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दावतें इश्क का दस्तावेज़ - सतरंगी दस्तरख़्वान - Post of 1 Dec 2-23

 


|| दावतें इश्क का दस्तावेज़ - सतरंगी दस्तरख़्वान ||

कोविड के दौरान खाना बनाना जहां महिलाओं के लिए एक पीड़ा का काम था वही खाना बनाना कैसे आकर्षक और रोचक बनाएं उसको लेकर यूट्यूब पर बहुत प्रचार - प्रसार देखने को मिला, लोगों ने अपने चैनल खोलें, पोषण से कुपोषण को लेकर विभिन्न प्रकार के चटखारेदार व्यंजनों की एक लंबी श्रृंखला ना मात्र लोकप्रिय हुई बल्कि कई सारे लोगों ने अपने न्यूज़ चैनल, यूट्यूब चैनल और ब्लॉग पर भोजन को लेकर कई प्रकार के मजेदार इतिहास, व्युत्पत्ति और भोजन बनाने के तरीकों पर लोगों को सिखाया, ये श्रृंखलाएं इतनी लोकप्रिय हुई कि आज कई लोग अपने नौकरी - धंधा छोड़कर पूर्ण कालिक रूप से यही काम कर रहे हैं
बहुत पहले हमें संजीव कपूर ही एक शेफ के रूप में दिखाई देते थे परंतु आज इंस्टाग्राम से लेकर हर सोशल मीडिया पर खाना बनाने वालों और परोसने वालों की भीड़ है और यह लोग सच में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, अच्छी बात यह है कि अधिकांश इनमें से पुरुष और युवा लड़के है, होटल मैनेजमेंट में लड़कों की रूचि बढ़ी है और इसमें भविष्य भी नज़र आ रहा है सबको
आदिम इच्छाओं में भूख शामिल होती है , मानव शरीर की गहन जरूरत की तरह "सतरंगी दस्तरख़्वान" नामक किताब उस इच्छा को सम्मानित करती हुई इस बात की भी खोज करती है कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ खाने की संस्कृति का भी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विकास कैसे और क्यों कर हुआ आज वैज्ञानिक, इतिहासकार और पाककला विशेषज्ञ खाने के जरिए सभ्यताओं संस्कृतियों की कहानी भी रोशनी में लाने लगे हैं, इस जरूरी दस्तावेजीकरण से खाने के इतने डायनामिक अनावृक्त हो गए हैं कि अचंभा होता है और इसी अचंभे की बानगी है यह "सतरंगी दस्तरख़्वान"
भारत के सुदूर कोनों के इतिहास, विरासत, क्षेत्रीय प्रभाव और मिली - जुली संस्कृतियों से उपजी यादों से बनी यह किताब जहां एक और गोवा में प्रचलित पाव रोटी की कहानी कहती है तो दूसरी ओर कोलकाता के निकले निराले रसोइया की कहानी भी - यहां संदेश जैसी बंगाली मिठाई की कहानी एक परिवार के इतिहास से निकलकर समय की सामाजिक कहानी हो जाती है , अमृतसर से इंग्लैंड और असम से चेन्नई तक अपने कलाकारों, लेखकों को कैसे अपने खाने से सीखते सजाते हैं यह भी यहां दर्ज है, फिर लंगर जब 21वीं सदी में प्रतिरोध का स्वर बन जाए और साधारण दाल - भात अपने समय पर टिप्पणी करने लगे तो खाने के इस आर्काइव महत्व को बखूबी जाना और समझा जा सकता है
बहुआयामी आस्वादो से भरी इस किताब में खाने की बायोग्राफी के बहाने कलाकारों, लेखकों, एक्टिविस्ट के धड़कते दिलों की कहानी भी है जिनके संग चलते-चलते हम चमत्कृत यात्री अपना देश घूम लेते हैं यह असाधारण रूप से लिखी गई बेहद महत्वपूर्ण एवं बढ़िया किताब है इस किताब का प्रकाशन तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी ने किया है और इसका संपादन सुमना राय और कुणाल रे ने किया है, किताब का अनुवाद वंदना राग और गीत चतुर्वेदी ने किया है, 214 पृष्ठों में फैली यह किताब मनोरंजन ब्यापारी, लीला सैमसंग, आशुतोष भारद्वाज , दामोदर मावजो, कलापनी कोमकली, जया जेटली, अमनदीप संधू , कल्याणी दत्ता, नीलम मानसिंह चौधरी, वंदना राग जैसे ख्यात लेखको की रसोई से जुड़े व्यंजन और उनकी कहानियों पर आधारित है
तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी के संजीव सिंह कहते हैं कि जब यह किताब का आईडिया उनके दिमाग में आया तो उन्होंने भारत के अलग-अलग हिस्सों के व्यंजन और उनसे जुड़ी कहानियों को संपादित कर छापने का सोचा, यह एक तरह का दस्तावेजीकरण का कार्य था जो उन्हें लगा कि बहुत महत्वपूर्ण है और इसे छपना चाहिए , अस्तु उन्होंने यह कार्य हाथ में लिया और बहुत श्रम साध्य प्रक्रिया से इसे पूरा किया ; इस पुस्तक में कलापनी कोमकली जैसे लोगों ने अपने माता-पिता स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व, भानुमति ताई और वसुंधरा ताई के रसोई प्रेम, व्यंजन, खाने के प्रकार और रसोई का बारीकी से वर्णन किया है जिससे यह समझ में आता है कि कैसे भोजन मनुष्य के जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, वंदना राग जहां दाल भात भुजिया की बात करती है, वही नीलम मानसिंह अमृतसर के भोजन की खूबियां बताती हैं, अमनदीप संधू कहते हैं कि किसान नहीं तो खाना नहीं और जया जेटली रचने वालों के साथ खाने की कहानी बताती हैं, वही आशुतोष भारद्वाज छत्तीसगढ़ के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि पांडुलिपि और बंदूक के दम पर रोहू मछली और जलेबी कैसे पकाई गई - इसका वर्णन करने के साथ-साथ वे राजनीति और सामाजिक, आर्थिक पक्ष पर बात करते हैं , वही मनोरंजन ब्यापारी श्री भजहरि राधुनि की कथाएं कहते हैं, लीला सैमसंग कहती है कि मुझे खाने के किस्से याद हैं खाना बनाने की विधियां नहीं और दामोदर मावजो जो पावरोटी की यात्रा का जायका कर लेते हैं

यह किताब हिंदी साहित्य में एक नए प्रकार का काम है जो ब्लॉगर्स और सोशल मीडिया पर लिखने वालों के लिए एक तरह का स्वप्न है और आज जरूरत है कि संजीव कपूर और तरला दलाल से आगे बढ़कर भारतीय पौष्टिक व्यंजनों को संजोया जाए, संवरा जाए, संरक्षित किया जाए और पुस्तक के रूप में लाया जाए ताकि हमारे पास एक समृद्ध संस्कृति का दस्तावेज हो - यह पुस्तक सभी को ना मात्र पढ़नी चाहिए, बल्कि हर घर में होनी चाहिए ताकि हमारे घर में खाना बनाने वाले पुरुष हो या महिला - वह अपने काम को इस पुस्तक के बरक्स देख सकें और समझे कि हम जो काम कर रहे हैं वह कितना महत्वपूर्ण है और कैसे अपने कामों को हम व्यवस्थित रूप से लिखकर दूसरों के लिए उपयोगी बना सकते हैं राजकमल प्रकाशन ने इसे ₹ 399 में अमेजॉन पर उपलब्ध करवाया है

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