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MAn Ko Chiththi, Rahi Dumarchir's book, and other Posts of 26 and 27 Nov 2024

किताब बेचने के लिये कुछ भी करेगा, करो - करो पर यह भी बता दो कि पढ़ कौन रहा, 21 - 22 मिनिट के वीडियो किताब के बारे में डाल रहें हिंदी के कवि लोग, और बाबा आदम के ज़माने के कोट या दीमक लगे जैकेट पहनकर, पोपले मुँह से लगातार लेपटॉप पर पढ़ते हुए, एकदम बग़ैर रूके किसी की लिखी कॉपी - पेस्ट स्क्रिप्ट पढ़कर
गुरू जी, ना कविता बिकेगी ना क़िताब, रोज़ सुन्नर - सुन्नर फोटू भी चैंप दो, गली - मोहल्लों से लेकर छोटे बच्चों को खुद की कविताएँ पेलने के साथ अपने यार - दोस्तों की कविताएँ सुनवा दो और अपना प्रसार भारती चैनल खोल लो - पर क़िताबें ना जायेगी
इन दिनों माड़साब नाम की प्रजाति तो गज़ब के नवाचार कर रही है क्लास से लेकर फेसबुक पर, होगा क्या इस सबसे
थोड़ा समझो यारां, यह काम प्रकाशक का है तुम क्यो उसके सारे - "योग क्षेम वहांमयमहम " अपनी छाती पर लेकर बैठे हो LIC के मोनो की तरह
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#एनडीटीवी #NDTV से ज़्यादा कोई आज तक संसार में नीचे नही गिरा होगा, गौतम अडानी के चरणों में गिरकर इस मीडिया समूह ने जो नीचता की हरकतें की है उससे घृणा ही नही हुई बल्कि इसमें काम करने वाले एंकर्स और समूचे स्टॉफ पर सवाल है जिनमें ना रीढ़ की हड्डी है और ना ही ज़मीर
बेहद शर्मनाक और अब सम्बंधित नियामक आयोग और प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को स्वतः संज्ञान लेकर इस संजय पुगलिया से लेकर सड़कछाप एंकर्स के ख़िलाफ़ कार्यवाही करना चाहिये
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जो सब जानते है, जो हर काम में दक्ष एवं कुशल हैं, जिन्हें हर बात की जानकारी हैं, जो हर तरह के विषय पर अपडेट्स से लैस है हर वक्त, जो हर वक्त नैतिकता, ईमानदारी और पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटते है, जो हर वक्त मूल्य, रिश्तों और संवेदनशीलता की बात करते हैं, जो अति सम्प्रेषणीय होकर हद दर्जे तक अंतर्मुखी हैं - उनसे बहुत ज़्यादा बचकर रहने की ज़रूरत है, हम मराठी में घुन्ने कहते है इन्हें और ये बेहद खतरनाक होते हैं, मेरी दादी - नानी और माँ इस शब्द को लगभग गाली की तरह इस्तेमाल करती थी
आत्ममुग्ध, आत्मप्रचार में लीन, प्रशंसा के भूखे, हर जगह विजिबिलिटी के उत्सुक और इसके लिये कुछ भी कर गुज़रने को तत्पर लोगों से जितना दूर रह सकते हैं - रहिये, बहुत सुकून मिलेगा , वरना ये लोग आपको आपके ही जीवन से धकेलकर खुद काबिज़ हो जायेंगे आपके सपनों और विचारों पर और आपका जीना हराम कर देंगे - साहित्य, संस्कृति, मीडिया, फ़िल्म जगत और समाज कार्य के क्षेत्र ऐसे विषाणुओं से भरे पड़े हैं
ऐसे लोगों को ख़ारिज कर दीजिए या अनावश्यक महत्व मत दीजिये जीवन में - पुनः कहता हूँ एक ही जीवन है, किसी से तुलना मत करिये - प्रकृति में मेरे जैसा कोई दूजा ना है और ना जरूरत है - सहोदरों या जुड़वा में भी बहुत भिन्नता होती है, अपनी ज़िंदगी की खुशी, प्रसन्नता और अपने जीवन - मूल्य अपने हाथ में रखिये, चाहे तो छोटे - छोटे सिद्धांत बनाइये, अपने निर्णय खुद करिये, अपनी गति की सीमा खुद निर्धारित कीजिये, अपने क्षितिज - नदी - पहाड़ और सुरंगें खुद बनाईये ; डरिये मत - हो सकता है इस सबमें ढेरों गलतियाँ ही होंगी ना - होने दीजिये, आपको कौनसी मैकआर्थर फेलोशिप लेनी है या नोबल पुरस्कार के लिए अनुशंसा लिखवानी है - आपका जीवन और आपका समय विशुद्ध आपका है, एक नही - लाख गलतियाँ कीजिये - उनसे सीखना है या नही - यह भी आप ही तय कीजिये
विनम्र अनुरोध यह है कि एक समय या उम्र के बाद किसी को मौका ना दें कि वो कमेंट करें, आपको ज्ञान देकर मार्ग प्रशस्त करने का भ्रम पालते हुए श्रेय लें और परम ज्ञानी बनें, हम सबकी एक व्यक्तिगत Constituency होती है और इसमें किसी को प्रवेश की इजाज़त नही
एक स्थाई बोर्ड ठोंक दें बगैर भय कि कोई क्या कहेगा
"Trespassers not allowed"
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पगडंडी हो जाती हो तुम
आज
फिर से तुम पर
नही लिख पाया कुछ
लिखना शुरू करूँ
तो जंगल में भागती
पगडंडी हो जाती हो तुम
भाई, संग्रह अभी मिल गया है, पढूँगा और गुनूँगा सारी कविताएँ
असुर हेम्ब्रम, एदेल किस्सू, हिम्बो कुजूर, अमित मरांडी जैसी कविताएँ पढ़कर भीग गया हूँ - जल - जंगल - ज़मीन और अस्मिता की लड़ाई को आज देखना और पढ़ना जहाँ एक ओर कौतुक से भर देता है वही आज यानी 26 नवम्बर को जब देश संविधान के 75 गौरवशाली वर्ष मना रहा है तो पूनम वासम , Anuj Lugun से लेकर वाहरू सोनवणे, दयामती बारेला, सुधा भारद्वाज, बेला भाटिया, सोनी सोरेन, स्व इलीना सेन और वे सब साथी याद आ रहें है जो आज भी आदिवासियों की इस देश में लड़ाई लड़ रहे है और उनके वाज़िब हक़ दिलवाने को प्रतिबद्ध है - दुर्भाग्य से प्राकृतिक संसाधनों पर भी धनपशु कब्ज़ा कर रहें है - बगैर यह जाने कि कितना नुकसान हमने कर दिया कि प्रकृति का चक्र ही बदल दिया, छग से लेकर तमाम आदिवासी बहुल राज्यों में सत्ता की पहुँच से दूर ये लोग आज भी गरिमामयी जीवन नही जी पा रहें हैं जिसकी बात संविधान में है - ऐसे में युवा रचनाधर्मियों का लगातार एक अभियान की तरह से अपने मोर्चे पर लड़ना और वे सारे मुद्दे सामने लाना प्रशंसनीय है फिर वो शिक्षा का, बच्चों की हँसी का हो या हसदेव जैसे जंगलों का हो
सतर्क उन लोगों से रहने की है जो आदिवासी मुद्दों और सहजता को राँची, दिल्ली से लेकर इंग्लैंड या अमेरिका में जाकर बेच रहे हैं और मोटी फेलोशिप्स जुगाड़ कर नोएडा या गुरूग्राम में बैठकर जाम छलकाते फिरते है
अनुज तुम्हारी कविताओं में नदी, झरने, पहाड़ और जनजीवन जिस तरह से आता रहा है वह अकल्पनीय है, दुमका कभी आया नही, पर Vinay Saurabh ने रेल पटरियों के बहाने, दोस्त - पिता, रद्दी वाले से लेकर बाकी चरित्रों पर "बख्तियारपुर" में लिखा है और तुमने जो लिखा है इन सुंदर जगहों के बारे में - उससे लगता है कि यह शहर - यह इलाका बेहद अपना है, गुमला - लातेहार, नेतरहाट, राँची और पश्चिम सिंहभूम तक जाता हूँ तो सरई के फूलों को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ, इस संग्रह में भी इसका जिक्र है
बहुत शुभकामनाएँ और आशीष कि खूब रचो, यश बना रहे

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