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Posts of 30 Nov and 1 Dec 2020

मंगलेश डबराल जो शायद हिंदी के कुछ अनुवादक या कवि है सम्भवतः, समाज में या वंचितो के विकास में उनका क्या योगदान है यह भी बताये कोई - इन दिनों वे सामान्य हो चुकी कोविड नामक बीमारी से बीमार है, उनके लिए दुआएँ 

एक विज्ञप्ति आई है आर्थिक मदद के लिए, स्वाभाविक प्रश्न था मेरा भेजने वाले से 

◆ उन्हें तो कईयों नगद बड़े पुरस्कार मिलें थे 

◆ वे बड़ी नौकरी कर रहे थे प्रेस में अभी तक

◆ ढेरों किताबें लिखी, अनुवाद किए है, विदेश घूमे है 

◆ हिन्दी के स्थापित और नामवर पेंशन प्राप्त कर रहे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक सम्पादकगण बताये कि वे डबराल की कितनी मदद कर रहे है और बैंक ट्रांसफर के स्क्रीन शॉट लगाएं 

◆ उनके प्रकाशक, हितग्राही और हिंदी के धंधेबाज प्रकाशक (प्रतिवर्ष डेढ़ सौ शीर्षक छापने वाले) क्या मदद कर रहें हैं स्क्रीन शॉट लगायें बैंक ट्रांसफर के 

◆ डबराल ने कभी किसी को कोई मदद की -  कोई आर्थिक मदद जैसे किसी छात्र की फीस भरी, दिल्ली आने पर किसी कवि की बीमारी की फीस भरी किसी गरीब संपादक की पत्रिका का खर्च वहन किया भले ही 1 अंक का,  किसी पत्रिका को खरीदा, किसी किताब को खरीदा, कभी पलायन कर रहे मजदूरों की कोई मदद की , अभी या पिछले वाले किसान आंदोलन में किसी किसान की मदद की अगर हां तो कितनी (सनद रहे कि दिल्ली का कवि आपको टपरी की चाय पिला देगा पर घर नही बुलायेगा, पुस्तक मेले में अपनी पानी की बोतल भी छुपा लेगा - यकीन ना हो तो स्वर्गीय श्री भगवत रावत की कविता "दिल्ली" को पढ़े) 

◆ विवि के हिंदी प्राध्यापकगण, महाविद्यालय के मास्टर भी स्क्रीन शॉट लगाएं जो उनकी कविताओं पर शोध का कूड़ा कचरा इकठ्ठा करते रहते है, आलेख लिखते है रिसर्च पेपर टाइप कुछ - जरा देखे ये ढाई लाख वाले क्या निकालते है गठरी से अपनी - तब मैं भी सोचूंगा 

◆ चिंता मत कीजिये ज्यादा जितना हल्ला होगा उतनी बढ़िया व्यवस्था होगी - सरकार, अकादमियां, रजा अकादमी से लेकर तमाम लोग है जो बहुत देंगे कि भगवान कहेंगे रहने दो अभी पचास साल और धरती पर -आमीन 

भेजने वाले ने ब्लॉक कर दिया मुझे 

सवाल गलत है क्या 

मंगलेश डबराल के लिए दुआएँ

#खरी_खरी
***

हिंदी के साहित्यकार 

नोटबन्दी, जीएसटी, लॉक डाउन, 370, कश्मीर, तीन तलाक, मोब लिंचिंग, लव जेहाद कानून या किसी किसान आंदोलन में सामने नही आएंगे 

बेहद मक्कार और हरामखोर है यह पूरी कौम, घटिया किस्म के ब्लॉग पर अपनी अपनी दुनिया में बैठे गुणगान करते रहेंगे एक दूसरे का, नौकरी बचाकर, इज्जत बचाकर भ्र्ष्टाचार करके, आडिट करके, मन पसंद जगह पर ट्रांसफर के लिए बिछ जाने वाले ये कुछ नही करेंगे, कभी देखा सड़क पर इन्हें आपने

अभी प्रलेस, जलेस या जसम के महासचिव प्रेस विज्ञप्ति जारी कर ही रहे होंगे - तब तक आपके वाट्सएप में चार मैसेज आ जायेंगे, इन्होंने बड़वानी नही देखा, पुनासा नही देखा, आदिवासी गांव नही देखे पर नर्मदा बचाओ, चुटका बचाओ, देश बचाओ, मोदी से बचाओ आदि पर इनकी लच्छेदार विज्ञप्तियां देखी आपने, रोज ससुरा अलाना - फलाना कामरेड या ढिमका अमका लाइव होगा - उसे झेले आज रात और सुनेंगे तो बक़र के अलावा कुछ नही मिलेगा, ग़जब का रायता फैलाते है ससुर 

इतनी दब्बू प्रजाति है यह कि लाईक और कमेंट करने से भी घबराती है कि साहित्य अकादमी वाले ना देख लें और कोई पुरस्कार से वंचित ना रह जाये, दफ्तर का हेड क्लर्क ना देख लें नही तो निलंबित हो जाएंगे - ये पैदा करेंगे आग और बनेंगे क्रांति के हीरो , एक माह की पेंशन का दसवां हिस्सा भी दान किया कभी 

अभी कोई महिला बस दुखी हो जाये फेसबुक पर, फिर देखिये कैसे ये सारे टसुए बहाने पहुंच जाएंगे या कोई घटिया सी कविता लिख देंगे " मैंने सलमा को नही रुलाया या चम्पा को मार डालो " 

घटियापन सिर्फ राजनेताओं में नही इनमें सबसे ज्यादा है

#खरी_खरी
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नौकरी है नही 

युवाओं को पढ़ लिखकर स्कूल में मास्टर बनना है नही, जो बन गए वे अपराध बोध में जी रहें है, सबको कॉलेज जाना है, विवि में गुलछर्रे उड़ाना है 

तो काहे का नेट और काहे का जेआरएफ और काहे की बधाई, करोगे क्या पीएचडी करके - कुछ राजमिस्त्री का ही काम सीख लो तो बीबी बच्चे ही पाल लोगे कम से कम, वरना बैठे रहना 39 की उम्र तक और नागिन डांस करते रहना मित्रों के ब्याह में

सोशल मीडिया चलाना ही सीख जाओ, राजनैतिक विचारधारा ही परिपक्व कर लो तो भाजपा के आईटी सेल वाले 40000 /- प्रतिमाह दे देते हैं , कब तक गाइड के पोतड़े धोओगे और उसके हर "क, ख, ग, घ यानी हगे मूते" को फेसबुक पर उँडेलोगे और प्रेस विज्ञप्तियां लिखते रहोगे - नेट जेआरएफ यही करने के लिए किया क्या बबुआ 

#खरी_खरी
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गौरव पाण्डेय ने आज 36 कवियों के 37 कविता संकलन खरीदे, हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी गौरव की,  पर पोस्ट पर देखा कि - "6000 का माल 2000 में"

यह पँक्ति ही कम रोचक है क्या, पुस्तक मेले में 500 में 100 किताबों का स्टाल देखा है, सड़कों पर 100 रुपये किलो वाला साहित्य का ठेला देखा है कई बार

रश्मि प्रकाशन हो, बोधि या कोई अन्य प्रकाशक, ये सब लेखकों से रुपया लेकर कूड़ा कचरा छाप लेते है और ऐसी दिलफेंक स्कीम लाकर अंत में अपना माल खपाते है, पिछले साल तो जयपुर के एक प्रकाशक ने शायद 5000 में 100 किताबें खपाई थी

मैंने गौरव से पूछा कि इसी लिस्ट में कितने कवियों को जानते हो और उनकी कविताओं को

खैर लोकतंत्र है, पर एकदम दिल की बात बोलूं - ये लाइवा कवियों ने और फेसबुकिया, जिसमे मैं भी शामिल हूँ, कविता की हत्या कर दी है, एक संग्रह में 400 - 500 कविताएँ छापना पागलपन ही है और इस कवि होने को चने के झाड़ पर चढ़ाकर ये बाजारू प्रकाशक अपना धँधा चलाते है, आजकल एक नया कारखाना भोपाल में एक निजी विवि ने चालू कर दिया है - जहां रिटायर्ड या निठल्ले कवि बस रोज पापड़ बड़ी के धंधे की तरह (उपमा साभार - स्व चन्द्रकान्त देवताले जी) संग्रह छाप कर उपकृत कर रहें है हिंदी के प्रोफेसर्स को जो आगे इन्हें दूध देंगे या छात्र जो रुपया तौलकर पीएचडी खरीदेंगे यहाँ से

भोपाल के इस नए कारखाने में सब स्वयंभू है - हर माह उपन्यास, दस कहानियाँ, 15 समीक्षा, 4 पत्रिकाओं का सम्पादन करके और लिखकर फेंक देने वाले विलक्षण लोग है - जो देश भर स्थित 4-4 विवि में शिक्षा भी दे देते हैं

मतलब इतना चूतियापा है कि छपी हुई कहानियों के संकलन बनें फिर से, दो चार चाटुकारों ने उनकी कहानियां और कविताएँ चयनित की - जिन्होंने इन्हें कभी दारू पिलाई या इनके घटिया संग्रह खरीदे गए या रात बेरात शहर से गुजरने पर अपने घरों में रुकवाया, इन पुनः प्रकाशित संग्रहों के ढेरों सेट बनाये गए, ₹ 18000 कीमत रखी गई और बेचने से लेकर गिफ्ट देने तक का उपक्रम हुआ , विश्व स्तर के आयोजन की संयोजना बनी और जो बम फूटा तो सब हवा निकल गई - साहित्य माय फुट

इस भोपाली कारखाने में युवा लेखक समिधा बनकर खप गए है, जो किसी प्राथमिक स्कूल में संविदा शिक्षक या पटवारी भी नही बन पाये - यहाँ बाती बनकर तेल जला रहे है साहित्य के जेल में, वे बेचारे विवि के प्राध्यापकों को छाप रहे कि कही बाबू की नौकरी भी निकले तो ये चिपक जाए किसी तरह, पर अफ़सोस माया मिली ना राम

बहरहाल, हिंदी साहित्य और कविता अब एक पोस्ट है जो खूबसूरत चेहरे के साथ लाइक्स और कमेंट के भरोसे ही ज़िंदा है, तभी प्रेमचंद भी कविता लिखते है और महादेवी वर्मा या सुभद्रा कुमारी चौहान व्यंग्य

कोरोना ने सिर्फ देश, समाज, स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीति और अर्थ व्यवस्था को ही नही बर्बाद किया बल्कि समाज के दर्पण उर्फ़ साहित्य लाल को भी गोबर से लिप दिया है

Alok Ranjan के भाई ने आज कहा कि वो एक किताब में धाप गया और हिंदी के साहित्यकार किलो और क्विंटलों  से साहित्य छान कर रोज उतार रहें है - अब क्या कीजै

हिंदी को नोबल नही मिला आज तक क्यो, क्योकि हालात बड़े विचित्र है यहाँ, अपुन भी साहित्यकार होने का दम भरते थे पर साहित्य का घटियापन और नीचतम लोगों को देखकर अपने लेखक होने का मुगालता दूर कर लिया

हिंदी में एक है राजेश जोशी जिनको लोग इष्ट कहते है और राजेश जोशी पिछले कई वर्षों से प्रगतिशील / जनवादी लेखक संघ मप्र के किसी पद पर आसीन है और उनके छर्रे उन्हें खुदा बनाये बैठे है, 75 की उम्र पूरा होने पर अब रोज अनुष्ठान होंगे, यज्ञ होंगे और भजन पूजन के भव्य लाइव होंगे - मप्र प्रगतिशील लेखक संघ में ब्राह्मण है, कायस्थ है बरसों से जमे हुए - पट्ठे हटते ही नही मजाल कि कोई महिला या दलित आ जाये पद पर, यही हाल जलेस का है

ये तो हाल है हिंदी के चुके हुए कवियों का, सब हजार रुपये से लेकर लख टकिया पुरस्कार की जुगाड़ में लीन रहते है

लाइव ने सबको नंगा किया है भाई तो अपन अब सिर्फ भड़ास निकालेंगे - लेखक वेखक नही है गुरु

मैं मूर्ख , खल कामी - पाप हरो देवा - माफ़ी, बहुत घटिया लिखता बोलता हूँ .....बाकी सब डरते है क्योंकि सबको छपना है, फर्जी पीएचडी करना है गाइड के पोतड़े धोना है नौकरी लेना है हीहीही करके - अपने तो कबीर है - जो घर जाले आपणां चले हमारे साथ

#दृष्ट_कवि

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