Skip to main content

नये साल के संकल्प - Posts of Dec 2023

सबसे आसान शब्द और व्यवहार है "प्रेम" - जन्म के पहले से हम जिस जज़्बे और सम्बन्ध में पले - बढ़े और रचे - बसे, वही ज़िंदगी का सबसे मुश्किल सफ़र रहा, जिसे वो ढाई आखर कहते है, जिसे दुनिया जादू का खिलौना कहती है, जिसे पाने और खोने के लिये सात जन्मों का मिथ स्थापित किया गया, जिसे संसार का सबसे बड़ा युद्ध कहा गया और जिसके होने से सारी खुशियाँ और उपलब्धियों पर विजय पाई जा सकती है - वह प्रेम निज जीवन का सबसे बड़ा संताप और अवसाद साबित हुआ और यही से त्रासदी की शुरूवात हुई
कहते है हर जीवन की अपनी सीमाएँ, कहानियाँ और यात्राएँ होती है और यह सब समझना इतना मुश्किल है कि बहुधा हम किसी और को तो दूर अपने आप को ही नही समझ पाते, हम सब कुछ करते है पर अपने आप से भागते है, दो पल का एकांत हमें डसता है और जब इसका मूल कारण खोजते है तो पाते है कि हममें जो रिक्त रह गया, जो अकिंचन था, जो असिंचित रह गया, जो अधूरा था, जो अलौकिक था - वो प्रेम था जिसका पौधा तमाम खाद - पानी, धूप - मिट्टी और सुंदर परिवेश के बाद भी चेत नही पाया
भाग्यशाली है वो जिन्होंने सत्तर - अस्सी बरस की छोटी सी विकास यात्रा में प्रेम के सम्पूर्ण स्वरूप को पा ही नही लिया, बल्कि प्रेम के हर स्वरूप को देखभाल कर अपने निज जीवन में प्रेम का साम्राज्य स्थापित कर लिया और जीवन नैया खोते हुए वैतरणी को पार करने की जुगत कर ली और खुशी - खुशी सबमें समाहित होकर सबमें लिप्त हो गए और भूल गए कि यह सब जो बना रहे है वह नश्वर है और जल्दी ही सब छोड़कर कही तिरोहित हो जाना है, भावनाओं के उद्दाम वेग पर जब रोक लगती है किसी काल की तो प्रेम की बगिया यूँ उजड़ती है जैसे कोई नदी रीत गई हो देखते ही देखते
पर वो है ना - कही किसी को मुक़म्मल जहाँ नही मिलता, एक ही छोटा सा जीवन था, चंद अवसाद और बहुत कम हिस्से आई खुशियों से भरा, इसमें ढूँढने की पुरजोर कोशिश की कि कही से प्रेम का एक कतरा उड़ते हुए बवंडर सा आये और सब कुछ ठीक कर दें, पर मिलता कहाँ है कुछ सोचा हुआ - सब नष्ट होता गया पहले आकांक्षाएं, फिर स्वप्न, फिर आशाएँ, फिर भरोसे और अंत में प्रेम, सब रीत गया रेत में और दूर से गर्जनाओं में अपने हिस्से की आवाज़ें और शांति भी किसी कोलाहल में खत्म हो गई - बावजूद इस सबके प्रेम की खोज जारी रखी थी पर अब, अब नही - कोई अर्थ नही है - जीवन झूठी उम्मीदों का एक पुलिंदा है जिसके भीतर सब कुछ शुष्क है और प्रेम इसी सबका कुल जमा ख़ारिज एहसास
प्रेम को हर बार खोजने में कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से सातवाँ शब्द "प्रेम'' है
***
मैं जन्मा अकेला, मैंने मेहनत की, मैंने ही अपना जीवन सुधारा, जिया, कबाड़ा किया और जो कुछ भी आज हूँ इसके लिये मैं ही ज़िम्मेदार हूँ पर एक बात हमेंशा बल्कि अभी भी करता आया हूँ कि अपनी तुलना अपने बीते हुए कल से ना करके दूसरों से करता रहा
और तुलना करके करके ना मात्र मैंने जीवन को एक अजीब पशोपेश में डाला, बल्कि अपने लिये अवसादों और सन्तापो का एक अभेद्य किला खड़ा कर लिया - जबकि मेरी परवरिश, मेरा परिवेश, मेरा जीवन, मेरी क्षमताएँ, दक्षताएँ, शिक्षा, रंग - रूप, भाषा, संस्कार, परम्पराएं, संस्कृति, वर्ग, वर्ण, जाति, समुदाय, और कौशल औरों से सर्वथा भिन्न थे और अब जब यह समझ पुख्ता बनी है कि तुलना का कोई अर्थ नही तो जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा गुज़र गया है और बस अब बाज़ी में चंद खाने ही बचें है, जैसा कि राही मासूम रज़ा कहते है -
"जहाँ से उठ गए ख्वाबों के मोहरे,
मेरी बाज़ी में वो खाने बचें हैं"
आज जैसा भी हूँ, मैं हूँ - अपनी योग्यता और अपने दम पर किसी से ना तुलना है और ना किसी से दौड़ में जीतना है अब - वैसे भी तटस्थ हो गया हूँ और सारी सांसारिक दौड़ से बाहर, ना किसी जैसा बनना है, ना किसी की बराबरी करना है और ना कुछ पाने की अदम्य इच्छाएँ बाकी है
सबसे तुलना कर अपने को व्यर्थ के संवारने में ही सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से छठा शब्द "तुलना" है
***
कहते है ईश्वर की बगिया से जब आदम और हव्वा ने सेवफ़ल खाया तो सबसे पहले उन्हें अपने होने का एहसास हुआ और ज्ञान आया साथ ही बहुत कुछ अनुभूतियां हुई - ज्ञान तो ठीक था पर ज्ञान से जो आत्म मुग्धता आई उससे जो नुकसान हुआ - वह आज भी करोड़ों वर्षों के बाद भी खत्म नही हो पाया है, हम लगातार इसमें ज़्यादा उलझते जा रहें है
देवता, असुर तो ठीक प्रकृति भी इससे बच नही पाई है , काल के प्रवाह में अरबों लोग आये और काल के विशाल गाल में समा गए, सबको यह गुमान था कि वे श्रेष्ठ है और इस श्रेष्ठता के दम्भ ने उन्हें अपराजित होने का बोध नही होने दिया पर वे यह भूल गये कि सब नश्वर है और इस सबके पीछे थी गहरी आत्म मुग्धता
सोशल मीडिया की शुरुवात से जो सामाजीकरण के संजाल बनें और विकसित हुए उसमें बड़ी भूमिका आत्म मुग्धता की थी और यह इतनी ज़्यादा बढ़ी कि युवा लेखकों, कवियों ने अपने खुद के नंग धड़ंग फोटो डालकर लुभाना शुरू किया, बूढ़े भी आज इससे पीड़ित है और रोज़ एक नए संताप से खुद को जोड़ लेते है, यानी लेखन जो सुख, कौशल और दक्षताओं को विकसित करने के लिये था, बेहतर समाज बनाने के लिये था - उसे भी साख और आत्म मुग्धता का पैमाना बना लिया, हम सब ग्रसित है और कोई इससे बचा नही है, मैं भी ग्रसित हूँ और यदाकदा इसे प्रकट कर देता हूँ
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से पाँचवा शब्द "आत्म मुग्धता" है
***
सबको अपना स्थाई मान लेना और यहाँ तक कि किसी बंदरिया सा मरे हुए बच्चे को भी छाती से लिपटाकर रखना और जीते चले जाना हम इंसानों से बेहतर या बदतर कौन होगा
सारा जीवन सँग्रह, कल के लिये बचाकर रखना, आड़े वक्त के लिये बचत, मुश्किल समय के लिये सम्हाल कर रखना आदि - आदि चीज़े है जिसका नित नया संधान हम करते रहते है और इस सबमें आज और अभी की खुशियाँ भविष्य के गर्भ में गिरवी रख देते है, हम कुल मिलाकर स्थायित्व चाहते है हर प्रकार से
मकान, दुकान, ज़र, ज़मीन बल्कि यह जानते हुए भी कि यह काया नश्वर है - को स्थाई मानकर एक अजीब सी दुनिया अपने चारों ओर बना लेते है पर जब हवा निकलती है तो यह संसार सर्कस का एक तंबू साबित होता है जिसके अंदर ही करामातें और कलाबाजियां सम्भव है, शो खत्म होने के बाद बाहर सबके लिए एक ही दुनिया है फिर वो राजा, रंक, फ़क़ीर , अधिकारी हो या कोई माल गुजार
जितनी जल्दी हो सके समझ लें कि सब कुछ नष्ट हो रहा है, स्थाई कुछ नही है और हम सब कब , कहाँ, कैसे एक क्षण में अस्थाई होकर नष्ट हो जायेंगे - मालूम नही पड़ेगा
पर हाँ, यह दुष्चक्र ऐसा है कि इसी सब को सहते और समझते हुए जीवन का सत्व नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से चौथा शब्द "स्थाई" है


***
जन्म के साथ ही जीवन का दूसरा नाम उम्मीद हो जाता है, और इसी के सहारे हम लटकते - लटकते जीवन नैया पार करने लगते है, हर बार गहन निराशाओं के बीच, संसार की सबसे उदास सुबह को, जीवन की सबसे काली सांझ में और निस्तब्ध रात में जो एक चीज नजर आती है वह है - उम्मीद , पर दिल पर हाथ रखकर अपने आप से पूछता हूँ तो लगता है कि उम्मीद के लिए भी उम्मीद नहीं मिली कभी, बल्कि उम्मीद के बरक्स हमेशा मुझे उद्दंड निराशाएं मिली, जिन्होंने मेरा मार्ग प्रशस्त किया और रास्ता दिखाया, मेरे सबसे कठिन दिनों में मुझे एक सूखी नदी के पास ले गई और डुबो दिया जिससे मै लगातार मजबूत होता रहा, ऊँचे पहाड़ पर एक सूखे पेड़ ने मुझे हौंसला दिया और पगडंडियों ने सीखाया कि जीवन चौड़ी सडकों पर नहीं अंधेरों और संकरी तलहटी में ही सम्पूर्ण होता है
अब लगता है कि उम्मीद के भरोसे जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा व्यर्थ चला गया और अंत में जब कुछ हासिल नहीं तो शायद हम सब व्यर्थ ही जीने का स्वांग किये रहते है और लगे रहते है कि वो सुबह कभी तो आयेगी, पर जीवन की अपनी चाल है, अपना एक ढर्रा है - जिस पर घिसते हुए हम देह धरे के दण्ड के पाप को हम भुगतते रहते है और हर पल व्योम में तकते है कि अगला पल, अगला दिन, अगली शाम या अगली रात सुहानी होगी, चाँदनी से भरा आँगन होगा और हम झूम के नाचेंगे, पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है
शब्दों के किसी बाजीगर ने ऐसा मायाजाल बुना है कि हम शब्दों के भंवर जाल फंसते चले गए और अंत में अपने ही बनायें जाल में उलझ कर रह गए है, इस ढलती सांझ पर शब्दों के खोखले अर्थ प्रकट हो रहें है और मै रेशा - रेशा इनमे उलझकर भीतर पड़ी गांठों को सुलझा रहा हूँ तो मायने समझ आ रहें है
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से तीसरा शब्द "उम्मीद" है
***
जन्म के पहले से शुरू होती है और मरने के बाद भी सदियों तक बनी रहती है, हर कोई इसी में जीता जाता है और सिर्फ अपने लिये नही पर जन्म के समय माँ के साथ जुड़े गर्भ नाल के अलग होने के बाद पिता, बन्धु - बांधव, सहोदर और परिवार, कुनबा, अड़ोस - पड़ोस और फिर मृत्यु तक आते - आते एक वृहद समाज से हम सब जुड़ ही जाते है
इस सबमें सबसे ज़्यादा समय हम जिसे देते है वह सिर्फ अपने लिये नहीं, बल्कि दूसरों के लिए होती है, हम हमेशा सोचते हैं कि इसका, उसका, सबका क्या होगा ; इसके पहले क्या होगा, इसके बाद क्या होगा, यदि यह हुआ तो क्या होगा और यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा और यह सब करते-करते हम इतने मशगुल हो जाते हैं कि हमें समझ नहीं आता कि जीवन कब इस शब्द का पर्याय बन गया - हालांकि हमने इसे मिटाने के कई तरीके खोजे - दवाईयां, शराब, मनोरंजन, शिकार, खेल, शौक से लेकर और भी बहुत कुछ, पर यह जो जीवन का स्थाई भाव बन गया था वह मिटा नही, पेट की तरह जुड़ा आदिम निशान हममें बना हुआ है और बना रहेगा
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा - उनमें से दूसरा शब्द "फ़िक्र" है
***
सच - झूठ, सही - गलत, उम्मीद - नाउम्मीद, पाप - पुण्य, गुनाहों और गुनगुने पछतावों के बीच सारी ज़िंदगी हर शाम अपने आपसे और सबसे मुआफ़ी मांगते हुए गुजार दी, हर उस शख्स को माफ़ भी कर दिया जो निजी जीवन में किसी तीर की भाँति घुस आया और भावनाओं को बेधकर चला गया पर इस सबके बाद भी हाथ नही आया कुछ
जीवन में लड़ झगड़कर, झिकते हुए मुश्किल से जो भी जीने लायक और भोगने लायक मिला - उसे प्रार्थना के बुदबुदाते पलों में आँखें मिंच कर बीता दिया और जब सब कुछ सामने था भोगने को तो अनचाही जवाबदेहियों का वज़न काँधों पर आ पड़ा
इसी सबमें सब कुछ नष्ट हो गया पर अब खुलकर जीना है और नई सुबह की बेला में नए संकल्प नही, नये क्षितिज छूना है फिर वो किसी भी व्योम में हो
कहते है सुख से जीना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जो बहुत प्यारा है उसे विलोपित करना पड़ता है, अब तक की जीवन यात्रा में जिन शब्दों को तिरोहित कर रहा उनमें से पहला शब्द "माफ़ी' है
***

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही