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Drisht Kavi and Kashmir Files - Posts of 15 to 16 March 2022

विकुशु प्रकरण में बड़े लेखक सब चुप है, प्रगतिशीलता और जनवादिता का ढोल पीटने वाले भी चुप है, बरसो से प्रलेस या जलेस के पदों पर जमे बूढ़े बामण, लाला उर्फ़ कायस्थ और बनिये और खब्ती हो चुके फर्जी कामरेड्स कुछ बोले क्या जी, नही - नही ; दब्बू, डरपोक और कायर कही के

विश्व विद्यालयों के जड़ और प्रेमचंद से लेकर निराला पर कूड़ा शोध करवाने वाले माड़साब बोले क्या - नही जी, फ्री में छपवाने का बिजनेस खत्म और कमीशन का क्या होगा फिर, प्रकाशक जो लोटा लेकर इनकी पोटी धुलवाने को विवि के बाहर रोज बैठे रहते है उसका क्या होगा फिर - 40 साल की उम्र में 90 किताबों का कचरा कैसे सँवरेगा , अखबारों पत्रिकाओं के सम्पादक भी नही बोलेंगे क्योकि फिर लौंडे लपाड़ो से होस्टल में दारू कैसे झटकेंगे कम्बख़्त
प्रकाशक मुंह नही खोल रहें - सिवाय राजकमल के स्पष्टीकरण के कोई सामने नही आया, यदि बोलें तो हर माह 100 शीर्षकों का कचरा छापने वाले क्या करेंगे चूतिया बनाने का धँधा खत्म हो जाएगा
शरद जोशी का व्यंग्य याद आता है - "हू इज अफ्रेड ऑफ वर्जिनिया वुल्फ़"
गन्दा है पर धँधा है
***
◆ एकदम साफ एजेंडा - 2024 की तैयारी है मणिशंकर अय्यरों की - क्योंकि अब कुछ है नही हाथ में विकास के पप्पा के
◆ अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण
◆ इमोशनल अत्याचार
◆ बाजार में बिकने लायक मसाला
◆ ना थीम, न कथ्य, ना कहानी
◆ "हम देखेंगे" - जैसे गीत का पल्लवी बाई ने कबाड़ा कर दिया
◆ मिर्च मसाला और भावनाएं उत्तेजित करने का षडयंत्र
◆ अंधेरे का गलत प्रयोग और कैमरे के इस्तेमाल में कच्चा अनुभव, बेकार की सिनेमेटोग्राफी, डायलॉग भी बेहद कमज़ोर और ओवर लैपिंग की शाश्वत समस्या
◆ जेएनयू को टारगेट करके फर्जीपन की हद - गधे कभी जेएनयू या ढंग के विवि नही पहुंच सकते लिहाज़ा घास ही खाएंगे और गोबर ही देंगे
◆ विशुद्ध टाईम पास मसाला
◆ सन्दर्भों की भरमार और इतिहास की गलत व्याख्या परम्परा में ही नही, खून में है इनके
◆ज़्यादा दिमाग खपाकर लिखने का श्रम करने की जरूरत नही
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मेरी ओर से सिर्फ **
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[ आपके तर्क और कॉपी पेस्ट इतिहास या ज्ञान की जरूरत नही, कृपया रायता ना फैलाये, फ़िल्म को फ़िल्म ही रहने दें, ना आपको कश्मीर जाना है - ना मुझे, और ना आपके बाप - दादा कश्मीरी पंडित थे ना मेरे - तो लोड नई लेने का भिड़ू और भला बुरा मानने की बात भी नही है, निर्देशक कमा रहा है आपको लूटकर, और सबकी थोथी देशभक्ति से सब परिचित है, फेसबुक पे वैसे ई बकर उस्ताद है बहुतेरे जो कॉपी पेस्ट से फालतू के बुद्धिजीवी बन रिये हेंगे, एक फर्जी ने तो किताबें पेल दी कॉपी पेस्ट से ]

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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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