Skip to main content

(लिखी जा रही कहानी "एक स्त्री का दूसरा मर्द")



उसने बहुत सोचा कि काश इस नामर्द से रिश्ता बनाए ही रखती चाहे फिर औलाद ना होती गोद ही ले लेती खानदान का नाम तो चल जाता इस आदमी का जिसके लिए इसके माँ बाप बुढापे में ब्याहकर लाये थे मुझे इस कोठरी में, जमाने में कई नारीवाद मैंने पढ़े और एक उम्र से अंग्रेजी में जमाने को पढ़ा रही हूँ इतना रुपया कमाकर भी क्या कर लिए मैंने, नारीवाद में पढ़ा कि ये पुरुष प्रधान समाज था और आज भी नारी को सम्मान नहीं मिलता, पर मुझे क्या मिला मैंने तो अपनी देह दे दी पर यह नामुराद उसे भी सहेजकर नहीं रख सका. हर बार सारे इल्जाम नारी पर ही लगाए जाते है...........और यह मर्दों की चाल है कि मुहावरा गढ़ दिया कि मातृत्व के बिना नारी अधूरी है और अगर इसी बात का नारा बुलंद करना था तो काहे झंडा उठाया और राजनीति में उतर आया था, मुझे मातृत्व का सुख ना देकर भी बड़ा अपराध किया तुमने ? एक जमीन को प्यासा रखना भी जुर्म है क्या इसकी कही कोई सजा नहीं है? अपने आप से देर तक जूझती रही आज उसे सब याद आ रहा था वो अत्याचार, वो बातें और वो गोलमोल होकर शोषित करना, और इस सबमे वह शामिल था पुरी तरह से .....

उदास होकर वह चली गयी नर्मदा के किनारे और रेत से खेलती रही देर तक,फिर वह उस जगह गयी जहां तवा नर्मदा से मिलती थी ..........दो कुंवारी नदियाँ कहने को पवित्र , पाप नाशिनी परन्तु अपने अपने जीवन में दोनों दुखी और संताप ग्रस्त - दो कुंवारी नदियाँ.......... दो भिन्न जिन्दगी, दो स्रोत, दो रास्ते पर जब दुःख का मकाम देखा तो एक ही जगह एक ही साथ दूर तलक साथ चलते चलते अंततः समुद्र में मिलन और ख़त्म, पूरा अस्तित्व ख़त्म ......क्या यही कहानी मेरी नहीं है......उसने सोचा और फिर साड़ी को सम्हालते हुए लौटने लगी फिर से अपने खुद के बनाए आशियाने में जो उसने जैसे तैसे खडा कर लिया था, आज कम से कम वह किसी और पर निर्भर नहीं है भाई पिता .तो मानो उसके जीवन से खारिज ही थे एक पूरा घर खानदान वह पीछे छोड़ आई थी इस बावरेपन में पर अब तसल्ली के लिए यह एक आशियाना है उसके पास और गुजारे लायक नौकरी ताकि वह सम्मान से जी सके समाज में पर अन्दर ही अंदर टूट गयी है इन दिनों.......शाम ढल आई थी किनारे एक लाश जलने आई थी कोई सद्य सुहागन थी उस सुहागन के चेहरे पर तेज था और उसके माथे के बीच ढेर सारा सिन्दूर दर्प की तरह दहक रहा था और उसने अपने सर पर झुक आई सलवट को सहलाया और सिदूर खोजने लगी परन्तु एक फीकी सी मुस्कराहट उभरी और तेजी से उसके कदम घर की ओर उठने लगे.........आज उसने कुछ फैसला करना था किसी तरह से भी जी लेगी पर वह इस तरह से अपने को ख़त्म नहीं करेगी.

(लिखी जा रही कहानी "एक स्त्री का दूसरा मर्द")

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही