सत्य की खोज अकेले की खोज होती है..भीड़ की नहीं ,लेखक की खोज सत्य की खोज होती है..अपनी आत्मा को व्यक्त करने की यात्रा अकेले की यात्रा है....इस अकेलेपन और आम आदमी के अकेलेपन में वैसा ही अन्तर है---- जैसा...बुध्द और महाविर के भीखमंगेपन और सड़क पर खड़े भीखारी के भीखमंगेपन में...है।
क्या हम अपने में हमेशा होते है या होने भर का नाटक करते रहते है , ये सवाल इसलिए भी अपने आप से पूछता हूँ कि में बहुत भटकता हूँ और ये भटकाव ही मुझे जोडता है और अंदर से बारम्बार तोडता भी है. पता नहीं वो क्या है जो पाना है और क्या है जो छूट जाएगा तो मन मसोजकर रह जायेंगे हम सब और एक आवाज़ भी नहीं आयेगी कही से कि कुछ चटक गया है दरक गया है और बस हम भी टूट ही जायेंगे लगभग........
"शब्दों के शुरू होते ही हम एक दूसरे को खोने लगते है .............."
सर्वेश्वर की ये पंक्तिया मुझे याद दिलाती है की अब प्यार का इज़हार करना भी मुश्किल हो जाएगा इस रूखे और बेहद कठिन समय में तो इस प्यार के इज़हार वाले दिन कैसे कोइ भला अपने दिल की बात कहेगा..............?????
सर्वेश्वर की ये पंक्तिया मुझे याद दिलाती है की अब प्यार का इज़हार करना भी मुश्किल हो जाएगा इस रूखे और बेहद कठिन समय में तो इस प्यार के इज़हार वाले दिन कैसे कोइ भला अपने दिल की बात कहेगा..............?????
एक एक दिन बीतते जाते है और हम ज़िंदगी के बहुत कर्रेब भी आते है बहुत बहुत दूर भी चले जाते है, क्या ज़िंदगी ऐसे ही बीत जाती है या हम सिर्फ इसके बीत जाने का इंतज़ार करते है.... अक्सर खामोश रहते है, कितना रीत जाता है, कितना भीग जाता है..... और बाकी सब तो रह ही जाता है खाली और खत्म सा ...... क्यों, किसके लिए और कब तक. पता नहीं? पर प्रश्न तो फिर भी रह जाते है और उत्तर कभी खतम नहीं होते...
वीरानी देखनी हो तो सूखे पहाडो पर आकर देखो जहा सिर्फ एक नीम का पेड़ छाया होने का आभास देता है और चारो और बिखरे पत्थर अपनी पुरजोर उपस्थिति लगातार दर्ज कराते रहते है, पानी की एक भी बूँद नहीं और मृगतृष्णा भी नहीं कि जीवन का कोई निशाँ नजर आये. ये सब भी तो अक्सर अपने जैसा ही है ना? हम सब ऐसे ही पहाडो पर रहने को अभिशिप्त है और इस यायावरी में एक एक बूँद को तरस रहे है .............
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