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Khari Khari, Drisht kavi and Other Posts from 4 to 6 July 2021


और इस तरह से वकील बनने में अब मुश्किल से 6 माह बचे है
आज पाँचवे सेमिस्टर का परिणाम आ गया, कोरोना माता की कृपा से और लॉक डाउन जैसे लोक देवता की मेहरबानी से 68% बने, बुढ़ापे में विवि की बड़ी बड़ी कॉपी में लिखना वो भी हाथ से जबकि फ्रोज़न शोल्डर, शुगर से अब पोस्ट कार्ड पर शोक संदेश लिखने में जान निकल जाती है, पर हिम्मत करके फिजियोथेरेपी करवाकर लिखा - अभी एलएलएम करके विधि संकाय की पीएचडी करने का हौंसला तो है - इंशा अल्लाह, हाथ मे दम सलामत रहें और दिमाग सठिया ना जाये ये दुआ कीजियेगा, बाकी तो राम जी साथ देंगे ही
हमारे मालवे में कहते है गधे घोड़े गंगा नहा लिए - गधे तो अपुन है ही , फोटू भी लगा रखा है बस कोर्ट में घुसने लायक हो जाये - लायसेंस शुदा घोड़े भी बन जाएंगे
कुछ भी बोलो, कोई भी उम्र हो - साल के अंत में मार्कशीट मिलने की वोइच खुशी है जो पाँचवी बोर्ड की परीक्षा की मार्कशीट में मिलती थी, अभी भी छोटी उम्र के सहपाठियों के अंक जानने और अपने अंकों से तुलना करने की जिज्ञासा बराबर बनी रहती है - शायद यही वो जज़्बा है जो जिंदा रखता है हम सबको
बहरहाल, जिंदगी जब भी ज़्यादा तनाव देती है ठीक उसी समय दो पल मुस्कुराने के भी देती है

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बस अब फेसबुक पर पूरी पीएचडी थीसिस ही पढ़ना बाकी है, लोग ढाई तीन किलोमीटर की समीक्षा, साढ़े सात मीटर ऊंचाई की आलोचना, साढ़े नौ किलो कविताएँ, डेढ़ टन की कहानियाँ तो लिख ही रहे है, पन्द्रह सौ लीटर यात्रा वृतांत पेल रहें है, तीन सौ मीट्रिक टन के बकवास ब्लॉग की लिंक चैंप ही रहें हैं, 249 , 332 या 1223 फोटो पोस्ट कर ही रहें है शादी की साल गिरह के, अरे ओ बहिनजी के सैय्या - किस डाक्टर ने बोला था बै उलूकराज कि ब्याह कल्ल लें किसी लोमड़ी से

अब तो मन भर गया फेसबुक से, बस दो चार थीसिस पढ़ लूँ तो फिर झोला उठाकर अपने मोई जी के साथ निकल लूँगा
मतलब हद है ससुरों की , और फिर उम्मीद करते है कि कमेंट करो, हर फोटो पर
❤️
बनाओ , अबै ओ नाले से निकले बजबजाते हुए सूखे कीचड़ - ये बेवफा पोस्ट है या सज़ा
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रिपोस्ट क्योंकि अब ज्यादा सामयिक
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Epilogue - समाहार
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कल एक फ़िल्म समीक्षा लिखी थी, तथाकथित बड़े अखबार के पोर्टल पर भेजा तो सम्पादक ने कहा कि यह नही ले सकता क्योंकि यह प्रमोशन है फ़िल्म का, यह मुम्बई से बनता है, दिक्कत हो जाएगी दिल्ली में, इंक्वायरी आ जायेगी कि यह प्रमोट क्यो किया जा रहा है
तो कहाँ जाया जाए, अखबार में जगह खत्म, पत्रिकाओं में जातिवाद, दलितवाद, स्त्रीवाद और सबसे बड़ा अपना वाद है और हंस, तद्भव, वागर्थ से लेकर पहल में सम्पादक रचनाओं पर बैठ जाते है दो - तीन साल तक और यदि आपने पूछ लिया तो तुरन्त जवाब दे देंगे कि रचना उपयोगी नही है
अब बचे निठल्ले पोर्टल, पोर्टल सारा कुछ निशुल्क लेते है क्योकि उन्हें दिनभर पोर्टल का पेट भरना है - जो उसे देख रहा है उसे अपनी नौकरी बचानी है, अपने चहेतों को रुपया देते है जो उनके लग्गू भग्गू है, बाकी को वेल्ला समझकर फ्री में उपकृत करते है और उसमें भी इतने नखरे है कि कहा नही जा सकता, इन लोगों का दिमाग चाचा चौधरी से पचास गुना ज्यादा तेज चलता है और ये सनसनिबाज सम्पादक उर्फ पेज संयोजक या डिजाइनर या डेस्क बाबू और बड़े वाले होते है - इनका कुल जमा समय अपने सम्पादक को रिझाने उसके लिखे कूड़ा करकट और उसकी किसी घटिया मोटिवेशनल किताब जो स्टेशन पर टाइमपास बिकती है - को प्रमोट करने में चला जाता है
देहात, कस्बों या दूरदराज से मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली या बनारस, इलाहाबाद जाकर बस गए ये लोग अचानक चिंतक बनकर परम ज्ञानी हो जाते है और फिर अपने को कारपोरेट के शहंशाह समझ लेते है , मोदी हो जाते है "तू इस मशीन का पुर्जा है - मशीन नही", ये आपको छापेंगे नही पर अपने लाइव का इनवाइट भेजेंगे, अपनी किताब खरीदने और प्रमोट करने के लिए दबाव डालेंगे, मिलेंगे तो अपनापा दिखाएंगे पर उन दड़बों में जाकर शेर हो जाने का मुगालता पाल लेंगे - ये भूल जाते है कि कफ़न पहन लेने से कोई शेर नही हो जाता, बहरहाल
अब कवि, लेखक, कहानीकार, आलोचक या पाठक के पास क्या बचा, फेसबुक , अब फेसबुक के अलावा क्या विकल्प और है, कम से कम यहां रिकॉगनिशन तो है - भले ही बहके हुए भले लोग है - निंदा, गाली गलौज करें, धमकाये, रिपोर्ट करें, रूठे मनाएँ एक दूसरे को, पर वायवीय स्नेह की डोर से तो बंधे है - एक दूसरे के लिए मैदान में कूद तो पड़ते है, इस कोरोना काल मे इन्हीं लोगों ने बहुत मदद की है
और क्या नही है यहाँ और कौन नही आत्म मुग्ध - सबकी रचना के पहले ड्राफ्ट यही परोसे जा रहें है, सुशोभित और मंगलेश डबराल की लाइव लड़ाई ने सबका मनोरंजन निशुल्क किया, गुनगुन के बताए नागार्जुन के कुकर्म और किस्से सबने यही सुनें - किसी पत्रिका में देखा क्या, अम्बर पांडे की द्रोपदी और तोताबाला यही जन्मी और यही मरी - सब तो है यहाँ - आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल है तो व्योमेश है, पंकज चतुर्वेदी है, अम्बर है तो आशीष मिश्रा है, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून, ओम थानवी जी है तो प्रियदर्शन है, अरुण देव है , महेंद्र मिश्रा है, माहेश्वरी घराना एवं समूह है तो सत्यम निरुपम है, राजकमल है , गौरीनाथ है, माया मृग है तो रविन्द्र कुंवर भी, रेडियो के यूनुस है और मनीषा जी भी , प्रशासनिक अधिकारी है , पुलिस सेवा के अफसर है विदेश मंत्रालय के लोग है - मास्टर है तो कबाड़ बेचने वाले है मछली खाने वाले है तो झींगा उत्पादन वाले भी है, फादर्स है , सिस्टर्स है तो मुल्ला मौलवी, पुजारी और निहंग भी है, व्यवसायी है तो कंगाल भी - अर्थात इस मंच पर पद्मश्री से लेकर जलील कर दिए गए बेगैरत लोगों की भरमार है तो फिर क्यों ना इस मंच को ही बेहतर माना जाये जहां त्वरित फीडबैक मिलता है
मुझे याद है सत्यनारायण पटेल जैसा कहानीकार मुझे बुरी तरह कोसता था कि फेसबुक पर बैठे रहते हो और आज वही बिजूका की दुकान चला रहा है, उसकी दोनो तीनो किताबों की मार्केटिंग और तथाकथित प्रसिद्धि फेसबुक से हुई - चाहे वो उसने की हो या देश निर्मोही जी ने कि गांव भीतर गांव बारह लाख बिकवा दूँगा - यानी सारी दुनिया यहाँ माल बेच रही है, सत्तू आज फेसबुक पर दोस्त नही - उसने हटा दिया, क्योकि उसे भी प्रशंसक एवं चाटूकार चाहिये - खरा बोलने वाले नही, और मुझे भी कौंनसा उससे रोटी बेटी का सम्बंध निभाना है, एक देवास के मित्र और है जो हर बात यहाँ चैंपते है फिर सन्दर्भ हो या ना हो, एक कॉपी पेस्ट युवा पत्रकार है जो जेल जाने को बेताब है और भयानक आत्म मुग्ध इतना कि कह नही सकते - पर यह सच हैं कि अपनी किताबे भेजकर लोग यहाँ छा जाना चाहते है, जिनकी क़िताब के बारे ना बोलो या ना लिखों वे नाराज़ हो जाते है - होने दो अपन ठहरे अकेले राम , जब जीवन ही रूठ गया और माँ - बाप की नही सुनी - "तो तू कौन बै - निकल " होगा कोई तुर्रे खान, मेरे को फर्क नही पड़ रहा और तेरी इस दोस्ती से कोई फर्क नही पड़ रहा - ना फायदा - ना नुकसान , चवन्नी का लेनदेन नही है तू विदेश में रहकर फ्रस्ट्रेट बोलता रह घण्टा फर्क नही पड़ रहा - योग्य होते तो यही कमा खा लेते और बड़े देश प्रेमी हो तो आ जाओ ना देश की माटी से दो दो हाथ करने, मेरा एक भाई दो दशकों से दुबई में है मुस्लिमों का खाकर उन्हें ही गाली देता है और भारत मे भड़काऊ शीट परोसता है ऐसे भी फर्जी लोग है - इनसे क्या बहस करनी घटिया और नीच है ये लोग
दुनियाभर की फेलोशिप के हितग्राही यहाँ हर कुछ उंडेल देने को बेताब है - फिर वो फोटो हो, शोध परिणाम या गाइड को गलियाना हो , सभी प्रकार के एनजीओ और अंतरराष्ट्रीय एजेंसी के फर्जी समाजसेवी दिनरात लोगों को ट्रैक करते रहते है - आप एक # लगाकर इनकी संस्था का नाम लिख दीजिये देखिये कैसे पीछे पड़ जायेंगे आपके ये दलाल, एक पोस्ट लिख दो तो पिछवाड़े सूज जाते है, एक हल्का सा कमेंट कर दो या भाषा मे एक यू टर्न ले लो तो लोग टसुए बहाने लगते है - गांधी या मार्क्स या कास्त्रो या गोलवलकर या मोदी या शाह पर तो इनके भक्तों को दस्त लग जाते है
और सबसे महत्वपूर्ण लोकतंत्र में इस सोशल मीडिया से बचा नही जा सकता जबकि चुनाव और परिणाम अब इसी से जीते और हारे जाते है - मेरे सामने कई बच्चे यही बड़े हुए, विधायक बने और आज अपना संजाल बड़ा कर रहें है
और मैं कोई चिंतक टाइप नही हूँ, ना कवि या साहित्यकार - एकदम दो कौड़ी का घटिया आदमी हूँ और जब यह अपने आप से कन्फेस कर लिया तो फिर जीने को और क्या चाहिये और आप है कौन मुझे चरित्र प्रमाणपत्र देने वाले और होंगे तो भी नही चाहिये आप से - मैं ख़ुश हूँ अपने जीवन, परिस्थिति, संपर्कों, रुचियों और जीवन पद्धति से - मुझे सत्यार्थी की तरह भूख नही और नाही कोई पद्मश्री लेना है जो हर समय पोलिटिकली करेक्ट रहूं - है मेरे ऐसे लोगों से रिश्ते जो रीढ़ गिरवी रखकर सब बटोर रहें है फिर वो रंगकर्मी हो, समाजसेवी, फटे गले के गायक वृन्द या सस्ती लोकप्रियता बटोरते रिटायर्ड खब्ती बूढ़े
सबको जै जै, लिखो, पढ़ो,लड़ो - झगड़ो और खूब मजे लो और इतना भी सीरियस मत हो जाओ कि आत्म मुग्ध हो जाओ और हर पोस्ट में दलित, जाति, जेंडर, पूंजीवाद, कम्युनिज्म, भगवा, नीला, हरा, कोविड, स्पेस टेक्नोलॉजी, प्रजनन स्वास्थ्य, गरीबी भुखमरी, प्रशासन, काफ़्का, नीत्शे, रामचन्द्र शुक्ल, विष्णु खरे, जेएनयू, बीएचयू, मगा हिंदी विवि, रज़ा न्यास या सड़ानीरा और दिल दिमाग और गुदा जैसी कविता ही खोजते रहो
मस्त रहो, जीवन किसने देखा है 60 का षष्ठि पूर्ति समारोह होगा या पाँचवी बरसी - यह भूलकर बूंदी के लड्डू और फैलते हुए रायते की कल्पना कर जी लीजिये बाकी तो सब ठीक ही है
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जब कोविड -19 का वायरस आया तभी टीके पर शोध और बनाने पर काम शुरू हुआ था - सही या गलत ?
एक साल में हमने दो टीके बना लिए ,
शाबाश
- सही या गलत ?
उसके बाद 26 करोड़ को टीके लग गए, बड़ी मेहनत से - सही या गलत ?
अभी तक कोरोना के वायरस ने हजार रूप बदल लिए है और अब डेल्टा तक में आ गया है - सही या गलत ?
कोरोना के बाद तमाम फंगस हो गए और लोग मारे गए जो कोरोना से आगे की बीमारी से ग्रस्त हुए - सही या गलत
मूल टीका मूल वायरस के लिए बना था जो उपयोगी था उसी वायरस के लिए - सही या गलत ?
अब नया वायरस नए अवतार में है तो क्या वही पुराना टीका नए वायरस पर असर करेगा - सही या गलत ?
क्या टीकों के कंटेंट में बदलाव हुआ है या बने हुए संचित माल को खपाया जा रहा है अब - सही या गलत ?
या तो वो टीका शाश्वत दवाई है या अब हम सिर्फ एक्सेल शीट के कालम में एक इंट्री महज भर है - सही या गलत ?
आंकड़ेबाजी हमारा शौक है और इसमें हमारा कोई बाप नही
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ये शाम भी अजीब है और प्रिय अभिषेक ने इसे खास बना दिया - ये नज्म का राग छेड़कर
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|| वो शाम कभी तो आएगी ||
इस तपती दुपहरी के सर से जब दिन का आंचल ढलकेगा
जब बर्फ़ के टुकड़े पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
जिस शाम की ख़ातिर लॉक डाउन में हम सब मर मर के जीते हैं
जिस शाम के अमृत की धुन में हम ज़हर (चाय) के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
माना कि हमारे अरमानों की क़ीमत अभी कुछ भी नहीं
सोडे का भी है कुछ मोल मगर स्कॉच की क़ीमत कुछ भी नहीं
यारों की संगत में जब फिर से पेटी खोली जाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
जब शाम को हारा थका शख़्स क्रिस्पी कॉर्न मंगाएगा
साथ में उसको एक प्लेट में टिक्का परोसा जाएगा
जब चिल्ला कर के वेटर से ग्रीन-चटनी मांगी जाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये प्यास के और लाचारी के
खुलेंगे कभी तो ताले आख़िर नुक्कड़ वाली कलारी के
जब टेबल पर फिर से एक्स्ट्रा चेयर लगाई जाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
मजबूर रिंद जब बैठा खाली पीनट न फांकेगा
‘पड़ी है क्या’ कह-कह कर यारों से भीख न मांगेगा
जब यारों से गाजर खीरे की सलाद कटाई जाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
गाड़ी में बैठे जिस दिन जम्बो ग्लास मंगाए जाएँगे
कौन सी सबसे अच्छी है के चर्चे उछाले जाएँगे
जब हॉस्टल के कमरे में फिर महफ़िल जमाई जाएगी
वो शाम कभी तो आएगी
(साहिर अंकिल जी से माफ़ी सहित)
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