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Khari Khari, Drisht Kavi, Man Ko Chiththi, and other Posts from 9 to 28 April 2025

काश कबीर थोड़े से व्यवसाई हो जाते और कम से कम अपने कॉपी राइट्स को लेकर ही सचेत होते
आज के कबीर बेचकों से बस थोड़े कम
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हर बीमारी का इलाज दवाई नहीं, हर दर्द का इलाज नहीं होता, हर प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता, हर उत्तर संपूर्ण नहीं है, हर अंधेरे के बाद उजाले की लड़ नहीं होती, हर घुप्प अंधेरी सुरंग के बाहर रोशनी का रास्ता नहीं होता, हर बंद गली के आगे सुराग नहीं होता, हर सत्य मुकम्मल नहीं होता, हर झूठ भी झूठ नहीं होता, हर नैतिकता में सीख नहीं होती, हर मूल्य का कोई फेस वैल्यू नहीं होता, हर बार गिरने पर खड़ा नहीं हुआ जा सकता, और हर सत्यवादी और ईमानदार आदमी के भीतर असंख्य बेईमानी के कीड़े कुलबुलाते है - जो उसे मुखौटे और आवरण के भीतर जीने को मजबूर करते हैं
दुर्भाग्य से हम इन्हीं नैराश्य, दारुण परिस्थितियों, द्वंदों, विपदाओं और आसन्न संकटों से घिरे है कि हमारे आसपास मनुष्य नहीं - बल्कि मुखौटे, आवरण, यंत्र चलित मशीनें है जो किसी प्रोग्राम्ड रोबोट की भांति हमारे संग साथ जीती - जागती है, और मनुष्य होने का स्वांग करती है
बचकर रहना ही अपने होने और अपनी गरिमा बचाए रखने की रणनीति हम सीख लें इस जीवन में - तो पर्याप्त है
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उस नदी का कोई किनारा न था - इसलिए संसार के सारे पुल धंसा दिए गए है बहते पानी में, उस गरजने वाले समंदर का कोई तल ना था - इसलिए मछुआरों को हर तरह की छूट दे दी गई थी और जहाज उन्मुक्त हो गए थे, उस पहाड़ की कोई चोटी ना थी -आसपास सब कुछ खोद दिया गया था और पहाड़ था कि धंसता जा रहा था, उस घने जंगल में एक पगडंडी देखने को आँखें तरस गई - वहाँ के सारे रास्ते गड़मड़ हो गए थे, संसार की सारी चिड़ियाएं फुदकना बंद कर चुकी थी, फ़ाख्तों के पर बिखर चुके थे, पेड़ों के शीर्ष पर कोई हरी पत्ती शेष ना थी - इसलिए देर शाम को तोतों ने आकर चहकना बंद कर दिया था, क्षणिक भूकंप से हिल जाने वाली वसुंधरा ने घूमना बंद कर दिया था, एक आसमान जो अक्सर सब कुछ ढांक कर बचा लेता था - वो आज कही खो गया है
सब कुछ बदल गया है, जहाँ से देख रहा हूँ - वहाँ घुप्प अंधेरा है और कोई उजली किरण नज़र नहीं आ रही, शायद यही कही उद्दंड आशाएं प्रचंड उल्लास में पालना झूल रही है
ओ मेरे उदास मन, चल कही दूर चलें
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सुनता है गुरू ज्ञानी
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Praveen Singh और मै कल देर शाम बात कर रहें थे कि बचपन में जो गणित का डर बैठा था वो आजतक बरकरार है, जबकि गणित एक मज़ेदार विषय ही नहीं बल्कि अपने आप में एक दर्शन है, धर्म, है और आध्यात्म है
प्रवीण ने कोई किताब लाकर गणित सीखने की प्रक्रिया शुरू की है - जो कहानियों से गणित सीखाती है, उसके किसी सहयोगी ने यह किताब लिखी है, मै आज भी ठीक से जोड़ नहीं कर पाता, दशमलव का गुणा-भाग या जोड़-घटाव हो तो नानी याद आती है, बाकी भिन्न या युगपत समीकरण आदि तो बहुत ही दूर है, इसलिए जैव विज्ञान लेकर पढ़ा था
पर अब एकदम फुर्सत है तो गणित सीखना शुरू कर रहा हूँ, कक्षा पहली की गणित की किताब से आरंभ करूंगा
मजेदार यह कि यह गुगल कमबख्त हर बात सुनता है, सुबह उठा तो यह संदेश पढ़ा - मतलब हद यह है कि हमारी निजता का अब कोई मतलब शेष नहीं है
कुमार जी गाया है ना कबीर को
"सुनता है गुरू ज्ञानी, गगन में आवाज हो रही है"
साला अब समझ आया कि कबीर बाबा कितने बड़े ज्योतिषाचार्य थे, कौन, कहां, कब, कैसे, और क्यों सुनता है, अबै सुंदर पिचाई उर्फ पिचकोले - अपने हिंदू राष्ट्र और सनातनियों को तो छोड़ दें, कितने पाप और करेगा , चवन्नी ले लें गुरू, पर ये ताक-झांक छोड़ दें, शर्म कर नालायक
क्या अब नेट बंद करके बात करना शुरू करूं ?
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पहलगाम के नाम पर फर्जी पत्रकार और साहित्य के नाम पर सिर्फ बकवास करने वाले लगातार चार दिन से दिन में 25 पोस्ट पेल रहे हैं - यह हर बार कहते / कहती है कि "यह मेरी अंतिम पोस्ट है" परंतु दस मिनिट में ही फिर से घूम-फिर कर सज्जन या विदुषियां चली आती है ज्ञान बांटने और यह साला अंतिम के नाम पर भयानक रायता है, पोस्ट भी इतनी लंबी कि उसमें कॉपी-पेस्ट है, हीगल है, मार्क्स है, गोलवलकर है, दीनदयाल है, मोदी है, राहुल है, जेपी है, लोहिया है, और अंत में "मैं तो हूँ ही क्योंकि मेरे अलावा सब बेवकूफ है", मतलब साला ट्वेंटी क्वेशंस का पूरा माल यही सप्लाई हो रहा
पत्रकार के भेष में संघी, मुसंघी, वामी और कामी भी पेले जा रहे है, यहां - वहां से आए वीडियो को शेयर करके बेशर्मी से बोलते हैं कि यह मैं पहली बार कर रहा / कर रही हूं और सबसे ज्यादा रायता तो उन लोगों ने फैलाया है जो ना पत्रकार है, ना साहित्यकार है, परंतु पति-पिता या पुत्र की किताबें बेच रहे हैं, आत्ममुग्धता में अपने ही घर के पिछवाड़े बने सैप्टिक टैंक तक डूबे हैं, और अपने-आप को ज्ञानी बताते हैं, अरे तेरे से पूछा किसने है भाई / बाई कि तू पहलगाम या किसी भी मुद्दे पर ज्ञान दे यहां, पर जबरन ही ज्ञान की दुकान खोलकर बैठ गए हैं, और दूसरों को कोस रहे हैं, अरे घर बैठ ना चुपचाप, चाय पी मोदी पकौड़े खा, काहे खाज-खुजली और दाद की दवा लेकर जमाने को लगा रहे हो, खुद फेसबुक पर दिन में 10 पोस्ट करते हैं और बाकी सब को गाली देते हैं, गजब की मूर्खता का दौर है
जब भी मुंह खोलेंगे गंद बाहर
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हिंदी के कवियों की विशेषकर युवा, दलित, शोधार्थी के रूप में पंजीकृत गाइड के परम भक्त, दस हजार के मानदेय पर नगरी-नगरी घूमने वाले और फर्जी पत्रकारों के रूप में जबरन साहित्यिक आवरण ओढ़कर अलाने - फलाने नाम लेने वाले और वालियों की राजनैतिक समझ कच्ची ही नहीं, निहायत बेहूदा है
ना ये कविता के आगे देख पाते है, ना दलित विचार के आगे और ना अपने कालेज / विवि के कुएं की मेढ के आगे - इसलिए रोज कोई भी आकर इन्हें छिल देता है और ये कुपढ़ लोग दिन में दस को ब्लॉक करते हैं
बचिए इन कूढ़मगज युवाओं और आंटी बन चुकी युवतियों से - जो साढ़े तीन किलों का मेकअप पोतकर और अपने नातिनों के कपड़े ओढ़कर छबीली बनने के स्वांग रचती हैं और खानदान या मोहल्लों के टॉमी, कालू या मोती की किताबें बेचती रहती है, इनके कॉपी पेस्ट कंटेंट तो कोई पढ़ता नहीं
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ओ भाई
ओ बाई
तू कविता लिख, किताबें बेच, घूम-फिर रे बाबा, कॉपी पेस्ट कर - जबरन की बुद्धिजीविता मत दिखा, बंद कर प्रवचन देना
हर बात और हर घटना पर तेरे जैसे परम ज्ञानियों उर्फ मूर्खों को बोलने की जरूरत नहीं
तुम लोग आते क्यों हो फेसबुक पर जब दूसरों को फेसबुक पर लिखने के लिए कोसना है तो या जबरन का ज्ञान पेलना है तो, अजीब खुजली है साली, आकर गोबर कर जाते हो और फिर लाइक गिनते हो शर्म नहीं आती
ओ भाई
ओ बाई
तू किताब बेच, तेरे खानदान के किसी टॉमी, मोती, कालू या रिंकी - पिंकी ने किताब लिखी हो तो बेच, रज़ा में जा, लिट फेस्ट में जा, राजनैतिक - सामाजिक टिप्पणी तू तो कर मत, दो कौड़ी की समझ ना है
ओ भाई, ओ बाई ..... सुन रहे हो ना तुम लोग
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UPSC की प्रावीण्य सूची में पहले दस उम्मीदवारों में लगभग आठ या नौ सवर्ण है
एक साल पहले मैंने एक आलेख लिखा था जिसमें यह बताया था कि सवर्णों के बच्चे या तो पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं या धंधा कर रहे हैं या फिर विदेश चले गए हैं, ओबीसी की बात करें तो यादव - अहीर अपने पुश्तैनी व्यवसाय डेरी, दूध आदि में लगे हुए हैं, जायसवाल, राठौर, तेली, तंबोली भी अपना पुश्तैनी या पेशेगत काम कर रहे हैं - जैसे शराब या तेल की घाणी आदि ; वही गुर्जर, बिश्नोई, जाट खेती में लगे हैं और बाकी ओबीसी कम्युनिटी भी कुछ ना कुछ काम कर रही है - सबको मालूम है कि नौकरी है नहीं और जो है उनमें कड़ा संघर्ष है
परंतु इन दिनों जो सड़क पर जो जय श्रीराम के नारे लगाती रैली में भीड़ है या कुंभ या अयोध्या में लगे हैं, हाईकोर्ट या मस्जिदों में जाकर झंडा लगा रहे हैं या मुस्लिम बस्तियों में जाकर सुंदरकांड कर रहे हैं, भागवत बांच रहें है - वे हमारे दलित और वंचित लोग हैं - जिन्हें भाजपा और संघ ने सिर्फ सम्मान दिया है, क्योंकि अभी तक तो उन्हें जातिगत शब्दों से संबोधित किया जा रहा था, इस सरकार ने, ( बल्कि किसी भी सरकार ने, और दलितों की मायावती ने क्या बर्बाद किया दलितों को ) गत ग्यारह वर्षों में ना नौकरी दी है, ना रोजगार दिया है, ना काम - धंधे के लिए लोन दिया है, इसलिए सड़कों पर यह जो अवांगर्द भीड़ है, जो आयुष्मान कार्ड बनाने से लेकर दिन रात अपने केवायसी अपडेट करवा रही है, आधार सुधरवा रही है - पांच किलो मुफ्त राशन के लिए, वह सिर्फ और सिर्फ दलित और वंचितों की है - जो कभी पलट कर अपने आकाओं से नहीं पूछते कि हमारी नौकरी का क्या होगा, मुस्लिम कम से कम "पंचर" जोड़कर ईद तो मना लेते है, ये लोग तो ऋण में ही जन्में और मर जाएंगे
भाजपा शासित राज्यों ने चतुराई से आरक्षण तो लगभग 80 % तक कर दिया, परंतु विज्ञापन कब निकलेंगे, परीक्षा कब होगी, स्टे आदि से निकलकर भर्ती कब होगी - इसका कोई पलटकर इन नेताओं या सरकार का गला पकड़कर नहीं पूछता, उधर बड़ा आदिवासी समुदाय इस सबसे दूर है - वह जंगल में रहकर अपने पूजा - पाठ, नदी, जंगल और रीति - रिवाजों में उलझा है और उसकी लड़ाई मतलब दो बीघा जमीन वन अधिकार में लेना है बस, वह लगा है पलायन में, मजदूरी करके यहां - वहां जाता है, सुख से दो रोटी कमाता है और रात को ताड़ी या महुआ पीकर सो जाता है
यह सिर्फ लिस्ट नहीं, बल्कि भारतीय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक परिदृश्य का एक भद्दा चेहरा है - जिसमें हम देख रहे हैं कि किस तरह से जिन लोगों ने शिक्षा को अपना ध्येय और उद्देश्य बनाया - वे लोग अच्छी जगह पर ना मात्र नौकरी पा रहे हैं - बल्कि पद, प्रतिष्ठा और पैसे के साथ समाज पर राज कर रहे हैं ; अभी भी समय है कि धर्म की अफीम चाटने के बजाय शिक्षा में, पढ़ाई में ध्यान लगाए, कोई हुनर सीख कर अपनी दक्षताएं बढ़ाएं वरना आप अंबेडकर - जोतीबा - सावित्री बाई चिल्लाते रहो, फुले की फिल्म देखते रहो और फालतू की बकवास फेसबुक पर करते रहो, अनुराग कश्यप तो मूत कर करोड़ों कमा लेगा पर फेसबुकिया ज्ञान और इंस्टा की रील से कविता और कहानी से कुछ नहीं होना जाना है , दलित नेताओं और समाज सुधारकों से सावधान रहें - आपको ये ही बरगलाएंगे - याद रखिए दिमाग का रास्ता पेट से जाता है
असली ताकत है - पद, पैसा और प्रतिष्ठा - यदि आपको यह हासिल नहीं है तो आप कहीं के नहीं है, सारे दलित आंदोलन को भी यह सोचना होगा और दलित नेताओं को भी सोचना होगा कि वह मंदिर - मस्जिद में प्रवेश करने के बजाय, घोड़े पर दूल्हे को बैठाने के बजाय इस बहुसंख्यक आबादी को स्कूल - कॉलेज में नियमित पढ़ाने में मदद करें, उन्हें इस योग्य बनाएं कि वे प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे स्थान प्राप्त करके अच्छी नौकरियां प्राप्त कर सके और जो लोग कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य अलाना, फलाना, ढिमका है - वह सब बकवास है, असली चीज है - अंग्रेजी माध्यम से अच्छी शिक्षा और नौकरी हासिल करना और यदि यह आप इस देश में यह नहीं कर सकते तो आप जीवन भर बकवास करते रहिए कोई फर्क नहीं पड़ता
[ वैसे मेरी मित्रता सूची में हजार के लगभग युवा कवि, युवा दलित विचारक, युवा क्रांतिकारी जो अपने परिचय में UPSC Aspirant लिखते है, कोई चयनित हुआ क्या या ये साल भी खलिहर बनकर माँ - बाप का रुपया दिल्ली, कोटा, प्रयागराज, इंदौर, भोपाल, पटना या लखनऊ में उजाड़ोगे - घर जाओ बेटा - खेती सीखो, मदद करो परिवार की, तुम्हारी पढ़ाई तो फेसबुक पर ब्राह्मणों को गलियाने और रील बनाने में बर्बाद हो गई - जाओ काम धाम सीखो, शादी ब्याह करो कछु नहीं धरा है, बहुत पीत्जा और बर्गर खा लिए, कमिटेड रिलेशनशिप में रह लिए, वो चम्पा एक बीएड पास मास्टर से ब्याह कर सुखी हो गई है , तुम मामू बन गए हो, घर जाओ शोना बाबू ]
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सबसे मुश्किल काम है - हाँ कहना, स्वीकारना, मुँह पर कहना, समय पर कहना, हिम्मत से कहना, ईमानदारी से कहना और झूठ, असत्य, बेईमानी से असमय कहना, ख़ारिज कर देना और पीठ पीछे कहना तो बहुत आसान है
ज़िन्दगी मुश्किल अर्थों, समय और परिस्थितियों में ही जिन्दगी है, वरना तो कोई मतलब नहीं सरल, सहज राह पर बगैर मकसद के चलते जाने के
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तुम लोग सब बहुत बहुत जाति - जाति करके लिख रहे हो और जाति है कि जाती नहीं, जाति के नाम पर घणा कन्फ्यून वो अलग - राजस्थान और UPSC में मीणा आदिवासी बाकी जगह ओबीसी, कायस्थ यूपी में ओबीसी तो मप्र में सवर्ण, मालवीय बनारस में बामण और मालवा में बलाई और भोपाल पार ओबीसी अर्थात जिसको - जहां - जैसा फायदा मिला - वहां वो हो लिए, क्या यादव, क्या अहीर, क्या केवट, क्या गुर्जर, जाट या विश्नोई और क्या बामण - मतलब गजब की भसड़ मचा रखी है
सबसे ज्यादा रूपया कमाने वाले वणिक अल्पसंख्यक, मेहनती कौम और सम्पन्न सिख भी अल्पसंख्यक, ईसाई पढ़े-लिखें होकर अल्पसंख्यक, देश के बड़े व्यवसाय और अचल संपत्ति के मालिक पारसी अल्पसंख्यक , बोलो है ना अम्बेडकर का कॉपी-पेस्ट संविधान मजेदार
बामनों में भी श्रीगौड से लेकर तमाम तरह के वर्गीकरण, अब अनुराग से यह पूछो कि महाराज कौन से बामण पर वमन किया और मूत्रविसर्जन करना चाहते हो - सच में कुछ नहीं होगा इस सूचियापे से, बंद करो ये जात पांत और तमाम तरह के फॉर्म में जानकारी भरवाना - स्त्री और पुरुष - दो ही जात है बस
दलित - वंचित चिल्लाकर सुविधा लेंगे, राशन खा ही रहे है दस सालों से मुफ्त का और कोसेंगे सवर्णों को, आदिवासी ना बोलकर अब सयाने बन गए है, हर जगह हर क़ौम की पर्याप्त जगह है, स्पेस है और उपस्थिति भी, सारा किया धरा पढ़े - लिखें गंवार ही कर रहें हैं, जो वास्तविक हकदार है वे तो जानकारी से भी दूर है - फिर फूले ,अम्बेडकर की हो या अनुराग की या जीडीपी ग्रोथ की
और तो और अभी JEE Mains का परिणाम देख लो 93 % वाला आईआईटी से बाहर और 47 % वाला अन्दर - अब क्या कहें
एक अनुराग कश्यप के कहने से कुछ होना नहीं, फेसबुक निठल्लों के लिए बहस का अड्डा है और उजबक जातिवादियों, कवियों और फर्जी समाजसेवियों और अति मूर्ख के लिए बकवास करने का अखाड़ा
खैर मजे करो गुरू, हिंदी के युवा पढ़ने - लिखने और नौकरी ना मिलने के गम में यहां बकर उस्ताद बने है और अपने आपको अरस्तू, हीगल या हक्सले समझकर प्लेटो बने फिर रहें है, नाक पोछने की तमीज नहीं और जाति व्यवस्था की बात कर अपनी कुंठाएं निकाल रहें हैं, इतने समझदार थे तो पटवारी ही बन जाते या किसी निजी विद्यालय में माड़साब पर केंद्रीय विवि में प्रोफेसर बनना है न, लगे रहो तुमसे ना हो पायेगा
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वक्फ़ बोर्ड, नया कानून, दोनों सदनों में लंबी बहस और अंततः महामहिम राष्ट्रपति के अनुमोदन द्वारा और हस्ताक्षर द्वारा अधिनियम लागू होना और अब माननीय सुप्रीम कोर्ट में बहस और तकरार दलीलें और तारीख पे तारीख - हाल में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार तमिलनाडु के राज्यपाल को लताड़ा और कई आदेशों को लागू करवाया
सवाल यह है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति जैसे पदों की नियुक्ति और गरिमा का क्या, क्या एकदम ही गंवार और अयोग्य लोगों को रख दिया जाता है, जैलसिंह भी आठवीं पास थे, पर कई अधिनियम हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने सरकार को रोका - टोका और सवाल भी किए, परन्तु प्रतिभा पाटिल के समय से, बाद में रामनाथ कोविड के समय से तो मानो रबर स्टाम्प को सच में मान्यता मिल गई है - महामहिम द्रोपदी मुर्मू जो एक अधिवक्ता बताई गई थी और विदुषी जताया गया था, क्या वक्फ़ पर हस्ताक्षर करते हुए उन्हें ये सवाल नहीं दिखे - जो आज सुप्रीम कोर्ट पूछ था है या उनके ब्यूरोक्रेट और सलाहकार मूर्खों की जमात के अगुआ है, लगता है LIC की पॉलिसी पर हस्ताक्षर करने जैसे हस्ताक्षर कर दिए बगैर पढ़े अपने एजेंट पर भरोसा करके और यह कमज़ोर अधिनियम लागू कर दिया
और राज्यपालों और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जैसे ने तो चापलूसी की सीमा पार कर दी है - या तो अब इन संवैधानिक पदों को विलोपित किया जाए या अनिवार्यत: कानूनविदों की नियुक्ति हो - दिल्ली, तमिलनाडु, मप्र, उप्र से लेकर महाराष्ट्र तक उजबकों की भर्ती है - जो इस सरकार के कुपढ़ और तानाशाह मंत्रियों की चापलूसी से नियुक्ति पाकर संविधान से मजाक कर रहें है और राष्ट्रपति तो अपनी इज्जत अपने ही हाथ गंवा रहे हैं, शर्मनाक है यह सब - क्या सीखेंगे आज के युवा और बच्चे इनसे
[ यह पोस्ट राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के कानूनी ज्ञान और सुप्रीम कोर्ट के अधिकार वक्फ़ के संदर्भ में है, इसे हिंदू मुस्लिम और सांप्रदायिक बनाने में दिमाग खर्च ना करें, यदि कानून की समझ नहीं तो चुपचाप निकल लें ]
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आईये सीखते हैं भ्रष्टाचार कैसे करें
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ये सारे दैनिक जीवन के अनुभवों पर आधारित असल किस्से है और शत प्रतिशत सही है, इस सीरीज में आपको हम तृतीय श्रेणी या चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के उन कृत्यों की बात कर सीखाएंगे कि तनख्वाह के अतिरिक्त कैसे सत्रह-अठारह हजार हर तरह का बाबू या चपरासी कमा लें, इन अध्यायों का धीरे-धीरे स्तर बढ़ता जायेगा और राज्य स्तर के अधिकारियों या मेजर जनरल स्तर तक जायेगा
1 - यदि आप किसी स्कूल या महाविद्यालय में या किसी दफ्तर में है तो इन दिनों में आप चार से पांच हजार रुपया हर माह खर्च कर सकते हैं और जेब में रख सकते हैं मसलन किसी भी मटके वाले से 400 से 600 रुपए तक प्रति मटका के हिसाब से दस - बीस मटकों के बिल लेने और उसका भुगतान नगद दिखाकर सारा पैसा जेब में रख ले, यदि कभी ऑडिट होता है तो आप कह सकते हैं कि परीक्षाएं चल रही थी और हर कमरे के बाहर दो-दो मटके रखना जरूरी था क्योंकि छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गर्मी बहुत ज्यादा पड़ रही है परीक्षा का समय भी दोपहर 2 से 5 होता है या सुबह 8 से 11:00 बजे तक होता है तो पानी की खपत ज्यादा होती है, बाद में एक दिन छात्रों ने परीक्षा के बाद सारे मटके फोड़ दिए, मटके वाले सीजन के बाद गायब हो जाते है तो कोई काउंटर चेक भी नहीं कर सकता
2 - इसी तरह से गर्मी में पानी के टैंकर आप रोज मंगवा सकते हैं इसका हजार रुपए प्रतिदिन भुगतान करके यानी बिल बनाकर जेब में रख सकते हैं और पानी का सत्यापन नहीं हो सकता बस आपको माह में कम से कम दो बार तो टैंकर मंगवाना पड़ेगा
3 - गर्मी का मौसम वरदान है , आप हफ्ते में दो बार इलेक्ट्रिशियन को बुलाकर पंखे कूलर सुधारने के साथ उसका सामान बदलने के भी बिल इफरात में लगा सकते है, यदि दफ्तर में एसी हो तो भगवान भी आपके साथ है आप मेंटेनेंस के नाम पर हर माह तीस हजार कमाकर रख लें जून समाप्ति पर आपको अपने परिवार के साथ पहाड़ पर जाने में यह रुपया काम आयेगा
4 - जून के अंत में आप पर्यावरण संरक्षण, इको क्लब के नाम पर सौ-दो सौ गमलों के नाम पर काफी रुपया खर्च कर सकते है, पौधे उद्यानिकी विभाग से कम और निजी नर्सरी से ज्यादा खरीदे, वैसे उद्यानिकी विभाग में सहायक संचालक स्तर का अधिकारी परिचित हो तो कम पौधे देकर ज्यादा का बिल आसानी से दे देता है, बस दस-बीस प्रतिशत अपना सर्विस चार्ज लेगा, ट्री गार्ड भी मुनाफे का धंधा है किसी से भी उनके मरे खपे बाप माँ के नाम पर स्पॉन्सर करवाए और स्कूल-कालेज में बिल लगाएं
सावधानी - यह ध्यान रहें कि सितम्बर में आपको ये सब राइट ऑफ कर देना है गमले, मटके आदि
..... जारी
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"जो हुआ सो हुआ, सब कुछ भूलकर नया शुरू करो, तुम अंदर से बहुत ताकतवर हो, जितना सोच भी नहीं सकते, और एक बात बताओ आज के इस समय में इसके अलावा कोई और विकल्प है तुम्हारे पास - यदि है तो बताओ और अमल करो, वरना जो मैं कह रहा हूँ उसे चुपचाप मान लो", - मै समझा रहा था उसे और उसके पास अतीत के पन्ने, अपने सुकृत्यों का लेखा जोखा था, दुख थे, प्रायश्चित, अफसोस और किस्से थे - वर्तमान का भय उसकी काँपती देह से प्रकट हो रहा था और भविष्य की चिंताएं माथे पर गहरी सिलवटों के रूप में उभर रही थी, आंखों में कातरता थी और भय था
मेरे शब्द उसे शायद राहत दे रहे थे, हम अक्सर जब दूसरों को सांत्वना देते है तो कही अपने-आपको भी बहुत भीतर से समझा रहे होते हैं, इसलिए जब कोई समानुभूति से बोलता है तो लगता है कि वह भी अपने - आपको समझाने की कोशिश कर रहा है
यह सब करते रहना चाहिए और बारम्बार करना चाहिए, बल्कि यदि आत्म मुग्धता की हद से बाहर जाकर भी अपना प्रचार-प्रसार करना पड़े - तो कर लो, क्योंकि किसी को समय नहीं है कि आपसे सहानुभूति रखें या आपके लिए एक कतरा आंसू बहा सकें
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"स्पष्ट उत्तर दीजिए क्या है यह, एसी में बैठकर गरीबी पर बातें करना, शाम को शराब पीना और दुनिया को बदलने की बातें करना"
कवि कुछ पल शांत रहा और फिर बोला "प्रोजेक्ट से बहुत उम्मीदें पालेंगे तो बाद में खराब लगेगा, दुनिया तो बदलनी चाहिए और बदलेगी भी, पर प्रोजेक्ट नहीं बदलेंगे, वे इसे बदलने के लिए नहीं बचाने के लिए बनाए गए हैं"
"कवि, प्रेमिका और प्रोजेक्ट" कहानी वनमाली कथा के अप्रैल अंक में छपी है, भाई Kunal Singh के संपादन में यह पत्रिका दिनों दिन कमाल कर रही है उनकी विलक्षण दृष्टि, पैना संपादन और व्यापक समझ हमारे आसपास घटित हो रहे परिवर्तनों को बारीकी से बुनकर हमारे सामने ला रही है
प्रेम, कवि, कविता और एनजीओ के गठजोड़ के बीच बहुत बारीकी से बुनी गई यह कहानी पढ़ना चाहिए , कम से कम एनजीओ और बाकी सामाजिक आर्थिक बदलाव के बारे में फंडे साफ होंगे कि कैसे एक बड़े वंचित समुदाय और समाज को बड़े भ्रम में रखकर कार्यकर्ताओं का शोषण कर एक बड़ा साम्राज्य इन्होंने खड़ा कर लिया और सरकार, मीडिया के साथ मिलकर अपनी दुनिया बसा ली - जहां बदलाव के अलावा वह सब है जो सरकार नामक तंत्र में होता है
इन दिनों एनजीओ की स्थिति और काम के साथ उन्हें मिल रहे इफरात में अनुदान को लेकर काफी बातें हो रही है, ये असरकारी होने के नाम पर बेअसरदार भी साबित हो रहें हैं, साथ ही छवि को लेकर भी एनजीओ चर्चा में है, असल में देशी - विदेशी फंड पाकर कुछ ऐसे लोग एनजीओ के माध्यम से अपने मकसद और कुछ और ना कर पाने के अपराध बोध पूरे कर रहें है, मैने तो यहां तक देखा है कि किसी अखबार का संपादक, शासकीय सेवा के पटवारी या ब्यूरोक्रेट ना बन पाने के अफसोस उन्हें एनजीओ तक ले आए और आज ये लोग ब्यूरोक्रेट्स से ज्यादा घटिया और व्यवहार शून्य है, अपढ़ और कुपढ़ लोग शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य या जलवायु परिवर्तन की बात कर रहे है
"तो बातें क्यों करते हैं" प्रेमिका की जिज्ञासा यथावत थी
"अपने सामने भ्रम पैदा करने के लिए असली लड़ाई से बाहर आने के अपराध बहुत को मिटाने के लिए"
यह कहकर लेखक एनजीओ के पूरे आंदोलन और अभियान को उद्घाटित तो नहीं करता पर अपने अनुभव को व्यक्त कर पीड़ा दर्शाता है, सत्यम सागर इस कहानी में कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के बहाने से बड़े उद्योगों की समाज सेवा की भी पोल खोल करते है और सरकार के साथ मिलीभगत को सामने रखते हैं
असल में यह कहानी ना होकर एक पूरा आख्यान है जो सत्यम एक दृष्टा की तरह से समाजसेवा, न्याय, कानून और समाज के पिछड़े और वंचित लोगों के दुख दर्द को एक भुगतभोगी के रूप में ज्यों-का-त्यों रखने की कोशिश करते है, मै समानुभूति से इसलिए हर अक्षर, शब्द और वाक्य के साथ बीच के छुटे हुए 'स्पेस' को इसलिए पढ़ समझ सकता हूँ कि इस सारी विकास यात्रा का मै गत चालीस वर्षों में साक्षी रहा हूँ, जब हमने काम शुरू किया तो ये आंदोलन "स्वैच्छिक संगठन" हुआ करते थे और आज ये "सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशन" हो गए हैं, यह रोजगार का बड़े वाला "सोशल सेक्टर" हो गया है जहां प्रोफेशनल्स है और मैनेजमेंट के उजबक लोग काम कर रहे हैं, और जब कोई भी क्षेत्र सेक्टर हो जाता है तो उसे कमर्शियल होना ही पड़ता है और आंकड़ेबाजी, ग्राफ, रिपोर्ट, सेमिनार, हवाई यात्राएं, फाइव स्टार होटल, मैनेजमेंट, बड़े स्तर के व्यवसायिक प्रकाशन और तानाशाही के साथ संवादहीनता की कड़ियां आरंभ हो जाती है और दुर्भाग्य से यह सिर्फ त्रासदी ही नहीं - बल्कि हमारे समय की कड़वी हकीकत है, इसलिए यदि एनजीओ वाले भी संपत्ति, भवन, वाहन, अकूत धन, अनुदान, नाम, यश, प्रकाशनों की वृहद श्रृंखलाएं और तानाशाही भरे प्रबंधन में संलग्न है तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए और बल्कि एनजीओ ने नर्मदा आंदोलन, टिहरी, चिपको, रावतभाटा के परमाणु संयंत्रों के विरोध और सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने जैसे बड़े मूवमेंट्स को खत्म कर दिया, असल में इस क्षेत्र में अनुभवहीन लोगों के आने से और अयोग्य लोगों के होने से यह सेवा का क्षेत्र बर्बाद हो गया, इंजीनियर, डाक्टर, व्यवसायियों, मीडिया, से लेकर वो तमाम लोग इसमें आ गए जिन्हें समाज से ना सरोकार था ना समझ थी
बहरहाल, कहानी पठनीय है
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देवास में टेकडी पर इंदौर के विधायक पुत्र और उसके दोस्तों द्वारा जो पुजारी के साथ व्यवहार किया गया और माँ चामुंडा माता के मंदिर पर हुड़दंग किया गया वह अक्षम्य है, इन लोगों ने ब्राह्मण, हिंदू और सनातनियों का नाम मिट्टी में मिला दिया, यह पूरी घटना देश के तमाम बड़े मीडिया में छाई हुई है
देवास जिले के सभी विधायक, सांसद और निगम परिषद के पार्षद और महापौर की चुप्पी भी असहनीय है, कलेक्टर देवास, इस स्थान के देवस्थान प्रबंधन समिति के अध्यक्ष है, और उनका चुप रहना भी शातिरी दर्शाता है, नया पुलिस कप्तान जरूर दम भर रहा है और कल एक पत्रकार वार्ता में उसने आरोपी का नाम लेने का जोखिम उठाया है
उन्नीस सौ सत्तर से मैं इस शहर में रह रहा हूँ पर इस तरह की अभद्रता कभी नहीं देखी और सुनी, पुराने लोग बताते है कि ये टेकडी विश्व स्तर का भव्य और चैतन्य स्थल है और तुलजा भवानी, चामुंडा माता, कालिका माता के तेज से आलोकित है, जिसने भी कभी कोई अनाचार या दुर्व्यवहार यहाँ करने की जुर्रत की है, उसे देवियों के कोप का भाजन बनना पड़ा है, समस्त नगरवासी यह दुआ कर रहे है कि इसके पहले कि माँ चामुंडा का कोप प्रकट हो - शासन और प्रशासन को बगैर किसी राजनैतिक दबाव में आए इंदौर के विधायक पुत्र को उसके अय्याश दोस्तों सहित गिरफ़्तार किया जाए
मान्यता, रीति रिवाज और परंपराएं एक ओर - पर एक धार्मिक शहर में पिछले दो-तीन माह से ड्रग, शराब, गुंडागर्दी का माहौल है और सांसद तो भी सक्रिय है पर विधायकों की चुप्पी, प्रशासन का हाथ पर हाथ धरकर बैठना संदेह पैदा करता है
मीडिया के साथी इस समय तटस्थ होकर काम कर रहे है - जो तारीफ़ करने योग्य है, समय आ गया है कि जनता अब 45 वर्षों की गुलामी और सामंतवाद को उखाड़कर फेंके और लोकतंत्र में नए नायक चुने, वरना माँ तुलजा भवानी और माँ चामुंडा का कोप कहर बनकर टूटेगा , वैसे ही पानी की एक एक बूंद को लोग तरस रहे है , एक ही सामंत परिवार ने इस शहर का सर्वनाश कर दिया है, भाजपा और संघ की बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई है जिन्हें कोई और योग्य उम्मीदवार नजर नहीं आता
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मन जब बहुत व्यथित हो तो दुख मना लेना चाहिए, इतने व्यथित हो जाओ कि कुछ सूझ ना पड़े, मन को एक तरफ पटक दो
मन में दुख, सुख, हर्ष, और उल्लास के भाव आते - जाते रहते हैं - लिहाज़ा इन सब भावों को भरपूर जियो - इनमें आनंद, अतिरेक, अवसाद एवं तनाव महसूस करो - वरना बहुत कुछ खो दोगे, मन का क्या है, एक ओर पटक दो
मन बहुधा उम्मीद, आशा, उत्साह से भविष्य की ओर देखता है, अपने पीछे के अतीत को छोड़कर, कालिमा और कलुषित पलों को धकेलकर बहुत - बहुत आगे बढ़ना चाहता है, बस तो फिर क्या, बढ़ों ना आगे
- यह तरक्की, खुशियों के हसीन पल हमारे जीवन के धक्कों में, समय के थपेड़ों में तो हकीकत नहीं हो सकते, तुम आगे बढ़ना - क्योंकि आगे-पीछे पहरे है, गला काट दौड़ है, तो छोड़ो ना अतीत, और क्षणांश के लिए ही सही - आगे बढ़कर देखो, शायद सूरज की किरणें पहुंच रही हो वहाँ, मन को छोड़ो - उसे रोने दो कमबख्त अतीत के साए में दामन पकड़कर जूझते हुए एक दिन सब समझ लेगा, वैसे भी मन अमूर्त है
अक्सर अंधेरों में ही जागृति के एहसास पुख्ता होते हैं, अपने जीवन के उन अंधेरे कोनों में घुसने से डरो मत, यकीन मानो - जब अंधेरे से प्यार होगा - तभी ना सब एक समान दिखाई देगा, हाथ को हाथ नहीं सूझेगा, टकराएंगे बाहर भी और भीतर भी, जब सब कुछ विलोपित हो जायेगा तो ही मन उजालों में हर ओर देखता है, चकाचौंध में डूब जाता है, तुलना करता है और कुंठा के साथ अपराध बोध का एहसास कराता है, घुप्प अंधेरे में बैठ जाओ - किसी जंगल या नदी या ऊंचे पहाड़ पर या गहरे कुंए की मेढ़ पर या खेत के कोने में बनी किसी टापरी में और अंधेरे से यूँ एकाकार हो जाओ कि जुगनू भी तुम्हें आलोकित ना कर सकें और मन को इसी अंधेरे में डूबो दो
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अपने समय का इंतजार करो, हम सबका समय होता है, जीवन में अच्छे-बुरे लोग, संगी-साथी, और मार्गदर्शक आते-जाते रहते हैं, बहुत से - बल्कि अधिकांश हमें सबक सीखाकर जाते है और बहुत कम सबक सीखकर जाते है, जीवन यद्यपि मात्र साठ - सत्तर बरस की यात्रा है, अर्थात सभ्यता के इतिहास और समय के कालचक्र के हिसाब से क्षणांश भी नहीं है हमारी झोली में, पर हम सब इसे भुगतते है, रोते है - कलपते है और दुआ और बददुआ के बीच दूसरों के बरक्स जीने की, दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करते हैं, यह भूल जाते है कि हम किसी की भी अपेक्षा को पूरा करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं, एक ही जीवन है - पढ़ाई, नौकरी, परिवार और यहां - वहां समय के थपेड़े खाते हुए जब तक यह एहसास होता है कि हम क्या है, क्यों है, मकसद क्या है और अब तक क्या किया, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है - हम लगभग चूक चुके होते हैं और हथेलियों को रगड़ते हुए अपने गंतव्य की ओर मुखातिब होना शुरू करते हैं
अपनी समझ से मै कहता हूं यदि आपका समय अभी बुरा है, आपकी मुट्ठी में नहीं है, तो यकीन मानिए तो यह भी गुजर जायेगा और ये आप एक क्षण भी ध्यानस्थ होकर ठीक - ठीक फोकस करके सिर्फ अपने भीतर झांक लें, तो सब कुछ साध लिया जा सकता है, और इसके लिए किसी ईश्वर, किसी गुरू, मेंटर, आश्रम, स्थान, नदी, पहाड़, जंगल, समुद्री किनारा या एकांत की ज़रूरत नहीं, जहां है - जैसे है - वहीं से शुरू कर सकते है
बस आपको सिर्फ मोह, माया, लोभ का संवरण करना होगा, बाकी सब मुमकिन है
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सत्ता, साहित्य, सत्यवान और सावित्री
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सत्ता, साहित्य, सत्यवान और सावित्रियों से इस समय हिंदी, हिंदवी और हिंदुस्तान का साहित्य भरा पड़ा है जब लोग छोटे-छोटे शब्दों को बारीकी से बुनते हुए, मीनमेख निकालते हुए आरोप-प्रत्यारोप करके महान बनने की कलाओं में पूरी तरह से पारंगत होते दिख रहे है, वहीं कुछ सूतिए चम्पादक अधपके गन्नों को बगैर छिले ठेले पर खड़े होकर धूप में दो चक्र के बीच अदरक फंसाकर निचोड़ रहे हैं और ऊपर से घी के बदले नींबू छिड़ककर मजे ले रहे है
कुछ निष्णात और कुख्यात कवि, कहानीकार, आलोचक इस अफीम को चाटकर स्वर्गिक सुख ले रहे है, वहीं विष-विद्यालयों के हिंदी के माड़साब लोग्स, जिनकी पत्नियां होम साइंस, बायोलॉजी या भूगोल टाइप विषय पढ़ाती है - वो सर्वथा अंजान है, पर खुश है कि उनके पति की पोस्ट्स पर लाइक और कमेंट्स की वर्षा हो रही है और सोशल मीडिया में उनके परमेश्वर लोकप्रिय होते जा रहे है
कुछ माड़साब लोग्स इस बहस में पीएचडी करने वाले युवा भक्तों की बलि चढ़ाने की सोच रहे है कि "शिल्प - कथ्य के बहाने प्रकाशन ग्रहों (गृहों नहीं ) की बिक्री का अर्थ शास्त्र और हिंदी पर प्रभाव", "शिल्प और कथ्य के पाथेय और इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की कहानी या कविता या उपन्यास" जैसे विषय बाज़ार में चलेंगे या नहीं और इन विषयों पर चार-पॉच सौ पन्ने बर्बाद हो सकते है कि नहीं, युवा छात्र धड़ल्ले से स्क्रीन शॉट लेकर रख रहे है कि कल माल मिलेगा या नहीं
पत्नियां जाहिर है विदुषी तो होती ही है, तभी तो घर, परिवार, नौकरी और साहित्य के संग-साथ साहित्यकार पति को साधते और गांठते हुए चलती है, पर ये सावित्रियां अपनी अस्मिता और गरिमा के लिए बेहद चिंतित रहती है, पर इस समय वे पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा भाव से यमराज या सत्यवान पर सवाल उठाने के बजाय पति परमेश्वर के साथ समिधा बनकर यज्ञ में साथ है, और यह भारतीय नारी का परम कर्तव्य भी है और होना भी चाहिए , किस ससुर ने लिखा है "तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन..." शादी से पहले की तमाम क्रांतियां और ऊंचाई के मंसूबे सिंदूर के आलोक में लपलपाते हुए खत्म हो जाते हैं
बहरहाल, चम्पादक खुश है कि उसकी साइट पर लोग झटके दे रहे है दिन भर - बोले तो साईट पर अवांगार्द लोगों की भीड़ बढ़ी है इधर, टीकाकार गुत्थम-गुत्था है और हिंदी के साथ अंग्रेजी, मराठी और लोकभाषाओं का दैदीप्यमान जगत इस सत्ता, साहित्य, सत्यवान और सावित्री की बहस को दिल थामे देख - सुन और समझ रहा है, समझदार चुप है और माता - बहनों को , जो आजकल पतियों की किताबें बिकवाने की सुपारी ले बैठी है, के भी रूख और ट्रैक देखकर हैरत में है
बोलो सियावर रामचंद्र की जय
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बहुत सोच विचार कर, अपने कौशल और दक्षताएं साथ ही तमाम तरह की बातें, मित्रों और तथाकथित प्रोफेशनल्स के उलाहनें सुनकर यह लगा कि सभी सही है और स्व-संस्तुति से यह निष्कर्ष निकला कि -
"हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हमको
यही हुनर है कि कोई हुनर नहीं आता"
•√ मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
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The day forgives
Everything I did
The day makes coffee
Sends me flowers and says my name
The day don't mind
What I did now
There is a friend
To pick me up in the pouring rain
When the sun comes up
And I'm ruined with regret
The day forgives...
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