निर्मोही बने बिना चैन नही पड़ेगा, विरक्ति और त्याग ही तटस्थता लायेगा जीवन में और इसके लिये ज़रूरी है चिंताओं को छोड़ जीना शुरू करना, कल के अनिष्ट की चिंता , या आने वाले पलों की उद्दंडता भरी आशा ही असल में दुख का कारण है - अरे जो सबका होगा वो अपना भी होगा, कौन मनुष्यता और सभ्यता के विकास क्रम में हम पहले इंसान है
बस एक ही जीवन है, इसे जी लो जी भर कर सारी वर्जनाएँ और प्रतिबद्धताएँ छोड़कर
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जॉर्ज बर्नाड शॉ का नाटक "केन्डीडा" याद आता है - जब उस युवा कवि यूजी मार्कबेंच और उसके पति रेवरेंड जेम्स मेवर मौरेल के बीच केन्डीडा को लेकर अगली सुबह ऑक्शन यानी नीलामी होने वाली है, जो इस जंग में जीतेगा - केन्डीडा उसके संग ताउम्र रहेगी, केन्डीडा उस युवा कवि यूजी को एक सुबह बगीचे से घर ले आई थी
पर सुबह होने पर केन्डीडा को पता चलता है कि युवा कवि यूजी घर छोड़कर भोर में ही चला गया, वह जानता था कि वह जीत जायेगा और केन्डीडा का पति जेम्स इस कमज़ोर लड़ाई में हार जायेगा - लिहाज़ा युवा कवि यूजी, जो केन्डीडा को बेतहाशा प्यार करने लगा था, घर छोड़ने का फ़ैसला लेता है, यह अलग बात है कि सही क्या था और गलत क्या - पर नाटक यही कहता है
हमारे जीवन में भी हम अक्सर सही चुनते है, जो फायदा देता है आर्थिक और भौतिक रूप से सराहकर चुन लेते है - ढेर विकल्प हो या मात्र एक विकल्प या कई बार कुछ ना होने पर हम कुछ चुनने के बजाय तटस्थ रह जाते है - एकदम निपट अकेले, सैंकड़ों बार हम कुछ हाथ में लिए बग़ैर ही लौट जाते है, बल्कि मैंने हमेंशा बेहतर के बजाय खराब चुना, इसलिये नही कि मुझमें समझ नही थी अच्छे - बुरे की - बल्कि इसलिये कि मैं हारे हुए कमज़ोर और उपेक्षित का साथ देना चाहता था, मैं ख़ारिज कर दिए गए सपनों का सौदागर बनना चाहता था - ताकि उन्हें फिर से बुना जा सकें और एक रँगीन दिलकश दुनिया बसाई जा सकें , एक अँधेरी सुरँग में रोशनी की हल्की सी किरण के सहारे किसी उजास भरी राह पर चला जा सकें
जीवन में सबसे खराब पसन्द रही - कपड़े, जूते, इत्र, पढ़ाई, व्यवसाय या गाड़ी की, नौकरियों के पैकेज के बजाय संतुष्टि, पसन्द, मनभावन काम, रचनात्मकता देखी ; तनख्वाहों के बजाय मानवीय रिश्ते, मूल्य, स्पेस, नेटवर्क, सम्बन्धों को महत्ता दी और याद पड़ता है कि नौकरियों में हमेंशा कमजोरों, उपेक्षितों, वंचित और डरपोक लोगों का साथ दिया - जब तक किसी पद पर रहा नौकरी में, हारे और उपेक्षित लोगों और समुदायों को अपनी लड़ाई में शामिल करके जीवन जीतने के ख़्वाब सँजोता रहा - निश्चित ही इसके लिये लम्बी लड़ाई, बदतमीजी, गालियाँ, आर्थिक नुकसान और प्रतिष्ठा पर सवाल भी झेलने पड़े - पर मैं अब जब पलटकर देखता हूँ तो बस यही लगता है कि तमाम तरह के जहर बाहर - भीतर होने के बाद एक औसत आदमियत के साथ अपना काम किया, तमाम तरह की मनुष्यगत कमजोरियां मेरे में थी और अभी भी है, पर मूल सिद्धांत यह कि हमेंशा कमज़ोर के पक्ष में खड़े रहना मेरे स्वभाव और हड्डियों के भीतर तक रहा है
अब लगता है चूक रहा हूँ, यह मैं तो नही पर दशकों से संग - साथ जुड़े लोग शिद्दत से यह एहसास करा रहे हैं - लेखन, वाचन, काम, यायावरी, आशा, उम्मीद, महत्वाकांक्षा, सपनें, संघर्ष, बेचैनी, कुछ कर गुज़रने का माद्दा, और दिल में किसी उद्देश्य को लेकर जीने की तड़फ खत्म होती जा रही है, मन में अभी भी उमंगें है, खत्म होते शरीर और बीमारी के बाद भी जोश बरकरार है, महीने में 20 - 22 दिन घूमता हूँ इसलिये कि किसी विचार या काम से प्रतिबद्धता है जो निश्चित ही कमज़ोर और वंचितों को लेकर है पर घूमता हूँ तड़फ और बेचैनी के साथ - और इस सबसे ज़्यादा यह एहसास कराया जाना कि कि सारा 35 - 40 साल का काम सिवाय एक मूर्खता पूर्ण धेले के बराबर था, यह वणिक बुद्धि का खेल समझा नही ; इस सबसे दुख नही होता पर लगता है कि हम सब कितने बदल गए है और कितने विचित्र समय में है जब हम अपने सारे किये - धरे को तो नकारने की हिम्मत नही जुटा पाते पर दूसरों की छोटी उपलब्धियों को एक समुच्यय में बांधकर तिरस्कृत ढंग से एक झटके में ख़ारिज कर देते है
मैं आज भी अपने आप से बार - बार पूछता हूँ कि यह समय है जब उस युवा कवि के समान किसी नीलामी [Auction ] के पहले ही निकल जाना चाहिये, क्योंकि मैं अपने उसूलों पर कायम हूँ कि हर हाल में कमज़ोर के साथ हूँ
और आप किसके साथ है - पूछना तो नही चाहता पर अपनी तसल्ली के लिये पूछ लेता हूँ- इसके पहले कि भोर हो जाए और Auction Scene दोहराया जाए
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अपने सम्पर्क, अपने परिचितों के सन्दर्भ, अपने नेटवर्क से जुड़े लोगों के सम्बन्ध और अपने मित्र - परिजनों या काम से जुड़े लोगों के मोबाइल नम्बर्स किसी से शेयर मत कीजिये, बच कर रहिये उन लोगों से जिन्हें आपने बचपन में मदद की है और कभी ना कभी किसी तरह से हाथ पकड़कर चलना सीखाया या दुनियादारी की समझ विकसित करने में मदद की हो, किसी को कोई मदद मत कीजिये, लोग एहसानफरामोश होते है
आजकल संपोलियों का ज़माना है, लोग साँप है और चापलूसी में माहिर है, ये हरामखोर आपके सम्बन्धों का फायदा उठाकर आपकी ही छाती पर पाँव रखकर आगे बढ़ जायेंगें और बाकी लोग चापलूसी करके साँप और कबर बिच्छुओं की हर घटिया हरकतों को चाट कर और अपना ज़मीर बेचकर इन नामुरादों के संग निकल पड़ेंगे, बेशर्मों को जगह देना ही बेकार है जीवन में
सतर्क रहिये - ये साँप जहरीले है और आपके आसपास हैं अपनी मिठास और हँसी के साथ, इन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ लाठी से मारा जा सकता हैं और इनका सिर कुचलकर ही इनसे निपटा जा सकता है, जीवन में सम्मान - गरिमा बनाये रखनी है तो ओछे,मक्कार और भ्रष्ट लोगों से पीछा छुड़ाईये - वरना आप घुटते रहेंगें और ये सूअर कीचड़ में लौटते हुए ख़ुश रहेंगें
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चारो ओर चट्टानें थी, ऊँचे महलों की ढहती हुई खण्डित दीवारें, सूखे हुए पेड़ों के ठूंठ, पत्थरों के मकान और बोझिल - नीरस वातायन - यह गर्मियों की शुरूवात थी, फागुन के गीत गाते हुए युवा बाइक पर निकल जाते और युवतियों की टोलियाँ ट्रेक्टर पर गेहूँ काटने जाते वक्त मस्ती में गिरते - पड़ते और झूमते हुए निकल रही थी, अभी अभी फागुन गुजरा था, उनके गालों पर गहरे रंगों के निशान नज़र आ रहें है और वे मद मस्त होकर लगभग बेफ़िक्री से जीवन के सुनहरे समय को स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कर रही है, कही दूर कोलतार की सड़क के किनारे पर पंक्तिबद्ध खड़े सुबबूल, आम, नीम, सुरई, कटहल, गुलमोहर के पेड़ के नीचे सुस्ताते कुत्ते भौंकने लगते राहगीरों पर या एक छोटी सी गिलहरी सड़क पार करती तो आते - जाते राहगीर ठिठककर खड़े हो जाते और मदमस्त होकर अपनी साइकिल की घण्टी बजाने लगते - बीच सड़क पर गिलहरी ठहरती, दोनों ओर दीदे फाड़कर देखती, मुस्कुराते हुए सड़क पर खड़ी हो दो पाँवों पर नाचती, अपनी पूँछ चाटती आहिस्ते से और फ़िर सर्र से भागकर दूसरी ओर खड़े किसी पेड़ पर चढ़ जाती
सूखे पड़े जर्द पीले पत्तों में जैसे कोई वज़न नही था, किसी बेख़ौफ़ आवारा युवा की तरह वे बजते रहते और मुसाफिरों के लिए बहुधा अड़चन पैदा करते चलने में, हवा के एक झोंके से यहाँ - वहाँ उड़ते रहते, अपने भीतर वे आग लेकर घूम रहे थे और बस इंतज़ार था कि कोई मुसाफ़िर आये और एक चिंगारी लगा दें, वे धूँ - धूँ कर जलने को बेताब थे, वैसे भी सूखकर काँटा हो चुके और जड़ों तथा शाखाओं से बिछड़कर अब सिर्फ़ और सिर्फ़ जलने लायक ही बचे थे, अपने निरापद होने की पीड़ा से वे भलीभाँति वाक़िफ़ थे और उस बियाबान में कोई नही था - जो उन्हें सँवारकर, बुहारकर प्यार से गीली मिट्टी की क्यारी में धकेल देता या किसी गढ्ढे में धकेल कर पानी देता एक अंतराल पर ताकि वे उपयोगी खाद बन जाते,वे जानते थे कि जब वे बेहद कोमल थे तो उन्हें भरपूर प्यार दुलार मिला, पर जैसा कि सबकी नियति में बदा होता है कि सब छूट जाना है - पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय...
दिन चढ़ता तो गर्मी का प्रकोप बढ़ता - कुँए, बावड़ी, झीर, नदी, खाल, नाले, और पानी से भरी ताल-तलैया सब सूखकर बेढब हो गए थे, इन सबके भीतर की गन्दगी, मिट्टी, पत्थर और काई भी अपने वीभत्स स्वरूप में ऊपर आ गई थी और सबकी नजरों में चुभने लगी थी, दोपहर तक आते - आते ये सब हर जीवित के दुश्मन हो जाते और इनकी तरफ कोई मुंह भी नही करता, वो जोड़े जो प्यार में डूबकर इजहार करते यहाँ दिन - दिन भर पड़े रहते थे, मुँह मोड़कर लौट गए थे शहरों की भीड़ में मजूरी करने, जिन इलाकों में हरे लम्बे पेड़ों की छाँह तले गाय, भैंसों के रम्भाने की आवाज़ें आती, बकरियों की कर्णप्रिय घण्टियाँ सुनाई देती, मुर्गे अपनी लड़ाई से आसमान सर उठा लेते और दिनभर बांग देते - वह सब खत्म हो गया, सबको मालूम था कि यह हर मौसम की कहानी है, सब कुछ फिर लौटेगा और सुंदर होकर, पर अवसाद में डूबे मन की क्षणिक उदासी और तृष्णाओं का क्या करें कोई
बस सुकून एक ही था कि पहाड़ी की तलहटी में बसे घने जंगल के बीच स्थित शिव मंदिर के रास्ते के दूसरी ओर जब सूरज डूबता तो ऊपर से सारा जंगल शफ़क़ के साथ सिंदूरी हो जाता, टेसू के फूल लाल भक्क थे, गुलमोहर शबाब पर था - दूर क्षितिज से ज़मीन के इस हिस्से में मैं खड़ा होकर देखता रहता और फिर किसी दूर बस्ती से मांदल की आवाज़ सुनाई देती, कोई बाँका, छैल - छबीला अपनी प्रेयसी को रिझाने के लिये बाँस की लम्बी डंडी लिए मधुर तान छेड़ देता, सुरों की एक आवाज़ संगठित सुरों में तेज होते जाती और फिर नाच, हँसी के बीच सब घुल जाता जैसे जीवन सहज हो जाता है अपने भीतर चलने पर
घण्टों इस आग, लालिमा और सिंदूरी आभा को देखता रहता, चाँद कब उरूज़ पर आता और कब ढलने लगता, भोर का शुक्र तारा दिखने लगता - मुझे होश ही नही रहता पर कितने सुहाने पल थे, चारों ओर सन्नाटा, किसी धनराज के पँख फड़फड़ाने की आवाज़, टिटहरी की कर्कश चीखें, चिड़ियों की चहचहाहट, कौवे के कुबोल, चमकती उल्लू की आँखे, बाज़ की तीखी नज़रे, चमगादड़ का तेज़ी से सिर पर से निकल जाना, सरई के पेड़ों के पत्तों की सरसराहट, आम के बौर की मादक खुशबू, महुआ बीनने आये आदिवासियों का हुजूम और किसी पेड़ पर कोयल की कुहुक को पाकर कोयल ढूँढने की मेरी नाकाम कोशिशें
कितना सुखद था कि आपको कोई नही पहचानता, कोई नही टोकता,कोई नही पुकारता, कोई नही कोसता या प्रशंसा करता, मन में भी कोई द्वन्द नही, कोई इच्छा नही, उम्मीद नही और महत्वाकांक्षाओं का कोई समुद्र हिलोरें नही मारता, एक नीरव शांति है, उद्दाम वेग को शांत कर किसी स्थिर और तटस्थ भाव से बहने वाली जंगली नदी की तरह था मैं वहाँ, बस बहुत मन है कि ये सफ़र यही खत्म हो जाये, सब कुछ इसी सूनेपन में मिलकर एकाकार हो जाये, शरीर यही पंच तत्वों में विलीन हो जाये अब और मुक्ति मिल जाये - ऐसी मुक्ति के लिये दिन-रात अहर्निश भाव से प्रार्थना कर रहा हूँ इन दिनों
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महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है, अपने सपने पूरे करना और अच्छी बात है, वृहद समुदाय के लिये सोचना और उनके लिये सार्थक बदलावों की पहल करना बहुत ही बड़ी और बढ़िया बात है, पर, इस सबके लिये आप मूल्यों से और सिद्धान्तों से समझौता करते हुए, गलत लोगों का साथ देते हुए उनकी संगति में रम जाये और भ्रष्टाचार शुरू करके नित - नए कीर्तिमान गढ़ते जाए - वो भी कानून, सँविधान, और जनकल्याण के नाम पर तो - साहब आप नोबल ले लें या कुछ और हमें ना आप पर एतबार है ना भरोसा और ना आस्था - माफ़ कीजिये आप दलदल में है और हमारी प्रवृत्ति कीचड़ में लौटने की नही
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अपने सम्मान और गरिमा के साथ कभी समझौता मत करिये, यदि आपने एक बार समझौता कर लिया - तो आपको जीवन भर जिल्लत महसूस करना होगी और आप अपनी ही नज़रों में गिर जायेंगे , बेहतर है कि आप आपके साथ किसी भी तरह का मूर्खतापूर्ण या अमानवीय व्यवहार करने वाले को ऐसा सबक सीखाएँ कि वह किसी से जीवन में कभी बदतमीजी करने की हिम्मत ना करें और कानूनी रास्ते भी खुले है सबके लिये
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यह बात जीवन से जुड़ी रोज़मर्रा की दीगर समस्याओं के लिये भी है - जड़ पर प्रहार करो, यदि लगता है कि जड़ें कमज़ोर हो रही है और समस्याएँ बनती जा रहीं हैं तो उखाड़ फेंकों - तभी सब कुछ हरा - भरा रहेगा
एक ही जीवन है - अपनी मर्ज़ी और अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप जियो, हम किसी को खुश करने या किसी की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये नही जन्में हैं - बस बिना शोर - शराबे के अपना काम करो और एक दिन परिदृश्य से गायब हो जाओ, और इस पुनीत काम में कोई बाधा बनें तो उखाड़ फेंको
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हिंदी में इस समय कुछ युवा कवि उज्जैन की बासी भाँग की तरह है जो सिलबट्टे पर घिसे गए और अब ये हिंदी के युवा, निठल्ले, शोधार्थी सेटिंगबाज समकालीनों से लेकर आलोक धन्वा टाइप तक के हवस परस्त और पुरस्कार के लिये चण्डीगढ़ से लखनऊ तक फटेले गले और दारू के लालच में कश्मीर पर लिखी कॉपी पेस्ट चिन्दियों के चितेरे लोगों को दस्त करवा रहें हैं - थेथरई में उस्ताद ये मीडिया घरानों के पाले पोसे हुए युवा और दिलफ़रेब कालू, मोती, टॉमी और गोल्डी, पिंकी, चेरी और बार्बी है - जो चापलूसी की हद तक जाकर अल्प समय में सब पा लेना चाहते है पीएचडी की डिग्री हो, मास्टरी या किसी सविता भाभी टाईप पत्रिका की सम्पादकी क्योंकि इनके पास हाईटेक प्रशिक्षण है बीबीसी से लेकर डॉयचे वेले रेडियो या उल्लूटॉप और इंडिया पास्ट का और रही बात विचार वगैरह की तो ये ससुर एक दिन पशु मेला में बेंचते नज़र आएँगे सगरे के सगरे
यह होली इन घरानों, ऊँट समान प्रकाशकों और दुलत्ती मारती घोड़ियों और इन युवा कवियों की ट्यूबवेल के समान 24×7 बहती लार को समर्पित है
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बुरा मान लो भले होली है
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भोपाल में एक से एक धूर्त कवि है जो बात प्रगतिशीलों की करते है पर संगठन पर बरसों से बामण, बनिये और लाला पदों पर काबिज़ है और आपस में ही बहस, कविता, पत्रिका और वाट्सएप ग्रुप चलाकर अपनी संतुष्टि कर लेते है, या अपनी बीबी छोड़कर बूढ़ी औरतों के संग देशभर घूमकर रंग रैलियां मनाते है, इसलिये उनकी गिनती ना की जाये भोपाल में दस साल रहा और 1973 से आ जा रहा हूँ सबको भली भांति जानता हूँ
और बाकी लेखक कागज़ी शेर है 2014 के बाद किसी ने दम ठोककर कोई लेख फासीवाद , सरकार या अन्य पर लिखा हो जेल गया हो तो बताएँ, इतने दब्बू और कायर है कि किसी पोस्ट को लाइक करने से भी डरते है और बाकी तो छोड़ दो, फर्जी महान कवियों ने 200 साल पुरानी फिल्मों पर लिखना शुरू कर दिया जो सेफ प्लेस है , अपने धंधे चला रहे हैं और 11 ₹ का पुरस्कार लेने कही भी दौड़ जायेंगें
हिंदी का लेखक दरअसल में मौकापरस्त है, एक भी कवि ने नौकरी छोड़ी क्या या किसी ने पुरस्कार लेने से मना किया और इस पाप में सब शामिल है, ये धूर्त, मक्कार और फर्जी प्रगतिशील है सबके सब, कई कवियों को जानता हूँ जो प्राध्यापक है और आजतक एक लेक्चर भी लिया हो सिर्फ़ आयोजन वीर है और सालभर संगठनों, कार्यक्रमों में व्यस्त रहकर सेटिंग करते रहते है, ये एक शब्द मुँह से नही निकालते
इतने पत्रकार मारे गए या गिरफ़्तार हुए पर लेखक कही नही है यह शर्म की बात है - मैं नही कह रहा कि मरें या गिरफ़्तार हो पर ये आपस में ही चंदन टीका और नास्तिकता को बाबा विश्वनाथ खत्म करें जैसी लड़ाईयों में व्यस्त है या बूढ़ी औरतों के पीछे पागल है इन दिनों
याद पड़ता है प्रो इरफान हबीब ने विवि में पढ़ाते हुए जब प्रशासन ने तांगे बन्द कर दिए थे तो उन्होंने शहर के तांगे वालों को संगठित कर लम्बे समय तक हड़ताल की थी आज है किसी प्राध्यापक में दम, अपूर्वानन्द जैसा आदमी भी कुलपति को प्रेम पत्र लिख रहा है निज स्वार्थ के लिये , संज्ञा या अन्य एडहॉक शिक्षकों को जब दिल्ली विवि ने हटाया था तब कहाँ था यह ज्ञानी
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"जहाज जब डूबता है तो चूहे सबसे पहले भागते है या उन्हें निकालकर फेंका जाता है" - यह सर्व विदित है, पता यह करना चाहिये कि जहाज डूब क्यों रहा है, ज़िम्मेदार कौन है और आख़िर जवाबदेही किसकी है
हम हड़बड़ी में चूहों को प्रतीक बना देते है और बच जाते है - अपने अहं, दर्प, अयोग्यता और कुचेष्टाओं को स्वीकार नही करते और अंत में इतने बड़े विशालकाय जहाज के डूबने का सारा ठीकरा चूहों जैसे कमजोर जानवर पर डालकर मुक्त हो जाते है
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हर बात पर प्रतिक्रिया देना जरूरी भी नही और हर बात पर हुँकार भरने की भी ज़रूरत नही, बल्कि नब्बे प्रतिशत प्रश्नों का भी जवाब भी ना दें, जब लोग झुंझलायेंगे तो सीखेंगें वरना ज़िन्दगी यूँही तनाव में बीतती रहेगी
इस तरह जीवन में व्यवहार करने से हम सुखी तो रहेंगें कम से कम
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आज बहुत दिनों बाद उल्लू देखा, एक बाज का बच्चा, कुछ चिड़ियाओं को देखा और उनकी आवाज़ सुनी, कोयल को आम के बौर के बीच गाते हुए सुना, अलग - अलग प्रकार के बोगनवेलिया के फूल देखें, गुड़हल की नई प्रजाति देखी और गुलाब के ठेठ देशी फूल सूँघे, हरी घास पर पसरा रहा देर तक जब तक बगीचे की ढेर सारी बत्तखें मेरे पास से गुज़र नही गई ; अल्सेशियन, जर्मन शेपर्ड और देशी कुत्तों को प्यार किया और मोर को बहुत करीब से देखा पँख फैलाते हुए
एक राजसी कुर्सी पर फैलकर बैठा और फूलों की घाटी में देर तक खड़ा रहा , गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू को नथुनों में महसूस किया और एक चंदन के पेड़ को पास से निहारा , बड़े से मैदान में खड़े होकर हवेली को अतीत के संग देखा और उसके वैभव को स्वीकार किया, कुछ मनुष्यों को गुलामी करते देख श्रद्धा से झुक गया कि इनके पास अभी भी कोई विकल्प नही गुलामी के सिवाय
मैं आज जहाँ था,वही हूँ और रहूँगा अभी कुछ और घण्टे - मैं अपने आप से जूझ रहा हूँ कि सच क्या है आख़िर
प्रकृति के करीब रहकर डर भी लगता है, सन्नाटे खौफ़ में रखते है और हम अकेले रहकर अक्सर अपनी ही परछाईयों से डरते है और खासकर तब जब हमने इस घोर वीरान और निचाट एकांत को चुना हो भीड़ से हटकर
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क्रिकेट में किसी बड़ी भारी जीत की बधाई भारतवंशियों









अवांगर्द भीड़ और क्रिकेट
धन्य भाग जो तुम जीत गये और अब जश्न मना रहे हो, गाडियाँ घुमा रहे हो पेट्रोल - डीज़ल जलाकर और पटाखे भी फोड़ रहे हो, यह सब कितना सुखद है और इतने सारे यानी 140 करोड़ लोगों का कभी से समय लग रहा था लगातार, खिलाड़ियों और उनके खेल, उनकी मेहरारू, माशूकाओं और वैध पत्नियों पर घण्टों बातें कर रहे हो, उनके ड्रेसिंग रूम के भद्दे किस्से और उनके शौक पर बात करना कितना सुहाना है
हमारे भारत के युवा जोश में है, बाप का रुपया उजाड़कर पटाखे, पेट्रोल, समय और सब इस्तेमाल कर रहें हैं उन खिलाड़ियों के लिये जो कभी मुस्कुराकर भी देखेंगे भी नही इन्हें कभी - नामुरादों एक बार अपनी बेरोज़गारी, बाप के पसीने, माँ के माथे की लकीरें, बहनों के सूने हाथ, छोटे भाइयों की पढ़ाई का खर्च, गिरवी पड़ा खेत, सूखे खलिहान और रसोई में पड़े खाली कनस्तर के बारे में भी सोच लेते और फिर इकठ्ठे होते राजवाड़े पर और संकल्प करते होली ना सही असली दीवाली मनाने का
कौन कोहली, रोहित या अन्य खिलाडी - इस ट्रॉफी के रुपयों से तुम्हें एक चवन्नी भी दे देगा या घर में धूल साफ करने को, बल्ला चमकाने को, या ड्राईवरी पर रख लेगा अपनी या बाउंसर बना लेगा निज सुरक्षा में - इतने सारे मैच देखने में जो बिजली जली, जो डेटा खर्च हुआ उसमें कितना रूपया लगा, कभी सोचा कि बूढ़े बाप के कंधे कब तक ये बोझ ढोते रहेंगें, तुम तो निठल्ले हो, एक समय की सब्ज़ी खरीदने की औकात नही, कोई कौशल और दक्षता नही सिवाय ठुल्लागिरी के, खेत में आलू उखाड़ना भी नही आता तुम्हें बाकी तो छोड़ दो - मुहल्लों में देर रात तक पराए धन पर डीजे बजाकर गुंडागर्दी करना आता है उस नालायक नेता के लिये जो सिर्फ़ वोट की भाषा समझता है और तुम्हारा इस्तेमाल करता है
खुश होना जायज़ है एवं फ़क्र की बात ही है, पर कभी सोचना कि उन 12 - 15 खिलाड़ियों को चीयर अप करने में तुमने कितना समय बर्बाद किया, बाप के पसीने की कमाई को उजाड़ दिया और इस सबसे तुम्हें क्या मिलने वाला है - दो कौड़ी के घटिया चीयर लीडर भी नही बन पाये कि पुट्ठे हिलाकर दो रुपया ही कमा लेते या स्टेडियम में मूंगफली बेचने लायक भी नही बन पाये तुम तो
मीडिया तो अभी 15 दिन पोस्टमार्टम करेगा इसका, पर तुम क्या करोगे, 20 - 25 ख़िलाड़ियों की बात करने से तुम्हें क्या हासिल होगा, अपना सोच लो - कब तक मन्दिर - मस्ज़िद, हिन्दू - मुस्लिम, क्रिकेट, चुनाव और बाकी राजनैतिक प्रपोगेंडा में अपना जीवन खपाते रहोगे और इस सबका हासिल क्या, किसी खिलाड़ी को देखा क्या दंगे - फ़साद में या रैली में धर्म के धंधे की, या आरक्षण की मांग करते या गांधी गोडसे या अम्बेडकर नेहरू करते या संविधान पर बकर करते हुए - कम्बख़्तों इतनी भी समझ नही तुम्हारी कि सारे लोग तुम्हें यूज़ कर रहें हैं
तुम्हें यह सब करके यदि कोई नौकरी, कमाई का जरिया या कोई ट्रॉफी मिलें तो मुझे भी बताना, या कोई घर चाय पीने बुलाये तो बताना, यह सब करना आसान है बजाय मेहनत करने के, सच कहूँ तो अब 58 का हो रहा तो मेहनत होती नही गुरू
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मार्च निवेश का माह है और हममें से अधिकाँश लोग टैक्स बचाने के लिये या बचत के लिये या भविष्य को सुखद बनाने के लिये यहाँ - वहाँ रुपया फँसाने की जुगत में रहते हैं, कम - से - कम वो लोग जिनके पास नियमित आय है, जिनकी बचत हो रही है, जो सिर्फ़ रुपये के फेर में लगे रहते हैं, सही या भ्रष्ट तरीकों से अकूत संपत्ति कमाने में सक्षम है और एक राशि अपने दैनन्दिन खर्चों से बचाकर कही रख सकते हैं
पर क्या कभी आपने अपने आप पर निवेश करने का सोचा, बाज़दफ़े हम यह समझ ही नही पाते और घर - परिवार, खानदान से लेकर वृहद समुदाय में बुजुर्गों या बीमार लोगों को देखते है जो एक उम्र में आकर या व्याधियों से घिरकर हताश हो जाते हैं, इलाज के लिए अपनी पूंजी की पोटली से रत्ती - रत्ती सहेजा धन उठाकर कही दे देते हैं तो पछतावे और ग्लानि में आकर हिम्मत हार जाते है और अंततः मृत्यु को प्राप्त होते है
मुझे लगता है कि उम्र, समय, व्याधियों का भय छोड़कर या इंतज़ार छोड़कर हमें अपने पर निवेश करना आरम्भ करना चाहिये - यह अपने अनुभव से इसलिये कह रहा हूँ कि हममें से अधिकाँश लोग अपने - आप पर ध्यान नही देते - घर, परिवार, समाज या चल - अचल संपत्ति के फेर में इतने मजरूफ़ हो जाते है कि जब तक स्वयं पर निवेश के निर्वाह का समय आता है - हम किसी लायक नही रहते और हमारा सारा धन या परिलब्धियाँ सिर्फ़ दूसरों के लिये कमाई या विरासत की एक गठरी बनकर रह जाती है
यदि आप सच में अपनों के प्रति चिंतित है तो आपका एकदम ठीक रहना यानी खुश रहना ज़रूरी है और यह ख़ुशी आपको दस रुपये की फुल्की खाने, एक शर्ट खरीदने से, एक छोटी सी सुकून भरी यात्रा करने से, एक क़िताब खरीदने से, एक कॉफी पीने से, किसी महंगे होटल में भोजन करने से, एक जंगल में अभ्यारण्य घूमने से, किसी दोस्त के मिलने से या कोई फ़िल्म देखने से मिलती है - तो वह खर्च कर डालिये, इसके अलावा यदि विपश्यना करने, रोज घूमने जाने से, योग करने से कोई गीत - संगीत - वाद्य यंत्र सीखने से ख़ुशी और संतुष्टि मिलती है - तो खर्च कर डालिये वरना आप हताशा और तनाव की गर्त में जाते जायेंगे, किसी समय या शुभ बेला का इंतज़ार मत करिये, कोई मनुहार लेकर नही आयेगा आपके पास और महत्वपूर्ण यह है कि किसी खुशी की प्रत्याशा में मत बैठिए - बस उठिए और अपने आप पर निवेश करिये - यकीन मानिये यह ख़र्च नही बल्कि अपनी बेहतरी के लिये किया गया निवेश है
एक ही ज़िन्दगी है मित्रों, हम रोज़ हर उम्र के लोगों में मौत, आत्महत्या, नैराश्य और दारुण दुख की कहानियाँ सुन रहें हैं, असँख्य मौतें देख रहें हैं और मूल में जाकर देखता हूँ तो लगता है उस शख़्स ने सबके लिये बहुत कुछ किया, पर अपने आप पर निवेश नही किया और जीवन के सुखों का लाभांश लिये बग़ैर ही चुपचाप गुज़र गया
मार्च निवेश का महीना है, बदल डालिये अपना जीवन, काम, और उन सब लोगों को हकाल दीजिये जो आपके सपनों पर ग्रास बनकर बैठे है, जिनको डाह है आपसे, आपकी जीवन पद्धति और बिंदासपन से, ये लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ ईर्ष्या, अपने असफ़ल आधे - अधूरे प्रेम, और दूसरों के जीवन में जहर घोलते हुए ही एक दिन मर जायेंगे - ये वो लोग है जो कुंठाओं, अपराध बोध और अवसादों में जियें और सबको घसीटकर उसी कीचड़ में ले जाना चाहते हैं - जहाँ ये शूकरों की भाँति जी रहें है
अपने आप पर निवेश करिये, नया सीखिए - समय, धन और ध्यान इस निवेश पर खर्च कीजिये - जीवन में नया सवेरा मिलेगा
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हिंदी में युवा कवि जो अभी ठीक से उगे भी नही है, जुम्मे - जुम्मे दो दिन घर छोड़कर आये नही लिखने पढ़ने, पॉटी धोना सीखें नही - होस्टल में माँ - बापू की याद में चिलम फूँकने लगते है, मैगी तक बनाना नही जानते - उनकी महत्वकांक्षी योजनाएँ सुनकर मन गार्डन हो जाता है या नए लगे माड़साब जो नौकरी पा गये वो अभी भी छलिया वेश धारण कर किसी केंद्रीय विवि में घुसने को हर तरह की मक्कारी और घाघपन से गुज़रने को तैयार है
किताब आ जाये, पोर्टल पर छप जाये, किसी भी नत्थूलाल या घीसाराम, ग्यारसी बाई विवि के बीए - एमए के कोर्स में कविताएँ लग जाये, दुनिया भर के चोर उचक्कों से लेकर मरे - खपे असाहित्यकारों तक के जन्मदिन, गोद भराई, सूरज पूजा से लेकर जनेऊ या श्मशान के अंतिम क्रिया कर्म और फ़िर श्रद्धांजलि कार्यक्रमों में इनका पाठ हो जाये - वर्चुअल नही फ़िजिकल, फिर लोग चर्चा करने लगे, इनकी कविताओं की समीक्षा हो जाये और दस - बारह पुरस्कार बीए, एमए, पीएचडी के पहले मिल जाये
अरुणाचल प्रदेश के तवांग से लेकर गुजरात के द्वारका तक और कन्याकुमारी से लेकर लद्दाख तक किसी के भी पोतड़े - लँगोट धोने ये चले जाएंगे - करें भी तो क्या, बेचारे आत्म मुग्धता के शिकार हैं - जैसा सामने देख रहे हैं अपने ध्वस्त होते किलों को वैसे ही ये भी बनना चाहते हैं और हिंदी के परिदृश्य से तो हम अच्छे से वाकिफ हैं इस समय
इस सबका उद्देश्य जानते है ना - बूढ़े खब्ती, सम्पादक या विवि के घाघ और महामक्कार माड़साब लोग्स की नजरों में चढ़ जाये, इनका नाम सुनकर कोई छरहरी सी प्राध्यापकीय वाली नौकरी आकर इनका वरण कर लें, पीएचडी का वाईवा सेट हो जाये - और तो और परीक्षक विषय के बारे में प्रश्न पूछने के बजाय इनकी दस - बारह कविताएँ सुन लें डिफेंस वाले दिन और काव्य पाठ के अंत में इन्हें बधाई देकर गले से लगा लें
और इस सबके लिये साला कुछ भी करेगा - वुडलैंड के जूते पहनने - खाने से लेकर अलित - दलित, अगड़ा - पिछड़ा, ब्राह्मण, साधु - संत - धूर्त शिरोमणि के फोटू, कुम्भ से लेकर भगदड़, ब्यूरोक्रेट्स से वफ़ा- बेवफ़ाई, यात्राएँ, ठहराव, पुस्तक मैले, कुम्भ, प्रवचन, पैरवी या और सब - बस महान बनने की दौड़ फ़ीकी नही पड़नी चईये
है ना मित्रों, और हम बबुआ लोगन जबरन ई बापड़े योगी - मोती को गलियाते हेंगे
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हमें अंततः सब भूलना ही होगा, इसलिये नही कि यही किस्मत में बदा है, इसलिये नही कि भूले बग़ैर कुछ होगा नही, इसलिये भी नही कि हमें आगे की राह पकड़ते - पकड़ते अपने प्रारब्ध की ओर बढ़ना है, बल्कि इसलिये कि हमारे पास अंत में सबकी सुहानी, मधुर और ऊर्जस्वित स्मृतियाँ रहें - ताकि हम क्लैश, द्वन्द, अवसाद, तनाव और अपने सारे किये अपरराधों के लिये सच्चे मन से अपने आपको माफ करके और सब भूलकर शांत चित्त से अपने आप से निर्द्वन्द, सगुण, निष्पक्ष और आध्यात्मिक रूप से एकाकार हो सकें - कोई छटपटाहट, कोई जिज्ञासा, कोई प्रश्न, कोई आशा और कोई भी भाव ना रहें किसी के भी प्रति, और उन सारी स्मृतियों को भी माया समझकर तज दें, अब बस देह के परे देखना आरम्भ कर दें, एक शून्य उपजने लगे और लगे कि बहुत कर लिया, बहुत जी लिये, बहुत सँजो लिया, अपने - अपनों के लिये सब पा लिया - अब सब छोड़ने का समय है और हर दिशा से उठने वाले प्रश्नों, संशयों, मान-अपमान और तोहमतों को छोड़कर उन्मुक्त भाव से मुक्त होने का प्रयास करें
मुझे तो यही सच इस लम्बी धुँध में नज़र आया है और लगता है सारी किस्म की होड़ और दौड़ को त्यागकर जो चल पड़ा हूँ वही सत्य है - बाकी तो अब जो संशय में डालता है तो लगता है कि सारे लोग एक कुचक्र के बवंडर में फँसे है और लगता है कि सब हैदस में है और मुक्ति की कामना लिए निकल पड़े है, पर जंज़ीरें नही छुड़ा पा रहें है अपने पाँवों की जो विभिन्न प्रकार की है - रँगीन, चमकीली और दिलफेंक
शांति - शांति - शांति
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सब कुछ उजड़ जाने के बाद जो घाव रह जाते है वे कभी नही मिटते और उन्हें मिटना भी नही चाहिये, नही तो हम कभी भी फिर से खड़े नही हो सकेंगे
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ज़िन्दगी की दौड़ में हम सफलता - असफ़लता और जीत - हार के पैमानों के बीच इतने गुत्थम-गुत्था हो जाते है कि हम भूल ही जाते है कि हमें कभी अपने-आपके के बारे में भी जजमेंटल होकर ठहरकर, विचारकर सोचने की ज़रूरत है - अपनी कमजोरियों, अक्षमताओं और अकुशलताओं के बारे में चिंतन करने की और कुछ नया सीखने की ज़रूरत है - हम हर बार असफलताओं का ठीकरा दूसरे के माथे पर नही फोड़ सकते और यह बेहद कायराना भी है
जीवन में मेरा निज अनुभव यह है कि जीवन की अधिकाँश नाकामियों के ज़िम्मेदार हम खुद है और बहुत आसानी से किसी को भी बलि का बकरा बनाकर हम खुद को मुक्त कर देते हैं और सारी व्याधियों और परिस्थितियों से परे हो जाते है, यह सिर्फ़ इसलिये होता है कि हम अपनी ही नज़रों में गिरना नही चाहते, क्योंकि जिस दिन हम अपने-आपसे आँख नही मिला पाये तो जीयेंगे कैसे - और सबसे आसान है किसी और पर दोषारोपण करके बरी हो जाना
बहुत सारा जीवन यही सब करते बीत गया, और जब आज अपना ही लेखा - जोखा लेकर बैठा हूँ तो पाता हूँ कि बीस पच्चीस गोलियाँ खाये बिना एक दिन नही गुजार सकता, दिन में चार बार इंजेक्शन ना लूँ तो अगली सुबह का सूरज तो दूर आज का ही सूर्यास्त नही देख सकूँगा, और दोष दूसरों को दूँ यह बेमानी है और एक तरह का पलायन भी - इसलिये मैं अपने में झाँकता हूँ सबसे पहले और पाता हूँ कि इन सारी कमजोरियों की जड़ तो मैं हूँ , अपने आसपास ढेरों लोगों को देखता हूँ जिनके दिन की शुरुवात काढों और गोलियों से होती है पर वे दिनभर ज्ञान की पूड़ियाएँ बाँटते रहते है - अरे अपना जीवन तो पहले सुधार लो पहले
बेहतर है समय रहते इससे मुक्त हो जाये और कम-से-कम अपने लिए अपने ही मन में ही सहज और खुले मन से स्व-संस्तुति [ Confession ] कर लें तो आगे के रास्ते थोड़े तो साफ़ हो सकेंगे और सफ़र आसान होगा और अपने कमतर मान लेना, अयोग्य मान लेना या अकुशल मान लेना कोई गुनाह नही है - बल्कि यह ज़्यादा बड़ा और बहादुरी का काम है - इससे अपने - आप पर विश्वास और भरोसा बढ़ता है और चुनौतियों से भागने के बजाय उनसे सामना करने की हिम्मत बढ़ती है
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सब शांत, स्थिर, सुकून, सुख और भी ऐसा कुछ जिससे जीवन में सन्तोषी होने या सन्तुष्ट होने का भाव जागृत हो वह सहना भी बहुधा मुश्किल होता है
हम सब मनुष्य मात्र असल में द्वन्द, ऊहापोह, संघर्ष और असंतोष के आदी है और इसी में अपनी और जीवन की पूर्णता देखते हैं
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कोई रंग पसन्द नही था मुझे मोगरे को देखता तो सफ़ेद पसन्द आता, गेंदे को देखता तो पीला भाने लगता, गुड़हल देखा तो चटख लाल मन को भा गया, फिर गुलाब देखा तो गुलाबी से इश्क हो गया, मौलश्री, पारिजात, शिउली, सप्तपर्णी, शेवन्ती, प्राजक्ता, परिमल, केवड़ा, बोगनवेलिया, रात रानी, मधु मालती से लेकर डेहलिया, बारहमासी और तमाम तरह के फूल देख लिये
पहले अपने ही शहर में लगने वाली पुष्प प्रदर्शनी देखता था और काँच के ग्लास या शीशियों में बन्द फूलों को देखता जो दो दिन में ही कुम्हला जाते, तो दुख होता था, फिर अपने कमरे में छोटे गमलों में फूल लगाना शुरू किए, फिर छत पर और फिर घर की खाली पड़ी थोड़ी सी जमीन पर, हर मौसम में फूल आने लगे - पौधे बड़े होते गये और पेड़ों में तब्दील हो गए - गुलमोहर, पलाश, नीम, कढ़ी पत्ता, पीपल, चम्पा, राखी, आम, अमरूद, अशोक, बबूल, नीलगिरी और वे पौधे जो छोटे थे बड़े होते गये - एक दिन ऐसा आया कि घर के हर हिस्से में फूलों की सुवास हर मौसम में बनी रहती, टेसू के जलते फूल और लाल भक्क गुलमोहर गर्मी में जैसे दूर से जलते दिन के चिराग होते, नीलगिरी की खुशबू या निम्बोली की महक, अमरूद, आम और चम्पा की सुवास या सप्तपर्णी की मदहोश कर देने वाली खुशबू मानो जान ले लेती थी
ना घर के भीतर आने का मन करता और ना कही भटकने का, जमीन पर रँग - बिरँगे फूल, थोड़ी ऊँचाई पर झूमती बेलें, हवा में इठलाती डालियाँ और किसी आकाशदीप से लटकते फूलों के गुच्छे और इन सबके साथ हरेपन के शेड्स लिए हुए पत्तियों के प्रकार, शुष्क और कमजोर तने के बनते - बिगड़ते रूप इन सबके बीच जब वासंती हवाएँ चलती, फाग के बीच मन मदन होने लगता तो कि अब और क्या चाहिये जीवन में, गर्मी में सब कुछ नष्ट हो जाता - चातक की तरह से आसमान को टोहता रहता तो अमरबेल जो पूरी बेशर्मी से यहाँ - वहाँ अशोक की डालियों पर बिखरी रहती उसकी विषैली बदबू भी संतृप्त कर जाती - लगता था खाना पीना और काम छोड़कर यही पसरा रहूँ और जीवन चट्ट से बीत जाये किसी फूल की भाँति ही जीवन हो छोटा, मादक और अपने आप में मस्त - किसी को अपने होने का सबूत ना देना पड़े, ना खिलने के लिये चिरौरी करनी पड़े और सिर्फ़ अपने लिए क्षण भर जीकर खत्म हो जाये और किसी को रत्तीभर भी फर्क ना पड़े, बल्कि कोई नोटिस भी ना लें खिलने और नष्ट होने का - सारा मधु तितलियों को सौंप जाऊँ या मधुमख्खियों को जो शहद की अमृत बूंदें ही बनायेंगी फूल के रस से, भँवरोँ की गुनगुन ही कानों में पड़े बजाय किसी चकल्लस के
अब मुझे सारे रंग पसन्द थे, कोई कहता कि एक फूल का नाम लो तो मैं चुप हो जाता - क्योंकि मेरे पास एक नही, दर्जनों नाम थे, मैं किसी एक रंग को नही चुनता था - क्योंकि मेरे पास इंद्रधनुष से ज़्यादा रंगों के विकल्प थे, बल्कि इतने रंग मैंने घूम - घूमकर देख लिये थे, इतनी खुशबू मेरी घ्राणेंद्रियों से मेरे जिस्म में समां गई थी कि मैं अपनी ही खुशबू भूल चुका था - मेरे लिये हर शख़्स एक फूल था, गुल था, शाख था, खुशबू था और उतना ही जरूरी - जितना किसी जंगल में एक पेड़ या घास का तिनका, हर शख्स एक मुकम्मल रंग था और अब किसी एक रंग में रंग जाने का जीवन में फिर भी कोई अर्थ भी शेष नही था
फिर भी उसने पूछा था कि - "तुम्हें कौन सा रंग पसंद है", तो मैंने तुरंत कहा था - "नीला, इसलिए नीला - क्योंकि उस नीले आसमान के नीचे ही दुनिया के सारे रंग, सारे फूल, सारी खुशबू है, और सारी हवाएं मौजूद रहती है और उस आसमान को पार करके बाहर जाना किसी के बस में नहीं है" - हालांकि विज्ञान तो यह भी कहता है कि आसमान नीला नहीं है, परंतु क्योंकि नीला आसमान हमारा विश्वास और आस्था है और हमें सदियों से यही सिखाया गया है कि आसमान नीला होता है - इसलिए मुझे नीला रंग बहुत पसंद है, मरने पर नसों के साथ काया भी नीली पड़ जाती है, जिंदगी का जहर पीते - पीते हम इतने मजबूत हो जाते हैं कि हमारे भीतर का लाल खत्म हो जाता है और वह नीले में तब्दील हो जाता है - इसलिए मुझे नीला रंग बहुत पसंद है और जब भी मैं कोई नीली चीज देखता हूं तो मुझे सब कुछ नीला - नीला - नीला नजर आता है - नदियाँ हो, समुद्र हो, पहाड़ हो, क्षितिज या फिर अपनी आंखों का पानी - मुझे सब नीला नजर आता है - जब तक पूरा नीला ना पड़ जाऊँ तब तक जीने का हौंसला बना रहे यह मैं अनजान शक्ति से प्रार्थना करता हूँ, मज़ेदार यह है कि कहते है - वह शक्ति भी नीले आसमान के पार ही है
क्या तुम्हें किसी नीली आँखों वाली लड़की की कहानी मालूम है या क्या तुम्हें नीला रंग पसन्द है
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