आंटी जैसों को सड़क पर भागकर छुपते हुए देखना है किसी बेसमेंट में
खैर कल छुट्टी क्यों नहीं घोषित कर देते, हम सब तमाशा देखना चाहते है
On a serious Note
वैसे सांप्रदायिक दंगे 1947 के पहले से हो रहे है बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद ये दंगे बढ़े हैं, 2014 से हिंदू मुस्लिम बढ़ गया है पर सरकार इनसे बचने की कोई ड्रिल नहीं करती या बचाव के कोई तरीके नहीं सीखाती क्योंकि सरल सी बात है - सब सरकार और राज्य प्रायोजित होता है
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जे इडली डबल इंजन टाइप वाली है, एक का वज़न लगभग ढाई सौ ग्राम से ज्यादा ही है, इसलिए बेहद नर्म, सुस्वादु, सुपोषित, हष्ट-पुष्ट और Obesity वाली लग रही है - अपने शाह बाबू या जोगी टाइप, इसे इडली पॉट में नहीं बड़ी कटोरियों में बनाई है ताकि साईज भी बड़ा हो और इडली पॉट को मांजने के झंझट से मुक्ति मिलें (आलसियों को सलाह दे रहा हूँ )
खैर खा लों यार, अभी बनाई है गर्मागर्म और सांभर चटनी बन रही है
बहुत दिनों बाद हाथ साफ किया है रसोई में
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अकेले ही आए थे
अकेले ही जाना है
आखिर एक इंसान को किसी और इंसान से डरने की जरूरत भी क्या है, और किसी इंसान को किसी को भयभीत करने की या ख़ौफ़ में रखने की ज़रूरत भी नहीं है - क्योंकि आख़िर सबको यही और इसी मिट्टी में ही मिल जाना है
ताकतवर नहीं भी है तो अपने आप पर भरोसा रखिए, अपने कौशल, दक्षताओं, हुनर, योग्यता और संचार क्षमताओं पर
जय जय
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